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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

//मंदिरों का गढ़-‘नवागढ़‘//




 छत्तीसगढ़ अपने नाम के ही साथ ‘छत्तीस‘ गढ़ को समेटा हुआ है । राजतंत्र के समय छत्तीसगढ़ के जीवन दायनी शिवनाथ नदी के उत्तर दिशा में 18 एवं दक्षिण दिशा में 18 गढ़ हुआ करता था । उत्तर दिशा के गढ़ों की राजधानी रतनपुर एवं दक्षिणा दिशा के गढ़ों की राजधानी रायपुर था ।  शिवनाथ नदी के उत्तर दिशा में रतनपुर राजधानी के अंतर्गत एक गढ़ था जिसका नाम ‘नरवरगढ़‘ था ।  ऐसी मान्यता है कि यह नाम उस समय के तात्कालिक राजा नरवर साय के नाम पर पड़ा होगा । कलान्तर में इसी ‘नरवरगढ़‘ को ‘नवगढ़‘ फिर ‘नवागढ़‘ के नाम से जाने जाना लगा । वर्तमान में यह नवागढ़ छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिला मुख्यालय से उत्तर दिशा में ‘बेमेतरा-मुंगेली‘ मार्ग पर 25 किमी की दूरी पर स्थित है । नवागढ़ में पहले ‘छै आगर छै कोरी‘ अर्थात 126 तालाब बताया जाता है किन्तु वर्तमान में नही है किन्तु आज भी हर मोहल्लें में तालाब दृश्टिगोचर है, इसिलिये कहा जाता है-
 ‘‘हमर नवागढ़ के नौ ठन पारा,
 जेती देखव जल देवती के धारा ।‘‘
नरवर साय की दो पत्नियां मानाबाई एवं भगना बाई थी ।  राजा ने अपनी पत्नियों के नाम पर मानाबंद एवं भगना बंद तालाब बनवाये जो आज भी प्रसिद्ध है । नवागढ़ में अनेक मंदिर हैं, जिनमें अधिकाश प्राचीन हैं । नवागढ़ के पूर्व दिशा में चांदाबन स्थित माँ शक्ति का मंदिर, शंकरनगर में मांगनबंद तालाब तट पर स्वयंभू महादेव का मंदिर, पश्चिम में मां महामाया एवं माँ शारदे का मंदिर, उत्तर दिशा में भैरव बाबा का मंदिर, जुड़ावनबंद के समीप लक्ष्मीनारायण का मंदिर, दक्षिण दिशा में नवातालाब के तट पर बाउली के पास शंकरजी का मंदिर,, मध्यभाग में राम-कृष्ण मंदिर, मां लखनी मंदिर, नगर पंचायत प्रांगण में दक्षिण मुखी हनुमान मंदिर, श्रीशमिगणेश मंदिर,, ठाकुर देव का मंदिर इन प्रमुख मंदिरो के अतिरिक्त और कई मंदिर हैं । छोइहा नाला के किनारे गुरूसिंग सभा गुरूद्वारा,, देवांगनपारा-सुकुलपारा मार्ग पर मोहरेंगिया नाला के तट पर मस्जिद भ्, तिलकापारा में संत गुरू घासीदास के जैतखाम एवं गुरूद्वारा, जुड़ावनबंद के सपीप महान संत रविदास का रैदास मंदिर स्थित है ।   586 ईसवी के आस-पास नरवर साय द्वारा माँ महामाया, गणेश मंदिर, भैरव बाबा, हनुमान मंदिर एवं बुढ़ामहादेव मंदिर का निर्माण कराया गया है ।  इन मंदिरों के संबंध में कई-कई जनश्रुतियां प्रचलित रही हैं । जिनमें प्रमुख मंदिर इस प्रकार हैं-

माँ महामाया मंदिर-
माँ महामाया को नरवरगढ़ राजा के कुल देवी के रूप माना जाता है । यह मंदिर मानाबंद के पश्चिमी तट पर स्थित है । माँ की प्रतिमा लगभग 6 फिट की है ।  गाँ का मुख भव्य प्रदिप्तमान है । बुजुर्ग बतलातें हैं कि पूर्व में  व्यक्ति माँ से आँख मिलाने से भय खाते थे क्योंकि माँ का रूप् तेजवान है । आज छत्तीसगढ़ी परिवेष में माँ का श्रृंगार माँ के भक्तों को अनायाष ही अपनी ओर आकर्शित करते है ।  चूंकि प्राचीन मंदिर आज विद्यमान नही है इसलिये मंदिर शिल्प के आधार पर निर्माण काल का ठीक-ठीक निर्धारण नहीं किया जा सकता । मान्यता है कि माँ की प्रतिमा वही है यद्यपी मंदिर के कई-कई  जीर्णोद्धार में मंदिर का कलेवर परिवर्तित हो चुका है । गांव के बुजुर्ग बतलाते हैं कि 1964 में इस मंदिर का जीणोद्धार कराने मूर्ति को हटाने की आवश्यकता हुई कई लोग एक साथ मूर्ति को हटाने प्रयास किये किन्तु मूर्ति टस से मस नही हुई ।  फिर 11 विप्र दुर्गासप्तशती का एक साथ पाठ किये तब जाकर मूर्ति हल्का हुआ और उसे वहां से हटाया जा सका । एक मान्यता के अनुसार नवागढ़ की महामाया एवं रतनपुर की महामाया एक ही समय के हैं । रतनपुर एवं नवागढ़ महामाया में एक साम्य है । महामाया रतनपुर के समीप भी तालाब है एवं महामाया नवागढ़ के पास भी तालाब है । एक जन श्रुति के अनुसार नवागढ़ के तालाब से रतनपुर के इस तालाब तक एक सुरंग है ।  जिस प्रकार रतनपुर महामाया के संबंध में जनश्रुति है कि तीन बहनों में एक बहन काली के रूप में कलकत्ता में निवास करती उसी प्रकार मान्यता है कि नवागढ़ के महामाया के तीन बहनों में एक ‘गोबर्रा दहरा‘ (दामापुर, जिला कबीरधाम) में एवं एक समीपस्थ ग्राम बुचीपुर में विराजित है । बुचीपुर माँ महामाया संस्थान इस बात को स्वीकार करती है बुचीपुर माँ महामाया को नवागढ़ से लाया गया है । नवागढ़ महामाई अपने भक्तों के बीच मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी के रूप में विख्यात है ।  भक्त प्रेम से माँ को ‘बुढ़ीदाई‘, ‘नवगढ़िन दाई‘ भी पुकारते हैं ।

श्रीशमिगणेश मंदिर-
नवागढ़ के हृदय स्थल पर भगवान गणेश का एक मंदिर व्यवस्थित है । इस मंदिर के निर्माण के संबंध में मान्यता है कि संवत 646 में इस मंदिर का निर्माण तांत्रिक विधि से कराई गई थी । इस मंदिर के निर्माण के संबंध दो प्रकार की विचार धारा प्रचलित है, एक विचार के अनुसार इस मंदिर का निर्माण नरवरगढ़ के राजा नरवरसाय द्वारा कराया जाना मानते हैं तो दूसरी मान्यता के अनुसार इस मंदिर का निर्माण गोड़वाना राज के पूर्व के राजा जो भोसले (मराठी) परिवार द्वारा कराया गया मानते हैं ।  इस संबंध में श्री सुरेन्द्र कुमार चौबे तर्क देते हुये कहते हैं कि चूंकि गणेश मराठों का ईष्ट देव है एवं गोड़ राजा मराठी राजा को पराजित कर यहां अपना अधिपत्य स्थापित किये थे इसलिये इस मंदिर का निर्माण का श्रेय मराठा परिवार को देना न्याय संगत लगता है । 6 फीट के एक पत्थर पर भगवान गणेशजी को पद्मासन मुद्रा में उकेरा गया है । इस मंदिर के दक्षिण भाग में एक अश्टकोणीय कुँआ विद्यमान है । इस मंदिर के सम्मुख पहले दो शमि का वृक्ष था, जिसमें एक आज भी स्थित है ।  इसी कारण इस मंदिर को ‘श्रीशमि गणेश मंदिर‘ कहा जाता है । गणेश मंदिर एवं शमिवृक्ष का यह दुर्लभ संयोग पूरे विश्व में केवल तीन स्थानों पर बतलाया जाता है ।  प्रसिद्ध धार्मिक पत्रिका ‘कल्याण‘ के ‘गणेश‘ अंक में इस मंदिर का उल्लेख मिलता है । मान्यता के अनुसार इस स्थान पर दो गणेश भक्त संत जीवित समाधी लिये थे । एक समाधी स्थल मंदिर से सटा हुआ े उत्तर दिशा में एवं एक पूर्व दिशा में 100 मीटर की दूरी पर स्थित है ।  मंदिर के शिलालेख उल्लेखित जानकारी के अनुसार 1880 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण परिवार द्वारा कराया गया ।  गर्भगृह को छोड़ कर शेष मंदिर का पुनः जीर्णोद्धार ‘सिद्ध विनायक श्रीशमि गणेश मंदिर सेवा संस्थान‘ द्वारा 2013 में कराया गया है ।  जिससे मंदिर एक नये आकर्शक कलेवर में पर्यटकों को लुभाने में सफल रहा है ।

राममंदिर-
नवागढ़ के पूर्व दिशा में सुरकी तालाब के तट पर राममंदिर मठ है । इस परिकोटा में एक साथ रामजानकी मंदिर एवं राधाकृश्ण मंदिर व्यवस्थित है । मंदिर के महंत श्रीमधुबन दास वैश्णव के अनुसार वह इस मंदिर के आठवीं पीढ़ी के महंत हैं ।  लगभग 300 वर्श पूर्व इस मंदिर का निर्माण हुआ है ।  इस संबंध में एक जनश्रुति प्रचलित है कि इसी स्थान पर केवल कृष्ण मंदिर बनाने की योजना थी ।  कृष्ण मंदिर का निर्माण लगभग पूरा होने को था उसी समय राजस्थान जयपुर के कुछ मूर्तिकार मूर्ति बेचते एक दिन रात्रि होने पर विश्राम के उद्देश्य से यहां तालाब किनारे ठहरे दूसरे दिन जब ओ लोग यहां से जाने के लिये तैयार हुये तो राम-जानकी की प्रतिमा अपने स्थान पर अडिग हो गया ।  लगातार तीन दिन तक मूर्ति ले जाने का प्रयास हुआ किन्तु मूर्ति अचल हो गया थक-हार कर मूर्ति को इसी स्थान पर छोड़ना पड़ा इस चमत्कार से चमकृत होकर, कृष्ण मंदिर बनाने वाले लोग उसी मंदिर पर रामजानकी को स्थापित किये । उस मंदिर के लिये लाये गये कृष्ण-राधा का प्रतिमा आज भी रामजानकी प्रतिमा के बगल में स्थापित है । कुछ वर्षो बाद इस राममंदिर के बगल में दूसरा मंदिर बनाकर कृश्ण-राधा की नई मूर्ति स्थापित की गई । इस मंदिर में 700 एकड़ कृशि भूमि दान से प्राप्त हुआ था । जिसमें का एक बड़ा भाग शिलिंग में निकल गया ।  वर्तमान में इस मंदिर के पास 10 एकड़ कृषि भूमि शेष है । इस मंदिर में विभिन्न मठों के संतो का आगमन होता रहा है । 20 सदी के पूर्वाद्ध में यहां विद्यापीठ संचालित था जिसमें बच्चों को संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी ।  बाद में गरीब बच्चे इस मंदिर में रह कर शासकीय विद्यालय में अध्ययन करते थे । यह मंदिर एक सामाजिक केन्द्र के रूप में उभरा जहां गांव के लोग बैठ कर अध्यात्मिक एवं सामाजिक चिंतन किया करते थे । ये परम्परा कमोबेस आज भी बरकरार है ।

मां लखनी मंदिर-
लक्ष्मीजी को ‘लखनी देवी‘ के रूप में गांव के सुरकी तालाब के पास स्थापित किया गया है । यह मंदिर माँ महामाया मंदिर के समकालीन है । लखनी देवी की प्रतिमा लगभग 3 फीट ऊँची है ।  प्रतिमा अत्यंत मनोहारी है । इस मंदिर की मान्यता रही है कि इस देवी के पूजन करने वाले निःसंतान दम्पत्ती को निश्चित ही संतान सुख की प्राप्ति होती है ।  ऐसा माना जाता है कि लक्ष्मीजी को लखनी नाम से नवागढ़ में एवं रतनपुर में ही स्थापित किया गया है । लखनी मंदिर के समीप एक कुँआ है जो पहले पूरे गाँव के लिये पे जल का स्रोत रहा । जिसका जल अभिमंत्रित किया  हुआ है, जिसके लिए श्रद्धालू बड़े दूर-दूर से जल लेने के लिए आते थे तथा कुँए का जल निकालकर पहले खेतों में रोग ना आवे कह कर डालते थे ।  एक मान्यता के अनुसार इस मंदिर की मूर्ति इसी कुऐं के उत्खनन के समय प्राप्त हुआ था ।।

हनुमान मंदिर
-नवागढ़ के मध्य भाग में दक्षिणमुखी हुनमानजी स्थापित है ।  इसका निर्माण  मां महामाया के निर्माण के समय का ही बताया जाता है । पहले इस मंदिर के चारों ओर एक परिकोटा था, जिसमें गांव के युवा मल्लयुद्व का अभ्यास किया करते थे, इस कारण इस इस परिकोटो को ‘हनुमान अखड़ा‘ कहा जाता था ।  बाद में इस मंदिर के पास ग्राम पंचायत का निर्माण हुआ जहां आज नगर पंचायत संचालित है । हनुमान भक्त इस मंदिर को अत्यंत सिद्ध मंदिर निरूपित करते हैं । इस मंदिर के पास साधु समाधी का होना बतलाया जाता है । मान्यता के अनुसार इस स्थान पर कोई हनुमान भक्त संत जीवित समाधी लिये थे ।

भैरव बाबा का मंदिर-
 माँ महामाया मंदिर से उत्तर दिशा की ओर लगभग 1 किमी की दूरी पर भैरव बाबा का मंदिर स्थित है । वर्तमान में इस स्थान पर न वह प्राचिन मूर्ति है न ही प्राचिन मंदिर ।  किन्तु मान्यता है कि माँ महामाया निर्माण के आस-पास के वर्षो में भैरव बाबा का मंदिर यहां था ।  प्रमाण के रूप में गांव में भैरव भाठा नाम से से एक निरजन स्थान है जहां पर ऊँचे पीपल वृक्ष के नीचे भैरव बाबा के खण्ड़ित प्रतिमा रखा हुआ है ।  इसी के समीप एक नवीन भैरव बाबा का मंदिर बनवाया गया है जिसमें नई मूर्ति स्थापित है । इस प्रतिमा का प्राण प्रतिष्इा 1979 में कराया गया था ।  इस मंदिर का वर्तमान जीर्णोधार 2008 में हुआ है ।  गांव में महामाया एवं भैरव बाबा का संयोग इसे पुनः रतनपुर से ही जोड़ता है ।

स्वयंभू बुढ़ा महादेव-
गांव के पूर्व दिशा में मांगनबंद तालाब के तट पर स्वयंभू महादेव का मंदिर है । मान्यता है यह शिवलिंग स्वयं प्रगट है इसे अन्यत्र ला कर स्थापित नही कराया गया है ।  इस मंदिर में बाबा भोलेनाथ का शिवलिंग जलहरी के साथ उसी प्रकार शोभायमान है जैसे बनारस का विश्वनाथ । ऐसी मान्यता है कि नरवर साय के काल में ही इस मंदिर का निर्माण कराया गया था । पहले इस मंदिर में केवल शिवलिंग ही स्थापित था बाद में शिवपरिवार के रूप में  माता पार्वती एवं गणेशजी की प्रतिमा स्थापित कराई गई । मान्यता के अनुसार पहले यहां एक नाग-नागिन का जोडा रहा करता थ इसी कारण इस मंदिर के गर्भगृह के बाहर नाग-नागीन का प्रतिमा भी स्थापित है ।  इस मंदिर का जीणोद्धार दो से अधिक बार हो चुका है । सावनमास में यहां भक्तों का ताता लगा रहता है । महाशिवरात्रि के दिन इस मंदिर परिसर पर मेला  लगता है ।

शक्ति मंदिर-
गांव के पूर्व दिशा में ‘टेंगना‘ नाला के पास ‘चांदाबंद तालाब‘ के तट पर यह मंदिर विराजित है ।  इस मंदिर के संबंध में मंदिर के संचालक श्री चैन साहू  से प्राप्त जानकारी एवं जनश्रुति के अनुसार मुरता ग्राम के जयंत आचार्य के 7-8 पीढ़ी पूर्व कोई महिला अपने पति के चिता के साथ जीवित समाधी ली थी । जिसके स्मरण में इमली पेड़ के नीचे एक सती चबूतरा बनाया गया था ।  इसी चबूतरे पर सती नारी के प्रतिक के रूप में एक मूर्ति स्थापित किया गया था जिसे सती चौरा कहा गया । इस सती चौरा के पास इमली पेड़ के पास कई प्रकार के जहरीले सर्प निकला करते थे किन्तु आज तक कभी भी जन हानि नही हुई है । सन 1970 के आसपास इस चौरा को एक मंदिर रूप में परिणित कर मां शक्ति की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा कराई गई । सन् 2000 से इस मंदिर को विस्तारित किया गया ।  आज भी मंदिर में एक साथ दो प्रतिमा स्थापित है, जिसमें से एक सती का एवं दूसरा मां शक्ति का है ।  इस मंदिर पर लोगों की अगाध आस्था है । आज भी इस स्थान पर सर्प निकलते रहते हैं किन्तु किसी प्रकार की हानी नही हुई है । जनमान्यता के अनुसार सर्पविष के व्याधी ग्रसित भगत के मां के श्रीचरणों में समर्पित होने पर जीवन प्राप्त होता है ।

मैहरवासनी मां शारदे का मंदिर-
महामाया मंदिर के पश्चिम दिश में जहां पर पहले राजा नरवर साय का कीला हुआ करता था, जहां पर लगभग 200 फीट ऊंचा टीला था । जिससे कीले की रक्षा के सैनिक दिनरात पहरा दिया करते थे कहा जाता है इस टीले से 4 कोस (लगभग 15 किमी) तक देखा जा सकता था । जिसके अव’शेष  के रूप 20 फीट का टीला था इसी टीले पर आज मैहर वासनी माँ शारदे का मनोहारी प्रतिमा स्थापित है ।  इसे मैहर वासनी माँ षारदे इसलिये कहा जाता है कि यह  प्रतिमा मैहर के माँ शारदे की अनुकृति है ।  यह एक नवीन मंदिर है जिसके संबंध में आज के हर अधेड़ उम्र के लोग जानते हैं । यह एक सत्य घटना है 1974 क शारदीय नवरात्र पर गांव के ग्राम पंचायत के पास सार्वसजनिक दुर्गोत्सव मनाया जा रहा था अंतिम दिन दुर्गा विर्सजन के लिये जस गीत गाया जा रहा था उसी समय अचानक श्री बिष्णु प्रसाद मिश्रा को अचानक कुछ अनुभूति हुई, उनका शरीर कँपने लगा, उन्हें देवी सवार हुआ । श्री मिश्राजी अपने आप को माँ शारदा होना बतलाया ।  ध्यान देने योग्य बात है कि श्री मिश्राजी को इनसे पूर्व किसी प्रकार देवी सवार नही हुआ था । वह इस टीले पर माँ मैहर वासनी षारदे का मंदिर बनाने की बात कही ।  जिसे गांव वाले स्वीकार कर लिये ।  इसके बाद ही वह शांत हुये ।  इस घटना के बाद से श्री मिश्राजी कई वर्षो तक दोनों नवरात में उसी स्थान पर माँ शारदे के तैल चित्र लेकर बैठा करते थे । श्री मुरेन्द्रधर दीवान, श्री विश्णु मिश्राजी के साथ सहयोगी के रूप में सेवा करते रहे । इस मंदिर के निर्माण हेतु नवागढ़ और आस-पास के गांव वालों से सहयोग लिया गया ।  इस मंदिर निर्माण के उद्देश्य से यहां ‘चंदैनी गोंदा‘ का कार्यक्रम कराया गया था ।  मंदिर निर्माण में पूरे क्षेत्र के लोगों का आर्थिक सहयोग रहा ।  अंत में श्रमदान से इस मंदिर का निर्माण कार्य कराया गया ।  श्री छन्नू गुप्ता द्वारा मां की प्रतिमा दान दी गई । 1996 में इस मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा कराया गया ।  इस मंदिर का निर्माण कार्य अभी भी शेष है ।

इन मंदिरों के अतिरिक्त और कई छोटे-बड़े मंदिर है जिनका अपना महत्व है । यहां एक बावली भी जीर्ण-षिर्ण स्थिति में अव्यस्थित है ।  इस बावली के संबंध में कहा जाता है कि इसमें अथाह जल है ।  इसके जल द्वार बंद करके रखा गया है । इस प्रकार नवागढ़ न केवल धार्मिक दृश्टिकोण से अपितु पुरातात्विक, ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है ।

-रमेशकुमार सिंह चौहान


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