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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

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शनिवार, 11 जुलाई 2020

वार्णिक एवं मात्रिक छंद कविताओं के लिये वर्ण एवं मात्रा के गिनती के नियम

कविताओं के लिये वर्ण एवं मात्रा के गिनती के नियम



वर्ण

‘‘मुख से उच्चारित ध्वनि के संकेतों, उनके लिपि में लिखित प्रतिक को ही वर्ण कहते हैं ।’’

हिन्दी वर्णमाला में 53 वर्णो को तीन भागों में भाटा गया हैः

1. स्वर-

अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ए,ऐ,ओ,औ. अनुस्वार-अं. अनुनासिक-अँ. विसर्ग-अः
2. व्यंजनः
क,ख,ग,घ,ङ, च,छ,ज,झ,ञ. ट,ठ,ड,ढ,ण,ड़,ढ़, त,थ,द,ध,न, प,फ,ब,भ,म, य,र,ल,व,श,ष,स,ह,
3. संयुक्त वर्ण-
क्ष, त्र, ज्ञ,श्र

वर्ण गिनने नियम-

1. हिंदी वर्णमाला के सभी वर्ण चाहे वह स्वर हो, व्यंजन हो, संयुक्त वर्ण हो, लघु मात्रिक हो या दीर्घ मात्रिक सबके सब एक वर्ण के होते हैं ।
2. अर्ध वर्ण की कोई गिनती नहीं होती ।


उदाहरण- 
कमल=क+ म+ल=3 वर्ण
पाठषला= पा +ठ+ षा+ ला =4 वर्ण
रमेश=र+मे+श=3 वर्ण
सत्य=सत्+ य=2 वर्ण (यहां आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है)
कंप्यूटर=कंम्प्+ यू़+ ट+ र=4वर्ण (यहां भी आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है)


मात्रा-

वर्णो के ध्वनि संकेतो को उच्चारित करने में जो समय लगता है उस समय को मात्रा कहते हैं ।

यह दो प्रकार का होता हैः
1. लघु- जिस वर्ण के उच्चारण में एक चुटकी बजाने में लगे समय के बराबर समय लगे उसे लघु मात्रा कहते हैं। इसका मात्रा भार 1 होता है ।
2. गुरू-जिस वर्ण के उच्चारण में लघु वर्ण के उच्चारण से अधिक समय लगता है उसे गुरू या दीर्घ कहते हैं ! इसका मात्रा भार 2 होता है ।

लघु गुरु निर्धारण के नियम-

  1. हिंदी वर्णमाला के तीन स्वर अ, इ, उ, ऋ एवं अनुनासिक-अँ लघु होते हैं और इस मात्रा से बनने वाले व्यंजन भी लघु होते हैं । लघु स्वरः-अ,इ,उ,ऋ,अँ लघु व्यंजनः- क, कि, कु, कृ, कँ, ख, खि, खु, खृ, खँ ..इसी प्रका
  2. इन लघु स्वरों को छोड़कर शेष स्वर आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ और अनुस्वार अं गुरू स्वर होते हैं तथा इन से बनने वाले व्यंजन भी गुरु होता है ।गुरू स्वरः- आ, ई,ऊ, ए, ऐ, ओ, औ,अं गुरू व्यंजन:- का की, कू, के, कै, को, कौ, कं,........इसी प्रकार
  3. अर्ध वर्ण का स्वयं में कोई मात्रा भार नहीं होता,किन्तु यह दूसरे वर्ण को गुरू कर सकता है । 
  4. अर्ध वर्ण से प्रारंभ होने वाले शब्द में मात्रा के दृष्टिकोण से भी अर्ध वर्ण को छोड़ दिया जाता है । 
  5. किंतु यदि अर्ध वर्ण शब्द के मध्य या अंत में आवे तो यह उस वर्ण को गुरु कर देता है जिस पर इसका      उच्चारण भार पड़ता है । यह प्रायः अपनी बाँई ओर के वर्ण को गुरु करता है । 
  6. यदि जिस वर्ण पर अर्ध वर्ण का भार पड़ रहा हो वह पहले से गुरु है तो वह गुरु ही रहेगा ।
  7. संयुक्त वर्ण में एक अर्ध वर्ण एवं एक पूर्ण होता है, इसके अर्ध वर्ण में उपरोक्त अर्ध वर्ण नियम लागू होता है ।

उदाहरण-
रमेश=र + मे+ श=लघु़+गुरू +लघु=1+2+1=4 मात्रा
सत्य=सत्य+=गुरु+लघु =2+1=3 मात्रा
तुम्हारा=तु़+म्हा+रा=लघु +गुरू+गुरू =1+2+2=5 मात्रा
कंप्यूटर=कंम्प्यू+ट+र=गुरु़+गुरु़+लघु़+लघु=2+2+1+1=6 मात्रा
यज्ञ=यग्य+=गुरू+लघु=2+1=3
क्षमा=क्ष+मा=लघु+गुरू =1+2=3


वर्णिक एवं मात्रिक में अंतर-

जब उच्चारित ध्वनि संकेतो को गिनती की जाती है तो वार्णिक एवं ध्वनि संकेतों के उच्चारण में लगे समय की गणना लघु, गुरू के रूप में की जाती है इसे मात्रिक कहते हैं ! मात्रिक मात्रा महत्वपूर्ण होता है वार्णिक में वर्ण महत्वपूर्ण होता है ।

उदाहरण
रमेश=र + मे+ श=लघु़+गुरू +लघु=1+2+1=4 मात्रा
रमेश=र+मे+श=3 वर्ण

सत्य=सत्य+=गुरु+लघु =2+1=3 मात्रा
सत्य=सत्+ य=2 वर्ण (यहां आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है)

कंप्यूटर=कंम्प्यू+ट+र=गुरु़+गुरु़+लघु़+लघु=2+2+1+1=6 मात्रा
कंप्यूटर=कंम्प्+ यू़+ ट+ र=4वर्ण (यहां भी आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है)

आशा ही नहीं विश्‍वास है आप वर्ण मात्रा गणना अच्‍छे से सीख गये होंगे ।
-रमेश चौहान

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

घनाक्षरी छंद के मूलभूत नियम एवं प्रकार

घनाक्षरी एक सनातन छंद की विधा होने के बाद भी आज काव्य मंचों में सर्वाधिक पढ़े जाने वाली विधा है । शायद ऐसा कोई काव्य मंच नहीं होगा जिसमें कोई न कोई कवि घनाक्षरी ना पढ़े । 
हिंदी साहित्य के स्वर्णिम युग जिसे एक प्रकार से छंद का युग भी कह सकते हैं, में घनाक्षरी विशेष रूप से प्रचलित रहा है । इस घनाक्षरी छंद की परिभाषा इसके मूलभूत नियम एवं इनके प्रकार पर आज पर चर्चा करेंगे। साथ ही वर्णों की गिनती किस प्रकार की जाती है ? और लघु गुरु का निर्धारण कैसे होता है ? इस पर भी चर्चा करेंगे ।

घनाक्षरी छंद की परिभाषा-
"घनाक्षरी छंद, चार चरणों की एक वर्णिक छंद होता है जिसमें वर्णों की संख्या निश्चित होती है ।" इसे कवित्त भी कहा जाता है और कहीं कहीं पर इसे मुक्तक की भी संज्ञा दी गई है ।

घनाक्षरी छंद के मूलभूत नियम-

1. घनाक्षरी में चार चरण या चार पद होता है।
2. प्रत्येक पद स्वयं चार भागों में बंटे होते हैं इसे यति कहा जाता है ।
3. प्रत्येक चरण के पहले 3 यति पर 8,8,8 वर्ण निश्चित रूप से होते हैं ।
4. चौथे चरण पर 7, 8, या 9 वर्ण हो सकते हैं । इन्हीं वर्णों के अंतर से घनाक्षरी का भेद बनता है ।
5. इस प्रकार घनाक्षरी के प्रत्येक पद में कूल 31,32, या 33 वर्ण होते हैं जो 8,8,8,7 या 8,8,8,8 या 8,8,8,9 वर्ण क्रम में होते हैं ।
6. प्रत्येक पद के चौथे चरण में वर्णों की संख्या और अंत में लघु गुरु के भेद से इसके प्रकार का निर्माण होता है ।
7.इसलिए घनाक्षरी लिखने से पहले घनाक्षरी के भेद और उनकी लघु गुरु के नियम को समझना होगा ।

घनाक्षरी छंद के प्रकार-
घनाक्षरी छंद मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं जिसके चौथे चरण में वर्णों की संख्या भिन्न-भिन्न होती है ।

  1.  जिसके चौथे चरण में 7 वर्ण हो-

जैसे कि ऊपर देख चुके हैं कि घनाक्षरी छंद में चार चरण होते हैं जिसके पहले तीन चरण में 8,8,8 वर्ण  निश्चित रूप से होते हैैं । किंतु चौथे चरण में वर्णों की संख्या भिन्न-भिन्न होती है । जब चौथे चरण में 7 वर्ण आवे तो निम्न प्रकार से घनाक्षरी छंद का निर्माण होता है-
  • मनहरण घनाक्षरी-
  • मनहरण घनाक्षरी सर्वाधिक प्रयोग में आई जाने वाली घनाक्षरी है । इसके पहले तीन चरण में 8,8,8 वर्ण निश्चित रूप से होते हैं और सातवें चरण में 7 वर्ण होता है । प्रत्येक चौथे चरण का अंत एक गुरु से होना अनिवार्य होता है । इसके साथ ही चारों चरण में सम तुकांत शब्द आनी चाहिए । यदि प्रत्येक चरण का अंत लघु गुरु से हो तो गेयता की  दृष्टिकोण से अच्छी मानी जाती है।
  • जनहरण घनाक्षरी-
  • जनहरण घनाक्षरी बिल्कुल मनहरण घनाक्षरी जैसा ही है इसके भी पहले तीन चरण में 8,8,8 और चौथे चरण में 7 वर्ण होते हैं और इसका भी अंत एक गुरु से होता है । अंतर केवल इतना ही है के चरण के अंत के गुरु को छोड़ बाकी सभी वर्ण निश्चित रूप से लघु होते हैं । इस प्रकार घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 30 लघु के बाद एक गुरु हो तो जनहरण घनाक्षरी का निर्माण होता है।
  • कलाधर घनाक्षरी-
  • कलाधर घनाक्षरी भी मनहरण एवं जनहरण घनाक्षरी के समान ही होता है जिसके पहले तीन चरण में 8,8,8 वर्ण एवं अंतिम चौथे चरण में 7 वर्ण होते हैं तथा जिसका अंत भी गुरु से ही होता है । अंतर केवल इसमें इतना ही है की यह गुरु से शुरू होकर एकांतर क्रम पर गुरु लघु गुरु लघु गुरु लघु क्रमवार आता है । अर्थात इसमें गुरु लघु की 15 बार आवृत्ति होती है और अंत में गुरु आता है ।

        2.जिस के चौथे चरण में 8 वर्ण होते हैं-

सभी घनाक्षरी के पहले तीन चरण में 8,8,8 वर्ण  ही होते हैं यदि चौथे चरण में भी 8 वर्ण हो तो निम्न प्रकार के घनाक्षरी छंद बनते हैं-
  • रूप घनाक्षरी-रूप घनाक्षरी के चारों चरण में 8,8,8,8 व निश्चित रूप से होते हैं तथा जिसका प्रत्येक चरण का अंत निश्चित रूप से लघु से होता है साथ ही चारों चरण के अंत में समतुकांत शब्द होते हैं ।
  • जलहरण घनाक्षरी-जल हरण घनाक्षरी बिल्कुल रूप घनाक्षरी जैसे ही होता है इसके भी चारों चरण में 8,8,8,8 वर्ण होते हैं और अंतिम भी लघु से होता है ।अंतर केवल इतना होता है कि प्रत्येक चरण के अंतिम लघु से पहले एक और लघु होता है अर्थात प्रत्येक चरण का अंत दो लघु (लघु लघु) से हो तब जलहरण घनाक्षरी बनता है ।
  • डमरु घनाक्षरी-डमरु घनाक्षरी भी जलहरण घनाक्षरी और रूप घनाक्षरी के समान ही होता है जिसके चारों चरण में 8,8,8,8 वर्ण  र्होते हैं तथा अंत भी लघु से होता है । अंतर केवल इतना ही होता है की डमरु घनाक्षरी के सभी  वर्ण लघु होते हैं । इस प्रकार जब 8,8,8,8 क्रम के सभी वर्ण लघु लघु में हो तो डमरू छंद बनता है ।
  • किरपान घनाक्षरी छंद-इसके चारों चरण में 8,8,8,8 वर्ण होने के बाद भी यह पूर्ण रूप से रूपघनाक्षरी, जलहरण घनाक्षरी से भिन्न होता है । इसके प्रत्येक 8 वर्ण में सानुप्रास आना चाहिए अर्थात प्रत्येक यति में 2 शब्द समतुकांत शब्द होनी चाहिए । प्रत्येक चरण का अंत गुरु लघु से होता है 
  • इसे इस उदाहरण से समझ लेते हैं-"बसु वरण वरण, धरी चरण चरण, कर समर बरण, गल धरि किरपान ।यहां  वरण वरण, चरण चरण  और समर बरन में सानुप्रास है ।
  • विजया घनाक्षरी छंद-विजया घनाक्षरी छंद के प्रत्येक चरण में 8, 8,8,8 वर्ण होते हैं । प्रत्येक यति में अर्थात सभी 8 8 वर्ण का अंत नगण (लघु लघु लघु) या लघु गुरु से होना चाहिए ।

    3. जिसके चौथे चरण में 9 वर्ण हो-

    इस प्रकार के घनाक्षरी छंद के पहले तीन चरण में 8,8,8 वर्ण एवं चौथे चरण में 9 वर्ण होते हैं  ।
  • देव घनाक्षरी छंद-छंद में 8,8,8,9 वर्णक्रम होते हैं और प्रत्येक चरण का अंत नगण (लघु लघु लघु) अर्थात तीन बार लघु से होता है ।

  • वर्ण गिनने नियम-

  1. हिंदी वर्णमाला के सभी वर्ण चाहे वह स्वर हो, व्यंजन हो, संयुक्त वर्ण हो, लघु मात्रिक हो या दीर्घ मात्रिक सबके सब एक वर्ण के होते हैं ।
  2. अर्ध वर्ण की कोई गिनती नहीं होती ।
उदाहरण- 
रमेश=र+मे+श=3 वर्ण
सत्य=सत्+य=2 वर्ण (यहां आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है)
कंप्यूटर=कंम्प्+यू+ट+र=4वर्ण (यहां भी आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है)

लघु गुरु निर्धारण के नियम-

  1. हिंदी वर्णमाला के तीन स्वर अ, इ, उ, लघु होते हैं और इस मात्रा से बनने वाले व्यंजन भी लघू होते हैं 
  2. इन लघु स्वरों को छोड़कर शेष स्वर आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ और इन से बनने वाले व्यंजन सभी गुरु होती हैं ।
  3.  चंद्रबिंदु और ऋ की मात्रा जिस पर आवे वह लघु होता है ।
  4. अर्ध वर्ण का स्वयं में कोई भार नहीं होता । इसलिए अर्ध वर्ण से प्रारंभ होने वाले शब्द में मात्रा के दृष्टिकोण से भी अर्ध वर्ण को छोड़ दिया जाता है । 
  5. किंतु यदिअर्ध वर्ण, शब्द के मध्य या अंत में आवे तो यह उस वर्ण को गुरु कर देता है जिस पर इसका उच्चारण भार आवे । या पराया अपनी पाई और के वर्ण को गुरु करता है ।केवल "ह"वर्ण के पहले कोई अर्ध वर्ण आवे तो 'ह' गुरु हो जाता है ।
  6. यदि जिस वर्ण पर अर्ध वर्ण का भार पड़ रहा हो वह पहले से गुरु है तो वह गुरु ही रहेगा ।
उदाहरण-
रमेश=र+म+श=लघु+गुरु+लघु
सत्य=सत्+य=गुरु+लघु
तुम्हारा=तु+म्हा+रा=लघु+गुरु+गुरू
कंप्यूटर=कंम्प्+यू+ट+र=गुरु+गुरु+लघु+लघु
लघु का मात्रा भार एक एवं गुरु का मात्रा भार-2 होता है ।

वर्णिक एवं मात्रिक में अंतर-

जब लघु गुरु में भेद किए बिना ही वर्णों की गिनती की जाती है तो इसे वार्णिक कहते हैं । किंतु जब इसमें लघु एवं गुरु के मात्र का भार क्रम से एक और दो के आधार पर गिनती की जाती है तो इसे मात्रिक कहते हैं ।
उदाहरण
रमेश=र+म+श=लघु+गुरु+लघु=1+2+1=3 3 मात्रा किंतु इसमें तीन वर्ण है ।
सत्य=सत्+य=गुरु+लघु=2+1=3 मात्रा किंतु दो वर्ण
तुम्हारा=तु+म्हा+रा=लघु+गुरु+लघु=1+2+1=4 मात्रा किंग 3 वर्ण
कंप्यूटर=कंम्प्+यू+ट+र=गुरु+गुरु+लघु+लघु=2+2+1+1=6 मात्रा किंतु चार वर्ण ।

घनाक्षरी छंद के उदाहरण-
रखिये चरण चार, चार बार यति धर
तीन आठ हर बार, चौथे सात आठ नौ ।
आठ-आठ आठ-सात, आठ-आठ आठ-आठ
आठ-आठ आठ-नव, वर्ण वर्ण गिन लौ ।।
आठ-सात अंत गुरु, ‘मन’ ‘जन’ ‘कलाधर’,
अंत छोड़ सभी लघु, जलहरण कहि दौ ।
गुरु लघु क्रमवार, नाम रखे कलाधर
नेम कुछु न विशेष, मनहरण गढ़ भौ ।।

आठ-आठ आठ-आठ, ‘रूप‘ रखे अंत लघु
अंत दुई लघु रख, कहिये जलहरण ।
सभी वर्ण लघु भर, नाम ‘डमरू’ तौ धर
आठ-आठ सानुप्रास, ‘कृपाण’ नाम करण ।।
यदि प्रति यति अंत, रखे नगण-नगण
हो ‘विजया’ घनाक्षरी, सुजश मन भरण ।
आठ-आठ आठ-नव, अंत तीन लघु रख
नाम देवघनाक्षरी, गहिये वर्ण शरण ।।
वर्ण-छंद घनाक्षरी, गढ़न हरणमन
नियम-धियम आप, धैर्य धर  जानिए ।।
आठ-आठ आठ-सात, चार बार वर्ण रख
चार बार यति कर,  चार पद तानिए ।।
गति यति लय भर, चरणांत गुरु धर
साधि-साधि शब्द-वर्ण, नेम यही मानिए ।
सम-सम सम-वर्ण, विषम-विषम सम, 
चरण-चरण सब, क्रम यही पालिए ।।

-रमेश चौहान


आशा ही नहीं विश्वास है आप घनाक्षरी छंद को अच्छे से समझ पाए होंगे ।

मंगलवार, 26 मई 2020

नदी नालों को ही बचाकर जल को बचाया जा सकता है

नदी नालों को ही बचाकर जल को बचाया जा सकता है




भूमि की सतह और भूमि के अंदर जल स्रोतों में अंतर संबंध होते हैं ।जब भूख सतह पर जल अधिक होगा तो स्वाभाविक रूप से भूगर्भ जल का स्तर भी अधिक होगा ।
भू सतह पर वर्षा के जल नदी नालों में संचित होता है यदि नदी नालों की सुरक्षा ना की जाए तो आने वाला समय अत्यंत विकट हो सकता है ।
नदी नालों पर तीन स्तर से आक्रमण हो रहा है-
1. नदी नालों के किनारों पर भूमि अतिक्रमण से नदी नालों की चौड़ाई दिनों दिन कम हो रही है, गहराई भी प्रभावित हो रही है जिससे इसमें जल संचय की क्षमता घट रही है। स्थिति यहां तक निर्मित है कि कई छोटे नदी नाले विलुप्त के कगार पर हैं ।
2. नदी नालों पर गांव, शहर, कारखानों की गंदे पानी गिराए जा रहे हैं ।  जिससे इनके जल विषैले हो रहे हैं जिससे इनके जल जनउपयोगी नहीं होने के कारण लोग इन पर ध्यान नहीं देते और इनका अस्तित्व खतरे में लगातार बना हुआ है ।
3. लोगों में नैतिकता का अभाव भी इसका एक बड़ा कारण है । भारतीय संस्कृति में नदी नालों की पूजा की जाती है जल देवता मानकर उनकी आराधना की जाती है किंतु इनकी सुरक्षा उनके बचाव कि कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं लेते।

पूरे देश में नदी नालों की स्थिति का आकलन मैं सिर्फ अपने गांव और आसपास को देखकर लगा सकता हूं जिस नदी नाले  में हम बचपन  में तैरा करते थे वहां आज पानी का एक बूंद भी नहीं है ।
नदी तट पर जहां हम खेला करते थे वहां आज कुछ झोपड़ी तो कुछ महल खड़े हो गए हैं ।

कुछ इसी प्रकार की स्थिति गांव और शहर के तालाबों का हो गया है तालाब केवल कूड़ा दान प्रतीत हो रहा है ।
जल स्रोत बचाएं पानी बचाएं ।

शुक्रवार, 22 मई 2020

दीर्घायु जीवन का रहस्य

दीर्घायु जीवन का रहस्य



इस जगत ऐसा कौन नहीं होगा जो लंबी आयु, सुखी जीवन न चाहता हो । प्रत्येक व्यक्ति की कामना होती है कि वह सुखी रहे, जीवन आनंद से व्यतित हो और वह पूर्ण आयु को निरोगी रहते हुये व्यतित करे । मृत्यु तो अटल सत्य है किंतु असमायिक मृत्यु को टालना चाहिये क्योंकि अथर्ववेद में कहा गया है-‘‘मा पुरा जरसो मृथा’ अर्थात बुढ़ापा के पहले मत मरो ।

बुढ़ापा कब आता है ?
  • वैज्ञानिक शोधों द्वारा यह ज्ञात किया गया है कि जब तक शरीर में सेल (कोशिकाओं) का पुनर्निमाण ठीक-ठाक होता रहेगा तब तक शरीर युवावस्था युक्त, कांतियुक्त बना रहेगा । यदि इन सेलों का पुनर्निमाण किन्ही कारणों से अवरूध हो जाता है तो समय के पूर्व शरीर में वृद्धावस्था का लक्षण प्रकट होने लगता है ।
मनुष्य की आयु कितनी है? 
  • वैज्ञानिक एवं चिकित्सकीय शोधों के अनुसार वर्तमान में मनुष्य की औसत जीवन प्रत्याशा 60 से 70 वर्ष के मध्य है । इस जीवन प्रत्यशा को बढ़ाने चिकित्सकीय प्रयोग निरंतर जारी है ।
  • किन्तु श्रृति कहती है-‘शतायुवै पुरूषः’ अर्थात मनुष्यों की आयु सौ वर्ष निर्धारित है । यह सौ वर्ष बाल, युवा वृद्ध के क्रम में पूर्ण होता है । 
क्या कोई मरना चाहता है ?
  • महाभारत में विदुर जी कहते हैं- ‘अहो महीयसी जन्तोर्जीविताषा बलीयसी’ अर्थात हे राजन जीवन जीने की लालसा अधिक बलवती होती है । 
  • आचार्य कौटिल्य कहते हैं- ‘देही देहं त्यकत्वा ऐन्द्रपदमपि न वांछति’ अर्थात इन्द्र पद की प्राप्ति होने पर भी मनुष्य देह का त्याग करना नहीं चाहता ।
  • आज के समय में भी हम में से कोई मरना नहीं चाहता, जीने का हर जतन करना चाहता है। वैज्ञानिक अमरत्व प्राप्त करने अभीतक कई असफल प्रयास कर चुके हैं और जीवन को सतत् या दीर्घ बनाने के लिये अभी तक प्रयास कर रहे हैं ।
    अकाल मृत्यु क्यों होती है ?
    • यद्यपि मनुष्य का जीवन सौ वर्ष निर्धारित है तथापि सर्वसाधारण का शतायु होना दुर्लभ है । विरले व्यक्ति ही इस अवस्था तक जीवित रह पाते हैं 100 वर्ष के पूर्व अथवा जरा अवस्था के पूर्व मृत्यु को अकाल मृत्यु माना जाता है ।
    • सप्तर्षि में से एक योगवसिष्ठ के अनुसार-
    मृत्यों न किचिंच्छक्तस्त्वमेको मारयितु बलात् ।
    मारणीयस्य कर्माणि तत्कर्तृणीति नेतरत् ।।
    • अर्थात ‘‘हे मृत्यु ! तू स्वयं अपनी शक्ति से किसी मनुष्य को नही मार सकती, मनुष्य किसी दूसरे कारण से नहीं, अपने ही कर्मो से मारा जाता है ।’’ इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि मनुष्य अपनी मृत्यु को अपने कर्मो से स्वयं बुलाता है । जिन साधनों, जिन कर्मो से मनुष्य शतायु हो सकता है उन कारणों के उल्लंघन करके अपने मृत्यु को आमंत्रित करता है ।
    दीर्घायु होने का क्या उपाय है ?
    • विज्ञान के अनुसार जब तक शरीर में कोशिकाओं का पुनर्निमाण की प्रक्रिया स्वस्थ रूप से होती रहेगी तब तक शरीर स्वस्थ एवं युवावस्था युक्त रहेगा । 
    • कोशिकाओं की पुनर्निमाण की सतत प्रक्रिया से वृद्धावस्था असमय नहीं होगा । सेल के पुनर्निमाण में विटामिन ई, विटामिन सी, और कोलिन ये तीन तत्वों का योगदान होता है । इसकी पूर्ती करके दीर्घायु बना जा सकता है ।
    • व्यवहारिक रूप से यदि देखा जाये तो एक साधन संपन्न धनवान यदि इसकी पूर्ती भी कर ले तो क्या वह शतायु बन जाता है ? उत्तर है नहीं तो शतायु कैसे हुआ जा सकता है ।
    • श्री पी.डी.खंतवाल कहते हैं कि -‘‘श्रमादि से लोगों की शक्ति का उतना ह्रास नहीं होता, जितना आलस्य और शारीरिक सुखासक्ति से होता है ।’’ यह कथन अनुभवगम्य भी है क्योंकि अपने आसपास वृद्धों को देखें जो जीनका जीवन परिश्रम में व्यतित हुआ है वह अरामपरस्त व्यक्तियों से अधिक स्वस्थ हैं । इससे यह प्रमाणित होता है कि दीर्घायु जीवन जीने के लिये परिश्रम आवश्यक है ।
    • देखने-सुनने में आता है कि वास्तविक साधु-संत जिनका जीवन संयमित है, शतायु होते हैं इससे यह अभिप्रमाणित होता है कि शतायु होने के संयमित जीवन जीना चाहिये ।
    धर्मशास्त्र के अनुसार दीर्घायु जीवन-
    • महाभारत के अनुसार- ‘‘आचारश्र्च सतां धर्मः ।’’ अर्थात आचरण ही सज्जनों का धर्म है । यहाँ यह रेखांकित करना आवश्यक है कि धर्म कोई पूजा पद्यति नहीं अपितु आचरण है, किये जाने वाला कर्म है । 
    • ‘धर्मो धारयति अति धर्मः’’ अर्थात जो धारण करने योग्य है वही धर्म है । धारण करने योग्य सत्य, दया साहचर्य जैसे गुण हैं एवं धारण करने का अर्थ इन गुणों को अपने कर्मो में परणित करना है ।
    • महाराज मनु के अनुसार- ‘‘आचाराल्लभते ह्यायुः ।’’ अर्थात आचार से दीर्घ आयु प्राप्त होती है ।
    • आचार्य कौटिल्य के अनुसार- ‘‘मृत्युरपि धर्मष्ठिं रक्षति ।’’ अर्थात मृत्यु भी धर्मपरायण लोगों की रक्षा करती है ।
    • ऋग्वेद के अनुसार- ‘न देवानामतिव्रतं शतात्मा च न जीवति ।’’ अर्थात देवताओं के नियमों को तोड़ कर कोई व्यक्ति शतायु नहीं हो सकता । यहाँ देवताओं के नियम को सृष्टि का, प्रकृति का नियम भी कह सकते हैं । 
    • समान्य बोलचाल में पर्यावरणीय संतुलन का नियम ही देवाताओं का नियम है, यही किये जाना वाला कर्म है जो आचरण बन कर धर्म का रूप धारण कर लेता है । अर्थात प्रकृति के अनुकूल आचार-व्यवहार करके दीर्घायु जीवन प्राप्त किया जा सकता है ।
    जीवन की सार्थकता-
    • एक अंग्रेज विचारक के अनुसार- ‘‘उसी व्यक्ति को पूर्ण रूप से जीवित माना जा सकता है, जो सद्विचार, सद्भावना और सत्कर्म से युक्त हो ।’’
    • चलते फिरते शव का कोई महत्व नहीं होता थोडे़ समय में अधिक कार्य करने वाला मनुष्य अपने जीवनकाल को बढ़ा लेता है । आदि शांकराचार्य, स्वामी विवेकानंद जैसे कई महापुरूष अल्प समय में ही बड़ा कार्य करके कम आयु में शरीर त्यागने के बाद भी अमर हैं ।
    • मनुष्यों की वास्तविक आयु उनके कर्मो से मापी जाती है । धर्म-कर्म करने से मनुष्य की आयु निश्चित रूप से बढ़ती है ।
    ‘‘धर्मो रक्षति रक्षितः’’ यदि धर्म की रक्षा की जाये अर्थात धर्म का पालन किया जाये तो वही धर्म हमारी रक्षा करता है । यही जीवन का गुण रहस्य है । यही दीर्घायु का महामंत्र है ।

    सोमवार, 20 अप्रैल 2020

    गैस्ट्रिक का घरेलू उपचार

    गैस्ट्रिक का घरेलू उपचार



    आज के व्यवस्तम काम-काजी परिवेश में लोगों को कई छोटे-बड़े रोग हो रहे है । अब कुछ रोगों का होना जैसे सामान्य बात हो गई है । डाइबिटिज, ब्लड़ प्रेसर जैसे प्रचलित रोगों सा एक रोग गैस्ट्रिक भी है इस रोग में वायु आवश्यकता से अधिक बनता है । यह अनियमित खान-पान के कारण अपच की स्थिति बनने के कारण उत्पन्न होता है ।  कई लोग ऐसे अनुभव करते हैं कि काफी करकेे उपचार कराने पर भी गैस्ट्रिक से छूटकारा नहीं मिल रहा है ।
    यह अनुभव किया गया है कि घर में रात-दिन उपयोग में आनेवाली वस्तुओं से कुछ रोगों में निश्चित रूप से उपयोगी है ।
    गैस्ट्रिक के निदान के लिये आज आयुर्वेद अनुशंसित एक घरेलू उपचार पर चर्चा करेंगे । यह एक अनुभत प्रयोग है । इसे घर में प्रयुक्त अजवाइन और काले नमक से बनाया जा सकता है । इसे बनाने के लिये आवश्यक सामाग्री और बनाने की विधि निम्नानुसार है -

    औषधी निर्माण के लिये आवश्यक सामाग्री-

    1. 250 ग्राम अंजवाइन
    2. 50 ग्राम काला नमक

    औषधी बनाने की विधि-

    1. 250 ग्राम अंजवाइन लेकर इसे साफ कर ले ।
    2. इस अंजवाइन को दो बराबर भागों में बांट दें ।
    3. एक भाग को तेज धूप में अच्छे से सूखा दें ।
    4. इस सूखे हुये अंजवाइन को पीस कर चूर्ण बना लें ।
    5. शेष दूसरे भाग को मध्यम आंच पर तवे में भुन ले ।
    6. इस भुने हुये अंजवाइन को पीस कर चूर्ण बना लें ।
    7. काले नमक को साफ कर पीस कर चूर्ण बना लें ।
    8. आपके पास तीन प्रकार के चूर्ण हो गये हैं-धूप में सूखा अंजवाइन का चूर्ण, भुने हुये अंजवाइन का चूर्ण एवं काले नमक का चूर्ण ।
    9. इन तीनों चूर्णो को आपस में अच्छे से मिला दें ।
    10. इस मिश्रण को एक साफ एवं नमी रहित ढक्कन युक्त कांच के बोतल में रख लें । यह उपयोग हेतु औषधी तैयार हो गया ।

    सेवन विधी- 

    प्रतिदिन दोनों समय भोजन करने के पूर्व एक चाय चम्मच चूर्ण शुद्ध ताजे जल के साथ सेवन करें । भोजन कर लेने के तुरंत पश्चात फिर एक चम्मच इस चूर्ण का सेवन जल से ही करें ।
    इस प्रकार नियमित एक सप्ताह तक सेवन करने से आपको यथोचित लाभ दिखने लगे गा ।

    पथ्य-अपथ्य-

    कोई भी औषधी तभी कारगर होता है जब उसका नियम पूर्वक सेवन किया जाये । औषधि सेवन के दौरान क्या खाना चाहिये और क्या नही खाना चाहिये इसका ध्यान रखा जाये ।

    औषधी सेवन काल में गरिष्ठ भोजन जैसे अधिक तेल, मिर्च-मसाले वाले भोजन न करें साथ ही उड़द की दाल, केला, बैंगन, भैंस का दुगध उत्पाद का सेवन न करें ।  इस अवधी में चावल न लें अथवा कम लें चावल के स्थान पर रोटी का सेवन अधिक लाभकारी होगा ।

    घरेलू उपचार प्राथमिक उपचार के रूप में सुझाया गया है । इसका सेवन करना या न करना आपके विवेक  पर निर्भर करता है । हाँ, यह अवश्य है इस औषधी से निश्चित रूप लाभ होगा । इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं है । फिर भी आपके रोग की जानकारी आपको एवं आपके डाक्टर को ही अच्छे से है इसलिये अपने डाक्टर का सलाह अवश्य लें ।

    शनिवार, 18 अप्रैल 2020

    तुलसी के स्वास्थ्यवर्धक गुण


    तुलसी के स्वास्थ्यवर्धक गुण


    तुलसी एक उपयोगी वनस्पति है । भारत सहित विश्व के कई  देशों में तुलसी को पूजनीय तथा शुभ माना जाता है ।  यदि तुलसी के साथ प्राकृतिक चिकित्सा की कुछ पद्यतियां जोड़ दी जायें तो प्राण घातक और असाध्य रोगों  को भी नियंत्रित किया जा सकता है । तुलसी शारीरिक व्याधियों को दूर करने के साथ-साथ मनुष्यों के आंतरिक शोधन में भी उपयोगी है । प्रदूषित वायु के शुद्धिकरण में तुलसी का विलक्षण योगदान है । तुलसी की पत्ती, फूल, फल , तना, जड़ आदि सभी भाग उपयोगी होते हैं ।

    तुलसी पौधे का परिचय-

    तुलसी का वनस्पतिक नाम ऑसीमम सैक्टम है । यह एक द्विबीजपत्री तथा शाकीय, औषधीय झाड़ी है। इसकी ऊँचाई 1 से 3 फिट तक होती है। इसकी पत्तियाँ बैंगनी रंग की होती जो हल्के रोएं से ढकी रहती है । पुष्प कोमल और बहुरंगी छटाओं वाली होती है, जिस पर बैंगनी और गुलाबी आभा वाले बहुत छोटे हृदयाकार पुष्प चक्रों में लगते हैं। बीज चपटे पीतवर्ण के छोटे काले चिह्नों से युक्त अंडाकार होते हैं। नए पौधे मुख्य रूप से वर्षा ऋतु में उगते है और शीतकाल में फूलते हैं। पौधा सामान्य रूप से दो-तीन वर्षों तक हरा बना रहता है।

    तुलसी की प्रजातियां-

    ऐसे तो तुलसी की कई प्रजातियां हैं किन्तु मुख्य रूप से 4 प्रजातियां पाई जाती है-

    1. रामा तुलसी (OCIMUM SANCTUM)

    -रामा तुलसी भारत के लगभग हर घर में पूजी जाने वाली  एक पवित्र पौधा है । इस पौधे के पत्तियां हरी होती हैं । इसे प्रतिदिन पानी की आवश्यकता होती है ।

    2. श्यामा तुलसी (OCIMUM TENUIFLORUM)--

    इस पौधे की पत्तियां बैंगनी रंग की होती है ।  जिसमें छोटे-छोटे रोएं पाये जाते हैं । अन्य प्रजातियों की तुलना में इसमें औषधीय गुण अधिक होते हैं ।

    3- अमुता तुलसी (OCIMUM TENUIFLORUM)-

    यह आम तौर पर कम उगने वाली, सुगंधित और पवित्र प्रजाति का पौधा है ।

    4. वन तुलसी (OCIMUM GRATISSUM)-

    यह भारत में पाये जाने वाली सुगंधित और पवित्र प्रजाति है । अपेक्षाकुत इनकी ऊँचाई अधिक होती है । तना भाग अधिक होता है, इसलिये इसे वन तुलसी कहते हैं 


    धार्मिक महत्व-

    1. भगवान विष्णु की पूजा  तुलसी के बिना पूर्ण नहीं होता ।  भगवान को नैवैद्य समर्पित करते समय तुलसी भेट किया जाता है ।
    2. तुलसी के तनों को दानों के रूप में गूँथ कर माला बनाया जाता है, इस माले का उपयोग मंत्र  जाप में करते हैं ।
    3. मरणासन्न व्यक्ति को तुलसी पत्ती जल में मिला कर पिलाया जाता है ।
    4. दाह संस्कार में तुलसी के तनों का प्रयोग किया जाता है ।
    5. भारतीय संस्कृति में तुलसी विहन घर को पवित्र नहीं माना जाता ।

     रासायनिक संगठन-

    तुलसी में अनेक जैव सक्रिय रसायन पाए गए हैं, जिनमें ट्रैनिन, सैवोनिन, ग्लाइकोसाइड और एल्केलाइड्स प्रमुख हैं। तुलसी में उड़नशिल तेल पाया जाता है । जिसका औषधिय उपयोग होता है ।  कुछ समय रखे रहने पर यह स्फिटिक की तरह जम जाता है । इसे तुलसी कपूर भी कहते हैं ।  इसमें कीनोल तथा एल्केलाइड भी पाये जाते हैं ।  एस्कार्बिक एसिड़ और केरोटिन भी पाया जाता है ।


    व्यवसायिक खेती-

    तुलसी अत्यधिक औषधीय उपयोग का पौधा है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसका उपयोग तो होता ही रहा है वर्तमान में इससे अनेकों खाँसी की दवाएँ साबुन, हेयर शैम्पू आदि बनाए जाने लगे हैं। जिससे तुलसी के उत्पाद की मांग काफी बढ़ गई है। अतः मांग की पूर्ति बिना खेती के संभव नहीं हैं।
    इसकी खेती, कम उपजाऊ जमीन में भी की जा सकती है । इसके लिये बलूई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती हैं। इसके लिए उष्ण कटिबंध एवं कटिबंधीय दोनों तरह जलवायु उपयुक्त होती है।
    इसकी खेती रोपाई विधि से करना चाहिये । बादल या हल्की वर्षा वाले दिन इसकी रोपाई के लिए बहुत उपयुक्त होते हैं। रोपाई के बाद खेत को सिंचाई तुरंत कर देनी चाहिए।
    रोपाई के 10-12 सप्ताह के बाद यह कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके फसल की औसत पैदावार 20 - 25 टन प्रति हेक्टेयर तथा तेल का पैदावार 80-100 किग्रा. हेक्टेयर तक होता है।

    तुलसी के महत्वपूर्ण औषधीय उपयोग-

    1. वजन कम करने में- तुलसी की पत्तियों को दही या छाछ के साथ सेवन करने से वजन कम होता होता है ।  शरीर की चर्बी कम होती है । शरीर सुड़ौल बनता है ।

    2. रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में - प्रतिदिन तुलसी के 4-5 ताजे पत्ते के सेवन से रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होता है ।

    3. तनाव दूर करने में -तुलसी के नियमित उपयोग से इसमें एंटीआक्तिडेंट गुण पाये जाने के कारण यह कार्टिसोल हार्मोन को संतुलित करती है, जिससे तनाव दूर होता है ।

    4. ज्वर में- तुलसी की पत्ती और काली मिर्च का काढ़ा पीने से ज्वर का शमन होता है ।

    5. मुँहासे में- तुलसी एवं नीबू के रस बराबर मात्रा में लेकर मुँहासे में लगाने पर लाभ होता है ।

    6. खाज-खुजली में- तुलसी की पत्ति एवं नीम की पत्ति बराबर मात्रा में लेप बनाकर लगाने पर लाभ होता है ।  साथ ही बराबर मात्रा में तुलसी पत्ति एवं नीम पत्ति चबाने पर षीघ्रता से लाभ होता है ।

    7. पौरूष शक्ति बढ़ाने में- तुलसी के बीज अथवा जड़ के 3 मि.ग्रा. चूर्ण को पुराने गुड़ के साथ प्रतिदिन गाय के दूध के साथ लेने पर पौरूष शक्ति में वृद्धि होता है ।

    8. स्वप्न दोष में-तुलसी बीज का चूर्ण पानी के साथ खाने पर स्वप्न दोष ठीक होता है ।

    9. मूत्र रोग में- 250 मिली पानी, 250 मिली दूध में 20 मिली तुलसी पत्ति का रस मिलाकर पीने से मूत्र दाह में लाभ होता है ।

    10. अनियमित पीरियड्स की समस्या में-तुलसी के बीज अथवा पत्ति के नियमित सेवन से महिलाओं को पीरियड्स में अनियमितता से छूटकारा मिलता है ।

    11. रक्त प्रदर में-तुलसी बीज के चूर्ण को अषोक पत्ति के रस के साथ सेवन करने से रक्त प्रदर में लाभ होता है ।

    12. अपच में- तुलसी मंजरी और काला नमक मिलाकर खाने पर अजीर्ण रोग में लाभ होता है ।

    13. केश रोग में-तुलसी पत्ति, भृंगराज पत्र एवं आवला को समान रूप  में लेकर लेपबना कर बालों में लगाने पर बालों का झड़ना बंद हो जाता है । बाल काले हो जाते हैं ।

    14. दस्त होने पर- तुलसी के पत्तों को जीरे के साथ मिलाकर पीस कर दिन में 3-4 बार सेवन करने दस्त में लाभ होता है ।

    15. चोट लग जाने पर- तुलसी के पत्ते को फिटकरी के साथ मिलाकर लगाने से घाव जल्दी ठीक हो जाता है ।

    16. शुगर नियंत्रण में- तुलसी पत्ती के नियमित सेवन से शुगर नियंत्रित होता है । तुलसी में फ्लेवोनोइड्स, ट्राइटरपेन व सैपोनिन जैसे कई फाइटोकेमिकल्स होते हैं, जो हाइपोग्लाइसेमिक के तौर पर काम करते हैं। इससे शुगर को नियंत्रित करने में मदद मिलती है ।

    17. हृदय रोग में- तुलसी की पत्तियां खराब कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करके अच्छे कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाती हैं इसमें विटामिन-सी व एंटीऑक्सीडेंट गुण होते हैं, जो ह्रदय को फ्री रेडिकल्स से बचाकर रखते हैं।

    18. किडनी रोग में- तुलसी यूरिक एसिड को कम करती है, और इसमें मूत्रवर्धक गुण पाये जातें हैं जिससे किडनी की कार्यक्षमता में भी वृद्धि होती है ।

    19. सिर दर्द में- सिर दर्द होने पर तुलसी पत्ति के चाय पीने से लाभ होता है ।

    20. डैंड्रफ में- तुलसी तेल की कुछ बूँदे अपने हेयर आयल मिला कर लगाने से डैंड्रफ से मुक्ति मिलती है ।


    तुलसी प्रयोग की सीमाएं-

    आयुर्वेद कहता है कि हर चीज का सेवन सेहत व परिस्थितियों के अनुसार और सीमित मात्रा में ही करना चाहिए, तभी उसका फायदा होता है। इस लिहाज से तुलसी की भी कुछ सीमाएं हैं । गर्भवती महिला, स्तनपान कराने वाली महिला, निम्न रक्तचाप वाले व्यक्तियों को तुलसी के सेवन से परहेज करना चाहिये ।

    इसप्रकार तुलसी का महत्व स्पष्ट हो जाता है । इसकी महत्ता न सिर्फ धार्मिक आधार पर है, बल्कि वैज्ञानिक मापदंडों पर भी इसके चिकित्सीय लाभों को प्रमाणित किया जा रहा है। इसलिये अपने घर-आँगन में में कम से कम एक तुलसी का पौधा जरूर लगा कर रखें और उसका नियमित सेवन करें ।

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    रविवार, 1 मार्च 2020

    डायबिटिज के लिये डाइट प्लान

    डायबिटिज के लिये डाइट प्लान

    डायबिटीज का रोग वर्तमान में बहुत तीव्रगति से बढ़ रहा है । षारीरिक श्रम का अभाव तथा खान-पान में असंतुलन इस रोग का सामान्य कारण है मधुमेहरोगियों को एक तो गोलियों पर या इन्षुलिन पर निर्भर रहना पड़ता है ।  गोलियों का असर सिर्फ कुछ दिनों तक दिखायी देता है ।  जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, ऐलोपैथीकी गोलियोँ काम नहीं करतीं परिणामतः रक्त षर्करा बढ़ने लगता है, आँखें कमजोर होना, हृदय-विकार होना, किडनी का कमजोर होना प्रारंभ हो जाता है ।
    आयुर्वेदीय साहित्य में षरीर एवं व्याधि दोनों को आहारसम्भव माना गया है-‘‘अहारसम्भवं वस्तु रोगाष्चाहारसम्भवः’’ ।  षरीर के उचित पोशण एवं रोगानिवारणार्थ सम्यक आहार-विहार (डाइट प्लान) का होना आवष्यक है । विषेश कर मधुमेह से पीड़ित व्यक्तियों के लिये इसका विषेश महत्व है, डाइट प्लान की सहायता से मधुमेह को नियंत्रित किया जा सकता है ।
    डायबिटिज डाइट प्लान क्या है ?
    डायबिटिज के लिये डाइट प्लान एक स्वस्थ-भोजन योजना है, जो प्राकृतिक रूप से पोषक तत्वों से भरपूर होता है , जिसमें इस बात का ध्यान रखा जाता है कि भोजन का चयन इस प्रकार हो कि उसमें वसा और कैलोरी की मात्रा कम हो। डायबिटिज डाइट प्लान में ऐसे आहार स्वीकार्य होते हैं जो षर्करा की मात्रा को नियंत्रित करता हो । 
    डायबिटिज डाइट प्लान की आवश्यकता क्यों है?
    जब हम अतिरिक्त कैलोरी और वसा खाते हैं, तो हमारे शरीर में रक्त शर्करा में अवांछनीय वृद्धि हो जाता है। यदि रक्त शर्करा को नियंत्रित नहीं रखा जाता है, तो यह गंभीर समस्याओं को जन्म दे सकती है, जैसे कि उच्च रक्त शर्करा का स्तर (हाइपरग्लाइसेमिया) जो लगातार रहने पर तंत्रिका, गुर्दे और हृदय की क्षति जैसे दीर्घकालिक जटिलताओं का कारण बन सकता है।
    मधुमेह वाले अधिकांश लोगों के लिए, वजन घटाने से रक्त शर्करा को नियंत्रित करना आसान हो जाता है और अन्य स्वास्थ्य लाभ मिलते है। यदि हमको अपना वजन कम करने की आवश्यकता है, तो डाइट प्लान की आवष्यकता होती है । जिस प्रकार किसी भी कार्य को प्रिप्लान करने पर सफलता की संभावना अधिक होती है, उसी प्रकार डाइट प्लान भी रोग नियंत्रण में सफल होता है ।
    डायबिटिज डाइट प्लान कैसे करें ?
    इस संबंध में मैं कल्याण के आरोग्य विषेशांक में विद्वानों, डाक्टरों द्वारा दिये सुझावों का सरांष देना चाहूँगा जिसके अनुसार-डायबिटिज के रोगी को प्रातः भ्रमणोपरांत घर में जमा हुआ दही स्वेच्छानुसार थोड़ा सा जल, जीरा तथा नमक मिलाकर पीये । दही के अलावा चाय-दूध कुछ न ले ।  इसके साथे मेथी दाने का पानी, जाम्बुलिन, मूँग-मोठ आदि का प्रयोग रकें, इसके 3-4 घंटे बाद ही भोजन करें ।
    भोजन में जौ-चने के आटे की रोटी, हरी षाक-सब्जी, सलाद और छाछ-मट्ठा  का सेवन करें ।  भोजन करते हुए छाछ को घूँट-घूँट  करके पीना चाहिये ।  भोजन के प्ष्चात फल लेना चाहिये । 
    भोजन फुरसत के अनुसार नहीं निष्चित समय में ही लेना चाहिये । जितना महत्व भोजन चयन का उसके समतुल्य सही समय पर भोजन करना भी है ।  सही समय में सही भोजन रक्त षर्करा की मात्रा को सामान्य अवस्था में बनाये रखने में सहायक होता है ।
    आहार में वसा, प्रोटीन कार्बोहाइर्डेट पदार्थ जैसे दूध, घी, तेल, सूखे मेवे, फल, अनाज, दाल आदि का प्रयोग नियंत्रित रूप से संतुलित मात्रा ग्रहण करें, अर्थात अधिक मात्रा में सेवन न करें । रेषोदार खाद्य पदार्थ जैसे हरी षाक, सलाद, आटे का चोकर, मौसमी फल, अंकुरित अन्न, समूची दाल का सेवन अधिक मात्रा में करना चाहिये ।
    डायबिटिज के रोगियों को उचित डाइट के साथ-साथ दिनचर्या में सुधार करना चाहिये नित्य वायुसेवन (मार्निंग वाक), व्यायाम (वर्क आउट) भी करना चाहिये ।
    डायबिटिज के लक्षण पाये जाने पर रोगियों चिंतित होन के बजाय अपने आहार-विहार एवं दिनचर्या  पर ध्यान देना चाहिये इसी से इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है ।
    -रमेशकुमार चौहान

    शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

    परिवार का अस्तित्व

           परिवार का अस्तित्व


    हम बाल्यकाल से पढ़ते आ रहे हैं की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं और समाज का न्यूनतम इकाई परिवार है । जब हम यह कहते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं तो इसका अर्थ क्या होता है ?  किसी मनुष्य का जीवन समाज में  उत्पन्न होता है और समाज में ही विलीन हो जाता है । सामाज का नींव परिवार है ।

    परिवार क्या है  ?

    कहने के लिये हम कह सकते हैं-"वह सम्मिलित वासवाले रक्त संबंधियों का समूह, जिसमें विवाह और दत्तक प्रथा स्वीकृत व्यक्ति  सम्मिलित होता है परिवार कहलाता है ।" इस परिभाषा के अनुसार परिवार में रक्त संबंधों के सारे संबंधी साथ रहते हैं जिसे  आजकल संयुक्त परिवार कह दिया गया । और व्यवहारिक रूप से पति पत्नी और बच्चों के समूह को ही परिवार में माना जा रहा है ।

     परिवार का निर्माण 

      परिवार का निर्माण  तभी संभव है  जब अलग अलग-अलग रक्त से उत्पन्न  महिला-पुरुष  एक साथ रहें । भारत में पितृवंशीय परिवार अधिक प्रचलित है । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि परिवार में नारी का स्थान कमतर है वस्तुतः परिवार का अस्तित्व ही नारी पर निर्भर है । नारी अपना जन्म स्थान छोड़कर पुरुष के परिवार का निर्माण करती है । व्यक्ति की सामाजिक मर्यादा परिवार से  निर्धारित होती है। नर-नारी के यौन संबंध परिवार के दायरे में निबद्ध होते हैं। यदि नारी पुरुष के साथ रहने से इंकार कर दे तो परिवार का निर्माण संभव ही नहीं है,  इसी बात को ध्यान में रखकर लड़की की माता-पिता अपनी बेटी को बाल्यावस्था से इसके लिये मानसिक रूप तैयार करती है । परिवार में पुरुष का दायित्व परिवार का भरण-पोषण करना और परिवार को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने का दायित्व दिया  गया है । पुरूष इस दायित्व का निर्वहन तभी न करेंगे जब परिवार का निर्माण होगा । परिवार का निर्माण नारी पर ही निर्भर है ।

    विवाह का महत्व

            परिवार विवाह से उत्पन्न होता है और इसी संबंध पर टिका रहता है । भारतीय समाज में विवाह को केवल महिला पुरुष के मेल से नहीं देखा जाता । अपितु  दो परिवारों, दो कुटुंबों के मेल से देखा जाता है । परिवार का अस्तित्व तभी तक बना रहता है जब तक नारी  यहां नर के साथ रहना स्वीकार करती है जिस दिन वह नारी पृथक होकर अलग रहना चाहती है उसी दिन परिवार टूट जाता है यद्यपि परिवार नर नारी के संयुक्त उद्यम से बना रहता है तथापि पुरुष की तुलना में परिवार को बनाने और बिगाड़ने में नारी का महत्व अधिक है । यही कारण है कि विवाह के समय बेटी को विदाई देते हुए बेटी के मां बाप द्वारा उसे यह शिक्षा दी जाती है के ससुराल के सारे संबंधियों को अपना मानते हुए परिवार का देखभाल करना ।

     बुजुर्ग लोग यहां तक कहा करते थे कि बेटी मायका जन्म स्थल होता है और ससुराल जीवन स्थल ससुराल में हर सुख दुख सहना और अपनी आर्थी ससुराल से ही निकलना । किसी भी स्थिति में मायका में जीवन निर्वहन की नहीं सोचना । इसी शिक्षा को नारीत्व की शिक्षा कही गयी ।

    परिवारवाद पर ग्रहण

            नारीत्व की शिक्षा ही परिवार के लिये ग्रहण बनता चला गया । ससुराल वाले कुछ लोग इसका दुरूपयोग कर नारियों पर अत्याचार करने लगे । यह भी एक बिड़बना है कि परिवार में एक नारी के सम्मान को पुरूष से अधिक एक नारी ही चोट पहुँचाती है । सास-बहूँ के संबंध को कुछ लोग बिगाड़ कर रखे हैं । अत्याचार का परिणाम यह हुआ कि अब परिवार पर ही प्रश्नवाचक चिन्ह लगने लग गया है । नारी इस नारीत्व की शिक्षा के विरूद्ध होने लगे ।  परिणाम यह हुआ कि आजकल कुछ उच्च शिक्षित महिलाएं आत्मनिर्भर होने के नाम पर परिवार का दायित्व उठाने से इंकार करने लगी हैं । 

    परिवार का अपघटन

           परिवार का अर्थ पति-पत्नि और बच्चे ही कदापि नहीं हो सकता । परिवार में जितना महत्व पति-पत्नि का है उससे अधिक महत्व सास-ससुर और बेटा-बहू का है । आजकल के लोग संयुक्त परिवार से भिन्न अपना परिवार बसाना चाहते हैं । यह चाहत ही परिवार को अपघटित कर रहा है ।

    पति-पत्नि के इस परिवार को देखा जाये तो बहुतायत यह दिखाई दे रहा है कि महिला पक्ष के संबंधीयों से इनका संबंध तो है किन्तु पुरूष के संबंधियों से इनका संबंध लगातार बिगड़ते जा रहे हैं ।

    कोई बेटी अपने माँ-बाप की सेवा करे इसमें किसी को कोई आपत्ती नहीं, आपत्ति तो इस बात से है कि वही बेटी अपने सास-ससुर की सेवा करने से कतराती हैं ।

     हर बहन अपने भाई से यह आपेक्षा तो रखती हैं कि उसका भाई उसके माँ-बाप का ठीक से देख-रेख करे किन्तु वह यह नहीं चाहती कि उसका पति अपने माँ-बाप का अधिक ध्यान रखे ।

    यही सोच आज परिवार के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा कर रहा है ।   शतप्रतिशत महिलायें ऐसी ही हैं  यह कहना नारीवर्ग का अपमान होगा, ऐसा है भी नहीं किन्तु यह कटु सत्य इस प्रकार की सोच रखनेवाली महिलाओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ रहीं हैं ।

    कुछ पुरूष नशाखोरी, कामचोरी के जाल में फँस कर अपने परिवारिक दायित्व का निर्वहन करने से कतरा रहे हैं, यह भी परिवार के विघटन का एक बड़ा कारण है ।

    परिवार का संरक्षण

    संयुक्त परिवार से भिन्न अपना परिवार बसाने की चाहत पर यदि  अंकुश नहीं लगाया गया तो वह दिन दूर नहीं जब भारतीय परिवार की अभिधारणा केवल इतिहास की बात होगी ।  हमें इस बात पर गहन चिंतन करने की आवश्यकता है कि-महिलाओं पर अत्याचार क्यों ? महिलाओं का अपमान क्यों ? जब परिवार की नींव ही महिलाएं हैं तो  महिलाओं का सम्मान क्यों नही ? इसके साथ-साथ इस बात पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि महिला अपने ससुराल वालों का सम्मान क्यों नहीं कर सकती ? क्या एक आत्मनिर्भर महिला परिवार का दायित्व नहीं उठा सकती ?  चाहे वह महिला सास हो, बहू हो, ननद हो, भाभी हो या देरानी-जेठानी । पत्नि और बेटी के रूप एफ सफल महिला अन्य नातों में असफल क्यों हो रही हैं ? इन सारे प्रश्नों का सकारात्मक उत्तर ही परिवार को संरक्षित रख सकता है ।

    शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

    तीज-त्यौहारः भैया दूज

    तीज-त्यौहारः भैया दूज




    तीज-त्यौहार हमारी संस्कृति का आधार स्तंभ है । हर खुशी, हर प्रसंग, हर संबंध, जड़-चेतन के लिये कोई ना कोई पर्व निश्चित है । छत्तीसगढ़ में हर अवसर के लिये कोई ना कोई पर्व है । खुशी का पर्व हरियाली या हरेली, दीपावली, होली आदि, संबंध का पर्व करवा-चौथ, तीजा-पोला, रक्षा बंधन आदि, जड़-चेतन के लिये वट-सावित्री, नाग-पंचमी आदि । छत्तीसगढ़ हिन्दी वर्ष के बारहवों माह में कोई ना कोई पर्व उल्लेखित है -

    मोर छत्तीसगढ़ मा, साल भर तिहार हे
    लगे जइसे दाई हा, करे गा सिंगार हे।

    (अर्थात छत्तीसगढ़ में वर्ष के प्रत्येक माह में कोई ना कोई त्यौहार होता है, इन त्यौहारों से ही छत्तीसगढ़ की मातृभूमि मां के रूप  में इन त्यौहारों से ही अपना श्रृंगार करती हैं ।)

     संबंध के पर्व में पति के लिये वट-सावित्री, करवा-चौथ, तीजा (हरितालिका) आदि, पुत्र के लिये हल षष्ठी प्रसिद्ध है, इसी कड़ी में भाई-बहन के लिये दो त्यौहार प्रचलित है ।  एक रक्षा बंधन एवं दूसरा भैया दूज, ‘भैया-दूज‘ छत्तीसगढ़ में ‘भाई-दूज‘ के नाम से प्रचलित है ।
    बाल्यकाल के शरारत एवं मस्ती के साथी भाई-बहन होते हैं ।  बाल्यकाल से ही एक-दूसरे के प्रति स्नेह रखते हैं । इस स्नेह का प्रदर्शन दो अवसरो पर करते रक्षा-बंधन एवं भाई-दूज पर । ऐसे तो ये दोनों पर्व प्रत्येक आयु वर्ग के भाई-बहनों द्वारा मनाया जाता है किन्तु व्यवहारिक रूप से देखने को मिलता है कि रक्षा- बंधन के प्रति छोटे आयु वर्ग के भाई-बहन अधिक उत्साह रखते हैं जबकि भाई-दूज के प्रति बड़े आयु वर्ग द्वारा अधिक उत्साह देखा गया है । दृष्टव्य है -

    ये राखी तिहार,
    लागथे अब,
    आवय नान्हे नान्हे मन के ।
    भेजय राखी,
    संग मा रोरी,
    दाई माई लिफाफा मा भर के ।
    माथा लगालेबे,
    तै रोरी भइया,
    बांध लेबे राखी मोला सुर कर के ।
    नई जा सकंव,
    मैं हर मइके,
    ना आवस तहू तन के ।
    सुख के ससुरार भइया
    दुख के मइके,
    रखबे राखी के लाज
    जब मैं आहंव आंसू धर के ।

    (अर्थात राखी का त्यौहार केवल बच्चों का लगने लगा हैं क्योंकि  बहने इस दिन अपने भाई को राखी बांधने नही जा पाती ।  बहनें लिफाफे में राखी एवं रोरी भर कर भाई को भेज देती हैं और कहती हैं-भैया मुझे याद कर रोरी लगा कर अपने कलाई में राखी बांध लेना ।  मैं तो महिला अबला हूं मैं मायके नहीं जा पाई किंतु आप पुरूश होकर भी उत्साह के साथ मेरे ससुराल नही आये ।  भैया सुख में मेरा ससुराल ही हैं किन्तु दुख में मायका है, यदि किसी कारण वष मैं दुख में मयाके आ गई तो मेरा देख-भाल कर लेना ।)

    भाई-दूज का पर्व दीपावली के दो दिन बाद कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के द्वितीय तिथि को मनाया जाता है । छत्तीसगढ़ में भी अन्य राज्यों की भांति यह पर्व हर्ष उल्लास के साथ मनाया जाता है ।  इस पर्व में बहने अपने भाई के आनंदमयी दीर्घायु जीवन की कामना करतीं हैं ।  इस दिन बहने भाई के लिये स्वादिष्ट एवं अपने भाई के पसंद का पकवान बनाती हैं । भाई अपने हर काम को छोड़कर इस दिन अपनी बहन के यहां जाते हैं ।  इस दिन बहन अपने भाई के माथे पर रोरी तिलक लगाती फिर पूजा अर्चन कर अपने हाथ से एक निवाला खिलातीं हैं ।  भाई भोजन करने के उपरांत बहन की रक्षा का शपथ करता है फिर सगुन के तौर पर कोई ना कोई उपहार अपनी बहन को भेट करता है ।

    भाई-दूज के संबंध में एक कथा प्रचलित है -भगवान सूर्य नारायण की पत्नी का नाम छाया था। उनकी कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ था। यमुना यमराज से बड़ा स्नेह करती थी। वह उससे बराबर निवेदन करती कि इष्ट मित्रों सहित उसके घर आकर भोजन करे ।  अपने कार्य में व्यस्त यमराज बात को टालता रहा। कार्तिक शुक्ल द्वितिया का दिन आया ।   यमुना ने उस दिन फिर यमराज को भोजन के लिए निमंत्रण देकर, उसे अपने घर आने के लिए वचनबद्ध कर लिया। यमराज ने सोचा कि मैं तो प्राणों को हरने वाला हूं। मुझे कोई भी अपने घर नहीं बुलाना चाहता। बहन जिस सद्भावना से मुझे बुला रही है, उसका पालन करना मेरा धर्म है। बहन के घर आते समय यमराज ने नरक निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया ।  यमराज को अपने घर आया देखकर यमुना की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने स्नान कर पूजन करके व्यंजन परोसकर भोजन कराया ।  यमुना द्वारा किए गए आतिथ्य से यमराज ने प्रसन्न होकर बहन को वर मांगने का आदेश दिया।

    यमुना ने कहा कि भद्र! आप प्रति वर्ष इसी दिन मेरे घर आया करो ।  मेरी तरह जो बहन इस दिन अपने भाई को आदर सत्कार करके टीका करे, उसे तुम्हारा भय न रहे। यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमलोक की राह की ।   इसी दिन से पर्व की परम्परा बनी। ऐसी मान्यता है कि जो आतिथ्य स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता। इसीलिए भैयादूज को यमराज तथा यमुना का पूजन किया जाता है।
    उपरोक्त कथा के आधार पर ऐसा माना जाता है कि भाई-दूज के दिन यदि भाई-बहन एक साथ यमुना नदी में स्नान करते है तो उनके पाप का क्षय होता है ।  भाई-बहन दीर्घायु होते हैं, उन्हें यमराज का आशीष प्राप्त होता है ।

    भाई-दूज का त्यौहार हमारे भारतीय चिंतन का प्रतिक है, जिसमें प्रत्येक संबंध को मधुर बनाने, एक-दूजे के प्रति त्याग करने का संदेश निहित है । हमारे छत्तीसगढ़ में केवल सहोदर भाई-बहनों के मध्य ही यह पर्व नही मनाया जाता अपितु चचेरी, ममेरी, फूफेरी बहनों के अतिरिक्त जातीय बंधन को तोड़कर मुहबोली बहन, शपथ पूर्वक मित्रता स्वीकार किये हुये  (मितान, भोजली, महाप्रसाद आदि)  संबंधों का निर्वहन किया जाता है । हमारे छत्तीसगढ़ में यह पर्व सर्वधर्म सौहाद्रर्य के रूप में भी दिखाई देता है, कई हिन्दू बहने मुस्लिम को भाई के रूप में स्वीकार कर भाई-दूज मनाती है तो वहीं कई मुस्लीम बहने हिन्दू भाई को स्नेह पूर्वक भोजन करा कर इस पर्व को मनाती है ।
    इस प्रकार आज के संदर्भ में यह पर्व केवल पौराणिक महत्व को ही प्रतिपादित नहीं करता अपितु यह सामाज में सौहाद्रर्य स्थापित करने में भी मददगार है, जो आज के सामाज की आवश्यकता भी है ।

    -रमेश कुमार चौहान
    मिश्रापारा, नवागढ़
    जिला-बेमेतरा
    मो.9977069545

    मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

    ‘मुक्तक‘

    मुक्‍तक की परिभाषा-

    ‘अग्निपुराण’ में मुक्तक को परिभाषित करते हुए कहा गया किः

    ”मुक्तकं श्लोक एवैकश्चमत्कारक्षमः सताम्” 

    अर्थात चमत्कार की क्षमता रखने वाले एक ही श्लोक को मुक्तक कहते हैं ।


    महापात्र विश्वनाथ (13 वीं सदी) के अनुसार- 

    ’छन्दोंबद्धमयं पद्यं तें मुक्तेन मुक्तकं’  

    अर्थात जब एक पद अन्य पदों से मुक्त हो तब उसे मुक्तक कहते हैं ।


     मुक्तक का शब्दार्थ ही है ’अन्यैः मुक्तमं इति मुक्तकं’ अर्थात जो अन्य श्लोकों या अंशों से मुक्त या स्वतंत्र हो उसे मुक्तक कहते हैं. अन्य छन्दों, पदों से प्रसंगों के परस्पर निरपेक्ष होने के साथ-साथ जिस काव्यांश को पढने से पाठक के अंतःकरण में रस-सलिला प्रवाहित हो वही मुक्तक है-

     ’मुक्त्मन्यें नालिंगितम.... पूर्वापरनिरपेक्षाणि हि येन रसचर्वणा क्रियते तदैव मुक्तकं

    ’मुक्तक’ वह स्वच्छंद रचना है जिसके रस का उद्रेक करने के लिए अनुबंध की आवश्यकता नहीं। वास्तव में मुक्तक काव्य का महत्त्वपूर्ण रूप है, जिसमें काव्यकार प्रत्येक छंद में ऐसे स्वतंत्र भावों की सृष्टि करता है, जो अपने आप में पूर्ण होते हैं। मुक्तक काव्य या कविता का वह प्रकार है जिसमें प्रबन्धकीयता न हो। इसमें एक छन्द में कथित बात का दूसरे छन्द में कही गयी बात से कोई सम्बन्ध या तारतम्य होना आवश्यक नहीं है। कबीर एवं रहीम के दोहे; मीराबाई के पद्य आदि सब मुक्तक रचनाएं हैं। हिन्दी के रीतिकाल में अधिकांश मुक्तक काव्यों की रचना हुई। इस परिभषा के अनुसार प्रबंध काव्यों से इतर प्रायः सभी रचनाएँ “मुक्तक“ के अंतर्गत आ जाती है !


    आधुनिक युग में हिन्दी के आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसारः -‘मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है ।


    लोक प्रचलित मुक्तक-

    लोकप्रचलित मुक्तक का संबंध उर्दू साहित्य से है । गजल के मतला के साथ मतलासानी चिपका हुआ हो तो इसे मुक्तक कहते हैं । मुक्तक एक सामान मात्राभार और समान लय (या समान बहर) वाले चार पदों की रचना है जिसका पहला , दूसरा और चौथा पद तुकान्त तथा तीसरा पद अतुकान्त होता है और जिसकी अभिव्यक्ति का केंद्र अंतिम दो पंक्तियों में होता है !

    मुक्तक के लक्षण

    समग्रतः मुक्तक के लक्षण निम्न प्रकार हैं -

    1. इसमें चार पद होते हैं

    2. चारों पदों के मात्राभार और लय (या बहर) समान होते हैं

    3. पहला , दूसरा और चौथा पद में रदिफ काफिया अर्थात समतुकान्तता होता हैं जबकि तीसरा पद अनिवार्य रूप से अतुकान्त होता है ।

    4. कथ्य कुछ इस प्रकार होता है कि उसका केंद्र विन्दु अंतिम दो पंक्तियों में रहता है , जिनके पूर्ण होते ही पाठक/श्रोता ’वाह’ करने पर बाध्य हो जाता है !

    5. मुक्तक की कहन कुछ-कुछ  ग़ज़ल के शेर जैसी होती है , इसे वक्रोक्ति , व्यंग्य या अंदाज़-ए-बयाँ के रूप में देख सकते हैं !


    जैसे-

    (1)

    आज अवसर है दृग मिला लेंगे. 

    (212 222 1222)

    प्यार को अपने आजमा लेंगे. 

    (212 222 1222)

    कोरा कुरता है आज अपना भी

    (212 222 1222)

    कोरी चूनर पे रंग डालेंगे.

    (212 222 1222)

    -श्री चन्द्रसेन ’विराट’


    (2)

    किसी पत्थर में मूरत है कोई पत्थर की मूरत है  

    (1222 1222 1222 1222)

    लो हमने देख ली दुनिया जो इतनी ख़ूबसूरत है  

    (1222 1222 1222 1222) 

    ज़माना अपनी समझे पर मुझे अपनी खबर ये है 

    (1222 1222 1222 1222)  

    तुम्हें मेरी जरूरत है मुझे तेरी जरूरत है

    (1222 1222 1222 1222)


          -कुमार विश्वास      


    (3)

    कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है, 

    (1222 1222 1222 1222)

    मगर धरती की बेचैनी को, बस बादल समझता है  

    (1222 1222 1222 1222)

    मैं तुझसे दूर कैसा हूँ तू मुझसे दूर कैसी है   

    (1222 1222 1222 1222)

    ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है.

     (1222 1222 1222 1222)

    -कुमार विश्वास


    (4)

    भाव थे जो शक्ति-साधन के लिए, 

    (2122 2122 212)

    लुट गये किस आंदोलन के लिए ?

    (2122 2122 212)

    यह सलामी दोस्तों को है, मगर

    (2122 2122 212)

    मुट्ठियाँ तनती हैं दुश्मन के लिए !

    (2122 2122 212)

    -शमशेर बहादुर सिंह

    मुक्‍तक के लिए आवश्‍यक शब्‍दावली -

    मुक्‍त्‍क लिखने से पहले मुक्‍तक में प्रयुक्‍त होने वाले कुछ शब्‍दों से परिचित होना आवश्‍यक जिसमें प्रमुख रूप रदीफ, काफिया और बहर है । इन शब्‍दों से भलीभांति परिचित हाने के बाद ही सही रूप में मुक्‍तक कही जा सकती है । इसलिए इन पदों को संक्षेप में समझााने का प्रयास किया जा रहा है ।

    रदीफ

    रदीफ़ अरबी शब्द है इसकी उत्पत्ति “रद्” धातु से मानी गयी है । रदीफ का शाब्दिक अर्थ है ’“पीछे चलाने वाला’” या ’“पीछे बैठा हुआ’” या ’दूल्हे के साथ घोड़े पर पीछे बैठा छोटा लड़का’ (बल्हा) होता है। 


    ग़ज़ल के सन्दर्भ में रदीफ़ उस शब्द या शब्द समूह को कहते हैं जो मतला (पहला शेर) के मिसरा ए उला (पहली पंक्ति) और मिसरा ए सानी (दूसरी पंक्ति) दोनों के अंत में आता है और हू-ब-हू एक ही होता है यह अन्य शेर के मिसरा-ए-सानी (द्वितीय पंक्ति) के सबसे अंत में हू-ब-हू आता है ।


    उदाहरण -

    (1)

    हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए

    इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

    मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

    हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए

    - (दुष्यंत कुमार)


    (2)

    आँसुओं का समंदर सुखाया गया ,

    अन्त में बूँद भर ही बचाया गया ,

    बूँद वह गुनगुनाने लगी ताल पर -

    तो उसे गीत में ला छुपाया गया !

    ................. ओम नीरव.


    उपरोक्‍त पहले उदाहरण के अंतिम में 'चाहिए' और दूसरे उदाहरण के अंत में 'गया' शब्‍द आया है यही रदीफ है ।

    मुक्तक के प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ पंक्ति के अंत के शब्द या शब्दांश एक ही होना चाहिये । अर्थात इन तीनों पंक्ति में रदिफ एक समान हो किन्तु तीसरी पंक्ति रदिफ मुक्त हो ।



    काफिया

    'काफिया' अरबी शब्द है जिसकी उत्पत्ति “कफु” धातु से मानी जाती है । काफिया का शाब्दिक अर्थ है ’जाने के लिए तैयार’ ।  

    ग़ज़ल के सन्दर्भ में काफिया वह शब्द है जो समतुकांतता के साथ हर शेर में बदलता रहता है यह ग़ज़ल के हर शेर में रदीफ के ठीक पहले स्थित होता है  जबकि मुक्तक पहले, दूसरे एवं चौथे पंक्ति में ।

    उदाहरण -

            (1)

     हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए

             इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

             मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

             हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए 

    (दुष्यंत कुमार)


    (2)

    आँसुओं का समंदर सुखाया गया ,

    अन्त में बूँद भर ही बचाया गया ,

    बूँद वह गुनगुनाने लगी ताल पर -

    तो उसे गीत में ला छुपाया गया !

    ................. ओम नीरव.


    उपरोक्‍त पहले उदाहरण में “पिघलनी”, “निकलनी”, “जलनी” शब्द रदीफ ‘चाहिए’ के ठीक पहले आये हैं और समतुकांत हैं, इसी प्रकार दूसरे उदाहरण में 'सुखाया', 'बचाया', 'छुपाया' शब्द रदीफ ‘गया’ के ठीक पहले आये हैं और समतुकांत हैं, यही काफिया है ।

    बहर- 

    मात्राओं के क्रम को ही बहर कहा जाता है ।  जिस प्रकार हिन्दी में गण होता है उसी प्रकार उर्दू में रूकन होता है ।

    रुक्न

    रुकन का अर्थ गण, घटक, पद, या निश्चित मात्राओं का पुंज होता है। जैसे हिंदी छंद शास्त्र में गण होते हैं, यगण (222), तगण (221) आदि उस तरह ही उर्दू छन्द शास्त्र ’अरूज़’ में कुछ घटक होते हैं जो ’रुक्न’ कहलाते हैं । रुकन का बहुवचन अरकान कहलाता है ।


    रुक्न के दो भेद होते हैं -

    1. सालिम रुक्न (मूल रुक्न)

    2. मुज़ाहिफ रुक्न (उप रुक्न)


    1. सालिम रुक्न (मूल रुक्न) - 

    अरूज़शास्त्र में सालिम अरकान की संख्या सात कही गई है-


    रुक्न 

    रुक्न का नाम

    मात्रा

    फ़ईलुन  

    मुतक़ारिब

    122

    फ़ाइलुन 

    मुतदारिक 

    212

    मुफ़ाईलुन 

    हजज़  

    1222

    फ़ाइलातुन

    रमल  

    2122

    मुस्तफ़्यलुन

    रजज़ 

    2212

    मुतफ़ाइलुन

    कामिल 

    11212

    मफ़ाइलतुन

    वाफ़िर 

    12112


         

    2. मुज़ाहिफ रुक्न (उप रुक्न)- 

    सात मूल रुक्न के कुछ उप रुक्न भी हैं जो मूल रुक्न को तोड़ कर अथवा मात्रा जोड़ कर बनाए गये हैं

    उदाहरण - 

    2(फ़ा), 21( फ़ेल), 12(फ़अल), 121 (फ़ऊल), 112 (फ़इलुन), 212(फ़ाइलुन), 1122(फ़इलातुन), 1212(मुफ़ाइलुन), 21221(फाइलातान) आदि


    (किसी रुक्न से उप रुक्न बनाने का नियम तथा संख्या निश्चित है जैसे - रमल(2122) मूल रुक्न के 11+17 प्रकार का वर्णन मिलाता है तथा सभी का एक निश्चित नाम है )

    बहर के निर्माण में उप रुक्न की भूमिका

    बहर के निर्माण में इन उप रुक्न की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है । सभी ग़ज़ल इन सात सालिम व मुजाहिफ अर्कान के अनुसार ही लिखी/कही जाती है ।

    बहर नामकरण के नियम-

    बहर का नाम लिखते समय हम इन बातों का ध्यान देते हैं -


    1. बहर के रुक्न का नाम + रुक्न की संख्या का नाम + रुक्न सालिम हैं तो ’सालिम’ लिखेगें अथवा अर्कान में मुजाहिफ रुक्न का इस्तेमाल भी हुआ है तो मुजाहिफ रुक्न के प्रकार का उल्लेख करेंगे ।

    2. रूकन की पुनरावृत्‍ती 4 बार हो तो  मुसम्मन नाम दिया जाता है ।

    3. रूकन की आवृत्‍ती 3 बार हो तो मुसद्दस  नाम दिया जाता है ।

    4. रूकन की आवृत्‍ती 2 बार हो तो मुरब्बा नाम दिया जाता है ।

    5. यदि रूकन मूल हो तो इसे सालिम नाम दिया जाता है ।

    6. यदि मूल रूकन में मात्रा घटाई गई या बढ़ाई गई हो तो मुफरद मुजाहिफ नाम दिया जाता है ।


    जैसे-

    मुतकारिब

    122 122 122 122 - मुतकारिब मुसम्मन सालिम

    122 122 122 - मुतकारिब मुसद्दस सालिम

    122 122 - मुतकारिब मुरब्बा सालिम


     मुतदारिक

    212 212 212 212 - मुतदारिक मुसम्मन सालिम

    212 212 212 - मुतदारिक मुसद्दस सालिम

    212 212 212 मुतदारिक मुरब्बा सालिम


     रमल

    2122 2122 2122 2122- रमल मुसम्मन सालिम

    2122 2122 2122 - रमल मुसद्दस सालिम

    2122 2122 - रमल मुरब्बा सालिम


     हजज

    1222 1222 1222 1222 - हजज मुसम्मन सालिम

    1222 1222 1222 - हजज मुसद्दस सालिम

    1222 1222 - हजज मुरब्बा सालिम


     रजज

    2212 2212 2212 2212 - रजज मुसम्मन सालिम

    2212 2212 2212 2212 - रजज मुसद्दस सालिम

    2212 2212 - रजज मुरब्बा सालिम


     कामिल

    11212 2212 2212 2212 - कामिल मुसम्मन सालिम

    2212 2212 2212 - कामिल मुसद्दस सालिम

    2212 2212- कामिल मुरब्बा सालिम


     वाफिर

    12112 12112 12112 12112 - वाफिर मुसम्मन सालिम

    12112 12112 12112 - वाफिर मुसद्दस सालिम

    12112 12112 - वाफिर मुरब्बा सालिम


    प्रत्येक मुफरद सालिम बहारों से कुछ उप-बहरों का निर्माण होता है । उप-बहर बनाने के लिए मूल बहर में एक या एक से अधिक सालिम रुक्न की मात्रा को घटा कर अथवा हटा कर उप-बहर का निर्माण करते हैं । इस प्रकार बनी बहर को ’मुफरद मुजाहिफ’ बहर कहते हैं ।


    मात्रा गणना का सामान्य नियम


    बहर में मुक्‍तक या  ग़ज़ल लिखने के लिए तक्तीअ (मात्रा गणना) ही एक मात्र अचूक उपाय है, यदि शेर की तक्तीअ (मात्रा गणना) करनी आ गई तो देर सबेर बहर में लिखना भी आ जाएगा क्योकि जब किसी शायर को पता हो कि मेरा लिखा शेर बेबहर  है तभी उसे सही करने का प्रयास करेगा और तब तक करेगा जब तक वह शेर बाबहर  न हो जाए ।


    मात्राओं को गिनने का सही नियम न पता होने के कारण ग़ज़लकार अक्सर बहर निकालने में या तक्तीअ करने में दिक्कत महसूस करते हैं । इसलिए आईये सबसे पहले तक्तीअ प्रणाली को समझते हैं-


    ग़ज़ल में सबसे छोटी इकाई ’मात्रा’ होती है और हम भी तक्तीअ प्रणाली को समझने के लिए सबसे पहले मात्रा से परिचित होंगे -

    मात्रा के प्रकार-

    मात्रा दो प्रकार की होती है

    1. ‘एक मात्रिक’ इसे हम एक अक्षरीय व एक हर्फी व लघु व लाम भी कहते हैं और 1 से अथवा हिन्दी कवि । से भी दर्शाते हैं

    2. दो मात्रिक’ इसे हम दो अक्षरीय व दो हरूफी व दीर्घ व गाफ भी कहते हैं और 2 से अथवा हिन्दी कवि S से भी दर्शाते हैं


    • एक मात्रिक स्वर अथवा व्यंजन के उच्चारण में जितना वक्त और बल लगता है दो मात्रिक के उच्चारण में उसका दोगुना वक्त और बल लगता है ।

    • ग़ज़ल में मात्रा गणना का एक स्पष्ट, सरल और सीधा नियम है कि इसमें शब्दों को जैसा बोला जाता है (शुद्ध उच्चारण)  मात्रा भी उस हिसाब से ही गिनाते हैं ।


    जैसे - 

    • हिन्दी में कमल = क/म/ल = 111 होता है मगर ग़ज़ल विधा में इस तरह मात्रा गणना नहीं करते बल्कि उच्चारण के अनुसार गणना करते हैं द्य उच्चारण करते समय हम “क“ उच्चारण के बाद “मल“ बोलते हैं इसलिए ग़ज़ल में ‘कमल’ = 12 होता है यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि “कमल” का ‘“मल’” शाश्वत दीर्घ है अर्थात जरूरत के अनुसार गज़ल में ‘कमल’ शब्द की मात्रा को 111 नहीं माना जा सकता यह हमेशा 12 ही रहेगा ।


    • ‘उधर’- उच्च्चरण के अनुसार उधर बोलते समय पहले “उ“ बोलते हैं फिर “धर“ बोलने से पहले पल भर रुकते हैं और फिर ’धर’ कहते हैं इसलिए इसकी मात्रा गिनाते समय भी ऐसे ही गिनेंगे अर्थात 

    उ + धर = उ 1+ धर 2 = 12

    मात्रा गणना करते समय ध्‍यान रखने योग्‍य बातें-

    मात्रा गणना करते समय ध्यान रखे कि -


    1. सभी व्यंजन (बिना स्वर के) एक मात्रिक होते हैं

    जैसे दृ क, ख, ग, घ, च, छ, ज, झ, ट ... आदि 1 मात्रिक हैं


    1. - अ, इ, उ स्वर व अनुस्वर चन्द्रबिंदी तथा इनके साथ प्रयुक्त व्यंजन एक मात्रिक होते हैं

    जैसे = अ, इ, उ, कि, सि, पु, सु हँ  आदि एक मात्रिक हैं

    1. - आ, ई, ऊ ए ऐ ओ औ अं स्वर तथा इनके साथ प्रयुक्त व्यंजन दो मात्रिक होते हैं

    जैसे = आ, सो, पा, जू, सी, ने, पै, सौ, सं आदि 2 मात्रिक हैं


     

    1. यदि किसी शब्द में दो ’एक मात्रिक’ व्यंजन हैं तो उच्चारण अनुसार दोनों जुड कर शाश्वत दो मात्रिक अर्थात दीर्घ बन जाते हैं जैसे ह-1 म-1मात्रा गणना करते समय हम की मात्रा 11 न होकर 2 होगी ।  ऐसे दो मात्रिक शाश्वत दीर्घ होते हैं जिनको जरूरत के अनुसार 11 अथवा 1 नहीं किया जा सकता है

    जैसे - सम, दम, चल, घर, पल, कल आदि शाश्वत दो मात्रिक हैं

    1. परन्तु जिस शब्द के उच्चारण में दोनो अक्षर अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ दोनों लघु हमेशा अलग अलग अर्थात ११ गिना जायेगा

    जैसे द-  असमय = अ/स/मय =  अ1 स1 मय2 = 112   

    1. असमय का उच्चारण करते समय ’अ’ उच्चारण के बाद रुकते हैं और ’स’ अलग अलग बोलते हैं और ’मय’ का उच्चारण एक साथ करते हैं इसलिए ’अ’ और ’स’ को दीर्घ नहीं किया जा सकता है और मय मिल कर दीर्घ हो जा रहे हैं इसलिए असमय का वज्न अ१ स१ मय२ = ११२  होगा इसे २२ नहीं किया जा सकता है क्योकि यदि इसे 22 किया गया तो उच्चारण अस्मय हो जायेगा और शब्द उच्चारण दोषपूर्ण हो जायेगा ।  



    1. जब क्रमांक 2 अनुसार किसी लघु मात्रिक के पहले या बाद में कोई शुद्ध व्यंजन(1 मात्रिक क्रमांक 1के अनुसार) हो तो उच्चारण अनुसार दोनों लघु मिल कर शाश्वत दो मात्रिक हो जाता है

    2. उदाहरण द- “तुम” शब्द में “’त’” ’“उ’” के साथ जुड कर ’“तु’” होता है(क्रमांक 2 अनुसार), “तु” एक मात्रिक है और “तुम” शब्द में “म” भी एक मात्रिक है (क्रमांक1 के अनुसार)  और बोलते समय “तु+म” को एक साथ बोलते हैं तो ये दोनों जुड कर शाश्वत दीर्घ बन जाते हैं इसे 11 नहीं गिना जा सकता

    3. इसके और उदाहरण देखें = यदि, कपि, कुछ, रुक आदि शाश्वत दो मात्रिक हैं

    4. परन्तु जहाँ किसी शब्द के उच्चारण में दोनो हर्फ़ अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ अलग अलग ही अर्थात ११ गिना जायेगा

    5. जैसे -  सुमधुर = सु/ म /धुर = स1 +म 1+धुर 2 = 112 


      1.  यदि किसी शब्द में अगल बगल के दोनो व्यंजन किन्हीं स्वर के साथ जुड कर लघु ही रहते हैं (क्रमांक 2 अनुसार) तो उच्चारण अनुसार दोनों जुड कर शाश्वत दो मात्रिक हो जाता है इसे 11 नहीं गिना जा सकता

      2. जैसे = पुरु = प+उ / र+उ = पुरु = 2,  

        1. इसके और उदाहरण देखें = गिरि

      3.  परन्तु जहाँ किसी शब्द के उच्चारण में दो हर्फ़ अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ अलग अलग ही गिना जायेगा

      4. जैसे - सुविचार = सु/ वि / चा / र = स+उ 1 व+इ 1 चा 2 र 1 = 1121


    1. ग़ज़ल के मात्रा गणना में अर्ध व्यंजन को 1 मात्रा माना गया है तथा यदि शब्द में उच्चारण अनुसार पहले अथवा बाद के व्यंजन के साथ जुड जाता है और जिससे जुड़ता है वो व्यंजन यदि 1 मात्रिक है तो वह 2 मात्रिक हो जाता है और यदि दो मात्रिक है तो जुडने के बाद भी 2 मात्रिक ही रहता है ऐसे 2 मात्रिक को 11 नहीं गिना जा सकता है

    उदाहरण -

    1. सच्चा = स1+च्1 / च1+आ1  = सच् 2 चा 1 = 22

    2. (अतः सच्चा को 112 नहीं गिना जा सकता है)

    3. आनन्द = आ / न+न् / द = आ2 नन्2 द1 = 221

    4. कार्य = का+र् / य = र्का 2 य 1 = 21  (कार्य में का पहले से दो मात्रिक है तथा आधा र के जुडने पर भी दो मात्रिक ही रहता है)

    5. तुम्हारा = तु/ म्हा/ रा = तु 1 +म्हा 2+ रा 2 = 122

    6. तुम्हें = तु / म्हें = तु1+ म्हें 2 = 12

    7. उन्हें = उ / न्हें = उ1+ न्हें2 = 12

    1. अपवाद स्वरूप अर्ध व्यंजन के इस नियम में अर्ध स व्यंजन के साथ एक अपवाद यह है कि यदि अर्ध स के पहले या बाद में कोई एक मात्रिक अक्षर होता है तब तो यह उच्चारण के अनुसार बगल के शब्द के साथ जुड जाता है परन्तु यदि अर्ध स के दोनों ओर पहले से दीर्घ मात्रिक अक्षर होते हैं तो कुछ शब्दों में अर्ध स को स्वतंत्र एक मात्रिक भी माना लिया जाता है

    जैसे = 

    1. रस्ता = र+स् / ता 22 होता है मगर रास्ता = रा/स्/ता = 212 होता है

    2. दोस्त = दो+स् /त= 21 होता है मगर दोस्ती = दो/स्/ती = 212 होता है

    3. इस प्रकार और शब्द देखें बस्ती, सस्ती, मस्ती, बस्ता, सस्ता = 22

    4. दोस्तों = 212

    5. मस्ताना =222

    6. मुस्कान = 221     

    7. संस्कार= 2121 


    1. संयुक्ताक्षर जैसे = क्ष, त्र, ज्ञ द्ध द्व आदि दो व्यंजन के योग से बने होने के कारण दीर्घ मात्रिक हैं परन्तु मात्र गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं  

    उदाहरण = 

    पत्र= 21, वक्र = 21, यक्ष = 21, कक्ष - 21, यज्ञ = 21, शुद्ध =21 क्रुद्ध =21

    गोत्र = 21, मूत्र = 21,

    1. यदि संयुक्ताक्षर से शब्द प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं

    उदाहरण = 

    त्रिशूल = 121, क्रमांक = 121, क्षितिज = 12

    1. संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं

    उदाहरण =

    प्रज्ञा = 22  राजाज्ञा = 222,

    1. उच्चारण अनुसार मात्रा गणना के कारण कुछ शब्द इस नियम के अपवाद भी है -

    उदाहरण = 

    अनुक्रमांक = अनु/क्र/मां/क = 2121 (’नु’ अक्षर लघु होते हुए भी ’क्र’ के योग से दीर्घ नहीं हुआ और उच्चारण अनुसार अ के साथ जुड कर दीर्घ हो गया और क्र लघु हो गया)    

    1. विसर्ग युक्त व्यंजन दीर्घ मात्रिक होते हैं ऐसे व्यंजन को 1 मात्रिक नहीं गिना जा सकता

    उदाहरण = 

    दुःख = 21 होता है इसे दीर्घ (2) नहीं गिन सकते यदि हमें 2 मात्रा में इसका प्रयोग करना है तो इसके तद्भव रूप में ’दुख’ लिखना चाहिए इस प्रकार यह दीर्घ मात्रिक हो जायेगा


    • मात्रा गणना के लिए अन्य शब्द देखें -

    • तिरंगा = ति + रं + गा =  ति 1 रं 2 गा 2 = 12  

    • उधर = उ/धर उ 1 धर 2 = 12

    • ऊपर = ऊ/पर = ऊ 2 पर 2 = 22    

    • इस तरह अन्य शब्द की मात्राओं पर ध्यान दें =

    • मारा = मा / रा  = मा 2 रा 2 = 22

    • मरा  = म / रा  = म 1 रा 2 =12

    • मर = मर 2 = 2

    • सत्य = सत् / य = सत् 2 य 1 = 21


    मात्रा गिराने का नियम-

    वस्तुतः “मात्रा गिराने का नियम“ कहना गलत है क्योकि मात्रा को गिराना अरूज़ शास्त्र में “नियम“ के अंतर्गत नहीं बल्कि छूट के अंतर्गत आता है द्य अरूज़ पर उर्दू लिपि में लिखी किताबों में यह ’नियम’ के अंतर्गत नहीं बल्कि छूट के अंतर्गत ही बताया जाता रहा है, परन्तु अब यह छूट इतनी अधिक ली जाती है कि नियम का स्वरूप धारण करती जा रही है इसलिए अब इसे मात्रा गिराने का नियम कहना भी गलत न होगा इसलिए आगे इसे नियम कह कर भी संबोधित किया जायेगा द्य मात्रा गिराने के नियमानुसार, उच्चारण अनुसार  तो हम एक मिसरे में अधिकाधिक मात्रा गिरा सकते हैं परन्तु उस्ताद शाइर हमेशा यह सलाह देते हैं कि ग़ज़ल में मात्रा कम से कम गिरानी चाहिए

    यदि हम मात्रा गिराने के नियम की परिभाषा लिखें तो कुछ यूँ होगी -


    • “ जब किसी बहर के अर्कान में जिस स्थान पर लघु मात्रिक अक्षर होना चाहिए उस स्थान पर दीर्घ मात्रिक अक्षर आ जाता है तो नियमतः कुछ विशेष अक्षरों को हम दीर्घ मात्रिक होते हुए भी दीर्घ स्वर में न पढ़ कर लघु स्वर की तरह कम जोर दे कर पढते हैं और दीर्घ मात्रिक होते हुए भी लघु मात्रिक मान लेते है इसे मात्रा का गिरना कहते हैं “

    • अब इस परिभाषा का उदाहारण भी देख लें - 2122 (फ़ाइलातुन) में, पहले एक दीर्घ है फिर एक लघु फिर दो दीर्घ होता है, इसके अनुसार शब्द देखें - “कौन आया“  कौ2 न1 आ2 या2

    • और यदि हम लिखते हैं - “कोई आया“ तो इसकी मात्रा होती है 2222(फैलुन फैलुन) को2 ई2 आ2 या 2 परन्तु यदि हम चाहें तो “कोई आया“ को  2122 (फाइलातुन) अनुसार भी गिनने की छूट है-

    • देखें -

    • को2 ई1 आ2 या2

    • यहाँ ई की मात्रा 2 को गिरा कर 1 कर दिया गया है और पढते समय भी ई को दीर्घ स्वर अनुसार न पढ़ कर ऐसे पढेंगे कि लघु स्वर का बोध हो अर्थात “कोई आया“(22 22) को यदि  2122 मात्रिक मानना है तो इसे “कोइ आया“ अनुसार उच्चारण अनुसार पढेंगे 

    मुक्‍तक/ग़ज़ल कही जाती है-

    ग़ज़ल को लिपि बद्ध करते समय हमेशा शुद्ध रूप में लिखते हैं “कोई आया“ को 2122 मात्रिक मानने पर भी केवल उच्चारण को बदेंलेंगे अर्थात पढते समय “कोइ आया“ पढेंगे परन्तु मात्रा गिराने के बाद भी “कोई आया“ ही लिखेंगे । इसलिए ऐसा कहते हैं कि, ’ग़ज़ल कही जाती है ।’ कहने से तात्पर्य यह है कि उच्चारण के अनुसार ही हम यह जान सकते हैं कि ग़ज़ल को किस बहर में कहा गया है यदि लिपि अनुसार मात्रा गणना करें तो कोई आया हमेशा 2222 होता है, परन्तु यदि कोई व्यक्ति “कोई आया“ को उच्चरित करता है तो तुरंत पता चल जाता है कि पढ़ने वाले ने किस मात्रा अनुसार पढ़ा है 2222 अनुसार अथवा 2122 अनुसार यही हम कोई आया को 2122 गिनने पर “कोइ आया“  लिखना शुरू कर दें तो धीरे धीरे लिपि का स्वरूप विकृत हो जायेगा और मानकता खत्म हो जायेगी इसलिए ऐसा भी नहीं किया जा सकता है ।

    मुक्‍तक ग़ज़ल “लिखी“ जाती है-

    ग़ज़ल “लिखी“ जाती है ऐसा भी कह सकते हैं परन्तु ऐसा वो लोग ही कह सकते हैं जो मात्रा गिराने की छूट कदापि न लें, तभी यह हो पायेगा कि उच्चारण और लिपि में समानता होगी और जो लिखा जायेगा वही पढ़ा जायेगा  ।

    मात्रा कहां और कैसे गिराई जा सकती है-

    किसका मात्रा गिराया जा सकता है इसको जानने से पहले याद रखिये लघु मात्रिक को उठा कर दीर्घ मात्रिक कभी नहीं कर सकते, यदि किसी उच्चारण के अनुसार लघु मात्रिक, दीर्घ मात्रिक हो रहा है जैसे - पत्र 21 में “प“ दीर्घ हो रहा है तो इसे मात्रा उठाना नहीं कह सकते क्योकि यहाँ उच्चारण अनुसार अनिवार्य रूप से मात्रा दीर्घ हो रही है, जबकि मात्रा गिराने में यह छूट है कि जब जरूरत हो गिरा लें और जब जरूरत हो न गिराएँ । जिसका मात्रा गिराया जा सकता है ऐ इस प्रकार है-


    • आ ई ऊ ए ओ स्वर को गिरा कर 1 मात्रिक कर सकते है तथा ऐसे दीर्घ मात्रिक अक्षर को गिरा कर 1 मात्रिक कर सकते हैं जो “आ, ई, ऊ, ए, ओ“ स्वर के योग से दीर्घ हुआ हो अन्य स्वर को लघु नहीं गिन सकते न ही ऐसे अक्षर को लघु गिन सकते हैं जो ऐ, औ, अं के योग से दीर्घ हुए हों

    उदाहरण =

    मुझको 22 को मुझकु 21 कर सकते हैं

    • आ, ई, ऊ, ए, ओ, सा, की, हू, पे, दो आदि को दीर्घ से गिरा कर लघु कर सकते हैं परन्तु ऐ, औ, अं, पै, कौ, रं आदि को दीर्घ से लघु नहीं कर सकते हैं स्पष्ट है कि आ, ई, ऊ, ए, ओ स्वर तथा आ, ई, ऊ, ए, ओ तथा व्यंजन के योग से बने दीर्घ अक्षर को गिरा कर लघु कर सकते हैं ।

    • यह दीर्घ अक्षर शब्‍द में आवे तभी दसकी मात्रा गिराई जा सकती है ।

    • कोई, मेरा, तेरा शब्द में अपवाद स्वरूप पहले अक्षर को भी गिरा सकते हैं  ।

    • हम किसी व्यक्ति अथवा स्थान के नाम की मात्रा कदापि नहीं गिरा सकते ।

    • हिन्दी के तत्सम शब्द की मात्रा भी नहीं गिरानी चाहिए


    आशा और विश्‍वास है कि आप मुक्‍तक के आवश्‍यक नियम से परिचित हो गये होंगे इसी आशा के साथ अंत में उदाहरण स्‍वरूप में अपना स्‍वयं का कुछ मुक्‍तक प्रस्‍तुत कर रहा हूँ-


    मेरे मुक्तक


    1. 

    पीसो जो मेंहदी तो, हाथ में रंग आयेगा ।

    बोये जो धान खतपतवार तो संग आयेगा ।

    है दस्तुर इस जहां में सिक्के के होते दो पहलू

    दुख सहने से तुम्हे तो जीने का ढंग आयेगा ।।


    2. 

    अंधियारा को चीर, एक नूतन सबेरा आयेगा ।

    राह बुनता चल तो सही तू, तेरा बसेरा आयेगा ।।

    हौसला के ले पर, उडान जो तू भरेगा नीले नभ ।

    देख लेना कदमो तले वही नभ जठेरा आयेगा ।


    3.

     क्रोध में जो कापता, कोई उसे भाते नही ।

    हो नदी ऊफान पर, कोई निकट जाते नही ।

    कौन अच्छा औ बुरा को जांच पाये होष खो

    हो घनेरी रात तो साये नजर आते नहीं।


    . 4.

    कहो ना कहो ना मुझे कौन हो तुम ,

    सता कर  सता कर  मुझे मौन हो तुम ।

    कभी भी कहीं का किसी का न छोड़े,

    करे लोग काना फुसी पौन हो तुम ।।

    पौन-प्राण


    5.. 

    काया कपड़े विहीन नंगे होते हैं ।

    झगड़ा कारण रहीत दंगे होते हैं।।

    जिनके हो सोच विचार ओछे दैत्यों सा

    ऐसे इंसा ही तो लफंगे होते हैं ।।


    6. 

    तुम समझते हो तुम मुझ से दूर हो ।

    जाकर वहां अपने में ही चूर हो ।।

    तुम ये लिखे हो कैसे पाती मुझे,

    समझा रहे क्यों तुम अब मजबूर हो ।।


    7. 

    बड़े बड़े महल अटारी और मोटर गाड़ी उसके पास

    यहां वहां दुकान दारी  और खेती बाड़ी उसके पास ।

    बिछा सके कही बिछौना इतना पैसा गिनते अपने हाथ,

    नही कही सुकुन हथेली, चिंता कुल्हाड़ी उसके पास ।।


    8. 

    तुझे जाना कहां है जानता भी है ।

    चरण रख तू डगर को मापता भी है ।।

    वहां बैठे हुये क्यों बुन रहे सपना,

    निकल कर ख्वाब से तू जागता भी है ।


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