Home Page

new post

सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

//मंदिरों का गढ़-‘नवागढ़‘//




 छत्तीसगढ़ अपने नाम के ही साथ ‘छत्तीस‘ गढ़ को समेटा हुआ है । राजतंत्र के समय छत्तीसगढ़ के जीवन दायनी शिवनाथ नदी के उत्तर दिशा में 18 एवं दक्षिण दिशा में 18 गढ़ हुआ करता था । उत्तर दिशा के गढ़ों की राजधानी रतनपुर एवं दक्षिणा दिशा के गढ़ों की राजधानी रायपुर था ।  शिवनाथ नदी के उत्तर दिशा में रतनपुर राजधानी के अंतर्गत एक गढ़ था जिसका नाम ‘नरवरगढ़‘ था ।  ऐसी मान्यता है कि यह नाम उस समय के तात्कालिक राजा नरवर साय के नाम पर पड़ा होगा । कलान्तर में इसी ‘नरवरगढ़‘ को ‘नवगढ़‘ फिर ‘नवागढ़‘ के नाम से जाने जाना लगा । वर्तमान में यह नवागढ़ छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिला मुख्यालय से उत्तर दिशा में ‘बेमेतरा-मुंगेली‘ मार्ग पर 25 किमी की दूरी पर स्थित है । नवागढ़ में पहले ‘छै आगर छै कोरी‘ अर्थात 126 तालाब बताया जाता है किन्तु वर्तमान में नही है किन्तु आज भी हर मोहल्लें में तालाब दृश्टिगोचर है, इसिलिये कहा जाता है-
 ‘‘हमर नवागढ़ के नौ ठन पारा,
 जेती देखव जल देवती के धारा ।‘‘
नरवर साय की दो पत्नियां मानाबाई एवं भगना बाई थी ।  राजा ने अपनी पत्नियों के नाम पर मानाबंद एवं भगना बंद तालाब बनवाये जो आज भी प्रसिद्ध है । नवागढ़ में अनेक मंदिर हैं, जिनमें अधिकाश प्राचीन हैं । नवागढ़ के पूर्व दिशा में चांदाबन स्थित माँ शक्ति का मंदिर, शंकरनगर में मांगनबंद तालाब तट पर स्वयंभू महादेव का मंदिर, पश्चिम में मां महामाया एवं माँ शारदे का मंदिर, उत्तर दिशा में भैरव बाबा का मंदिर, जुड़ावनबंद के समीप लक्ष्मीनारायण का मंदिर, दक्षिण दिशा में नवातालाब के तट पर बाउली के पास शंकरजी का मंदिर,, मध्यभाग में राम-कृष्ण मंदिर, मां लखनी मंदिर, नगर पंचायत प्रांगण में दक्षिण मुखी हनुमान मंदिर, श्रीशमिगणेश मंदिर,, ठाकुर देव का मंदिर इन प्रमुख मंदिरो के अतिरिक्त और कई मंदिर हैं । छोइहा नाला के किनारे गुरूसिंग सभा गुरूद्वारा,, देवांगनपारा-सुकुलपारा मार्ग पर मोहरेंगिया नाला के तट पर मस्जिद भ्, तिलकापारा में संत गुरू घासीदास के जैतखाम एवं गुरूद्वारा, जुड़ावनबंद के सपीप महान संत रविदास का रैदास मंदिर स्थित है ।   586 ईसवी के आस-पास नरवर साय द्वारा माँ महामाया, गणेश मंदिर, भैरव बाबा, हनुमान मंदिर एवं बुढ़ामहादेव मंदिर का निर्माण कराया गया है ।  इन मंदिरों के संबंध में कई-कई जनश्रुतियां प्रचलित रही हैं । जिनमें प्रमुख मंदिर इस प्रकार हैं-

माँ महामाया मंदिर-
माँ महामाया को नरवरगढ़ राजा के कुल देवी के रूप माना जाता है । यह मंदिर मानाबंद के पश्चिमी तट पर स्थित है । माँ की प्रतिमा लगभग 6 फिट की है ।  गाँ का मुख भव्य प्रदिप्तमान है । बुजुर्ग बतलातें हैं कि पूर्व में  व्यक्ति माँ से आँख मिलाने से भय खाते थे क्योंकि माँ का रूप् तेजवान है । आज छत्तीसगढ़ी परिवेष में माँ का श्रृंगार माँ के भक्तों को अनायाष ही अपनी ओर आकर्शित करते है ।  चूंकि प्राचीन मंदिर आज विद्यमान नही है इसलिये मंदिर शिल्प के आधार पर निर्माण काल का ठीक-ठीक निर्धारण नहीं किया जा सकता । मान्यता है कि माँ की प्रतिमा वही है यद्यपी मंदिर के कई-कई  जीर्णोद्धार में मंदिर का कलेवर परिवर्तित हो चुका है । गांव के बुजुर्ग बतलाते हैं कि 1964 में इस मंदिर का जीणोद्धार कराने मूर्ति को हटाने की आवश्यकता हुई कई लोग एक साथ मूर्ति को हटाने प्रयास किये किन्तु मूर्ति टस से मस नही हुई ।  फिर 11 विप्र दुर्गासप्तशती का एक साथ पाठ किये तब जाकर मूर्ति हल्का हुआ और उसे वहां से हटाया जा सका । एक मान्यता के अनुसार नवागढ़ की महामाया एवं रतनपुर की महामाया एक ही समय के हैं । रतनपुर एवं नवागढ़ महामाया में एक साम्य है । महामाया रतनपुर के समीप भी तालाब है एवं महामाया नवागढ़ के पास भी तालाब है । एक जन श्रुति के अनुसार नवागढ़ के तालाब से रतनपुर के इस तालाब तक एक सुरंग है ।  जिस प्रकार रतनपुर महामाया के संबंध में जनश्रुति है कि तीन बहनों में एक बहन काली के रूप में कलकत्ता में निवास करती उसी प्रकार मान्यता है कि नवागढ़ के महामाया के तीन बहनों में एक ‘गोबर्रा दहरा‘ (दामापुर, जिला कबीरधाम) में एवं एक समीपस्थ ग्राम बुचीपुर में विराजित है । बुचीपुर माँ महामाया संस्थान इस बात को स्वीकार करती है बुचीपुर माँ महामाया को नवागढ़ से लाया गया है । नवागढ़ महामाई अपने भक्तों के बीच मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी के रूप में विख्यात है ।  भक्त प्रेम से माँ को ‘बुढ़ीदाई‘, ‘नवगढ़िन दाई‘ भी पुकारते हैं ।

श्रीशमिगणेश मंदिर-
नवागढ़ के हृदय स्थल पर भगवान गणेश का एक मंदिर व्यवस्थित है । इस मंदिर के निर्माण के संबंध में मान्यता है कि संवत 646 में इस मंदिर का निर्माण तांत्रिक विधि से कराई गई थी । इस मंदिर के निर्माण के संबंध दो प्रकार की विचार धारा प्रचलित है, एक विचार के अनुसार इस मंदिर का निर्माण नरवरगढ़ के राजा नरवरसाय द्वारा कराया जाना मानते हैं तो दूसरी मान्यता के अनुसार इस मंदिर का निर्माण गोड़वाना राज के पूर्व के राजा जो भोसले (मराठी) परिवार द्वारा कराया गया मानते हैं ।  इस संबंध में श्री सुरेन्द्र कुमार चौबे तर्क देते हुये कहते हैं कि चूंकि गणेश मराठों का ईष्ट देव है एवं गोड़ राजा मराठी राजा को पराजित कर यहां अपना अधिपत्य स्थापित किये थे इसलिये इस मंदिर का निर्माण का श्रेय मराठा परिवार को देना न्याय संगत लगता है । 6 फीट के एक पत्थर पर भगवान गणेशजी को पद्मासन मुद्रा में उकेरा गया है । इस मंदिर के दक्षिण भाग में एक अश्टकोणीय कुँआ विद्यमान है । इस मंदिर के सम्मुख पहले दो शमि का वृक्ष था, जिसमें एक आज भी स्थित है ।  इसी कारण इस मंदिर को ‘श्रीशमि गणेश मंदिर‘ कहा जाता है । गणेश मंदिर एवं शमिवृक्ष का यह दुर्लभ संयोग पूरे विश्व में केवल तीन स्थानों पर बतलाया जाता है ।  प्रसिद्ध धार्मिक पत्रिका ‘कल्याण‘ के ‘गणेश‘ अंक में इस मंदिर का उल्लेख मिलता है । मान्यता के अनुसार इस स्थान पर दो गणेश भक्त संत जीवित समाधी लिये थे । एक समाधी स्थल मंदिर से सटा हुआ े उत्तर दिशा में एवं एक पूर्व दिशा में 100 मीटर की दूरी पर स्थित है ।  मंदिर के शिलालेख उल्लेखित जानकारी के अनुसार 1880 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण परिवार द्वारा कराया गया ।  गर्भगृह को छोड़ कर शेष मंदिर का पुनः जीर्णोद्धार ‘सिद्ध विनायक श्रीशमि गणेश मंदिर सेवा संस्थान‘ द्वारा 2013 में कराया गया है ।  जिससे मंदिर एक नये आकर्शक कलेवर में पर्यटकों को लुभाने में सफल रहा है ।

राममंदिर-
नवागढ़ के पूर्व दिशा में सुरकी तालाब के तट पर राममंदिर मठ है । इस परिकोटा में एक साथ रामजानकी मंदिर एवं राधाकृश्ण मंदिर व्यवस्थित है । मंदिर के महंत श्रीमधुबन दास वैश्णव के अनुसार वह इस मंदिर के आठवीं पीढ़ी के महंत हैं ।  लगभग 300 वर्श पूर्व इस मंदिर का निर्माण हुआ है ।  इस संबंध में एक जनश्रुति प्रचलित है कि इसी स्थान पर केवल कृष्ण मंदिर बनाने की योजना थी ।  कृष्ण मंदिर का निर्माण लगभग पूरा होने को था उसी समय राजस्थान जयपुर के कुछ मूर्तिकार मूर्ति बेचते एक दिन रात्रि होने पर विश्राम के उद्देश्य से यहां तालाब किनारे ठहरे दूसरे दिन जब ओ लोग यहां से जाने के लिये तैयार हुये तो राम-जानकी की प्रतिमा अपने स्थान पर अडिग हो गया ।  लगातार तीन दिन तक मूर्ति ले जाने का प्रयास हुआ किन्तु मूर्ति अचल हो गया थक-हार कर मूर्ति को इसी स्थान पर छोड़ना पड़ा इस चमत्कार से चमकृत होकर, कृष्ण मंदिर बनाने वाले लोग उसी मंदिर पर रामजानकी को स्थापित किये । उस मंदिर के लिये लाये गये कृष्ण-राधा का प्रतिमा आज भी रामजानकी प्रतिमा के बगल में स्थापित है । कुछ वर्षो बाद इस राममंदिर के बगल में दूसरा मंदिर बनाकर कृश्ण-राधा की नई मूर्ति स्थापित की गई । इस मंदिर में 700 एकड़ कृशि भूमि दान से प्राप्त हुआ था । जिसमें का एक बड़ा भाग शिलिंग में निकल गया ।  वर्तमान में इस मंदिर के पास 10 एकड़ कृषि भूमि शेष है । इस मंदिर में विभिन्न मठों के संतो का आगमन होता रहा है । 20 सदी के पूर्वाद्ध में यहां विद्यापीठ संचालित था जिसमें बच्चों को संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी ।  बाद में गरीब बच्चे इस मंदिर में रह कर शासकीय विद्यालय में अध्ययन करते थे । यह मंदिर एक सामाजिक केन्द्र के रूप में उभरा जहां गांव के लोग बैठ कर अध्यात्मिक एवं सामाजिक चिंतन किया करते थे । ये परम्परा कमोबेस आज भी बरकरार है ।

मां लखनी मंदिर-
लक्ष्मीजी को ‘लखनी देवी‘ के रूप में गांव के सुरकी तालाब के पास स्थापित किया गया है । यह मंदिर माँ महामाया मंदिर के समकालीन है । लखनी देवी की प्रतिमा लगभग 3 फीट ऊँची है ।  प्रतिमा अत्यंत मनोहारी है । इस मंदिर की मान्यता रही है कि इस देवी के पूजन करने वाले निःसंतान दम्पत्ती को निश्चित ही संतान सुख की प्राप्ति होती है ।  ऐसा माना जाता है कि लक्ष्मीजी को लखनी नाम से नवागढ़ में एवं रतनपुर में ही स्थापित किया गया है । लखनी मंदिर के समीप एक कुँआ है जो पहले पूरे गाँव के लिये पे जल का स्रोत रहा । जिसका जल अभिमंत्रित किया  हुआ है, जिसके लिए श्रद्धालू बड़े दूर-दूर से जल लेने के लिए आते थे तथा कुँए का जल निकालकर पहले खेतों में रोग ना आवे कह कर डालते थे ।  एक मान्यता के अनुसार इस मंदिर की मूर्ति इसी कुऐं के उत्खनन के समय प्राप्त हुआ था ।।

हनुमान मंदिर
-नवागढ़ के मध्य भाग में दक्षिणमुखी हुनमानजी स्थापित है ।  इसका निर्माण  मां महामाया के निर्माण के समय का ही बताया जाता है । पहले इस मंदिर के चारों ओर एक परिकोटा था, जिसमें गांव के युवा मल्लयुद्व का अभ्यास किया करते थे, इस कारण इस इस परिकोटो को ‘हनुमान अखड़ा‘ कहा जाता था ।  बाद में इस मंदिर के पास ग्राम पंचायत का निर्माण हुआ जहां आज नगर पंचायत संचालित है । हनुमान भक्त इस मंदिर को अत्यंत सिद्ध मंदिर निरूपित करते हैं । इस मंदिर के पास साधु समाधी का होना बतलाया जाता है । मान्यता के अनुसार इस स्थान पर कोई हनुमान भक्त संत जीवित समाधी लिये थे ।

भैरव बाबा का मंदिर-
 माँ महामाया मंदिर से उत्तर दिशा की ओर लगभग 1 किमी की दूरी पर भैरव बाबा का मंदिर स्थित है । वर्तमान में इस स्थान पर न वह प्राचिन मूर्ति है न ही प्राचिन मंदिर ।  किन्तु मान्यता है कि माँ महामाया निर्माण के आस-पास के वर्षो में भैरव बाबा का मंदिर यहां था ।  प्रमाण के रूप में गांव में भैरव भाठा नाम से से एक निरजन स्थान है जहां पर ऊँचे पीपल वृक्ष के नीचे भैरव बाबा के खण्ड़ित प्रतिमा रखा हुआ है ।  इसी के समीप एक नवीन भैरव बाबा का मंदिर बनवाया गया है जिसमें नई मूर्ति स्थापित है । इस प्रतिमा का प्राण प्रतिष्इा 1979 में कराया गया था ।  इस मंदिर का वर्तमान जीर्णोधार 2008 में हुआ है ।  गांव में महामाया एवं भैरव बाबा का संयोग इसे पुनः रतनपुर से ही जोड़ता है ।

स्वयंभू बुढ़ा महादेव-
गांव के पूर्व दिशा में मांगनबंद तालाब के तट पर स्वयंभू महादेव का मंदिर है । मान्यता है यह शिवलिंग स्वयं प्रगट है इसे अन्यत्र ला कर स्थापित नही कराया गया है ।  इस मंदिर में बाबा भोलेनाथ का शिवलिंग जलहरी के साथ उसी प्रकार शोभायमान है जैसे बनारस का विश्वनाथ । ऐसी मान्यता है कि नरवर साय के काल में ही इस मंदिर का निर्माण कराया गया था । पहले इस मंदिर में केवल शिवलिंग ही स्थापित था बाद में शिवपरिवार के रूप में  माता पार्वती एवं गणेशजी की प्रतिमा स्थापित कराई गई । मान्यता के अनुसार पहले यहां एक नाग-नागिन का जोडा रहा करता थ इसी कारण इस मंदिर के गर्भगृह के बाहर नाग-नागीन का प्रतिमा भी स्थापित है ।  इस मंदिर का जीणोद्धार दो से अधिक बार हो चुका है । सावनमास में यहां भक्तों का ताता लगा रहता है । महाशिवरात्रि के दिन इस मंदिर परिसर पर मेला  लगता है ।

शक्ति मंदिर-
गांव के पूर्व दिशा में ‘टेंगना‘ नाला के पास ‘चांदाबंद तालाब‘ के तट पर यह मंदिर विराजित है ।  इस मंदिर के संबंध में मंदिर के संचालक श्री चैन साहू  से प्राप्त जानकारी एवं जनश्रुति के अनुसार मुरता ग्राम के जयंत आचार्य के 7-8 पीढ़ी पूर्व कोई महिला अपने पति के चिता के साथ जीवित समाधी ली थी । जिसके स्मरण में इमली पेड़ के नीचे एक सती चबूतरा बनाया गया था ।  इसी चबूतरे पर सती नारी के प्रतिक के रूप में एक मूर्ति स्थापित किया गया था जिसे सती चौरा कहा गया । इस सती चौरा के पास इमली पेड़ के पास कई प्रकार के जहरीले सर्प निकला करते थे किन्तु आज तक कभी भी जन हानि नही हुई है । सन 1970 के आसपास इस चौरा को एक मंदिर रूप में परिणित कर मां शक्ति की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा कराई गई । सन् 2000 से इस मंदिर को विस्तारित किया गया ।  आज भी मंदिर में एक साथ दो प्रतिमा स्थापित है, जिसमें से एक सती का एवं दूसरा मां शक्ति का है ।  इस मंदिर पर लोगों की अगाध आस्था है । आज भी इस स्थान पर सर्प निकलते रहते हैं किन्तु किसी प्रकार की हानी नही हुई है । जनमान्यता के अनुसार सर्पविष के व्याधी ग्रसित भगत के मां के श्रीचरणों में समर्पित होने पर जीवन प्राप्त होता है ।

मैहरवासनी मां शारदे का मंदिर-
महामाया मंदिर के पश्चिम दिश में जहां पर पहले राजा नरवर साय का कीला हुआ करता था, जहां पर लगभग 200 फीट ऊंचा टीला था । जिससे कीले की रक्षा के सैनिक दिनरात पहरा दिया करते थे कहा जाता है इस टीले से 4 कोस (लगभग 15 किमी) तक देखा जा सकता था । जिसके अव’शेष  के रूप 20 फीट का टीला था इसी टीले पर आज मैहर वासनी माँ शारदे का मनोहारी प्रतिमा स्थापित है ।  इसे मैहर वासनी माँ षारदे इसलिये कहा जाता है कि यह  प्रतिमा मैहर के माँ शारदे की अनुकृति है ।  यह एक नवीन मंदिर है जिसके संबंध में आज के हर अधेड़ उम्र के लोग जानते हैं । यह एक सत्य घटना है 1974 क शारदीय नवरात्र पर गांव के ग्राम पंचायत के पास सार्वसजनिक दुर्गोत्सव मनाया जा रहा था अंतिम दिन दुर्गा विर्सजन के लिये जस गीत गाया जा रहा था उसी समय अचानक श्री बिष्णु प्रसाद मिश्रा को अचानक कुछ अनुभूति हुई, उनका शरीर कँपने लगा, उन्हें देवी सवार हुआ । श्री मिश्राजी अपने आप को माँ शारदा होना बतलाया ।  ध्यान देने योग्य बात है कि श्री मिश्राजी को इनसे पूर्व किसी प्रकार देवी सवार नही हुआ था । वह इस टीले पर माँ मैहर वासनी षारदे का मंदिर बनाने की बात कही ।  जिसे गांव वाले स्वीकार कर लिये ।  इसके बाद ही वह शांत हुये ।  इस घटना के बाद से श्री मिश्राजी कई वर्षो तक दोनों नवरात में उसी स्थान पर माँ शारदे के तैल चित्र लेकर बैठा करते थे । श्री मुरेन्द्रधर दीवान, श्री विश्णु मिश्राजी के साथ सहयोगी के रूप में सेवा करते रहे । इस मंदिर के निर्माण हेतु नवागढ़ और आस-पास के गांव वालों से सहयोग लिया गया ।  इस मंदिर निर्माण के उद्देश्य से यहां ‘चंदैनी गोंदा‘ का कार्यक्रम कराया गया था ।  मंदिर निर्माण में पूरे क्षेत्र के लोगों का आर्थिक सहयोग रहा ।  अंत में श्रमदान से इस मंदिर का निर्माण कार्य कराया गया ।  श्री छन्नू गुप्ता द्वारा मां की प्रतिमा दान दी गई । 1996 में इस मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा कराया गया ।  इस मंदिर का निर्माण कार्य अभी भी शेष है ।

इन मंदिरों के अतिरिक्त और कई छोटे-बड़े मंदिर है जिनका अपना महत्व है । यहां एक बावली भी जीर्ण-षिर्ण स्थिति में अव्यस्थित है ।  इस बावली के संबंध में कहा जाता है कि इसमें अथाह जल है ।  इसके जल द्वार बंद करके रखा गया है । इस प्रकार नवागढ़ न केवल धार्मिक दृश्टिकोण से अपितु पुरातात्विक, ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है ।

-रमेशकुमार सिंह चौहान


समकालीन कविताओं में व्यवस्था के विरूद्ध अनुगुंज


साहित्य समाज की दिषा एवं दषा का प्रतिबिम्ब होता है, जिसमें जहां एक ओर सभ्यता एवं संस्कृति के दर्षन होते हैं तो वहीं समाज के अंतरविरोधों के भी दर्षन होते हैं । आदिकाल, भक्ति काल, रीतिकाल से लेकर आधुनिक काल तक साहित्य मनिशियों ने तात्कालिक समाज के अंतर्द्वंद को ही उकेरा है । आधुनिक काल के छायावादी, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी और नई कविताओं में उत्तरोत्तर नूतन दृश्टि, नूतन भाव-बोध, नूतन षिल्प विधान से नये सामर्थ्य से कविता सामने आई है, जो जन सामान्य की अनुभूतियों को सषक्त करने की अभिव्यक्ति देती है ।  इसमें अनुभूति की सच्चाई एवं यथार्थवादी दृश्टिकोण का समन्वित रूप है । समकालीन कवितायें इनसे एक कदम आगे जनमानस के उमंग, पीर को जीता ही जीता है, इसके साथ ही वर्तमान व्यवस्थाओं से विद्रोह करने से भी नही चुकता ।
आधुनिक काव्य साहित्य भारत के आजादी के पूर्व जहां राश्ट्रवाद का प्रतीक था वहीं आजादी के पश्चात समाज में व्याप्त अंध विष्वासों, कुरीतियों, और जातिवाद के  उन्मूलन का हथियार बनकर उभरा ।  आजाद भारत के विकास के लिये षिक्षा का प्रचार-प्रसार, नवीन सोच, दलित उत्थान, नारी उत्थन जैसे अनेक विशयों पर जनमानस में अलख जगाने कवितायें दीपक की भांति प्रकाषवान रहीं ।
आधुनिक हिन्दी कविता के इतिहास में 1970 के बाद की कविता को समकालिन कविता के नाम से जाना जाता है । डॉ. अमित षुक्ला के अनुसार - ‘‘जिस प्रकार आधुनिकवाद की अवधारणा किसी एक व्यक्ति या पुस्तक की देन नहीं थी उसे विकसित होने में कोई तीन सौ वर्श का समय लगा था, उसी प्रकार उत्तर आधुनिकवाद बीसवीं षताव्ब्दी में साठ के दषक  के उन मुक्ति आन्दोलनों से निकला है, जिन्होंने व्यक्ति तथा व्यवस्था, अल्प समूह तथा वृहत समाज, विचारों तथा विसंगतियों, नीतियों, राजनीति पर प्रष्न चिन्ह लगा दिया ।‘‘1 यही समकालीन साहित्य का नींव है जिसमें विरोधी विचार हाषिए पर स्थित लोग, नारी वर्ग, दलित जनजातियां, समलैंगिक स्त्री-पुरूश आदि जिन्हें समाज में सक्रियता एवं सांस्कृतिक संवाद के दायरे से बाहर रखा जाता था अब अस्मिता के संघर्श समूह बनकर उभरे । ऋशभ देव षर्मा इस संबंध में कहते हैं कि -‘‘समकालिन कविता ऐसी कविता है जो अपने समय के चलती है, होती है, जीती है । इसे आधुनिकता का अगला चरण भी कहा जा सकता है।  अंतर केवल इतना है कि आधुनिकता बोध के केन्द्र में आधुनिक मनुश्य है और समकालीनता बोध के केन्द्र में समकाल ।‘‘2
समकालिन कविता की आधार भूमि मुख्य रूप से युग परिवेष और उसके जीवन के साथ जुड़े हुये विवषतापूर्ण सवाल है । 20 वी सदी के अंतिम तीन दषकों का भारतीय परिवेष समकालीन कविता की आधारभूमि और प्रेरणा स्रोत है । आज भारतीयों के सामने एक बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है आजादी के इतने वर्शो के बाद भी भारतीय आम आदमी भ्रश्टाचार और असमामानता को झेलने के लिये अभिसप्त क्यो है ? आज गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी भ्रश्टाचार से सामान्य जनता और बुद्धिजीवी वर्ग आहत क्यों हैं ? ‘‘प्रत्येक जागरूक नागरिक की चेतना को झिझोड़ने वाले ऐसे ही सवाल समकालीन कविता के मूलभूत सरोकारों का निर्धारण करते हैं ।‘‘3
समकालिन कविताओं में जीवन के दुर्भरताओं से जुझने का माद्दा है । जीवन पगडंडियों में बिखरे पड़े गरीबी, बेरोजगारी, भ्रश्टाचार, असमानता जैसे कांटों को चुन-चुन कर बुहारा जा रहा है ।

हिन्दी साहित्य में गजानन मुक्तिबोध तथा उनके समकालीन कवि नागार्जुन, षमषेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल को संघर्शषील आधुनिकता का पक्षधर माना गया है ।  संघर्शषील आधुनिकता ही आज के समकालीन कविता है । इस प्रकार मुक्तिबोध को समकालीन कविता का आधार कवि कह सकते हैं । डॉ सूरज प्रसाद मिश्र ने ‘समकालीन हिन्दी कविताओं के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर‘ में मुक्तिबोध, नामार्जुन,  रामदरष मिश्र, केदार नाथ सिंह, विजेन्द्र, सुदामा प्रसाद धूमिल, विनोद कुमार षुक्ल, चंद्रकांत देवताले, षोभनाथ यादव, रमेष चन्द्र षाह, भगवत रावत, विष्वनाथ प्रसाद तिवारी, अषोक वजपेयी, आदि नामो को स्थान दिया है ।  ऐसे तो 1970 के पश्चात के सभी कवियों को समकालीन कविता  के कवि कहे जा सकते हैं ।  किन्तु प्रतिनिधियों कवियों क पहचान के दृश्टिकोण से दिविक रमेष द्वारा सम्पादित कविता संग्रह ‘‘निशेध के बाद‘‘ (1981) में दिविक रमेष, अवधेश कुमार, तेजी ग्रोवर, राजेश जोशी, राजकुमार कुम्भज, चन्द्रकांत देवताले, सोमदत्त, श्याम विमल और अब्दुल बिस्मिल्लाह को सम्मिलित कर इन्हें समकालीन कविता के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया । किन्तु बाद में दिविक रमेष स्वयं लिखते हैं -‘‘मानबहादुर सिंह, गोरख पाण्डेय और ज्योत्सना मिलन जैसे कवियों की भी कविताओं को सम्मिलित किए बिना समकालीन कविता का परिदृश्य अधूरा ही रहेगा । देश की भूमि पर, विशेष रूप से हिन्दी अंचल में ही देखें तो एक साथ कई पीढ़ियां काव्य रचना में तल्लीन दिखाई देती हैं। कुंवर नारायण, रामदरश मिश्र, कैलाश वाजपेयी, माणिक बच्छावत, गंगा प्रसाद विमल, सुनीता जैन आदि सक्रिय हैं तो अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे, भगवत रावत, नन्दकिशोर आचार्य, चन्द्रकांत देवताले, अरुण कमल, विश्वरंजन, मंगलेश डबराल आदि के साथ अन्य दो कनिष्ठ और नई पीढ़ियों के भी कितने ही कवि हिन्दी कविता को भरपूर योगदान दे रहे हैं।‘‘4

‘समकालीनता‘ एक व्यापक एवं बहुआयामी षब्द है जो आधुनिकता का आधार तत्व है ।  वास्तव में ‘समकालीनता‘ आधुनिकता में आधुनिक है, जिसके संबंध में रामधारी सिंह दिनकरजी कहते हैं- ‘जिसे हम आधुनिकता कहते हैं वह एक प्रक्रिया का नाम है । यह अंध विष्वास से बाहर निकलने की प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया नैतिकता में उदारता बरतने की प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया बुद्धिवादी बनने की प्रक्रिया है ।‘‘5 इस प्रक्रिया में आदर्शवाद से हटकर नए मनुष्य की नई मानववादी वैचारिक भूमि की प्रतिष्ठा समकालिन कविताओं में समाज के विभिन्न व्यवस्थाओं के प्रति विरोध के स्वर रूप में अनुगुंजित हैं-
1. राजनीतिक व्यवस्था के विरूद्ध स्वर -
भारतीय समाज में राजनीति का बहु-आयामी महत्व है । समाज और साहित्य का विकास भी समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों से होता रहा है ।  तात्कालिक राजनैतिक परिस्थितियाँ साहित्य को काफी प्रभावित करती हैं ।  समकालीन कवियों के प्रतिनिधि रघुवीर सहाय जीवनासक्त अभिव्यक्तियों की जगह व्यवस्था के प्रति व्यंग्य और यथार्थ का गंभीर विष्लेशण किये हैं उनकी कविताओं में यह मूर्त रूप में देखने को मिलता है ।  रघुवीर सहाय राजनीतिक विद्रूपताओं, पाखण्ड़ों  और झूठ को अपनी कविताओं का विशय बनाये हुये है - ‘नेता क्षमा करें‘ ‘सार और मूल्यांकन‘ उनकी इन्हीं अभिव्यक्ति के  प्रतिबिम्ब हैं । जन-प्रतिनिधियों  के स्तरहीन चरित्र और उनके खोखलेपन, जनता को क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्मवाद आदि में फँसाकर खुद की कुर्सी का साधना करने की प्रवृत्ति,  कुर्सी की सेवा करने की आकंठ लालसा । वृद्ध होकर षिषुओं की तरह कुर्सी के लिये लड़ते रहने के बचपने को देखकर सहायजी इनके चरित्रों को बेनकाब करते हुये कहतें हैं-

‘‘सिंहासन ऊँचा है, सभाध्यक्ष छोटा है
अगणित पिताओं के
एक परिवार के
मुँह बाए बैठे हैं लड़के सरकार के
लूले, काने, बहरे विविध प्रकार के
हल्की-सी दुर्गन्ध से भर गया है सभाकक्ष
सुनो वहाँ कहता है
मेरी हत्या की करूण गाथा
हँसती है सभा, तोंद मटका
उठाकर
अकेले पराजित सदस्य की व्यथा पर‘‘
(‘मेरा प्रतिनिधि‘)

राजनीति ही वह कारक है जो समाज की व्यवस्था को अंदर तक प्रभावित करती है । लोकतंत्र में सरकार का चयन आम जनता के हाथ में है इसी कारण जनता को आगाह कराते हुये नेताओं के चरित्र को अरूण निगम इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं -

‘‘झूठे निर्लज लालची, भ्रश्ट और मक्कार ।
क्या दे सकते हैं कभी, एक भली सरकार ।।
एक भली सरकार, चाहिए-उत्तम चुनिए ।
हो कितना भी षोर, बात मन की ही सुनिए ।
मन के निर्णय अरूण, हमेषा रहें अनूठे ।
देते मन को ठेस, लालची निर्लज झूठे ।।‘‘
(अरूण निगम-‘षब्द गठरिया बांध‘)6

राजनीतिक उठा-पटक और अपनों में ही चल रहे षह-मात पर व्यंग्य करते हुये आज के हास्य-व्यंग्यकार मनोज श्रीवास्तव रूपायीत किया है-

‘‘एक कुत्ते ने दूसरे कुत्ते को,
देखकर जोर से भौंका,
सामने से आ रहा नेता
यह दृष्य देखकर चौंका,
उसने कुत्तों से कहा- ‘‘भाई,
क्यों लड़ते हो ?
कुत्तों ने कहा- नेताजी
लड़ना तो आपका काम है,
हमने तो षर्त लगाई थी,
किसकी आवाज में,
अपने मालिक का नाम है ।‘‘
(‘प्रयास जारी है‘)7

राजनीति पर हर छोटे-बड़े समकालीन कवियों ने कटाक्ष किया है । लोकतंत्र में नेता और मतदाता सिक्के के दो पहलू की तरह हैं, जहां नेताओं का चारित्रिक पतन समकालिकता िंचंतन का विशय है वहीं मतदाताओं के लालची प्रवृत्ति भी सांगोपांग चिंतनीय है, जिसका प्रतिबिम्ब समकालीन कविता में सहज सुलभ है ।

2. अमानवीयता के विरूद्ध स्वर -
समाज का अस्तित्व मानव और मानवता से है । नव-पूंजीवादी दौर में मानवतावादी मूल्य समाज से लगभग गायब होते जा रहे हैं । मनुश्य आत्मकेंद्रित होते जा रहा है । अपने समाजिक सरोकार को आज का मनुश्य विस्मृत कर बैठा है । इस पीड़ा को रघुवीर सहायजी ‘दुनिया‘ षीर्शक कविता में व्यक्त करते हैं-

‘‘न कोई हँसता है न कोई रोता है
न कोई प्यार करता है न कोई नफरत
लोग या तो दया करते हैं या घमंड
दुनिया एक फफंदियाई हुई से चीज है ।‘‘

समाज का कुछ वर्ग इतना निरंकुष हो गया है कि लोग भीड़ में भी एकाकी पन को जीने के लिये विवष हैं । भौतिकवाद इतना पसरा है कि हर कोई इसके आगोष में खोये-खोये से लगते हैं ।  इसे मुकंद कौषलजी के इन पंक्तियों में महसूस किया जा सकता है-



‘‘ऊँचे ऊँचे पेड़ बहुत हैं
लेकिन छाँव नही
दूर तलक केवल पगडंड़ी, कोई गाँव नही

ओढ़ चले आँचल धरती का
बाहों में अम्बर
मुठ्ठी में हैं आहत खुषियां
किरणें कांवर भर
चूर-चूर अभिलाशाओं को, मिलती ठाँव नहीं ।‘‘
(‘सिर पर धूप आँख में सपने‘)8

सामाजिक सरोकार का ताना-बाना इस कदर उलझ गया है कि आपसी रिष्ते भी स्वार्थ केन्द्रित प्रतित हो रहे हैं । माँ-बाप के असहायपन का चित्रण करते हुये राजेष जैन ‘राही‘ कहते हैं -

‘लाठी जिसको जग कहे, पुत्र कहाँ वो हाय ।
वृद्ध हुए माँ बाप तो, बेटा लठ्ठ बजाय ।।

बिखरे-बिखरे से सपन, बिखरी सी हर बात ।
बेटा कुछ सुनता नही, कह कर हारे तात ।।‘‘
(‘पिता छाँव वटवृक्ष की‘)9

मानवता समाज की रीढ़ की हड्डी है । समाज सामाजिक सरोकार के बल पर ही संचालित है । समाज को तोड़ने वाली व्यवस्था के विरूद्ध समकालीन कविता उठ खड़ी हुई है ।

3. भूखमरी और दीनता पर व्यवस्था के विरूद्ध स्वर-

‘इक्कीसवीं सदी भारत का होगा‘ यह दिव्या स्वप्न देखने वालों को देष के उस अधनंगे भूखे लोगों की ओर ताकने का अवसर ही नहीं मिल पाता जो दो जून के रोटी के लिये मारे-मारे फिर रहें हैं । भारत के समग्र विकास के लिये आवष्यक है कि इस तबके को झांका जाये । समकालीन कविता मानवतावादी है, पर इसका मानवतावाद मिथ्या आदर्श की परिकल्पनाओं पर आधारित नहीं है। उसकी यथार्थ दृष्टि मनुष्य को उसके पूरे परिवेश में समझने का बौद्धिक प्रयास करती है। समकालीन कविता मनुष्य को किसी कल्पित सुंदरता और मूल्यों के आधार पर नहीं,बल्कि उसके तड़पते दर्दों और संवेदनाओं के आधार पर बड़ा सिद्ध करती है, यही उसकी लोक थाती है। केदारनाथ सिंहजी अपनी प्रसिद्ध कविता ‘रोटी‘ में इसकी महत्ता प्रतिपादित करते हुये कहते हैं-

‘‘उसके बारे में कविता करना
हिमाकत की बात होगी
और वह मैं नहीं करूंगा

मैं सिर्फ आपको आमंत्रित करूँगा
कि आप आयें और मेरे साथ सीधे
उस आग तक चलें
उस चूल्हें तक जहां पक रही है
एक अद्भूत ताप और गरिमा के साथ
समूची आग को गंध बदलती हुई
दुनिया की सबसे आष्चर्यजनक चीज
वह पक रही है ।

भूखमरी समाज के असन्तुलित व्यवस्था की परिणीति है, समकालीन कविता अपने जन्म से ही इस व्यवस्था के विरूद्ध मुखर है, सर्वेष्वर दयाल सक्सेना की ये पंक्तियां इसे अभिप्रमाणित करती हैं-

‘‘गोली खाकर
एक के मुँह से निकला -
’राम’।

दूसरे के मुँह से निकला-
’माओ’।

लेकिन तीसरे के मुंह से निकला-
’आलू’।

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे।‘‘
-सर्वेष्वर दयाल सक्सेना, (पोस्टमार्टम की रिपोर्ट)10

भूखमरी और कुरीति पर एक साथ प्रहार करते हुये व्यंगकार कवि पुश्कर सिंह राज व्यंग्य करते हुये कहते हैं -

अधनंगा रह जो पूरी जिन्दगी खपाता है
उसकी लाष पे तू कफन चढ़ाता है ।

अभावों में रह जो भूख से मर जाता है
मौत पे उसके तू मृत्यु-भोज कराता है ।।
(‘ये मेरा हिन्दुस्तान है‘)11


4. भ्रश्टाचार के विरूद्ध स्वर -
समकालीन कविता वास्तव में व्यक्ति की पीड़ा की कविता है। अपने पूर्ववर्ती कविता की भांति यह व्यक्ति के केवल आंतरिक तनाव और द्वंद्वों को नही उकेरता अपितु यह व्यापक सामाजिक यथार्थ से जुड़ाव महसूस कराता है। जिंदगी की मारक स्थितियों को, उसकी ठोस सच्चाइयों को और राजनीतिक सरोकारों को भावुक हुये बिना सत्य का साक्षात्कार कराती है । प्रषासनिक तंत्र में भ्रश्टाचार का विश जन सामन्य को जीने नही दे रही है । स्थिति इतनी विकट है कि सुरजीत नवदीप माँ दुर्गे से कामना करते हुये कहते हैं-

‘माँ दुर्गे
सादर पधारो,
बुराइयों के
राक्षसों को संहारो ।
मँहगाई
पेट पर
पैर धर रही है,
भ्रश्टाचार की बहिन
टेढ़ी नजर कर रही हैं ।‘‘
-सुरजीत नवदीप (रावण कब मरेगा)12

भ्रश्टाचार समाज की वह कुरीति है जो समाज को अंदर से खोखला कर रही है । भ्रश्टाचार का जन्म कुलशित राजनीति के कोख से हुआ है-

‘झूठ ढला है-सिक्कों सी राजनीति-टकसाल है
पूरी संसद-चोरों और लुटेरों की-चउपाल है ।।‘‘
पं. षंकर त्रिपाढ़ी ‘ध्वंसावषेश‘ (‘नवगीत से आगे....‘)13

आज की व्यवस्था इस प्रकार है कि- भ्रश्टाचार कहां नही है ? कौन इससे प्रभावित नही है ? आखिर यह व्यवस्था इतनी पल्लवीत क्यों है ? इन प्रष्नों का उत्तर समकालीन कवि का धर्म इस प्रकार व्यक्त करता है -

‘‘कहाँ नहीं है भ्रष्टाचार, मगर चुप रहते आये
आवश्यकता की खातिर हम, सब कुछ सहते आये
बढ़ा हौसला जिसका, उसने हर शै लाभ उठाया
क्या छोटे, क्या बड़े सभी, इक रौ में बहते आये
-गोपाल कृष्ण भट्ट ’आकुल’14





5. बेरोजगारी के विरूद्ध स्वर -

‘‘21वीं सदी की षिक्षा उपभोक्ता वाद को बढ़ावा देने वाली होती जा रही है ।  बाजारवाद षिक्षा परिसरों में भी पसरता जा रहा है । हम ऐसी षिक्षा के दल-दल में धंस रहे हैं, जो हमें हृदयहीन, लाचार और आत्महीन बना रही है ।  हमारे आदर्ष हमसे छूटते जा रहे हैं । हम लगातार आत्मनिर्भर बनने की कोषिष में परजीविता की ओर बढ़ते जा रहे हैं ।  भारतीय आम जनता परम्परागत षिक्षा को ही रोजगार का साधन बनाती है, लेकिन इस दौर में स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है । इस तरह की आषा रखने वाले युवाओं को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है ।‘‘15  जीवन निर्वाह के लिये हाथों में काम चाहिये । कहा भी गया है- ‘खाली दिमाग षैतान का‘ काम के अभाव में ही हुआ राश्ट्र के मुख्य धारा से पृथ्क अपना भिन्न पथ तैयार करने विवष हो जाते हैं-

‘डिगरियां लिए घूमता है आम आदमी
समस्याओं से जूझता है आम आदमी
इसलिये आत्मघाती बन रहा है आम आदमी ।‘‘
डॉ. प्रेम कुमार वर्मा (‘उद्गार‘)16

बेरोजगारी युवा मन को कुण्ठित कर देता है, वह व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करने लगता है । एक युवा के दर्द को युवा कवि इस प्रकार व्यक्त करता है-

‘‘डिग्रियों के बोझ से लदा हुआ हूँ मैं
याने कि प्रजातंत्र का गधा हुआ हूँ मैं

पकर  ज्ञान  मूर्ख  कालिदास  हो  गए
पढ लिखकर कालिदास से बेरोजगार हूँ मैं

नोचते खसोटते चारों तरफ से लोग
जैसे किसी बाढ़ का चन्दा हुआ हूँ मैं
-उदय मुदलियार17

6. अस्मिता का स्वर-
जब से मानव की सभ्यता-संस्कृति विकसित हुई है तब से अस्मिता का स्वर ध्वनित है किन्तु जैसे-जैसे समाज का विकास क्रम आगे बढ़ता गया यह स्वर अधिक घनीभूत होती गई । वैष्वीकरण के इस दौर में किसी भी वर्ग, समुदाय की उपेक्षा संभव नही है । अस्मिता का स्वर अधिकार, वजूद, पहचान, अस्तित्व, गरिमा, न्याय आदि विभिन्न रूपों में, विविध आयामों में सामाजिक-सांस्कृतिक, भौगोलिक, नैसर्गिक, जैविक, धर्म, जाति-प्रजाति, के रूप में प्रस्फूटित होते आया है । समकालीन अस्मितावादी आंदोलन, सिर्फ  अपने वजूद की पहचान या एहसास कराने का आंदोलन नहीं है, बल्कि यह भागीदारी, अधिकार, न्याय, स्वतंत्रता और मैत्री का आंदोलन है।
समकालीन कविता में असाधारण संतुलन के कवि मंगलेष डबराल दलित, षोशित की दषा पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुये कहते हैं-


दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर
एक तेज आंख की तरह
टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई
देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत
बिलखती स्त्रियों के उतारे गये गहने
देखो भूख से बाढ़ से महामारी से मरे हुए
सारे लोग उभर आये हैं चट्टानों से
दोनों हाथों से बेशुमार बर्फ़ झाड़कर
अपनी भूख को देखो
जो एक मुस्तैद पंजे में बदल रही है
जंगल से लगातार एक दहाड़ आ रही है
और इच्छाएं दांत पैने कर रही हैं
पत्थरों पर।
(पहाड़ पर लालटेन)18

औद्योगिक पूँजीवाद की जरूरत का एक प्रतिफल यह निकला कि -ं आदिवासी आदिकाल से जंगल को अपना घर समझते आ रहे थे, वे अब जंगल बदर होने लगे, मातृभूमि से काट दिये जाने लगे। समकालीन कवि डॉ. संजय अलंग, जिलाधिकारी के पद पर कार्यरत  रहते हुये जीवन के  इस गहरी पीड़ा को इन षब्दों में व्यक्त करते हैं -
बस्तर में वन रक्षा के लिए हुआ था-कुई विद्रोह
मिले संज्ञा इसे विद्रोह की ही,
कथित सम्यता के लिए बना मील का पत्थर
प्रेरणा पाई ऊँचे सभ्य लोगो ने इससे
अब बदले तरीके, विधि बदली और अंदर तक घुसे
अब नही करते हरिदास-भगवानदास जैसी क्रूर ठेकेदारी
सभ्य रहो, मजदूरी दो, विकास दिखाओ
पैसा फेंको, तमाषा देखो, अभी तो पूरा वन, पूरा खनिज
पूरे आदिवासी श्रमिक पड़े है-खोदने को दोहन को ।
-कुई विद्रोह-बस्तर 1859 (सुमन)19

अस्मिता के स्वर को प्रोत्साहित करते हुये दार्षनिक दृश्टिकोण से षंकर लाल नायक अपनी बात इस प्रकार कहते हैं-

‘हर बादल बरसे नही, बरस गया बरसात ।
जो दुख में रोते रहे, उसकी कहां औकात ।।
(‘सुख दुख‘‘ दोहा संग्रह)20

समकालीन कविता सक्षम, एवं सकारात्मक दृष्टि से संपन्न कविता है जिसने एक ओर नकारात्मकता या निषेध से मुक्ति दिलाई है तो दूसरी ओर गहरी मानवीय संवेदना से कविता को जागृत रहकर समृद्ध किया है । अपनी भूमि को सांस्कृतिक मूल्यों, स्थानीयता, देसीपन और लोकधर्मिता, स्थितियों की गहरी पहचान, अधिक यथार्थ, ठोस और प्रामाणिक चरित्र, मानवीय सत्ता और आत्मीय संबधों-रिश्तों की गरमाहट से लहलहा दिया है ।

संदर्भ ग्रंथ-
1. साहित्य परम्परा और सामाजिक सरोकार-डॉ अमित षुक्ला- पृश्ठ 81
2. सृजनगाथा-समकालीन कविताः सरोकार और हस्ताक्षर-ऋशभ देव षर्मा
3. वही
4. समकालिन कविता-दिविक रमेष
5. आधुनिकता की भाशा और मुक्तिबोध-राखी राय हल्दर- पृश्ठ 17
6. ‘षब्द गठरिया बांध‘ छंद संग्रह-अरूण निगम, अंजुमन प्रकाषान-पृश्ठ 79
7. ‘प्रयास जारी है‘ कविता संग्रह-मनोज श्रीवास्तव वैभव प्रकाषन-पृश्ठ 50
8. ‘सिर पर धूप आँख पर सपने‘ गीत संग्रह-मुकुद कौषल, वैभव प्रकाष-पृश्ठ 19
9. ‘पिता छाँव वटवृक्ष की‘ दोहा संग्रह- राजेष जैन ‘राही‘, प्रकाषक नवरंग काव्य मंच-पृश्ठ 25 एवं 37
10. ‘‘कविता कोष-सर्वेष्वर दयाल सक्सेना‘‘ से साभार
11. ये मेरा हिन्दुस्तान है‘ कविता संग्रह-पुश्कर सिंह राज
12. ‘रावण कब मरेगा‘ कविता संगह-सुरजीत नवदीव
13. ‘‘नवगीत से आगे‘ पं षंकर त्रिपाठी ‘ध्वंसावषेश‘ पृश्ठ-44
14. ‘‘कविता कोष-गोपाल कृष्ण भट्ट ’आकुल’‘ से साभार
15. साहित्य परम्परा और सामाजिक सरोकार-डॉ अमित षुक्ला- पृश्ठ 109
16. ‘उद्गार‘ कविता संग्रह- डॉ प्रेम कुमार वर्मा पृश्ठ-74
17. न्यू ऋतंभरा कुम्हारी साहित्य संग्रह का 13 वां अंक
18. ‘‘कविता कोष-मंगलेष डबराल‘‘ से साभार
19. ‘सुमन‘ सम्पादक डॉ सत्यनारायण तिवारी ‘हिमांषु‘ पृश्ठ-22
20. ‘सुख-दुख‘ षंकर के दोहे-षंकर लाल नायक

दैनिक जीवन में विज्ञान


प्रकृति को जानने समझने की जिज्ञासा प्रकति निर्माण के समान्तर चल रही है । अर्थात जब से प्रकृति का अस्तित्व तब से ही उसे जानने का मानव मन में जिज्ञासा है । यह जिज्ञासा आज उतनी ही बलवती है, जितना कल तक था । जिज्ञास सदैव असंतृप्त होता है । क्यों कैसे जैसे प्रष्न सदैव मानव मस्तिक में चलता रहता है । इस प्रष्न का उत्तर कोई दूसरे से सुन कर षांत हो जाते हैं तो कोई उस उत्तर को धरातल में उतारना चाहता है ।  अर्थात करके देखना चाहता, इसी जिज्ञासा से जो जानकारी प्राप्त होती है, वही विज्ञान है । विज्ञान कुछ नही केवल जानकारियों का क्रमबद्ध सुव्यवस्थित होना है, केवल ज्ञान का भण्ड़ार होना नही । गढ़े हुये धन के समान संचित ज्ञान भी व्यर्थ है, इसकी सार्थकता इसके चलायमान होने में है ।
विज्ञान-प्रकृति के सार्वभौमिक नियमों को क्यों? और कैसे? जैसे प्रश्नों में विभक्त करके विश्लेषण करने की प्रक्रिया से प्राप्त होने वाले तत्थों या आकड़ों के समूह को विशिष्ट ज्ञान या संक्षिप्त में विज्ञान कहते हैं।
आईये प्राकृति के किसी सार्वभौमिक नियम का विश्लेषण करके जाने-
प्रकृति का सार्वभौमिक नियम- धूप में टंगे हुये गीले कपड़े सूख जाते हैं। क्यों? और कैसे?
विश्लेषण- सूरज की किरणों में कई तरह के अवरक्त विकिरण होते हैं। जो तरंग के रूप में हम तक पहुंचते हैं। इन अवरक्त विकिरणों में बहुत अधिक ऊर्जा होती है। ये ऊर्जा कपड़े में मौजूद पानी के अणुओं द्वारा सोख ली जाती है। जिसकी वजह से वो कपड़े की सतह को छोड़कर वायुमण्डल में चले जाते हैं। पानी के सारे कण जब कपड़े की सतह को छोड़ देते हैं तो कपड़ा सूख जाता है।
विशिष्ट ज्ञान या विज्ञान- अणु अपनी ऊर्जा स्तर के आधार पर अपनी स्थिती में बदलाव कर लेते हैं तथा एक नई संरचना धारण कर लेते हैं।
जैसे-
1.लोहे के अणुओं को बहुत अधिक ऊर्जा दे दी जाय तो वो पिघल कर द्रव में बदल जाते हैं।
2.मिट्टी की ईटों को बहुत अधिक ऊर्जा देने पर वो पहले से ज्यादा ठोस हो जाती हैं।
3.पानी के अणुओं की ऊर्जा सोख लेने पर वो जमकर बर्फ में बदल जाते हैं।
सिद्धांत क्या है ?
एक सिद्धांत एक वैज्ञानिक आधार मजबूत सबूत और तार्किक तर्क पर सुझाव के रूप में परिभाषित किया गया है। एक सिद्धांत सिद्ध नहीं किया गया है, लेकिन एक वैज्ञानिक मुद्दे को एक सत्य प्रतीत होने वाला स्पष्टीकरण होने का विश्वास है।

वैज्ञानिक विधि-
1.क्रमबद्धप्रेक्षण 2. परिकल्पना निर्माण 3. परिकल्पना का परीक्षण 4.सिद्धांत कथन
दैनिक जीवन में विज्ञान- जीवन के हर क्षेत्र उपयोगी ।
प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा तकनीक को जानने के लिये पुरातत्व और प्राचीन साहित्य का सहारा लेना पडता है। प्राचीन भारत का साहित्य अत्यन्त विपुल एवं विविधतासम्पन्न है। इसमें धर्म, दर्शन, भाषा, व्याकरण आदि के अतिरिक्त गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, रसायन, धातुकर्म, सैन्य विज्ञान आदि भी वर्ण्यविषय रहे हैं।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में प्राचीन भारत के कुछ योगदान निम्नलिखित हैं-
जब किसी व्यक्ति को यह बात बताई जाती है कि हमारे देश में प्राचीन काल में बौधायन, चरक, कौमरभृत्य, सुश्रुत, आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, वाग्भट, नागार्जुन एवं भास्कराचार्य जैसे विश्वविख्यात वैज्ञानिक हुए हैं तो वह सहसा विश्वास ही नहीं कर पाता। इसका एक कारण यह भी है कि लम्बे समय की हमारी गुलामी ने हमारी इस अविछिन्न समृद्ध वैज्ञानिक परम्परा को छिन्न भिन्न कर डाला....अंग्रेजों के औपनिवेशिक विस्तार ने लुप्त प्राय ज्ञान को एक बार फिर अन्वेषित तो किया मगर उनका उद्येश्य हमें गुलाम बनाये रखना और अपनी प्रभुता स्थापित करने का ही था। तथापि अंग्रेजी भाषा के माध्यम से जब पश्चिमी वैज्ञानिक चिंतन ने इस देश की धरती पर पुनः कदम रखा, तो हमारे देश की सोई हुई मेधा जाग उठी और देश को जगदीश चंद्र बसु, श्रीनिवास रामानुजन, चंद्रशेखर वेंकट रामन, सत्येन्द्र नाथ बसु आदि महान वैज्ञानिक प्राप्त हुए, जिन्होंने असुविधाओं से लड़कर अपनी खोजीवृत्ति का विकास किया और एक बार फिर सारी दुनिया में भारत का झण्डा लहराया।

गणित - वैदिक साहित्य शून्य के कांसेप्ट, बीजगणित की तकनीकों तथा कलन-पद्धति, वर्गमूल, घनमूल के कांसेप्ट से भरा हुआ है।
खगोलविज्ञान - ऋग्वेद (2000 ईसापूर्व) में खगोलविज्ञान का उल्लेख है।
भौतिकी - ६०० ईसापूर्व के भारतीय दार्शनिक ने परमाणु एवं आपेक्षिकता के सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख किया है।
रसायन विज्ञान - इत्र का आसवन, गन्दहयुक्त द्रव, वर्ण एवं रंजकों (वर्णक एवं रंजक) का निर्माण, शर्करा का निर्माण
आयुर्विज्ञान एवं शल्यकर्म - लगभग ८०० ईसापूर्व भारत में चिकित्सा एवं शल्यकर्म पर पहला ग्रन्थ का निर्माण हुआ था।
ललित कला - वेदों का पाठ किया जाता था जो सस्वर एवं शुद्ध होना आवश्यक था। इसके फलस्वरूप वैदिक काल में ही ध्वनि एवं ध्वनिकी का सूक्ष्म अध्ययन आरम्भ हुआ।
यांत्रिक एवं उत्पादन प्रौद्योगिकी - ग्रीक इतिहासकारों ने लिखा है कि चौथी शताब्दी ईसापूर्व में भारत में कुछ धातुओं का प्रगलन (स्मेल्टिंग) की जाती थी।
सिविल इंजीनियरी एवं वास्तुशास्त्र - मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त नगरीय सभयता उस समय में उन्नत सिविल इंजीनियरी एवं आर्किटेक्चर के अस्तित्व को प्रमाणित करती है।

होमा जहाँगीर भाभा - भाभा को भारतीय परमाणु का जनक माना जाता है इन्होने ही मुम्बई में भाभा परमाणु शोध संस्थान की स्थापना की थी
विक्रम साराभाई - भाभा के बाद वे परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष बने वे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान  राष्ट्रीय समिति के प्रथम अघ्यक्ष थे थुम्बा में स्थित इक्वेटोरियल रॉकेट प्रक्षेपण केन्द्र के वे मुख्य सूत्रधार थे
एस . एस . भटनागर - इन्हें विज्ञानं प्रशासक के रूप में अपने शानदार कार्य के लिये जाना जाता है इन्होंने देश में वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की स्थापना की थी
सतीश धवन  - सतीश धवन को विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा, सन 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया थाध्वनि के तेज रफ्तार (सुपरसोनिक) विंड टनेल के विकास में इनका प्रयास निर्देशक रहा है
जगदीश चंद्र बसु- ये भारत के पहले वैज्ञानिक शोधकर्त्ता थे 1917 में जगदीश चंद्र बोस को ष्नाइटष् की उपाधि प्रदान की गई तथा शीघ्र ही भौतिक तथा जीव विज्ञान के लिए श्रॉयल सोसायटी लंदनश् के फैलो चुन लिए गए इन्होंने ही बताया कि पौंधों में जीवन होता है
चंद्रशेखर वेंकट रमन - इन्होने स्पेक्ट्रम से संबंधित रमन प्रभाव का आविष्कार किया था जिसके कारण इन्हें 1930 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था
बीरबल साहनी -बीरबल साहनी अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पुरावनस्पति वैज्ञानिक थे इन्हें भारत का सर्व श्रेष्ठ पेलियो-जियोबॉटनिस्ट माना जाता है
सुब्रमण्यम चंद्रशेखर  - 1983 में तारों पर की गयी अपनी खोज के लिये इन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था
हरगोविंद खुराना - इन्होने जीन की संश्लेषण किया जिसके लिए इन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था
ए.पी.जे. अब्दुल कलाम -जिन्हें मिसाइल मैन और जनता के राष्ट्रपति के नाम से जाना जाता है इन्होंने अग्नि एवं पृथ्वी जैसे प्रक्षेपास्त्रों को स्वदेशी तकनीक से बनाया था भारत सरकार द्वारा उन्हें 1981 में पद्म भूषण और 1990 में पद्म विभूषण का सम्मान प्रदान किया गया
क्या धर्म विज्ञान है -
‘मेरे लिए धर्म परम विज्ञान है, सुप्रीम साइंस है। इसलिए मैं नहीं कहूंगा कि धर्म का कोई भी आधार फेथ पर है। कोई आधार धर्म का फेथ पर नहीं है। धर्म का सब आधार नॉलेज पर है।

साइंस, सुप्रीम साइंस! लेकिन साधारणतः धर्म के संबंध में समझा जाता है कि वह विश्वास है, फेथ है। वह गलत है समझना, मेरी दृष्टि में। मेरी दृष्टि में, धर्म भी एक और तरह का ज्ञान है। और धर्म के जितने भी सिद्धांत हैं, वे किसी के ज्ञान से निःसृत हुए हैं, किसी के विश्वास से नहीं। इसलिए मेरा निरंतर जोर है कि मानें मत, जानने की कोशिश करेंय और जिस दिन जान लें उसी दिन मानें। जान कर जो मानना आता है, उसका नाम तो श्रद्धा हैय और बिना जाने जो मानना आता है, उसका नाम विश्वास है। श्रद्धा तो ज्ञान की अंतिम स्थिति है और विश्वास अज्ञान की स्थिति है। और धर्म अज्ञान नहीं सिखाता।

इसलिए मैंने जो कहा है कि आवागमन को मत मानें, पुनर्जन्म को मत मानें, इसका यह मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि आवागमन नहीं है। इसका यह मतलब भी नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि पुनर्जन्म नहीं है। मैं यही कह रहा हूं कि मान लिया अगर तो खोज बंद हो जाती है। जानने की कोशिश करें। और जानना तो तभी होता है जब सम्यक संदेह, राइट डाउट मौजूद हो। उलटा भी मान लें तो भी संदेह नहीं रह जाता। अगर मैं यह भी मान लूं कि पुनर्जन्म नहीं है, तो भी खोज बंद हो जाती है। अगर मैं यह भी मान लूं कि पुनर्जन्म है, तो भी खोज बंद हो जाती है। खोज तो सस्पेंशन में है। मुझे न तो पता है कि है, न मुझे पता है कि नहीं है। तो मैं खोजने निकलता हूं कि क्या है, उसे मैं जान लूं।‘
-ओषो
सिद्धांत क्या है ?
एक सिद्धांत एक वैज्ञानिक आधार मजबूत सबूत और तार्किक तर्क पर सुझाव के रूप में परिभाषित किया गया है। एक सिद्धांत सिद्ध नहीं किया गया है, लेकिन एक वैज्ञानिक मुद्दे को एक सत्य प्रतीत होने वाला स्पष्टीकरण होने का विश्वास है।
आविष्कार
आविष्कार नितांत नवीन और अभूतपूर्व होता है । यूँ मेटाफिजिक्स की दृष्टि से देखें तो अभूतपूर्व भी कुछ नहीं होता । सब कुछ रिपीट होता है, बस केवल हमारे सामने जो पहली बार प्रकट होता है हम उसे आविष्कार मान लेते हैं ।
प्राकृतिक संसाधन
 वो प्राकृतिक पदार्थ हैं जो अपने अपक्षक्रित (?) मूल प्राकृतिक रूप में मूल्यवान माने जाते हैं। एक प्राकृतिक संसाधन का मूल्य इस बात पर निर्भर करता है की कितना पदार्थ उपलब्ध है और उसकी माँग (कमउंदक) कितनी है। प्राकृतिक संसाधन दो तरह के होते हैं-

नवीकरणीय संसाधन और
अनवीकरणीय संसाधन
प्राकृतिक संसाधन वह प्राकृतिक पूँजी है जो निवेश की वस्तु में बदल कर बुनियादी पूंजी (पदतिंजतनबजनतंस बंचपजंस) प्रक्रियाओं में लगाई जाती है।ख्1,ख्2, इनमें शामिल हैं मिट्टी, लकड़ी, तेल, खनिज और अन्य पदार्थ जो कम या ज्यादा धरती से ही लिए जाते हैं। बुनियादी संसाधन के दोनों निष्कर्षण शोधन (तमपिदपदह) करके ज्यादा शुद्ध रूप में बदले जाते हैं जिन्हें सीधे तौर पर इस्तेमाल किया जा सके, (जैसे धातुएँ, रिफाईंड तेल) इन्हें आम तौर पर प्राकृतिक संसाधन गतिविधियाँ माना जाता है, हालांकि जरूरी नही की बाद में हासिल पदार्थ, पहले वाले जैसा ही लगे।
आज भी ऊर्जा के परम्परागत स्रोत महत्वपूर्ण हैं, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता, तथापि ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोतों अथवा वैकल्पिक स्रोतों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। इससे एक ओर जहां ऊर्जा की मांग एवं आपूर्ति के बीच का अन्तर कम हो जाएगा, वहीं दूसरी ओर पारम्परिक ऊर्जा स्रोतों का संरक्षण होगा, पर्यावरण पर दबाव कम होगा, प्रदूषण नियंत्रित होगा, ऊर्जा लागत कम होगी और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक जीवन स्तर में भी सुधार हो पाएगा।

वर्तमान में भारत उन गिने-चुने देशों में शामिल हो गया है, जिन्होंने 1973 से ही नए तथा पुनरोपयोगी ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करने के लिए अनुसंधान और विकास कार्य आरंभ कर दिए थे। परन्तु, एक स्थायी ऊर्जा आधार के निर्माण में पुनरोपयोगी ऊर्जा या गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग के उत्तरोत्तर बढ़ते महत्व को तेल संकट के तत्काल बाद 1970 के दशक के आरंभ में पहचाना जा सका।

आज पुनरोपयोगी और गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के दायरे में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल विद्युत्, बायो गैस, हाइड्रोजन, इंधन कोशिकाएं, विद्युत् वहां, समुद्री उर्जा, भू-तापीय उर्जा, आदि जैसी नवीन प्रौद्योगिकियां आती हैं

जेवारा (जंवारा)



हमर छत्तीसगढ़ मा शक्ति के अराधना के एक विशेषा महत्व हे । छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल से ले के मैदानी क्षेत्र तक आदि शक्ति के पूरा साल भर पूजा पाठ चलत रहिथे । आदि शक्ति अराधना के विशेषा पर्व होथे, जेला नवरात के नाम से जाने जाथे । नवारात पर्व एक साल मा चार बार होथे । दू नवारात ला गुप्त नवरात अउ दून ठन ला प्रगट नवरात कहे जाथे । प्रगट नवरात ला हम सब झन जानथन । पहिली नवरात नवासाल के शुरूच दिन ले शुरू होथे चइत नवरात जेला वासंतीय नवरात के नाम ले जाने जाथे । दूसर नवरात होथे कुंवार महिना के अंजोरी पाख के एकम ले नौमी तक । दूनों नवरात मा देवी के अराधना करे जाथे । मंदिर देवालय मा अखण्ड़ जोत जलाये जाथे । दूनों नवरात मा पूजा पाठ अराधना के एके जइसे महत्व हे फेर लोकाचार लोकाव्यवहार मा दूनों मा कुछ आधारभूत अंतर हे । कुवार नवरात मा मां दुर्गा के प्रतिमा बना के गांव-गांव उत्सव मनाये जाथे । ये काम चइत नवरात मा नई होवय । चइत नवरात कुछ भक्त मन अपन घर मा मां के अराधना करे बर अखण्ड़ जोत जलाथे जेखर साथ गेहू बोये जाथे ऐही ला जंवारा कहिथे ।
वास्तव मा गेहूं के पौधा ला ही जंवारा कहे जाथे, फेर पर्व मा श्रद्धा से आदिषक्ति के वास येमा माने जाथे । येही जेवारा बोना कहे जाथे । येही हा दू प्रकार के होथे- ंपहिली सेत जंवारा, दूसर मारन वाले जेवारा । दूनो जंवारा के बोये के, पूजा पाठके, सेवा करे के विधि सब एक होथे ।  अंतर केवल ऐखर विसर्जन के दिन के रीत मा होथे । सेत जंवारा मा केवल नारियल के भेट करत जंवारा विर्सजन करे जाथे जबकि मारन जंवारा मा बलि प्रथा के निर्वाहन करे जाथे ।
जंवारा चइत महिना के एकम ले लेके पुन्नी तक मनाये जाथे । सेत जंवारा के पर्व मंदिर के पर्व के साथ षुरू होथे अउ होही तिथि मा विसर्जित घला होथे यने कि एकम ले षुरू होके नवमी तक । जबकि मारन जंवारा एकम से लेके अश्टमी तक कोनो दिन षुरू होथे अउ षुरू होय के आठ दिन बाद विसर्जित होथे ।
जंवारा पर्व के चार प्रमुख चरण होथे -
1.बिरही    2. घट स्थापना या जोत जलाना 3.अष्टमी या अठवाही  4. विर्सजन
    सबले पहिली बिरही होथे बिरही यने के गहूं मा जरई जमाना (अंकुरण) आय लेकन येहू ला पूजा पाठ अउ श्रद्धा ले करे जाथे, षुरू दिन सूर्यास्त के बाद पूजा पाठ के बाद साफ गहू ला भींगो के रात भर छोड़ दे जाथे । वैज्ञानिक रूप ले रात भर भींगे गहू अंकुरत हो जाथे । दूसर दिन बा्रम्हण पुरोहित के षोधे गे समय मा पूजा पाठ करके अखण्ड़ दीपक जलाये जाथे जउन हा विसर्जन तक पूरा नव दिन-रात जलथे । येही ला जोत कहे जाथे ।  ये जोत के साथ-साथ नवा-नवा चुरकी मा साफ बोये के लइक माटी डाल के बिरही (जरई आय गहूं) ला सींच दे जाथे । जब गहू जाम जथे ता येला बिरवा कहे जाथे, जउन हा रोज रोज बाढ़त जाथे । ये बिरवा मा दाई वास माने जाथे । बिरवा जल्दी जल्दी बाढ़य बढ़िया रहय ये सोच ले के रोज मां सेवा करे जाथे । मां के सेवा करे के येमारा अर्थ बिरवा अउ जोती के देख-रेख करना अउ मां ला खुष रखें मां बढ़ई करना, गुणगान करना, होथे । मां के गुणगाण करत जउन गीत गाये जाथे होही ला जस गीत कहे जाथे । ये गीत के गवईया मन ला सेऊक कहे जाथे । सेऊक मन ढ़ोलक, मांदर, झांझ, मंजिरा के संग मा के गीत गाथें, ये गीत अपन अलगे लय होथे । जउन एतका मधुर होथे कुछ भगत मन गीत के लय मा झूमें लगथें जेला, देवता चढ़ना कहे जाथे । ये गाना बजना लगातार नव दिन तक चलत रहिथे । आठवां दिन ला अठवाही कहे जाथे, ये दिन मां के पूजा पाठ के षांति अउ होय भूलचूक के माफी बर हूम-हवन करे जाथे । येही दिन हिती-प्रीतू मन ओखर घर जांके जंवारा (फूलवारी) मा नारियल के भेंट चढ़ाथे । आखिर नवां दिन जोत अउ जंवारा के विर्सजन करे जाथे । विर्सजन गांव भर के लइका सियान आये सगा-पहूना मन भाग लेथे । सेउक मन जसगीत गात चलते । सेत मा सब झन नरियर के भेंट करत रहिथे । मारन मा जोत विर्सजन मा घर ले नदिया ले जाये के बेरा घर मा ही भेड़वा बोकरा के बली दे जाथे । बाकी विधि एके रहिथे ।
    जसगीत मा आदिषक्ति के गुणगान ही रहिथे कोनो पौराणिक कथा के आधार मा मां के स्तुति करना हे । चूंकि मां के रूप ला जंवारा मा, जोत मा निहीत मान लेथन ता ये जोत अउ जंवारा के स्तुति करना जस आय । जस मने दाई के यषगान करना आय । छत्तीसगढ़ मा गाये गे गीत के विधा ददरिया, करमा, भडौनी, सोहर, लोरिक चंदा, जस अइसे कहू गिनती करे जाये ता सबले जाथा जस गीत ही पाये जाही ।          

संबंध पहले जन्म लिया या प्यार

लाख टके का प्रश्न है कि संबंध पहले जन्म लिया या प्यार । नवजात शिशु को कोई प्यार करता है इसलिये उसे पुत्र-पुत्री के रूप में स्वीकार करता है अथवा पुत्र-पुत्री मान कर उससे प्यार करता है । यदि पहले तर्क को सही माना जाये तो कोई भी व्यक्ति  किसी भी बच्चे को प्यार कर अपने संतान के रूप में स्वीकार कर सकता है अथवा स्वयं के संतान उत्पन्न होने पर कुछ दिन सोचेंगे कि इससे प्यार करे या ना करे कुछ दिनों पश्चात उस नवजात से प्रेम नही हो पाया तो उसे अपना संतान मानने से इंकार कर देंगे । दूसरे तर्क को सही माना जाये तो संतान उत्पन्न होने पर मेरा संतान है यह संबंध स्थापित कर उससे प्रेम स्वमेव हो जाता है इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति से संबंध स्थापित करने के पष्चात उससे प्रेम कर सकते हैं ।

‘प्यार किया नही जाता प्यार हो जाता है‘ इस पंक्ति का यदा कदा हर  युवक कभी न कभी उपयोग किया ही होगा किन्तु इस पर गंभीर चिंतन शायद ही कोई किया हो । पहले भाग ‘प्यार किया नही जाता‘ का अभिप्राय अनायास ही बिना उद्यम के प्यार हो जाता है । अब यदि ‘प्यार‘ के उद्गम पर चिंतन किया जाये तो स्वभाविक प्रष्न उठता है सर्वप्रथम आपको प्यार का एहसास कब और क्यों हुआ ?  जवाब आप कुछ भी सोच सकते है किन्तु सत्य यह है कि आपको सबसे पहले प्यार अपने मां से हुआ जब आपकी क्षुधा शांत हुई । क्षुधा प्रदर्षित करने के लिये आपको रोने का उद्यम करना पड़ा । दूसरे भाग ‘प्यार हो जाता है‘ का अभिप्राय मन में अपना पन मान लेने से उनके प्रति एक मोह जागृत होता है, इसे कहते है ‘प्यार हो जाता है‘ । जैसे माता-पिता अपने षिषु को जब अपना संतान मान लेते हैं तो उनके प्रति अगाध प्रेम उत्पन्न हो जाता है । किन्तु यदि किसी कारण वश यदि किसी पिता को यह ज्ञात ना हो कि वह शिशु उसी का संतान है तो उसे कदाचित वह प्यार उस शिशु से ना हो । जब कोई्र व्यक्ति किसी वस्तु अथवा किसी व्यक्ति को अपना मान लेता है तो वह उसके प्रति आषक्त हो जाता है यही आषक्ति वह प्यार है । आषक्ति, मोह व प्यार में कुछ अंतर होते हुये भी ये तीनो अंतर्निहित हैं ।
प्यार अपनेपन के भाव में अवलंबित है, अपनापन कब होता है ?  जब हम किसी सजीव-निर्जिव, वस्तु-व्यक्ति के सतत संपर्क में रहते है तो धीरे-धीरे उसके प्रति आकर्षण उसी प्रकार उत्पन्न होता है, जैसे चुंबक के संपर्क में रहने पर लौह पदार्थ में चुम्कत्व उत्पन्न हो जाता है। इसी का परिणाम है कि हम अपने परिवार, अपने घर अपनी वस्तु अपने पालतू जानवर, अपने पड़ोसी, अपने गांव, अपने देष से प्यार करने लगते हैं । प्यार का पैरामीटर अपनापन है । प्यार उसी से होता है जिसके प्रति अपनापन होता है । अपनापन का विकास जिस क्रम होता है उसी क्रम में प्रेम उत्पन्न हो जाता है । अपनेपन में ‘प्यार किया नही जाता प्यार हो जाता है ।

लोकप्रिय पोस्ट