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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

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मंगलवार, 23 मई 2017

‘स्वच्छता के निहितार्थ एवं व्यवहारिक पक्ष‘‘


‘स्वच्छता के निहितार्थ एवं व्यवहारिक पक्ष‘‘



भारत के प्राचीन संस्कृति सदैव सामाजिक सारोकार से जुड़ी रही किन्तु आधुनिकता के अंधी दौड़ में व्यक्तिनिष्ठ जीवनषैली का विकास होने लगा सामाज के प्रति सामूहिक दायित्व क्षीण प्रतित होने लगा ।  जहां पहले सामाजिक सरोकार व्यक्ति-व्यक्ति के मनो-मस्तिश्क में था वहीं अब सामाजिक दायित्व कुछ सामाजिक संगठन  एवं राज्य तथा केन्द्र सरकार के कंधो पर प्रतित होने लगा । ‘स्वच्छता‘ एक मानसिक संस्कृति है न कि कोई प्रायोजित अभियान ।  भारत के प्राचीन ग्रामिण परिवेष का अध्ययन करें तो पता चलता है ‘स्वच्छता‘ ग्रामीण जीवन शैली का अभिन्न अंग रहा है । गांव में जीवन का शुरूवात ही सूर्योदय के साथ सफाई से हुआ करता था ।  प्रत्येक घर के महिलाएं अपने-अपने धरों के साथ-साथ गलियों की भी सफाई किया करती थीं । गोबर पानी से गलियों में छिटा देना यही वह संस्कृति है ।  अपने घर के कुड़े करकट को प्रतिदिन इक्ठठा कर गांव के बाहर घुरवा (कुड़े का गड्डा) में इकत्र कर खाद बनाया करते थे । प्रत्येक घर में यह कार्य होने से गांव की सफाई प्रतिदिन स्वभाविक रूप से हो जाया करती थी ।
खुले में शौच को कभी भी कुसंस्कृति अथवा गंदगी के कारक के रूप में नही देखा गया जैसे आज प्रचारित किया जा रहा है । इससे प्रश्न उठता है कि क्या हमारे पूर्वज इस बात से अनजान थे अथवा आज के परिस्थिति में खुले में शौच गंदगी का कारण है ? दोनों परिस्थिति पर दृष्टिपात किया जाये तो एक बात स्पष्ट होता है यह परिस्थिति जन्य है पहले प्रत्येक गांव में एकाधिक तालाब हुआ करते थे तालाब से लगे विषाल खाली भू-भाग हुआ करता था । गांव में चिन्हाकित उस स्थल पर ही गांव के लोग शौच के लिये जाया करते थे ।  गांव के पास अत्र-तत्र शौच की प्रथा नही थी । इससे गांव में गंदगी नही होता था किन्तु आज भूमि के अनाधिकृत कब्जा (बेजाकब्जा) से गांव में खुले में वह स्थान नही बच पाया जिससे गांव के समीप सड़क किनारे गलियों पर लोग शौच के लिये जाने लगे जिससे गंदगी होना स्वभाविक है ।
वर्तमान परिदृश्य से ऐसा लग रहा मानो स्वच्छता का अभिप्राय केवल शौचालय का उपयोग करना मात्र है ।  केवल खुले में शौच मुक्त गांव होने से गांव गंदगी मुक्त हो जायेगा ।  शौचलय स्वच्छता का एक अंग है न कि  एक मात्र अंग ।  आज गांव के समुचित स्वचछता पर ध्यान न देकर केवल शौचलय पर जोर देना स्वच्छता संस्कृति को पंगु कर रहा है ।  खुले में शौचमुक्त गांव-षहर बनाने के फेर में यह ध्यान नही दिया जा रहा है कि शौचालय का बनावट कैसे हो उसके ओवरफ्लो का निस्तारी कैसे हो, शौचालय प्रयोग करते समय पानी की व्यवस्था कैसे हो ? इस भीष्ण गर्मी एवं दुश्काल में पानी की व्यवस्थ कहां से हो ? इन बातों पर चिंतन किये बैगर केवल येन-केन प्रकार से शौचालय निर्माण किया जा रहा है । शौचालय निर्माण बाध्यकारी प्रतित होने पर ही ऐसे हो रहा न कि सामाजिक जाग्ररूकता के कारण ।  शौचालय निर्माण के अतिरिक्त सफाई के नाम पर कोई कार्य नही हो रहा है ।  गांव के नालियों में गंदगी अटा पड़ा है ।  लोग गलियों में कुड़े करकट आबाद गति से फेक रहे हैं, इस पर कोई अंकुष नही है । अधिकांष लोग काम चलाऊ शौचलय सड़क किनारे, गली पर ही बना रहे है जिससे उनके शौचालय से प्रवाहित पानी गली पर ही बह रहा है । शौचालय के नाम पर गलियों अतिक्रमण हो रहा है सो अलग ।
गांव-नगर की समुचित सफाई व्यवस्था की आवष्यकता है । यह उद्देष्य केवल प्रशासनिक ईकाईयों द्वारा पूरा करना तब तक संभव नही जब तक आम व्यक्ति सफाई संस्कृति को जीवन में अपनायेंगे नहीं ।  समाज में सामाजिक सरोकार से हर व्यक्ति को जुड़ने की आवष्यकता है । कई ईकाईयों द्वारा खुले में शौच पर दण्ड़ के प्रावधान किये गये है । प्रश्न उठता है अन्य गंदगी हेतु दण्ड़ की व्यवस्था क्यों नही ? उस व्यक्ति के प्रति, उस संस्थान के प्रति जो गंदगी फैला रहे हैं ।  यह भी प्रश्न उठता है उस प्रषासनिक ईकाई पर दण्ड क्यों नही जो गांव-नगर की नियमित सफाई में असफल सिद्ध हो रहे हैं ।  हर व्यक्ति, हर संस्था हर ईकाई के दायित्व निर्धारित करना होगा कि वे गंदगी न करें । तभी गंदगी दैत्य को पराजित कर पाना संभव है ।  जब तक लोगों में व्यक्तिवाद रहेगा, सामाजिक दायित्व से दूर रहेंगे तब तक यह संभव नही है । कुछ लोंगो में यह सोच विकसित हो रहा है जो भविष्य को आशान्वित करता है ।

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