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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

शनिवार, 21 जुलाई 2018

‘‘गुरू की सर्वव्यापकता‘‘


‘‘गुरू की सर्वव्यापकता‘‘
- रमेशकुमार सिंह चौहान



भारतीय जीवनशैली गुरू रूपी सूर्य के तेज से आलोकित है । भारतीय साहित्य  संस्कृत से लेकर विभिन्न भारतीय भाषाओं तक गुरू महिमा से भरा पड़ा है । भारतीय जनमानस में गुरू पूर्णतः रचा बसा हुआ है । गुरू स्थूल से सूक्ष्म, सहज से क्लिष्ठ, गम्य से अगम्य, साधारण से विशेष, जन्म से मृत्यु, तक व्याप्त है । ‘‘गुरू शब्द ‘गु+रू‘ का मेल है जिसमें गुकार को अंधकार एवं रूकार को तेज अर्थात प्रकाश कहते हैं । जो अंधकार का निरोध करता है, उसे ही गुरू कहा जाता है-

‘‘गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते ।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ।।‘‘

‘‘वास्तव में जीवन में अज्ञानता का अंधकार और ज्ञान का प्रकाश होता है ।  जो शक्ति अज्ञानता के अंधकार को नष्ट कर ज्ञान रूपी प्रकाश हमारे अंदर प्रकाशित कर दे वही गुरू है ।‘‘ यही गुरू का सर्वमान्य व सहज परिभाषा है । गुकार अज्ञानता पर अवलंबित है ।  अज्ञान निशा को ज्ञान रवि ही नष्ट कर सकता है । दिवस-निशा के क्रम में जैसे सूर्य शाश्वत एवं सर्वव्यापी है उसी प्रकार गुरू सर्वव्याक हैं ।

स्थूल से सूक्ष्म, सहज से क्लिष्ठ, गम्य से अगम्य, साधारण से विशेष, जन्म से मृत्यु, तक गुरू के व्यापीकरण में गुरू के विभिन्न रूप हैं किन्तु उद्देश्य केवल एक ही है अज्ञानता, अबोधता को दूर करना -

‘‘प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा ।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ।।‘‘

प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, सच बतानेवाले, रास्ता दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले । ये सब गुरु ही हैं ।  वास्तव में गुरू प्रेरक, सूचनातदाता, सत्यवाचक, पथप्रदर्शक, शिक्षक और बोध कराने वालों का समुच्चय है । जैसे स्वर्ण धातु का एक रज भी स्वर्ण होता है उसी प्रकार इन छः गुणों में से एक भी गुण होने पर भी वह गुरू ही है ।  इन सभी रूपों में गुरू अपने शिष्य को अंधेरे से प्रकाश की ओर अभिप्रेरित करता है ।

प्रेरक के लिये आजकल मेंटर शब्द प्रयुक्त हो रहा है, जो व्यवसायिक अथवा अव्यवसायिक रूप से विभिन्न समस्याओं के निराकरण के लिये उपाय सुझाते हैं । मेंटर अपने अनुभव को चमत्कारिक रूप से लोगों के मन में इस प्रकार अभिप्रेरित करता है कि वह अपने उद्देश्य की ओर सहज भाव से अग्रसर हो सके । प्रेरक अपने सत्यापित तथ्यों के आधार पर लोगों के मनोभाव को परिवर्तित करने में सफल रहता है । किसी एक लक्ष्य को पाने के लिये ललक उत्पन्न कर सकता है ।  भारत में विवेकानंद को कौन नही जानता, भारतीय युवाओं के लिये तब से आज तक विवेकानंद जी प्रेरक बने हुये हैं । विवेकानंदजी भारतीय समाज के लिये गुरू हैं ।  जनजागृति करने वाले समाजसेवक, समाजसुधारक प्रेरणा के पुंज होते हैं- समाज के प्रेरक महात्मा गांधी, डॉ. भीवराव अम्बेडकर, गुरू घासीदास जैसे महापुरूष गुरू के रूप में स्थापित हैं ।

सदियों से प्रेरक के लिये साहित्य को सर्वोपरी माना गया है । यही कारण है कि हमारे देश में साहित्यकार कवि श्रेष्ठ कबीरदासजी गुरू श्रेष्ठ के रूप में स्थापित हैं ।  सूरदास, तुलसीदास, रैदास, रहिम जैसे प्रेरक कवि भारतीय समाज में गुरू के रूप स्थापित हैं ।  ‘‘सभी धर्मो के पावन धर्म ग्रन्थ सदैव से गुरू सदृश्य ही हैं ।‘‘  इस बात की पुष्टि ‘गुरू ग्रंथ साहिब‘ से होती है । जिसे गुरू गोंविद सिंह ने गुरू रूप में प्रतिस्थापित किया है ।
सूचक अर्थात सूचना देने वाले, लोगों को संभावित समस्याओं के प्रति आगाह करते हुये सूचना देते रहते है, अमुक काम करने से लाभ होगा इसे करना चाहिये या अमुक काम करने से नुकसान होगा इसे नहीं करना चाहिये । इनकी सूचनाओं में नीतिपरक तथ्य निहित होते हैं ।  किसी विषय-विशेष की सूचना देते हैं जिससे समाज का कल्याण हो । जैसे-

मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान को एक ।
पालइ पोषइ सकल अंग, तुलसी सहित बिबेक।।
-तुलसीदास

वाचक का समान्य अर्थ बोलने वालों से न होकर सत्य बोलने वालो से है । अपने वाणी की सहायता से जो सत्य का दिग्दर्शन कराता हो । सत्य भौतिक जगत का अथवा अध्यात्मिक जगत का हो सकता है । कथा वाचक, उपदेशक आदि इस रूप में समाज को जागृत कर रहे हैं । आज इस रूप में सर्वाधिक व्यक्ति गुरू पदवी धारण किये हुये हैं । विभिन्न गुरू प्रधान समूह, परिवार, संस्था अथवा पंथ के रूप में आज हमारे समाज में स्थापित हैं जो समाज के मानसिक उत्थान के लिये सतत् प्रयासरत हैं । इनमें प्रमुख रूप से पं. श्री राम शर्मा का गायत्री परिवार, दादा लेखराज जिसे बाद में ब्रह्माबाबा कहा गया का ‘प्रजापति ब्रह्म कुमारी विश्वविद्यालय‘, श्री नारायणमाली की संस्था,  पं. रविशंकरजी की संस्था, ‘राधास्वामी‘ जैसी संस्था हैं । कथा वाचक के रूप में अनगिनत गुरू हमारे सम्मुख हैं ।

दिग्दर्शक सत्यपथगामी होते हैं जो प्रत्यक्षीकरण से शिष्य को सत्य से भेंट कराते हैं । रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंदजी के पूछे जाने पर कि- क्या आप ने ईश्वर को देखा है? उत्तर में केवल हां ही नहीं कहते अपितु विवेकानंदजी को प्रत्यक्षतः ईश्वर का दिग्दर्शन कराते हैं । हमारे जीवन में कोई ना कोई ऐसा होता है जो हमारे लिये पथप्रदर्शक का कार्य करता है ।

शिक्षक ज्ञात ज्ञान को हस्तांतरित करता है ।  सांसारिक रूप से ज्ञात जानकारी को एक विषय के रूप  में हमें बांट कर उस विषय में हमें दक्ष करता है ।  ज्ञान के इस हस्तांतरण को ही शिक्षा कहते हैं ।  इसी शिक्षा के आधार पर हम सांसारिक दिनचर्या सफलता पूर्वक कर पाते हैं । विषय विशेष के आधार पर शिक्षक विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं यथा स्कूली शिक्षक, संगीत शिक्षक, खेल शिक्षक आदि आदि ।

    बोध कराने से अभिप्राय स्मृति में लाना है । रामचरित मानस के प्रसंग में जामवंतजी द्वारा हनुमान को बल बुद्धि का स्मरण कराना ‘बोध‘ कराना है ।  जो अपने अंदर तो है, किन्तु हम अज्ञानतावष उसे जान नही पाते उन्हे बोध कराने की शक्ति गुरू में ही है । अध्यात्मिक रूप से ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी‘ अर्थात ‘जीव ईश्वर का अंश है‘ का बोध कराने वाले हमारे अध्यात्मिक गुरू होते हैं । सांसारिक रूप से भी हमारी क्षमताओं का बोध हमारे गुरू ही करते हैं ।

इस प्रकार गुरू विभिन्न रूपों में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जीवन के सफल संपादन में महती भूमिका निभाते हैं ।  इन विभिन्न रूपों में गुरू का लक्षण कैसे होता है-
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते।।

गुरू धर्म को जानने वाला, धर्म को करने वाला, सदा धर्म परायण, सभी शास्त्रों अर्थात ज्ञान के तत्व को जानने वाला होता है । ‘धारयति इति धर्मः‘‘ अर्थात मनुष्य मात्र को धारण करने योग्य ज्ञान के समूह को ही धर्म कहते हैं । जिस ग्रंथ में धारण करने योग्य तथ्य सविस्तार लिखे हों, उसे ही शास्त्र समझें ।

निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते।।

गुरू जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निश्पाप रास्ते से चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं ।

 गुरू शक्ति उस अदृश्य ऊर्जा की भांति है अवलोकन नहीं अनुभव किया जा सकता है ।  गुरु और शिष्य का रिश्ता ऊर्जा पर आधारित होता है। वे आपको एक ऐसे आयाम में स्पर्श करते हैं, जहां आपको कोई और छू ही नहीं सकता। इसी भाव से हिन्दू धर्म ग्रन्थों में गुरु की अलौकिक महिमा गायी गयी है-

ध्यानमूलं गुर्रुमूर्तिम पूजा मूलं गुरुर्पदम्।
मन्त्र मूलं गुरुर्वाक्यम् मोक्ष मूलं गुरु कृपा ।।

     गुरू इतना व्यापक है कि ध्यान का मूल गुरू प्रतिमा, पूजा का मूल गुरू पद, मंत्र का मूल गुरू वाक्य और मोक्ष का मूल गुरू कृपा को कहा गया है । गुरू का व्यापीकरण इतना है कि  गुरू की तुलना सृष्टि संचालक त्रिदेव से कर दिया गया है-

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।

अर्थात गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम । क्योंकि-

किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च ।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ।।

     बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है ।

शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च ।
नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ।।

शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर, हाथ जोडकर गुरु को सन्मुख देखना चाहिए ।  अतः गुरू की परम शक्ति को शुद्ध अंतःकरण से बार-बार नमस्कार करता हूँ ।

-रमेशकुमार सिंह चौहान
मिश्रापारा, नवागढ्
जिला-बेमेतरा, छत्तीसगढ़








शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

मुक्तक-4 (मात्रा गणना का समान्य नियम)


मात्रा गणना का सामान्य नियम-

क्रमांक - सभी व्यंजन (बिना स्वर के) एक मात्रिक होते हैं
जैसे - , , , , , , , , ... आदि मात्रिक हैं ।
क्रमांक - , , स्वर अनुस्वर चन्द्रबिंदी तथा इनके साथ प्रयुक्त व्यंजन एक मात्रिक होते हैं ।
जैसे - , , , कि, सि, पु, सु हँ  आदि एक मात्रिक हैं ।
क्रमांक - , , अं स्वर तथा इनके साथ प्रयुक्त व्यंजन दो मात्रिक होते हैं
जैसे -, सो, पा, जू, सी, ने, पै, सौ, सं आदि मात्रिक हैं ।
क्रमांक . () - यदि किसी शब्द में दोएक मात्रिकव्यंजन हैं तो उच्चारण अनुसार दोनों जुड कर शाश्वत दो मात्रिक अर्थात दीर्घ बन जाते हैं जैसे ह१+म१ = हम =  ऐसे दो मात्रिक शाश्वत दीर्घ होते हैं जिनको जरूरत के अनुसार ११ अथवा नहीं किया जा सकता है ।
जैसे -सम, दम, चल, घर, पल, कल आदि शाश्वत दो मात्रिक हैं ।
. () परन्तु जिस शब्द के उच्चारण में दोनो अक्षर अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ दोनों लघु हमेशा अलग अलग अर्थात ११ गिना जायेगा ।
जैसे - असमय = //मय =  अ१ स१ मय२ = ११२    
क्रमांक () किसी लघु मात्रिक के पहले या बाद में कोई शुद्ध व्यंजन हो तो उच्चारण अनुसार दोनों लघु मिल कर शाश्वत दो मात्रिक हो जाता है।
उदाहरण - “तुमशब्द में “’’” ’“’” के साथ जुड कर ’“तु’” होता हैतुएक मात्रिक है औरतुमशब्द मेंभी एक मात्रिक है और बोलते समयतु+मको एक साथ बोलते हैं तो ये दोनों जुड कर शाश्वत दीर्घ बन जाते हैं इसे ११ नहीं गिना जा सकता ।
इसके और उदाहरण देखें - यदि, कपि, कुछ, रुक आदि शाश्वत दो मात्रिक हैं ।
  () परन्तु जहाँ किसी शब्द के उच्चारण में दोनो हर्फ़ अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ अलग अलग ही अर्थात ११ गिना जायेगा
जैसे द-  सुमधुर = सु/ /धुर = +उ१ म१ धुर२ = ११२  
क्रमांक () - यदि किसी शब्द में अगल बगल के दोनो व्यंजन किन्हीं स्वर के साथ जुड कर लघु ही रहते हैं, तो उच्चारण अनुसार दोनों जुड कर शाश्वत दो मात्रिक हो जाता है इसे ११ नहीं गिना जा सकता ।
जैसे - पुरु = + / र+उ = पुरु = ,  
इसके और उदाहरण देखें = गिरि
() परन्तु जहाँ किसी शब्द के उच्चारण में दो हर्फ़ अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ अलग अलग ही गिना जायेगा-
जैसे -  सुविचार = सु/ वि / चा / = +उ१ व+इ१ चा२ र१ = ११२१
क्रमांक () - ग़ज़ल के मात्रा गणना में अर्ध व्यंजन को मात्रा माना गया है तथा यदि शब्द में उच्चारण अनुसार पहले अथवा बाद के व्यंजन के साथ जुड जाता है और जिससे जुड़ता है वो व्यंजन यदि मात्रिक है तो वह मात्रिक हो जाता है और यदि दो मात्रिक है तो जुडने के बाद भी मात्रिक ही रहता है ऐसे मात्रिक को ११ नहीं गिना जा सकता है
उदाहरण -
सच्चा = स१+च्१ / च१+आ१  = सच् चा = २२
(अतः सच्चा को ११२ नहीं गिना जा सकता है)
आनन्द = / +न् / = आ२ नन्२ द१ = २२१  
कार्य = का+र् / = र्का   = २१  (कार्य में का पहले से दो मात्रिक है तथा आधा के जुडने पर भी दो मात्रिक ही रहता है)
तुम्हारा = तु/ म्हा/ रा = तु१ म्हा२ रा२ = १२२
तुम्हें = तु / म्हें = तु१ म्हें२ = १२
उन्हें = / न्हें = उ१ न्हें२ = १२
() अपवाद स्वरूप अर्ध व्यंजन के इस नियम में अर्ध व्यंजन के साथ एक अपवाद यह है कि यदि अर्ध के पहले या बाद में कोई एक मात्रिक अक्षर होता है तब तो यह उच्चारण के अनुसार बगल के शब्द के साथ जुड जाता है परन्तु यदि अर्ध के दोनों ओर पहले से दीर्घ मात्रिक अक्षर होते हैं तो कुछ शब्दों में अर्ध को स्वतंत्र एक मात्रिक भी माना लिया जाता है
जैसे = रस्ता = र+स् / ता २२ होता है मगर रास्ता = रा/स्/ता = २१२ होता है
दोस्त = दो+स् /= २१ होता है मगर दोस्ती = दो/स्/ती = २१२ होता है
इस प्रकार और शब्द देखें
सस्ता = २२, दोस्तों = २१२, मस्ताना = २२२, मुस्कान = २२१, संस्कार= २१२१    
क्रमांक . () - संयुक्ताक्षर जैसे = क्ष, त्र, ज्ञ द्ध द्व आदि दो व्यंजन के योग से बने होने के कारण दीर्घ मात्रिक हैं परन्तु मात्र गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं  
उदाहरण = पत्र= २१, वक्र = २१, यक्ष = २१, कक्ष - २१, यज्ञ = २१, शुद्ध =२१ क्रुद्ध =२१
गोत्र = २१, मूत्र = २१,
. () यदि संयुक्ताक्षर से शब्द प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं
उदाहरण = त्रिशूल = १२१, क्रमांक = १२१, क्षितिज = १२
. () संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं
उदाहरण -प्रज्ञा = २२  राजाज्ञा = २२२,
() उच्चारण अनुसार मात्रा गणना के कारण कुछ शब्द इस नियम के अपवाद भी है -
उदाहरण = अनुक्रमांक = अनु/क्र/मां/ = २१२१ (’नुअक्षर लघु होते हुए भीक्रके योग से दीर्घ नहीं हुआ और उच्चारण अनुसार के साथ जुड कर दीर्घ हो गया और क्र लघु हो गया)      क्रमांक - विसर्ग युक्त व्यंजन दीर्ध मात्रिक होते हैं ऐसे व्यंजन को मात्रिक नहीं गिना जा सकता ।
उदाहरण = दुःख = २१ होता है इसे दीर्घ () नहीं गिन सकते यदि हमें मात्रा में इसका प्रयोग करना है तो इसके तद्भव रूप मेंदुखलिखना चाहिए इस प्रकार यह दीर्घ मात्रिक हो जायेगा ।
मात्रा गणना के लिए अन्य शब्द देखें -
तिरंगा = ति + रं + गा =  ति रं गा = १२२    
उधर = /धर उ१ धर२ = १२
ऊपर = /पर = पर = २२    
इस तरह अन्य शब्द की मात्राओं पर ध्यान दें =
मारा = मा / रा  = मा रा = २२
मरा  = / रा  = रा = १२
मर = मर =
सत्य = सत् / = सत् = २१


मात्रा गिराने का नियम-
क्रमांक  - सभी व्यंजन (बिना स्वर केएक मात्रिक होते हैं ।
जैसे दृ  ... आदि  मात्रिक हैं । यह स्वयं  मात्रिक है ।
क्रमांक  -  स्वर  अनुस्वर चन्द्रबिंदी तथा इनके साथ प्रयुक्त व्यंजन एक मात्रिक होते हैं ।जैसे = किसिपुसु हँ  आदि एक मात्रिक हैं। यह स्वयं  मात्रिक है
क्रमांक  -      अं स्वर तथा इनके साथ प्रयुक्त व्यंजन दो मात्रिक होते हैं
जैसे = सोपाजूसीनेपैसौसं आदि  मात्रिक हैं ।
इनमें से केवल      स्वर को गिरा कर  मात्रिक कर सकते है तथा ऐसे दीर्घ मात्रिक अक्षर को गिरा कर  मात्रिक कर सकते हैं जो ““ स्वर के योग से दीर्घ हुआ हो अन्य स्वर को लघु नहीं गिन सकते  ही ऐसे अक्षर को लघु गिन सकते हैं जो अं के योग से दीर्घ हुए हों ।
उदाहरण -मुझको २२ को मुझकु२१ कर सकते हैं
साकीहूपेदो आदि को दीर्घ से गिरा कर लघु कर सकते हैं परन्तु अंपैकौरं आदि को दीर्घ से लघु नहीं कर सकते हैं । स्पष्ट है कि  स्वर तथा  तथा व्यंजन के योग से बने दीर्घ अक्षर को गिरा कर लघु कर सकते हैं ।
क्रमांक .
. () - यदि किसी शब्द में दो ’एक मात्रिक’ व्यंजन हैं तो उच्चारण अनुसार दोनों जुड कर शाश्वत दो मात्रिक अर्थात दीर्घ बन जाते हैं जैसे ह१+म१ = हम =   ऐसे दो मात्रिक शाश्वत दीर्घ होते हैं जिनको जरूरत के अनुसार ११ अथवा  नहीं किया जा सकता है ।
जैसे -समदमचलघरपलकल आदि शाश्वत दो मात्रिक हैं ।
ऐसे किसी दीर्घ को लघु नहीं कर सकते हैंद्य  दो व्यंजन मिल कर दीर्घ मात्रिक होते हैं तो ऐसे दो मात्रिक को गिरा कर लघु नहीं कर सकते हैं ।
उदहारण = कमल की मात्रा १२ है इसे क१ + मल२ = १२ गिनेंगे तथा इसमें हम मल को गिरा कर  नहीं कर सकते अर्थात कमाल को ११ अथवा १११ कदापि नहीं गिन सकते ।  
. (परन्तु जिस शब्द के उच्चारण में दोनो अक्षर अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ दोनों लघु हमेशा अलग अलग अर्थात ११ गिना जायेगा ।
जैसे दृ  असमय = //मय =  अ१ स१ मय२ = ११२    
असमय का उच्चारण करते समय ’’ उच्चारण के बाद रुकते हैं और ’’ अलग अलग बोलते हैं और ’मय’ का उच्चारण एक साथ करते हैं इसलिए ’’ और ’’ को दीर्घ नहीं किया जा सकता है और मय मिल कर दीर्घ हो जा रहे हैं इसलिए असमय का वज्न अ१ स१ मय२ = ११२  होगा इसे २२ नहीं किया जा सकता है क्योकि यदि इसे २२ किया गया तो उच्चारण अस्मय हो जायेगा और शब्द उच्चारण दोषपूर्ण हो जायेगा ।
यहाँ उच्चारण अनुसार स्वयं लघु है अ१ स१ और मय२ को हम . अनुसार नहीं गिरा सकते     
क्रमांक  (- जब क्रमांक  अनुसार किसी लघु मात्रिक के पहले या बाद में कोई शुद्ध व्यंजन( मात्रिक क्रमांक  के अनुसारहो तो उच्चारण अनुसार दोनों लघु मिल कर शाश्वत दो मात्रिक हो जाता है ।
उदाहरण द- “तुम” शब्द में “’’” ’“’” के साथ जुड कर ’“तु’” होता है(क्रमांक  अनुसार), “तु” एक मात्रिक है और “तुम” शब्द में “” भी एक मात्रिक है (क्रमांक  के अनुसार)  और बोलते समय “तु+” को एक साथ बोलते हैं तो ये दोनों जुड कर शाश्वत दीर्घ बन जाते हैं इसे ११ नहीं गिना जा सकता । इसके और उदाहरण देखें = यदिकपिकुछरुक आदि शाश्वत दो मात्रिक हैं
 ऐसे दो मात्रिक को नहीं गिरा कर लघु नहीं कर सकते ।
 (परन्तु जहाँ किसी शब्द के उच्चारण में दोनो हर्फ़ अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ अलग अलग ही अर्थात ११ गिना जायेगा
जैसे दृ  सुमधुर = सु /धुर = +उ१ म१ धुर२ = ११२  
यहाँ उच्चारण अनुसार स्वयं लघु है += म१ और धुर२ को हम . अनुसार नहीं गिरा सकते    
क्रमांक  () - यदि किसी शब्द में अगल बगल के दोनो व्यंजन किन्हीं स्वर के साथ जुड कर लघु ही रहते हैं (क्रमांक  अनुसारतो उच्चारण अनुसार दोनों जुड कर शाश्वत दो मात्रिक हो जाता है इसे ११ नहीं गिना जा सकता ।
जैसे = पुरु = + / + = पुरु = ,  इसके और उदाहरण देखें = गिरि
ऐसे दो मात्रिक को गिरा कर लघु नहीं कर सकते
 (परन्तु जहाँ किसी शब्द के उच्चारण में दो हर्फ़ अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ अलग अलग ही गिना जायेगा ।
जैसे दृ  सुविचार = सुवि / चा /  = +उ१ +इ१ चा२ र१ = ११२१
यहाँ उच्चारण अनुसार स्वयं लघु है +उ१ +इ१    
क्रमांक  () - ग़ज़ल के मात्रा गणना में अर्ध व्यंजन को  मात्रा माना गया है तथा यदि शब्द में उच्चारण अनुसार पहले अथवा बाद के व्यंजन के साथ जुड जाता है और जिससे जुड़ता है वो व्यंजन यदि  मात्रिक है तो वह  मात्रिक हो जाता है और यदि दो मात्रिक है तो जुडने के बाद भी  मात्रिक ही रहता है ऐसे  मात्रिक को ११ नहीं गिना जा सकता है ।
उदाहरण -सच्चा = स१+च्१ / च१+आ१  = सच्  चा  = २२ (अतः सच्चा को ११२ नहीं गिना जा सकता हैआनन्द =  / +न् /  = आ२ नन्२ द१ = २२१ , कार्य = का+र् /  = र्का     = २१  (कार्य में का पहले से दो मात्रिक है तथा आधा  के जुडने पर भी दो मात्रिक ही रहता है)
तुम्हारा = तुम्हारा = तु१ म्हा२ रा२ = १२२
तुम्हें = तु / म्हें = तु१ म्हें२ = १२
उन्हें =  / न्हें = उ१ न्हें२ = १२
क्रमांक  (अनुसार दो मात्रिक को गिरा कर लघु नहीं कर सकते
 (अपवाद स्वरूप अर्ध व्यंजन के इस नियम में अर्ध  व्यंजन के साथ एक अपवाद यह है कि यदि अर्ध  के पहले या बाद में कोई एक मात्रिक अक्षर होता है तब तो यह उच्चारण के अनुसार बगल के शब्द के साथ जुड जाता है परन्तु यदि अर्ध  के दोनों ओर पहले से दीर्घ मात्रिक अक्षर होते हैं तो कुछ शब्दों में अर्ध  को स्वतंत्र एक मात्रिक भी माना लिया जाता है ।
जैसे = रस्ता = र+स् / ता २२ होता है मगर रास्ता = रा/स्/ता = २१२ होता है
दोस्त = दो+स् /२१ होता है मगर दोस्ती = दो/स्/ती = २१२ होता है
इस प्रकार और शब्द देखें
सस्ता = २२ दोस्तों = २१२मस्ताना = २२२ मुस्कान = २२१      संस्कार२१२१
क्रमांक  (अनुसार हस्व व्यंजन स्वयं लघु होता है ।
क्रमांक . () - संयुक्ताक्षर जैसे = क्षत्रज्ञ द्ध द्व आदि दो व्यंजन के योग से बने होने के कारण दीर्घ मात्रिक हैं परन्तु मात्र गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं  
उदाहरण = पत्र२१वक्र = २१यक्ष = २१कक्ष - २१यज्ञ = २१शुद्ध =२१ क्रुद्ध =२१
गोत्र = २१मूत्र = २१,
क्रमांक . (अनुसार संयुक्ताक्षर स्वयं लघु हो जाते हैं।
. (यदि संयुक्ताक्षर से शब्द प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं ।
उदाहरण = त्रिशूल = १२१क्रमांक = १२१क्षितिज = १२
क्रमांक . (अनुसार संयुक्ताक्षर स्वयं लघु हो जाते हैं ।
. (संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं ।
उदाहरण =प्रज्ञा = २२  राजाज्ञा = २२२पत्रों = २२  
क्रमांक . (अनुसार संयुक्ताक्षर स्वर के जुडने से दीर्घ होते हैं तथा यह क्रमांक  के अनुसार लघु हो सकते हैं ।
 (उच्चारण अनुसार मात्रा गणना के कारण कुछ शब्द इस नियम के अपवाद भी है -
उदाहरण = अनुक्रमांक = अनु/क्र/मां/ = २१२१ (’नु’ अक्षर लघु होते हुए भी ’क्र’ के योग से दीर्घ नहीं हुआ और उच्चारण अनुसार  के साथ जुड कर दीर्घ हो गया और क्र लघु हो गया)
क्रमांक . (अनुसार संयुक्ताक्षर स्वयं लघु हो जाते हैं ।
क्रमांक  – विसर्ग युक्त व्यंजन दीर्ध मात्रिक होते हैं ऐसे व्यंजन को  मात्रिक नहीं गिना जा सकता ।
उदाहरण = दुःख = २१ होता है इसे दीर्घ (नहीं गिन सकते यदि हमें  मात्रा में इसका प्रयोग करना है तो इसके तद्भव रूप में ’दुख’ लिखना चाहिए इस प्रकार यह दीर्घ मात्रिक हो जायेगा ।
क्रमांक  अनुसार विसर्ग युक्त दीर्घ व्यंजन को गिरा कर लघु नहीं कर सकते हैं ।
अतः यह स्पष्ट हो गया है कि हम किन दीर्घ को लघु कर सकते हैं और किन्हें नहीं कर सकतेपरन्तु यह अभ्यास से ही पूर्णतः स्पष्ट हो सकता है जैसे कुछ अपवाद को समझने के लिए अभ्यास आवश्यक है ।
उदाहरण स्वरूप एक अपवाद देखें - मात्रा गिराने के नियम में बताया गया है कि ’’ स्वर तथा ’’ स्वर युक्त व्यंजन को नहीं गिरा सकते हैद्य जैसे - “जै“  को गिरा कर लघु नहीं कर सकते परन्तु अपवाद स्वरूप “है“ “हैं“ और “मैं“ को दीर्घ मात्रिक से गिरा कर लघु मात्रिक करने की छूट है ।
कुछ अशआर की तक्तीअ की जाये जिसमें मात्रा को गिराया गया हो -
उदाहरण - 
जिंदगी में / आज पहली / बार मुझको / डर लगा२१२२  /   २१२२   /    २१२२   /   २१२
उसने मुझ पर / फूल फेंका / था मुझे पत् / थर लगा
  २१२२  /   २१२२   /    २१२२   /   २१२
तू मुझे काँ / टा समझता / है तो मुझसे / बच के चल
   २१२२  /   २१२२   /    २१२२   /   २१२
राह का पत् / थर समझता / है तो फिर ठो / कर लगा
   २१२२  /   २१२२   /    २१२२   /   २१२
गे आगे / मैं नहीं हो / ता कभी नज् / मी मगर
  २१२२  /   २१२२   /    २१२२   /   २१२
आज भी पथ / राव में पह / ला मुझे पत् / थर लगा
  २१२२  /   २१२२   /    २१२२   /   २१२
उदाहरण - 

उसे अबके / वफाओं से / गुज़र जाने / की जल्दी थी
१२२२    /    १२२२   /  १२२२   /   १२२२
मगर इस बा मुझको अपने घर जाने / की जल्दी थी
१२२२    /    १२२२    /    १२२२    /   १२२२
मैं अपनी मुट् / ठियों में कै /  कर लेता / जमीनों को
१२२२     /    १२२२    /    १२२२    /   १२२२
मगर मेरे / क़बीले को / बिखर जाने / की जल्दी थी
१२२२    /    १२२२    /    १२२२    /   १२२२
वो शाखों से / जुदा होते / हुए पत्ते / पे हँसते थे
१२२२    /  १२२२   /  १२२२   /   १२२२
बड़े जिन्दा / नज़र थे जिन / को मर जाने / की जल्दी थी
१२२२    /    १२२२    /    १२२२    /   १२२२

उदाहरण - 

कैसे मंज़र / सामने  / ने लगे हैं
  २१२२  /   २१२२   /  २१२२
गाते गाते / लोग चिल्ला / ने लगे हैं
  २१२२  /   २१२२   /  २१२२

अब तो इस ता / लाब का पा / नी बदल दो
      २१२२  /   २१२२   /  २१२२
ये कँवल के /  फूल कुम्हला / ने लगे हैं
    २१२२  /    २१२२   /  २१२२

एक कब्रिस् / तान में घर / मिल रहा है
  २१२२  /   २१२२   /  २१२२
जिसमें तहखा / नों से तहखा / ने लगे हैं
  २१२२  /   २१२२   /  २१२२
इस प्रकार यह स्पष्ट हुआ कि हम किन दीर्घ मात्रिक को गिरा सकते हैं ।
अब मात्रा गिराने को काफी हद तक समझ चुके हैं और यह भी जान चुके हैं कि कौन सा दीर्घ मात्रिक गिरेगा और कौन सा नहीं गिरेगा ।
अब हम इस प्रश्न का उत्तर खोजते हैं कि शब्द में किस स्थान का दीर्घ गिर सकता है और किस स्थान का नहीं गिर सकता -
नियम  के अनुसार हम जिन दीर्घ को गिरा कर लघु मात्रिक गिन सकते हैं शब्द में उनका स्थान भी सुनिश्चित है अर्थात हम शब्द के किसी भी स्थान पर स्थापित दीर्घ अक्षर को  नियम अनुसार  नहीं गिरा सकते
उदाहरण - पाया २२ को पाय अनुसार उच्चारण कर के २१ गिन सकते हैं परन्तु पया अनुसार १२ नहीं गिन सकते ।

प्रश्न उठता है किजब पा और या दोनों में एक ही नियम (क्रमांक  अनुसारलागू है तो ऐसा क्यों कि ’या’ को गिरा सकते हैं ’पा’ को नहीं ?
इसका उत्तर यह है कि हम शब्द के केवल अंतिम दीर्घ मात्रिक अक्षर को ही गिरा सकते हैं शब्द के आखि़री अक्षर के अतिरिक्त किसी और अक्षर को नहीं गिरा सकते ।
कुछ और उदाहरण देखें -
उसूलों - १२२ को गिरा कर केवल १२१ कर सकते हैं इसमें हम “सू“ को गिरा कर ११२ नहीं कर सकते क्योकि ’सू’  अक्षर शब्द के अंत में नहीं है  
तो -  को गिरा कर  कर सकते हैं क्योकि यह शब्द का आखि़री अक्षर है ।
बोलो - २२ को गिरा कर २१ अनुसार गिन सकते हैं 
नोट - इस नियम में कुछ अपवाद भी देख लें -
कोईमेरातेरा शब्द में अपवाद स्वरूप पहले अक्षर को भी गिरा सकते हैं)    
कोई - २२ से गिरा कर केवल २१ और १२ और ११ कर सकते हैं पर यह  नहीं हो सकता है
मेरा - २२ से गिरा कर केवल २१ और १२ और ११ कर सकते हैं पर यह  नहीं हो सकता है
तेरा - २२ से गिरा कर केवल २१ और १२ और ११ कर सकते हैं पर यह  नहीं हो सकता है
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अब यह भी स्पष्ट है कि शब्द में किन स्थान पर दीर्घ मात्रिक को गिरा सकते हैं

अब यह जानना शेष है कि किन शब्दों की मात्रा को कदापि नहीं गिरा सकते -

हम किसी व्यक्ति अथवा स्थान के नाम की मात्रा कदापि नहीं गिरा सकते
उदाहरण - “मीरा“ शब्द में अंत में “रा“ है जो क्रमांक  अनुसार गिर सकता है और शब्द के अंत में  रहा है इसलिए नियमानुसार इसे गिरा सकते हैं परन्तु यह एक महिला का नाम है इसलिए संज्ञा है और इस कारण हम मीरा(२२को “मीर“ उच्चारण करते हुए २१ नहीं गिन सकते । “मीरा“ शब्द सदैव २२ ही रहेगा इसकी मात्रा  किसी दशा में नहीं गिरा सकते  यदि ऐसा करेंगे तो शेअर दोष पूर्ण हो जायेगा ।
 “आगरा“ शब्द में अंत में “रा“ है जो क्रमांक  अनुसार गिरा सकते है और शब्द के अंत में “रा“  रहा है इसलिए नियमानुसार गिरा सकते हैं परन्तु यह एक स्थान का नाम है इसलिए संज्ञा है और इस कारण हम आगरा(२१२को “आगर“ उच्चारण करते हुए २२ नहीं गिन सकतेद्य “आगरा“ शब्द सदैव २१२ ही रहेगा द्य इसकी मात्रा  किसी दशा में नहीं गिरा सकते द्य यदि ऐसा करेंगे तो शेअर दोष पूर्ण हो जायेगा ।

ऐसा माना जाता है कि हिन्दी के तत्सम शब्द की मात्रा भी नहीं गिरानी चाहिए ।
उदाहरण - विडम्बना शब्द के अंत में “ना“ है जो क्रमांक  अनुसार गिरा सकते है और शब्द के अंत में “ना“  रहा है इसलिए नियमानुसार गिरा सकते हैं परन्तु विडम्बना एक तत्सम शब्द है इसलिए इसकी मात्रा नहीं गिरानी चाहिए  परन्तु अब इस नियम में काफी छूट लिये जाने लगे हैं क्योकि तद्भव शब्दों में भी खूब बदलाव हो रहा है और उसके तद्भव रूप से भी नए शब्द निकालने लगे हैं ।

उदाहरण - दीपावली एक तत्सम शब्द है जिसका तद्भव रूप दीवाली है मगर समय के साथ इसमें भी बदलाव हुआ है और दीवाली में बदलाव हो कर दिवाली शब्द प्रचलन में आया तो अब दिवाली को तद्भव शब्द माने तो उसका तत्सम शब्द दीवाली होगा इस इस अनुसार दीवाली को २२१ नहीं करना चाहिए मगर ऐसा खूब किया जा रहा है  और लगभग स्वीकार्य है द्य मगर ध्यान रहे कि मूल शब्द दीपावली (२२१२को गिरा कर २२११ नहीं करना चाहिए ।

यह भी याद रखें कि यह नियम केवल हिन्दी के तत्सम शब्दों के लिए है   उर्दू के शब्दों के साथ ऐसा कोई नियम नहीं है क्योकि उर्दू की शब्दावली में तद्भव शब्द नहीं पाए जाते ।

(अगर किसी उर्दू शब्द का बदला हुआ रूप प्रचलन में आया है तो वह  शब्द उर्दू भाषा से से किसी और भाषा में जाने के कारण बदला है जैसे उर्दू का अलविदाअ २१२१ हिन्दी में अलविदा २१२ हो गयासहीह(१२१) बदल कर सही(१२)  हो गया शुरुअ (१२१बदल कर शुरू(१२हो गया मन्अ(२१बदल कर मना(१२हो गयाऔर ऐसे अनेक शब्द हैं जिनका स्वरूप बदल गया मगर इनको उर्दू का तद्भव शब्द कहना गलत होगा )

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अब जब सारे नियम साझा हो चुके हैं तो कुछ ऐसे शब्द को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करता हूँ जिनकी मात्रा को गिराया जा सकता है


मेरे मुक्तक
1. पीसो जो मेंहदी तोहाथ में रंग आयेगा 
बोये जो धान खतपतवार तो संग आयेगा 
है दस्तुर इस जहां में सिक्के के होते दो पहलू
दुख सहने से तुम्हे तो जीने का ढंग आयेगा ।।

2. अंधियारा को चीरएक नूतन सबेरा आयेगा 
 राह बुनता चल तो सही तूतेरा बसेरा आयेगा ।।
 हौसला के ले परउडान जो तू भरेगा नीले नभ 
 देख लेना कदमो तले वही नभ जठेरा आयेगा 

2. क्रोध में जो कापताकोई उसे भाते नही 
हो नदी ऊफान परकोई निकट जाते नही 
कौन अच्छा  बुरा को जांच पाये होश खो
हो घनेरी रात तो साये नजर आते नहीं।

3. कहो ना कहो ना मुझे कौन हो तुम ,
सता कर  सता कर  मुझे मौन हो तुम 
कभी भी कहीं का किसी का  छोड़े,
करे लोग काना फुसी पौन हो तुम ।।
पौन-प्राण

4. काया कपड़े विहीन नंगे होते हैं 
झगड़ा कारण रहीत दंगे होते हैं।।
जिनके हो सोच विचार ओछे दैत्यों सा
ऐसे इंसा ही तो लफंगे होते हैं ।।

5. तुम समझते हो तुम मुझ से दूर हो 
जाकर वहां अपने में ही चूर हो ।।
तुम ये लिखे हो कैसे पाती मुझे,
समझा रहे क्यों तुम अब मजबूर हो ।।

6. बड़े बड़े महल अटारी और मोटर गाड़ी उसके पास
यहां वहां दुकान दारी  और खेती बाड़ी उसके पास 
बिछा सके कही बिछौना इतना पैसा गिनते अपने हाथ,
नही कही सुकुन हथेलीचिंता कुल्हाड़ी उसके पास ।।

7. तुझे जाना कहां है जानता भी है 
चरण रख तू डगर को मापता भी है ।।
वहां बैठे हुये क्यों बुन रहे सपना,
निकल कर ख्वाब से तू जागता भी है 


संकलन-रमेशकुमार सिंह चौहान




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