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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

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गुरुवार, 17 मार्च 2016

उमंग के तिहार होरी


हर समाज के अपन सांस्कृतिक विरासत होथे । ऐला जीये मा अपने अलग मजा होथे । इही विरासत मा हमर देश के प्रमुख तिहार हे होली । ये होली ला हमर छत्तीसगढ़ मा होरी कहे जाथे । अइसे तो छत्तीसगढ़ के हर परब  मा हमर लोकगीत हा परब मा चार चांद लगा देथे फेर होरी के फाग गीत के बाते अलग हे ।  होरी तिहार के फाग मा झुमरत नाचत संगी मन ला देख के अइसे लगते होरी हा गीत अउ उमंग के तिहार आय । छत्तीसगढ़ मा ये तिहार प्रमुख रूप ले दू ढंग ले मनाय जाथे पहिली मैदानी इलका म, अउ दूसर पहाडी इलाका (बस्तर अंचल) म । होरी तिहार सबले जादा दिन ले मनाय जाने वाला तिहार आय । माघ बदी पंचमी जेला बसंत पंचमी के नाम ले जाने जाथे हे, ले शुरू होथे अउ चइत महिना के बदी तेरस तक चलथे । ये बीच मा फागुन के पुन्नी के दिन होलिका दहन करके चइत बदी एकम के होरी तिहार मनाये जाथे । एखर बाद चइत बदी पंचमी के रंग पंचमी फेर चइत बदी तेरस के होरी तेरस मनाये के परम्परा हे ।
बसंत पंचमी के दिन बास मा झण्ड़ा लगा के विधिवत पूजा पाठ करके गड़ाय जाथे येला होली डांग कहे जाथे । होली डांग गड़ते गांव-गांव मा नगाड़ा अउ टिमकी झांझ के धुन मा फाग गीत बोहाय लगते अउ जवान अउ सीयान मन हाथ लमा लमा के गाय लगथें -
‘‘चलो हां सरस्वती, उड़ के बइठव जिभिया मा .....
उड़ के बइठव जिभिया मा, सरस्वती उड़ के बइठव जिभिया मा ‘‘

‘‘पहिली गणेश मनाबो, गणपति महराज, गणपति महराज....‘‘
छत्तीसगढ़ी भाषा हा अवधी अउ ब्रज भाषा संग केवल बोली भर के संबंध नई रखय बल्की लोक सांस्कृतिक संबंध घलोक रखथे । ब्रज मण्डल के होली के पूरा प्रभाव हमर छत्तीगढ़ मा देखे ला मिलथे येही कारण के हमर फाग गीत म कृष्ण राधा के रास लीला के चित्रण दिखथे -
‘दे दे बुलउवा राधे को,
अरे हां दे दे बुलउवा राधे को ।‘‘

‘‘मुख मुरली बजाय, मुख मुरली बजाय,
छोटे से श्याम कन्हैया ।‘‘

येही प्रकार रोज-रोज फाग गीत के बयार फागुन पुन्नी तक बोहाथे । फागुन पुन्नी के पूजा पाठ करके होली डांग ला जलाये जाथे येही ला होलिका दहन कहे जाथे । होलीका दहन के पहिली पूरा एक डेढ़ महिना तक गांव के लइका मन होली डांग मा लकड़ी-छेना सकेल सकेल के डालथें । अइसन टोली ला होलहार कहे जाथे । होलीका दहन के बाद गांव के मन हा जलत होली मा अपन घर ले लेगे छेना-लकड़ी डालथें अउ चाउर छिछत होली डांग के चारो कोती घूमथें ।
ये रीति-रिवाज के अपन धार्मिक मान्यता होथे । अइसे माने जाथे के भक्त प्रहलाद के बुआ होलिका, जेला आगी म नई जले के बरदान मिले रहिस, प्रहलाद ला जिंदा जलाये के उद्देष्य ले के जलत आगी मा प्रहलाद ला लेके बइठ गे, फेर प्रहलाद ला कुछु नई होइस अउ ओ होलिका जर के मरगे । येही ला कहे गिस बुराई मा अच्छाई के जीत, असत्य म सत्य के विजय । येही कारण होरी के दिन बुराई ला छोडे़ के सौगन्ध ले जाथे ।
अंधविष्वासी अउ कुरीति वाले मन होलिका दहन के बेरा गारी देवत बके तक लगथे । अउ कुछ मन गुरहा फाग (अष्लील फाग) गाय लगथें । इंखर मन के तर्क होथे आज भर तप लेथन तहां अइसन बुराई नई करन । सियान मन बताथे पहिली ये दिन फाग मा नचाय बर किसबीन (बेसिया) घला लावत रहिन । फेर अब शिक्षा के प्रचार होय ले जागृति आय हे अउ अइसन कुरीति मा तारा लग गे हे ।
होली दहन के दूसरईया दिन चइत एकम के पूरा देश के संगे संग होरी मनाये जाथे रंग-गुलाल, पिचकारी मा गांव के गांव समा जाथें । मनखे मनखे मा रंग अइसे चढथें के मनखे मनखे एके लगे लगथे ।  बड़े मन एक दूसर के चेहरा मा गुलाल लगाथें ता लइका मन पिचकारी मा रंग भर के दूसर ऊपर डाले लगथे । येहू मेरा कुरीति के करिया करतूत देखे ला मिलथे कुछ बदमाश सुभाव के मन हा लद्दी-चिखला, पेंट पालिस ला दूसर के ऊपर थोप देथे । अइसे माने जाथे ये दिन शरारत करे जाथे अउ शरारत सहे जाथे । येही शरारत मा मनखे मन डूबे फाग के धून मा झूमे लगथें । होली मा भांग ले बने शरबत, मिठाई, भजिया खाय-खवाय के कुरीति आज ले चलन मा हे । ‘जादा मीठ मा किरा परे‘ कहावत हा होरी मा सार्थक दिखते अतका मजा, अता उमंग, गीत-नाच, रंग-गुलाल, खाना-खजाना के झन पूछ । फेर दू-चार ठन कुरीति के दुर्गण किरा बरोबर चटके हवय । जइसे भाजी ला अलहोर के खाय मा मजा आथे ओइसने ये तिहार के कुरीति छोड़ दे जाये ता मजे मजा हे ।
होरी तिहार एही एक दिन मा खतम नई होय, चार दिन बाद फेर ‘रंग पंचमी‘ मा घला रंग-गुलाल अउ फाग के मजा ले जाथे अउ अंत मा तेरस के दिन एक घा फेर फाग ले गांव हा सरोबर हो जाथे -
‘फागुन महराज, फागुन महराज, अब के बरस गये कब अइहौ ‘‘

ये प्रकार ले हमर छत्तीसगढ़ के मैदानी अंचल मा होरी के उमंग छाये रहिथे । फेर छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाका मा पारम्परिक होली के अंदाज कुछ अलग होथे ।
बसंत पंचमी के दिन डंडारी नाच के संग बस्तरिया होरी षुरू हो जथे । अउ होली दहन तक ये नाचा नृत्य हा चलत रहिथे । बस्तर के दशहरा कस इहाँ के होरी के घला अपन अलगे परंपराओं होथे। इहां होली मा होलिका दहन के दूसर दिन पादुका पूजन अउ ‘रंग-भंग‘ नाम ले एक अलग प्रकार के रस्म होथे। येमा कोरी-खईका मनखे मन हिस्सा लेथे. अइसे माने जाथे के होलिका दहन के राख ले मंडई मा मां दंतेश्वरी आमंत्रित देवी-देवता, पुजारी अउ सेवकमन संग होली खेलथे. येही मौके मा फागुन मंडई के आखरी रस्म के रूप मा कई ठन गांव के मेला मा आये देवी-देवता मन के विधिवत विदाई करे जाथे । इहां के जनसमुदाय ये पारम्परिक आयोजन के भरपूर मजा लेथें ।
ये पारम्परिक आयोजन के बारे मा मां दंतेश्वरी मंदिर के सहायक पुजारी हरेंद्र नाथ जिया हा कहें के - इहां विराजमान सती सीता के प्राचीन मूर्ति लगभग सात सौ साल जुन्ना हे. एकेठन पथरा मा बने ये प्रतिमा ला राजा पुरुषोत्तम देव हा इहां स्थापित कराय रहिन । तब ले इहां फागुन मंडई के मौका मा होलिका दहन अउ देवी-देवता के संग होली खेले के परम्परा चले आये हे ।
फागुन मंडई के दौरान आंवरामार रस्म के बाद होलिका दहन करे जाथे । ये रस्म मा बाजा मोहरी की गूंज के बीच प्रधान पुजारी जिया बाबा द्वारा होलिका दहन के रस्म पूरा करे जाथे ।  इहां गंवरमार रस्म मा गंवर (वनभइसा) के पुतला बनाये जाथे ।  येखर बर बांस के ढांचा अउ ताड़-फलंगा धोनी के उपयोग ले ताड़ के पत्ती मन ले होली सजाये जाथे । मंदिर के प्रधान पुजारी पारम्परिक वाद्ययंत्र मोहरी की गूंज के बीच होलिका दहन के रस्म पूरा करथें. पूरा देश मा जिहां होली के मौका मा रंग-गुलाल खेल के अपन खुशी के इजहार करे जाथे, उहीं मेरा बस्तर मा होली के अवसर मा मेला के आयोजन करके सामूहिक रूप लेे हॅसी-मजाक करे के प्रथा आज ले जीयत हवय ।
इतिहासकार मन के मानना हे के बस्तर के काकतीय राजा हा ये परम्परा के शुरुआत माड़पाल गांव मा होलिका दहन करके करीन । तब ले ये परम्परा हा इहां चलत हे । बस्तर मा होलिका दहन अपन आप मा अलगे ढंग के  होथे । माड़पाल, नानगूर अउ ककनार मा होवईया होलिका दहन येखर जीयत-जागत उदाहरण हे । इहां के मनखे मन मानथे के काकतीय राजवंश के उत्तराधिकारी मन आज घला सबले पहिली गांव माढ़पाल मा होलिका दहन करथे । येखर बाद ही आने जगह मन मा होलिका दहन करे जाथे । माढ़पाल मा होलिका दहन के रात छोटे रथ मा सवार होके राजपरिवार के सदस्य मन होलिका दहन के परिक्रमा करथें । जेला देखे बर हजारों के संख्या मा वनवासी मन एकत्रित होथें । ये अनूठी परम्परा के मिसाल आज ले कायम हे ।
छत्तीसगढ़ के दूनों ठहर के परम्परा मा आस्था अउ श्रद्धा छुपे रहिथे परम षक्ति परमात्मा संग अपन संबंध स्थापित करे के लालसा । अंतस मा दबे रहिथे अउ तन मा उमंग दिखथे । तन के उमंग अउ मन के खुषी के हा जीये के नवा रद्दा ला गढ़थे । जीवन मा जिहां हर मनखे खुषी ला खोजत रहिथे ओही मेर ये तिहार हा मनखे बर खुषी के उपहार बांटथे ।
आधुनिक वैज्ञानिक सोच अउ चकाचैंध मा हमर देष के गांव के परम्परा हा ओइसन लुका गे जइसे घटा बादर मा सुरूज हा लुकाय रहिथे । फेर सुरूज ला तो प्रगट होने हे । ओइसने हमर संस्कृति परम्परा हा तिहार बार मा चमकत दिखथे ।

-रमेश कुमार चैहान
मिश्रापारा, नवागढ़
जिला-बेमेतरा,छ.ग.,पिन 491337
मो. 9977069545

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