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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

समकालीन कविताओं में व्यवस्था के विरूद्ध अनुगुंज


साहित्य समाज की दिषा एवं दषा का प्रतिबिम्ब होता है, जिसमें जहां एक ओर सभ्यता एवं संस्कृति के दर्षन होते हैं तो वहीं समाज के अंतरविरोधों के भी दर्षन होते हैं । आदिकाल, भक्ति काल, रीतिकाल से लेकर आधुनिक काल तक साहित्य मनिशियों ने तात्कालिक समाज के अंतर्द्वंद को ही उकेरा है । आधुनिक काल के छायावादी, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी और नई कविताओं में उत्तरोत्तर नूतन दृश्टि, नूतन भाव-बोध, नूतन षिल्प विधान से नये सामर्थ्य से कविता सामने आई है, जो जन सामान्य की अनुभूतियों को सषक्त करने की अभिव्यक्ति देती है ।  इसमें अनुभूति की सच्चाई एवं यथार्थवादी दृश्टिकोण का समन्वित रूप है । समकालीन कवितायें इनसे एक कदम आगे जनमानस के उमंग, पीर को जीता ही जीता है, इसके साथ ही वर्तमान व्यवस्थाओं से विद्रोह करने से भी नही चुकता ।
आधुनिक काव्य साहित्य भारत के आजादी के पूर्व जहां राश्ट्रवाद का प्रतीक था वहीं आजादी के पश्चात समाज में व्याप्त अंध विष्वासों, कुरीतियों, और जातिवाद के  उन्मूलन का हथियार बनकर उभरा ।  आजाद भारत के विकास के लिये षिक्षा का प्रचार-प्रसार, नवीन सोच, दलित उत्थान, नारी उत्थन जैसे अनेक विशयों पर जनमानस में अलख जगाने कवितायें दीपक की भांति प्रकाषवान रहीं ।
आधुनिक हिन्दी कविता के इतिहास में 1970 के बाद की कविता को समकालिन कविता के नाम से जाना जाता है । डॉ. अमित षुक्ला के अनुसार - ‘‘जिस प्रकार आधुनिकवाद की अवधारणा किसी एक व्यक्ति या पुस्तक की देन नहीं थी उसे विकसित होने में कोई तीन सौ वर्श का समय लगा था, उसी प्रकार उत्तर आधुनिकवाद बीसवीं षताव्ब्दी में साठ के दषक  के उन मुक्ति आन्दोलनों से निकला है, जिन्होंने व्यक्ति तथा व्यवस्था, अल्प समूह तथा वृहत समाज, विचारों तथा विसंगतियों, नीतियों, राजनीति पर प्रष्न चिन्ह लगा दिया ।‘‘1 यही समकालीन साहित्य का नींव है जिसमें विरोधी विचार हाषिए पर स्थित लोग, नारी वर्ग, दलित जनजातियां, समलैंगिक स्त्री-पुरूश आदि जिन्हें समाज में सक्रियता एवं सांस्कृतिक संवाद के दायरे से बाहर रखा जाता था अब अस्मिता के संघर्श समूह बनकर उभरे । ऋशभ देव षर्मा इस संबंध में कहते हैं कि -‘‘समकालिन कविता ऐसी कविता है जो अपने समय के चलती है, होती है, जीती है । इसे आधुनिकता का अगला चरण भी कहा जा सकता है।  अंतर केवल इतना है कि आधुनिकता बोध के केन्द्र में आधुनिक मनुश्य है और समकालीनता बोध के केन्द्र में समकाल ।‘‘2
समकालिन कविता की आधार भूमि मुख्य रूप से युग परिवेष और उसके जीवन के साथ जुड़े हुये विवषतापूर्ण सवाल है । 20 वी सदी के अंतिम तीन दषकों का भारतीय परिवेष समकालीन कविता की आधारभूमि और प्रेरणा स्रोत है । आज भारतीयों के सामने एक बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है आजादी के इतने वर्शो के बाद भी भारतीय आम आदमी भ्रश्टाचार और असमामानता को झेलने के लिये अभिसप्त क्यो है ? आज गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी भ्रश्टाचार से सामान्य जनता और बुद्धिजीवी वर्ग आहत क्यों हैं ? ‘‘प्रत्येक जागरूक नागरिक की चेतना को झिझोड़ने वाले ऐसे ही सवाल समकालीन कविता के मूलभूत सरोकारों का निर्धारण करते हैं ।‘‘3
समकालिन कविताओं में जीवन के दुर्भरताओं से जुझने का माद्दा है । जीवन पगडंडियों में बिखरे पड़े गरीबी, बेरोजगारी, भ्रश्टाचार, असमानता जैसे कांटों को चुन-चुन कर बुहारा जा रहा है ।

हिन्दी साहित्य में गजानन मुक्तिबोध तथा उनके समकालीन कवि नागार्जुन, षमषेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल को संघर्शषील आधुनिकता का पक्षधर माना गया है ।  संघर्शषील आधुनिकता ही आज के समकालीन कविता है । इस प्रकार मुक्तिबोध को समकालीन कविता का आधार कवि कह सकते हैं । डॉ सूरज प्रसाद मिश्र ने ‘समकालीन हिन्दी कविताओं के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर‘ में मुक्तिबोध, नामार्जुन,  रामदरष मिश्र, केदार नाथ सिंह, विजेन्द्र, सुदामा प्रसाद धूमिल, विनोद कुमार षुक्ल, चंद्रकांत देवताले, षोभनाथ यादव, रमेष चन्द्र षाह, भगवत रावत, विष्वनाथ प्रसाद तिवारी, अषोक वजपेयी, आदि नामो को स्थान दिया है ।  ऐसे तो 1970 के पश्चात के सभी कवियों को समकालीन कविता  के कवि कहे जा सकते हैं ।  किन्तु प्रतिनिधियों कवियों क पहचान के दृश्टिकोण से दिविक रमेष द्वारा सम्पादित कविता संग्रह ‘‘निशेध के बाद‘‘ (1981) में दिविक रमेष, अवधेश कुमार, तेजी ग्रोवर, राजेश जोशी, राजकुमार कुम्भज, चन्द्रकांत देवताले, सोमदत्त, श्याम विमल और अब्दुल बिस्मिल्लाह को सम्मिलित कर इन्हें समकालीन कविता के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया । किन्तु बाद में दिविक रमेष स्वयं लिखते हैं -‘‘मानबहादुर सिंह, गोरख पाण्डेय और ज्योत्सना मिलन जैसे कवियों की भी कविताओं को सम्मिलित किए बिना समकालीन कविता का परिदृश्य अधूरा ही रहेगा । देश की भूमि पर, विशेष रूप से हिन्दी अंचल में ही देखें तो एक साथ कई पीढ़ियां काव्य रचना में तल्लीन दिखाई देती हैं। कुंवर नारायण, रामदरश मिश्र, कैलाश वाजपेयी, माणिक बच्छावत, गंगा प्रसाद विमल, सुनीता जैन आदि सक्रिय हैं तो अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे, भगवत रावत, नन्दकिशोर आचार्य, चन्द्रकांत देवताले, अरुण कमल, विश्वरंजन, मंगलेश डबराल आदि के साथ अन्य दो कनिष्ठ और नई पीढ़ियों के भी कितने ही कवि हिन्दी कविता को भरपूर योगदान दे रहे हैं।‘‘4

‘समकालीनता‘ एक व्यापक एवं बहुआयामी षब्द है जो आधुनिकता का आधार तत्व है ।  वास्तव में ‘समकालीनता‘ आधुनिकता में आधुनिक है, जिसके संबंध में रामधारी सिंह दिनकरजी कहते हैं- ‘जिसे हम आधुनिकता कहते हैं वह एक प्रक्रिया का नाम है । यह अंध विष्वास से बाहर निकलने की प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया नैतिकता में उदारता बरतने की प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया बुद्धिवादी बनने की प्रक्रिया है ।‘‘5 इस प्रक्रिया में आदर्शवाद से हटकर नए मनुष्य की नई मानववादी वैचारिक भूमि की प्रतिष्ठा समकालिन कविताओं में समाज के विभिन्न व्यवस्थाओं के प्रति विरोध के स्वर रूप में अनुगुंजित हैं-
1. राजनीतिक व्यवस्था के विरूद्ध स्वर -
भारतीय समाज में राजनीति का बहु-आयामी महत्व है । समाज और साहित्य का विकास भी समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों से होता रहा है ।  तात्कालिक राजनैतिक परिस्थितियाँ साहित्य को काफी प्रभावित करती हैं ।  समकालीन कवियों के प्रतिनिधि रघुवीर सहाय जीवनासक्त अभिव्यक्तियों की जगह व्यवस्था के प्रति व्यंग्य और यथार्थ का गंभीर विष्लेशण किये हैं उनकी कविताओं में यह मूर्त रूप में देखने को मिलता है ।  रघुवीर सहाय राजनीतिक विद्रूपताओं, पाखण्ड़ों  और झूठ को अपनी कविताओं का विशय बनाये हुये है - ‘नेता क्षमा करें‘ ‘सार और मूल्यांकन‘ उनकी इन्हीं अभिव्यक्ति के  प्रतिबिम्ब हैं । जन-प्रतिनिधियों  के स्तरहीन चरित्र और उनके खोखलेपन, जनता को क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्मवाद आदि में फँसाकर खुद की कुर्सी का साधना करने की प्रवृत्ति,  कुर्सी की सेवा करने की आकंठ लालसा । वृद्ध होकर षिषुओं की तरह कुर्सी के लिये लड़ते रहने के बचपने को देखकर सहायजी इनके चरित्रों को बेनकाब करते हुये कहतें हैं-

‘‘सिंहासन ऊँचा है, सभाध्यक्ष छोटा है
अगणित पिताओं के
एक परिवार के
मुँह बाए बैठे हैं लड़के सरकार के
लूले, काने, बहरे विविध प्रकार के
हल्की-सी दुर्गन्ध से भर गया है सभाकक्ष
सुनो वहाँ कहता है
मेरी हत्या की करूण गाथा
हँसती है सभा, तोंद मटका
उठाकर
अकेले पराजित सदस्य की व्यथा पर‘‘
(‘मेरा प्रतिनिधि‘)

राजनीति ही वह कारक है जो समाज की व्यवस्था को अंदर तक प्रभावित करती है । लोकतंत्र में सरकार का चयन आम जनता के हाथ में है इसी कारण जनता को आगाह कराते हुये नेताओं के चरित्र को अरूण निगम इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं -

‘‘झूठे निर्लज लालची, भ्रश्ट और मक्कार ।
क्या दे सकते हैं कभी, एक भली सरकार ।।
एक भली सरकार, चाहिए-उत्तम चुनिए ।
हो कितना भी षोर, बात मन की ही सुनिए ।
मन के निर्णय अरूण, हमेषा रहें अनूठे ।
देते मन को ठेस, लालची निर्लज झूठे ।।‘‘
(अरूण निगम-‘षब्द गठरिया बांध‘)6

राजनीतिक उठा-पटक और अपनों में ही चल रहे षह-मात पर व्यंग्य करते हुये आज के हास्य-व्यंग्यकार मनोज श्रीवास्तव रूपायीत किया है-

‘‘एक कुत्ते ने दूसरे कुत्ते को,
देखकर जोर से भौंका,
सामने से आ रहा नेता
यह दृष्य देखकर चौंका,
उसने कुत्तों से कहा- ‘‘भाई,
क्यों लड़ते हो ?
कुत्तों ने कहा- नेताजी
लड़ना तो आपका काम है,
हमने तो षर्त लगाई थी,
किसकी आवाज में,
अपने मालिक का नाम है ।‘‘
(‘प्रयास जारी है‘)7

राजनीति पर हर छोटे-बड़े समकालीन कवियों ने कटाक्ष किया है । लोकतंत्र में नेता और मतदाता सिक्के के दो पहलू की तरह हैं, जहां नेताओं का चारित्रिक पतन समकालिकता िंचंतन का विशय है वहीं मतदाताओं के लालची प्रवृत्ति भी सांगोपांग चिंतनीय है, जिसका प्रतिबिम्ब समकालीन कविता में सहज सुलभ है ।

2. अमानवीयता के विरूद्ध स्वर -
समाज का अस्तित्व मानव और मानवता से है । नव-पूंजीवादी दौर में मानवतावादी मूल्य समाज से लगभग गायब होते जा रहे हैं । मनुश्य आत्मकेंद्रित होते जा रहा है । अपने समाजिक सरोकार को आज का मनुश्य विस्मृत कर बैठा है । इस पीड़ा को रघुवीर सहायजी ‘दुनिया‘ षीर्शक कविता में व्यक्त करते हैं-

‘‘न कोई हँसता है न कोई रोता है
न कोई प्यार करता है न कोई नफरत
लोग या तो दया करते हैं या घमंड
दुनिया एक फफंदियाई हुई से चीज है ।‘‘

समाज का कुछ वर्ग इतना निरंकुष हो गया है कि लोग भीड़ में भी एकाकी पन को जीने के लिये विवष हैं । भौतिकवाद इतना पसरा है कि हर कोई इसके आगोष में खोये-खोये से लगते हैं ।  इसे मुकंद कौषलजी के इन पंक्तियों में महसूस किया जा सकता है-



‘‘ऊँचे ऊँचे पेड़ बहुत हैं
लेकिन छाँव नही
दूर तलक केवल पगडंड़ी, कोई गाँव नही

ओढ़ चले आँचल धरती का
बाहों में अम्बर
मुठ्ठी में हैं आहत खुषियां
किरणें कांवर भर
चूर-चूर अभिलाशाओं को, मिलती ठाँव नहीं ।‘‘
(‘सिर पर धूप आँख में सपने‘)8

सामाजिक सरोकार का ताना-बाना इस कदर उलझ गया है कि आपसी रिष्ते भी स्वार्थ केन्द्रित प्रतित हो रहे हैं । माँ-बाप के असहायपन का चित्रण करते हुये राजेष जैन ‘राही‘ कहते हैं -

‘लाठी जिसको जग कहे, पुत्र कहाँ वो हाय ।
वृद्ध हुए माँ बाप तो, बेटा लठ्ठ बजाय ।।

बिखरे-बिखरे से सपन, बिखरी सी हर बात ।
बेटा कुछ सुनता नही, कह कर हारे तात ।।‘‘
(‘पिता छाँव वटवृक्ष की‘)9

मानवता समाज की रीढ़ की हड्डी है । समाज सामाजिक सरोकार के बल पर ही संचालित है । समाज को तोड़ने वाली व्यवस्था के विरूद्ध समकालीन कविता उठ खड़ी हुई है ।

3. भूखमरी और दीनता पर व्यवस्था के विरूद्ध स्वर-

‘इक्कीसवीं सदी भारत का होगा‘ यह दिव्या स्वप्न देखने वालों को देष के उस अधनंगे भूखे लोगों की ओर ताकने का अवसर ही नहीं मिल पाता जो दो जून के रोटी के लिये मारे-मारे फिर रहें हैं । भारत के समग्र विकास के लिये आवष्यक है कि इस तबके को झांका जाये । समकालीन कविता मानवतावादी है, पर इसका मानवतावाद मिथ्या आदर्श की परिकल्पनाओं पर आधारित नहीं है। उसकी यथार्थ दृष्टि मनुष्य को उसके पूरे परिवेश में समझने का बौद्धिक प्रयास करती है। समकालीन कविता मनुष्य को किसी कल्पित सुंदरता और मूल्यों के आधार पर नहीं,बल्कि उसके तड़पते दर्दों और संवेदनाओं के आधार पर बड़ा सिद्ध करती है, यही उसकी लोक थाती है। केदारनाथ सिंहजी अपनी प्रसिद्ध कविता ‘रोटी‘ में इसकी महत्ता प्रतिपादित करते हुये कहते हैं-

‘‘उसके बारे में कविता करना
हिमाकत की बात होगी
और वह मैं नहीं करूंगा

मैं सिर्फ आपको आमंत्रित करूँगा
कि आप आयें और मेरे साथ सीधे
उस आग तक चलें
उस चूल्हें तक जहां पक रही है
एक अद्भूत ताप और गरिमा के साथ
समूची आग को गंध बदलती हुई
दुनिया की सबसे आष्चर्यजनक चीज
वह पक रही है ।

भूखमरी समाज के असन्तुलित व्यवस्था की परिणीति है, समकालीन कविता अपने जन्म से ही इस व्यवस्था के विरूद्ध मुखर है, सर्वेष्वर दयाल सक्सेना की ये पंक्तियां इसे अभिप्रमाणित करती हैं-

‘‘गोली खाकर
एक के मुँह से निकला -
’राम’।

दूसरे के मुँह से निकला-
’माओ’।

लेकिन तीसरे के मुंह से निकला-
’आलू’।

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे।‘‘
-सर्वेष्वर दयाल सक्सेना, (पोस्टमार्टम की रिपोर्ट)10

भूखमरी और कुरीति पर एक साथ प्रहार करते हुये व्यंगकार कवि पुश्कर सिंह राज व्यंग्य करते हुये कहते हैं -

अधनंगा रह जो पूरी जिन्दगी खपाता है
उसकी लाष पे तू कफन चढ़ाता है ।

अभावों में रह जो भूख से मर जाता है
मौत पे उसके तू मृत्यु-भोज कराता है ।।
(‘ये मेरा हिन्दुस्तान है‘)11


4. भ्रश्टाचार के विरूद्ध स्वर -
समकालीन कविता वास्तव में व्यक्ति की पीड़ा की कविता है। अपने पूर्ववर्ती कविता की भांति यह व्यक्ति के केवल आंतरिक तनाव और द्वंद्वों को नही उकेरता अपितु यह व्यापक सामाजिक यथार्थ से जुड़ाव महसूस कराता है। जिंदगी की मारक स्थितियों को, उसकी ठोस सच्चाइयों को और राजनीतिक सरोकारों को भावुक हुये बिना सत्य का साक्षात्कार कराती है । प्रषासनिक तंत्र में भ्रश्टाचार का विश जन सामन्य को जीने नही दे रही है । स्थिति इतनी विकट है कि सुरजीत नवदीप माँ दुर्गे से कामना करते हुये कहते हैं-

‘माँ दुर्गे
सादर पधारो,
बुराइयों के
राक्षसों को संहारो ।
मँहगाई
पेट पर
पैर धर रही है,
भ्रश्टाचार की बहिन
टेढ़ी नजर कर रही हैं ।‘‘
-सुरजीत नवदीप (रावण कब मरेगा)12

भ्रश्टाचार समाज की वह कुरीति है जो समाज को अंदर से खोखला कर रही है । भ्रश्टाचार का जन्म कुलशित राजनीति के कोख से हुआ है-

‘झूठ ढला है-सिक्कों सी राजनीति-टकसाल है
पूरी संसद-चोरों और लुटेरों की-चउपाल है ।।‘‘
पं. षंकर त्रिपाढ़ी ‘ध्वंसावषेश‘ (‘नवगीत से आगे....‘)13

आज की व्यवस्था इस प्रकार है कि- भ्रश्टाचार कहां नही है ? कौन इससे प्रभावित नही है ? आखिर यह व्यवस्था इतनी पल्लवीत क्यों है ? इन प्रष्नों का उत्तर समकालीन कवि का धर्म इस प्रकार व्यक्त करता है -

‘‘कहाँ नहीं है भ्रष्टाचार, मगर चुप रहते आये
आवश्यकता की खातिर हम, सब कुछ सहते आये
बढ़ा हौसला जिसका, उसने हर शै लाभ उठाया
क्या छोटे, क्या बड़े सभी, इक रौ में बहते आये
-गोपाल कृष्ण भट्ट ’आकुल’14





5. बेरोजगारी के विरूद्ध स्वर -

‘‘21वीं सदी की षिक्षा उपभोक्ता वाद को बढ़ावा देने वाली होती जा रही है ।  बाजारवाद षिक्षा परिसरों में भी पसरता जा रहा है । हम ऐसी षिक्षा के दल-दल में धंस रहे हैं, जो हमें हृदयहीन, लाचार और आत्महीन बना रही है ।  हमारे आदर्ष हमसे छूटते जा रहे हैं । हम लगातार आत्मनिर्भर बनने की कोषिष में परजीविता की ओर बढ़ते जा रहे हैं ।  भारतीय आम जनता परम्परागत षिक्षा को ही रोजगार का साधन बनाती है, लेकिन इस दौर में स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है । इस तरह की आषा रखने वाले युवाओं को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है ।‘‘15  जीवन निर्वाह के लिये हाथों में काम चाहिये । कहा भी गया है- ‘खाली दिमाग षैतान का‘ काम के अभाव में ही हुआ राश्ट्र के मुख्य धारा से पृथ्क अपना भिन्न पथ तैयार करने विवष हो जाते हैं-

‘डिगरियां लिए घूमता है आम आदमी
समस्याओं से जूझता है आम आदमी
इसलिये आत्मघाती बन रहा है आम आदमी ।‘‘
डॉ. प्रेम कुमार वर्मा (‘उद्गार‘)16

बेरोजगारी युवा मन को कुण्ठित कर देता है, वह व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करने लगता है । एक युवा के दर्द को युवा कवि इस प्रकार व्यक्त करता है-

‘‘डिग्रियों के बोझ से लदा हुआ हूँ मैं
याने कि प्रजातंत्र का गधा हुआ हूँ मैं

पकर  ज्ञान  मूर्ख  कालिदास  हो  गए
पढ लिखकर कालिदास से बेरोजगार हूँ मैं

नोचते खसोटते चारों तरफ से लोग
जैसे किसी बाढ़ का चन्दा हुआ हूँ मैं
-उदय मुदलियार17

6. अस्मिता का स्वर-
जब से मानव की सभ्यता-संस्कृति विकसित हुई है तब से अस्मिता का स्वर ध्वनित है किन्तु जैसे-जैसे समाज का विकास क्रम आगे बढ़ता गया यह स्वर अधिक घनीभूत होती गई । वैष्वीकरण के इस दौर में किसी भी वर्ग, समुदाय की उपेक्षा संभव नही है । अस्मिता का स्वर अधिकार, वजूद, पहचान, अस्तित्व, गरिमा, न्याय आदि विभिन्न रूपों में, विविध आयामों में सामाजिक-सांस्कृतिक, भौगोलिक, नैसर्गिक, जैविक, धर्म, जाति-प्रजाति, के रूप में प्रस्फूटित होते आया है । समकालीन अस्मितावादी आंदोलन, सिर्फ  अपने वजूद की पहचान या एहसास कराने का आंदोलन नहीं है, बल्कि यह भागीदारी, अधिकार, न्याय, स्वतंत्रता और मैत्री का आंदोलन है।
समकालीन कविता में असाधारण संतुलन के कवि मंगलेष डबराल दलित, षोशित की दषा पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुये कहते हैं-


दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर
एक तेज आंख की तरह
टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई
देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत
बिलखती स्त्रियों के उतारे गये गहने
देखो भूख से बाढ़ से महामारी से मरे हुए
सारे लोग उभर आये हैं चट्टानों से
दोनों हाथों से बेशुमार बर्फ़ झाड़कर
अपनी भूख को देखो
जो एक मुस्तैद पंजे में बदल रही है
जंगल से लगातार एक दहाड़ आ रही है
और इच्छाएं दांत पैने कर रही हैं
पत्थरों पर।
(पहाड़ पर लालटेन)18

औद्योगिक पूँजीवाद की जरूरत का एक प्रतिफल यह निकला कि -ं आदिवासी आदिकाल से जंगल को अपना घर समझते आ रहे थे, वे अब जंगल बदर होने लगे, मातृभूमि से काट दिये जाने लगे। समकालीन कवि डॉ. संजय अलंग, जिलाधिकारी के पद पर कार्यरत  रहते हुये जीवन के  इस गहरी पीड़ा को इन षब्दों में व्यक्त करते हैं -
बस्तर में वन रक्षा के लिए हुआ था-कुई विद्रोह
मिले संज्ञा इसे विद्रोह की ही,
कथित सम्यता के लिए बना मील का पत्थर
प्रेरणा पाई ऊँचे सभ्य लोगो ने इससे
अब बदले तरीके, विधि बदली और अंदर तक घुसे
अब नही करते हरिदास-भगवानदास जैसी क्रूर ठेकेदारी
सभ्य रहो, मजदूरी दो, विकास दिखाओ
पैसा फेंको, तमाषा देखो, अभी तो पूरा वन, पूरा खनिज
पूरे आदिवासी श्रमिक पड़े है-खोदने को दोहन को ।
-कुई विद्रोह-बस्तर 1859 (सुमन)19

अस्मिता के स्वर को प्रोत्साहित करते हुये दार्षनिक दृश्टिकोण से षंकर लाल नायक अपनी बात इस प्रकार कहते हैं-

‘हर बादल बरसे नही, बरस गया बरसात ।
जो दुख में रोते रहे, उसकी कहां औकात ।।
(‘सुख दुख‘‘ दोहा संग्रह)20

समकालीन कविता सक्षम, एवं सकारात्मक दृष्टि से संपन्न कविता है जिसने एक ओर नकारात्मकता या निषेध से मुक्ति दिलाई है तो दूसरी ओर गहरी मानवीय संवेदना से कविता को जागृत रहकर समृद्ध किया है । अपनी भूमि को सांस्कृतिक मूल्यों, स्थानीयता, देसीपन और लोकधर्मिता, स्थितियों की गहरी पहचान, अधिक यथार्थ, ठोस और प्रामाणिक चरित्र, मानवीय सत्ता और आत्मीय संबधों-रिश्तों की गरमाहट से लहलहा दिया है ।

संदर्भ ग्रंथ-
1. साहित्य परम्परा और सामाजिक सरोकार-डॉ अमित षुक्ला- पृश्ठ 81
2. सृजनगाथा-समकालीन कविताः सरोकार और हस्ताक्षर-ऋशभ देव षर्मा
3. वही
4. समकालिन कविता-दिविक रमेष
5. आधुनिकता की भाशा और मुक्तिबोध-राखी राय हल्दर- पृश्ठ 17
6. ‘षब्द गठरिया बांध‘ छंद संग्रह-अरूण निगम, अंजुमन प्रकाषान-पृश्ठ 79
7. ‘प्रयास जारी है‘ कविता संग्रह-मनोज श्रीवास्तव वैभव प्रकाषन-पृश्ठ 50
8. ‘सिर पर धूप आँख पर सपने‘ गीत संग्रह-मुकुद कौषल, वैभव प्रकाष-पृश्ठ 19
9. ‘पिता छाँव वटवृक्ष की‘ दोहा संग्रह- राजेष जैन ‘राही‘, प्रकाषक नवरंग काव्य मंच-पृश्ठ 25 एवं 37
10. ‘‘कविता कोष-सर्वेष्वर दयाल सक्सेना‘‘ से साभार
11. ये मेरा हिन्दुस्तान है‘ कविता संग्रह-पुश्कर सिंह राज
12. ‘रावण कब मरेगा‘ कविता संगह-सुरजीत नवदीव
13. ‘‘नवगीत से आगे‘ पं षंकर त्रिपाठी ‘ध्वंसावषेश‘ पृश्ठ-44
14. ‘‘कविता कोष-गोपाल कृष्ण भट्ट ’आकुल’‘ से साभार
15. साहित्य परम्परा और सामाजिक सरोकार-डॉ अमित षुक्ला- पृश्ठ 109
16. ‘उद्गार‘ कविता संग्रह- डॉ प्रेम कुमार वर्मा पृश्ठ-74
17. न्यू ऋतंभरा कुम्हारी साहित्य संग्रह का 13 वां अंक
18. ‘‘कविता कोष-मंगलेष डबराल‘‘ से साभार
19. ‘सुमन‘ सम्पादक डॉ सत्यनारायण तिवारी ‘हिमांषु‘ पृश्ठ-22
20. ‘सुख-दुख‘ षंकर के दोहे-षंकर लाल नायक

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