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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

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मंगलवार, 26 मई 2020

नदी नालों को ही बचाकर जल को बचाया जा सकता है

नदी नालों को ही बचाकर जल को बचाया जा सकता है




भूमि की सतह और भूमि के अंदर जल स्रोतों में अंतर संबंध होते हैं ।जब भूख सतह पर जल अधिक होगा तो स्वाभाविक रूप से भूगर्भ जल का स्तर भी अधिक होगा ।
भू सतह पर वर्षा के जल नदी नालों में संचित होता है यदि नदी नालों की सुरक्षा ना की जाए तो आने वाला समय अत्यंत विकट हो सकता है ।
नदी नालों पर तीन स्तर से आक्रमण हो रहा है-
1. नदी नालों के किनारों पर भूमि अतिक्रमण से नदी नालों की चौड़ाई दिनों दिन कम हो रही है, गहराई भी प्रभावित हो रही है जिससे इसमें जल संचय की क्षमता घट रही है। स्थिति यहां तक निर्मित है कि कई छोटे नदी नाले विलुप्त के कगार पर हैं ।
2. नदी नालों पर गांव, शहर, कारखानों की गंदे पानी गिराए जा रहे हैं ।  जिससे इनके जल विषैले हो रहे हैं जिससे इनके जल जनउपयोगी नहीं होने के कारण लोग इन पर ध्यान नहीं देते और इनका अस्तित्व खतरे में लगातार बना हुआ है ।
3. लोगों में नैतिकता का अभाव भी इसका एक बड़ा कारण है । भारतीय संस्कृति में नदी नालों की पूजा की जाती है जल देवता मानकर उनकी आराधना की जाती है किंतु इनकी सुरक्षा उनके बचाव कि कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं लेते।

पूरे देश में नदी नालों की स्थिति का आकलन मैं सिर्फ अपने गांव और आसपास को देखकर लगा सकता हूं जिस नदी नाले  में हम बचपन  में तैरा करते थे वहां आज पानी का एक बूंद भी नहीं है ।
नदी तट पर जहां हम खेला करते थे वहां आज कुछ झोपड़ी तो कुछ महल खड़े हो गए हैं ।

कुछ इसी प्रकार की स्थिति गांव और शहर के तालाबों का हो गया है तालाब केवल कूड़ा दान प्रतीत हो रहा है ।
जल स्रोत बचाएं पानी बचाएं ।

शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

परिवार का अस्तित्व

       परिवार का अस्तित्व


हम बाल्यकाल से पढ़ते आ रहे हैं की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं और समाज का न्यूनतम इकाई परिवार है । जब हम यह कहते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं तो इसका अर्थ क्या होता है ?  किसी मनुष्य का जीवन समाज में  उत्पन्न होता है और समाज में ही विलीन हो जाता है । सामाज का नींव परिवार है ।

परिवार क्या है  ?

कहने के लिये हम कह सकते हैं-"वह सम्मिलित वासवाले रक्त संबंधियों का समूह, जिसमें विवाह और दत्तक प्रथा स्वीकृत व्यक्ति  सम्मिलित होता है परिवार कहलाता है ।" इस परिभाषा के अनुसार परिवार में रक्त संबंधों के सारे संबंधी साथ रहते हैं जिसे  आजकल संयुक्त परिवार कह दिया गया । और व्यवहारिक रूप से पति पत्नी और बच्चों के समूह को ही परिवार में माना जा रहा है ।

 परिवार का निर्माण 

  परिवार का निर्माण  तभी संभव है  जब अलग अलग-अलग रक्त से उत्पन्न  महिला-पुरुष  एक साथ रहें । भारत में पितृवंशीय परिवार अधिक प्रचलित है । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि परिवार में नारी का स्थान कमतर है वस्तुतः परिवार का अस्तित्व ही नारी पर निर्भर है । नारी अपना जन्म स्थान छोड़कर पुरुष के परिवार का निर्माण करती है । व्यक्ति की सामाजिक मर्यादा परिवार से  निर्धारित होती है। नर-नारी के यौन संबंध परिवार के दायरे में निबद्ध होते हैं। यदि नारी पुरुष के साथ रहने से इंकार कर दे तो परिवार का निर्माण संभव ही नहीं है,  इसी बात को ध्यान में रखकर लड़की की माता-पिता अपनी बेटी को बाल्यावस्था से इसके लिये मानसिक रूप तैयार करती है । परिवार में पुरुष का दायित्व परिवार का भरण-पोषण करना और परिवार को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने का दायित्व दिया  गया है । पुरूष इस दायित्व का निर्वहन तभी न करेंगे जब परिवार का निर्माण होगा । परिवार का निर्माण नारी पर ही निर्भर है ।

विवाह का महत्व

        परिवार विवाह से उत्पन्न होता है और इसी संबंध पर टिका रहता है । भारतीय समाज में विवाह को केवल महिला पुरुष के मेल से नहीं देखा जाता । अपितु  दो परिवारों, दो कुटुंबों के मेल से देखा जाता है । परिवार का अस्तित्व तभी तक बना रहता है जब तक नारी  यहां नर के साथ रहना स्वीकार करती है जिस दिन वह नारी पृथक होकर अलग रहना चाहती है उसी दिन परिवार टूट जाता है यद्यपि परिवार नर नारी के संयुक्त उद्यम से बना रहता है तथापि पुरुष की तुलना में परिवार को बनाने और बिगाड़ने में नारी का महत्व अधिक है । यही कारण है कि विवाह के समय बेटी को विदाई देते हुए बेटी के मां बाप द्वारा उसे यह शिक्षा दी जाती है के ससुराल के सारे संबंधियों को अपना मानते हुए परिवार का देखभाल करना ।

 बुजुर्ग लोग यहां तक कहा करते थे कि बेटी मायका जन्म स्थल होता है और ससुराल जीवन स्थल ससुराल में हर सुख दुख सहना और अपनी आर्थी ससुराल से ही निकलना । किसी भी स्थिति में मायका में जीवन निर्वहन की नहीं सोचना । इसी शिक्षा को नारीत्व की शिक्षा कही गयी ।

परिवारवाद पर ग्रहण

        नारीत्व की शिक्षा ही परिवार के लिये ग्रहण बनता चला गया । ससुराल वाले कुछ लोग इसका दुरूपयोग कर नारियों पर अत्याचार करने लगे । यह भी एक बिड़बना है कि परिवार में एक नारी के सम्मान को पुरूष से अधिक एक नारी ही चोट पहुँचाती है । सास-बहूँ के संबंध को कुछ लोग बिगाड़ कर रखे हैं । अत्याचार का परिणाम यह हुआ कि अब परिवार पर ही प्रश्नवाचक चिन्ह लगने लग गया है । नारी इस नारीत्व की शिक्षा के विरूद्ध होने लगे ।  परिणाम यह हुआ कि आजकल कुछ उच्च शिक्षित महिलाएं आत्मनिर्भर होने के नाम पर परिवार का दायित्व उठाने से इंकार करने लगी हैं । 

परिवार का अपघटन

       परिवार का अर्थ पति-पत्नि और बच्चे ही कदापि नहीं हो सकता । परिवार में जितना महत्व पति-पत्नि का है उससे अधिक महत्व सास-ससुर और बेटा-बहू का है । आजकल के लोग संयुक्त परिवार से भिन्न अपना परिवार बसाना चाहते हैं । यह चाहत ही परिवार को अपघटित कर रहा है ।

पति-पत्नि के इस परिवार को देखा जाये तो बहुतायत यह दिखाई दे रहा है कि महिला पक्ष के संबंधीयों से इनका संबंध तो है किन्तु पुरूष के संबंधियों से इनका संबंध लगातार बिगड़ते जा रहे हैं ।

कोई बेटी अपने माँ-बाप की सेवा करे इसमें किसी को कोई आपत्ती नहीं, आपत्ति तो इस बात से है कि वही बेटी अपने सास-ससुर की सेवा करने से कतराती हैं ।

 हर बहन अपने भाई से यह आपेक्षा तो रखती हैं कि उसका भाई उसके माँ-बाप का ठीक से देख-रेख करे किन्तु वह यह नहीं चाहती कि उसका पति अपने माँ-बाप का अधिक ध्यान रखे ।

यही सोच आज परिवार के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा कर रहा है ।   शतप्रतिशत महिलायें ऐसी ही हैं  यह कहना नारीवर्ग का अपमान होगा, ऐसा है भी नहीं किन्तु यह कटु सत्य इस प्रकार की सोच रखनेवाली महिलाओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ रहीं हैं ।

कुछ पुरूष नशाखोरी, कामचोरी के जाल में फँस कर अपने परिवारिक दायित्व का निर्वहन करने से कतरा रहे हैं, यह भी परिवार के विघटन का एक बड़ा कारण है ।

परिवार का संरक्षण

संयुक्त परिवार से भिन्न अपना परिवार बसाने की चाहत पर यदि  अंकुश नहीं लगाया गया तो वह दिन दूर नहीं जब भारतीय परिवार की अभिधारणा केवल इतिहास की बात होगी ।  हमें इस बात पर गहन चिंतन करने की आवश्यकता है कि-महिलाओं पर अत्याचार क्यों ? महिलाओं का अपमान क्यों ? जब परिवार की नींव ही महिलाएं हैं तो  महिलाओं का सम्मान क्यों नही ? इसके साथ-साथ इस बात पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि महिला अपने ससुराल वालों का सम्मान क्यों नहीं कर सकती ? क्या एक आत्मनिर्भर महिला परिवार का दायित्व नहीं उठा सकती ?  चाहे वह महिला सास हो, बहू हो, ननद हो, भाभी हो या देरानी-जेठानी । पत्नि और बेटी के रूप एफ सफल महिला अन्य नातों में असफल क्यों हो रही हैं ? इन सारे प्रश्नों का सकारात्मक उत्तर ही परिवार को संरक्षित रख सकता है ।

बुधवार, 18 जुलाई 2018

विमुक्त जाति-देवार का दर्द (साक्षात्कार पर आधारित शोध आलेख)


देवार का दर्द

(साक्षात्कार पर आधारित शोध आलेख)
-रमेशकुमार सिंह चौहान
मैं प्रतिदिन पौ फटने के पूर्व  सैर करने जाता हूँ सैर करने जाते समय प्रतिदिन मैं कुछ बच्चों को देखता -इन बच्चों पर कुछ कुत्ते भौंकते और ये बच्चे वहां से किसी तरह कुत्तों को हकालते-भगाते  स्वयं भागते बचकर निकलते और सड़क किनारे पड़े कूड़े-कर्कट से अपने लिये कुछ उपयोगी कबाड़ एकत्रित करते   इन बच्चों में 6 वर्ष से 13 वर्ष तक के लड़के-लड़कियां हुआ करती हैं यह घटना कमोबेश आज भी प्रतिदिन घट रही हैं   एक दिन मैंने सोचा कि इन बच्चों से बात करूँ, इन लोगों से पूछूँ ये बच्चे स्कूल जाते भी हैं कि नहीं ? मैंने बच्चों के सामने जा कर कुछ पूछना ही चाहा कि वे सारे बच्चे उसी प्रकार भाग खड़ हुये जैसे ये कुत्तों के भौंकने से भाग खड़े होते हैं तब से ये बच्चे मुझे देखकर दूर से चले जाते कोई पास ही नहीं आता   एक दिन करीब 12 वर्ष की एक लड़की जो बच्चों के उस समूह से कुछ दूरी पर कबाड़ चुन रही थी  उनके सामने मैंने अपना प्रश्न दाग ही दिया-
बिटिया, क्या पढ़ती हो ?
उसने सहजता से जवाब दिया- मैं नहीं पढ़ती
मतलब तुम स्कूल नहीं जाती -मैंने आश्चर्य से पूछा
उसने उतनी ही सहजता से जवाब दिया- नहीं, मैं स्कूल नहीं जाती
फिर मैंने पूछा-‘ये सारे बच्चे ?‘
उसने जवाब नहीं में दिया -इनमें से कोई स्कूल नहीं जाते
मैंने पूछा- क्यों ???
जवाब आया- हमलोग देवार हैं साहब !
तो क्या हुआ ?  क्या देवारों को स्कूल जाना वर्जित है या स्कूल वाले मना करते हैं ?
नहीं साहब, स्कूल वाले मना नहीं करते बल्कि इनमें से कुछ बच्चों का नाम स्कूल में दर्ज है
तो फिर क्यों स्कूल नहीं जाते आप लोग ?
इस काम से पैसा जो मिलता है साहब
क्या तुम्हारे माँ-बाप तुमलोगों को स्कूल जाने नहीं कहते ?
नहीं
            मैंने सोचा इन बच्चों के माँ-बाप से जाकर बात किया जाये इस काम के लिये मैंने अपने एक पत्रकार मित्र से चर्चा की उसने साथ जाना स्वीकार किया कोई तीन दिन के योजना पश्चात हम दोनों का उनके निवास स्थलदेवार डेराजाना तय हुआ   मैंने उस समुदाय के एक लड़के जो कबाड़ बेचने जा रहा था, से बात किया आप लोगों के परिवार के मुखिया अभी घर पर मिलेंगे क्या ? उसने प्रति प्रश्न पूछा क्या काम है ? कबाड़ी का काम करना है क्या ? यदि कबाड़ी का काम करना है तो मैं ही बता दूँगा   मैंने कहा नहीं भाई मुझे कबाड़ी का काम नहीं करना है मैं आपलोगों के जाति, इतिहास और बच्चों के संबंध में बात करना चाहता हूँ वह लड़का चहक उठा शायद उसे लगा कि कोई तो है जो हमारे विषय में बात करना चाहता है वह खुद से कहने लगा चलो मैं आपको ले चलता हूँ मैंने कहा बेटा तू निकल मैं अपने मित्र के साथ रहा हूँ मैंने अपने पत्रकार मित्र को सूचित किया फिर हम दोनों उनके निवास स्थल की ओर निकल पड़े देवार डेरा कस्बे से लगभग 1.5 किमी की दूरी पर कस्बे से बाहर स्थित था पिछली रात को कुछ बारिश हुई थी इसलिये कच्चे मार्ग पर कीचड़ पसरा था   जैसे-तैसे हम दोनों वहां तक पहुँचे हमने वहां पहुँच कर देखा वह लड़का जिससे मेरी बातचीत हुई थी वह अपने बड़े-बुजुर्गों को एकत्रित कर लिया था   सभी हमारे लिये प्रतीक्षारत थे उन लोगों ने दो कुर्सी की व्यवस्था कर हम लोगों को बैठने का आग्रह किया कुर्सी देखकर लग रहा था कि कबाड़ का है   लग ही नहीं रहा था, था कबाड़ का ही   हम लोग चर्चा शुरू करते इनसे पूर्व ही वे लोग अपनी समस्याएं हमें बताने लगे   शायद उन लोंगो को लग रहा था कि हम लोग कोई सरकारी कर्मचारी हैं जो सरकारी दायित्व पूरा करने आये हैं   मित्र ने बतलाया कि हम लोग पत्रकार लेखक हैं, आप लोंगो से कुछ बातचीत करने आये हैं चर्चा की शुरूआत मेरे मित्र ने की उनमें से जो सबसे बुजुर्ग लग रहा था उनसे उन्होंने पूछा-

आपका क्या नाम है ?
परमसुख
यहां कब से रह रहो हो ?
तीस-चालीस वर्ष से
इससे पहले कहां रहते थे ?
कवर्धा में
क्या आपके पूर्वज कवर्धा में ही रहते थे ?
नहीं साहब, रायगढ़ में
तो यहां कैसे आना हुआ ?
तीस-चालीस साल पहले यहां एक गाँव से दूसरे गाँव भीख मांगते हुये आये पंचायत ने यहां डेरा लगाने के लिये स्थान दे दिया तब से यहीं रह रहे हैं किन्तु साहब इन तीस वर्षों में दर्जनों स्थान से हमारा डेरा हटवाते रहे
इसी बीच मैंने पूछा- मैंने सुना है आपके पूर्वज एक स्थान पर नहीं रहते थे ?
हाँ, साहब हमारे बुर्जुग गाँव-गाँव घूमा करते थे
घूम-घुम कर क्या करथे थे ?
यही कबाड़ी का काम करते थे
पहले तो कबाड़ी का काम आज के जैसे तो नहीं चलता रहा होगा ?  फिर ये लोग क्या करते थे ?
गोदना गोदते थे
ये काम तो आप लोगों की महिलाएं करती हैं ना ?
हां, महिलाएं करती थीं, अब ये काम कहां चलता है साहब
और पुरूष लोग क्या करते थे ?
हम लोग चिकारा बजाकर गीत गा-गाकर भीख मांगते थे
क्या कोई विशेष गीत गाते थे ?
ओडनिन-ओड़िया का
क्या अभी भी गाते हो ?
नहीं, हम लोग पहले जैसे घर-घर जाकर नहीं गाते कभी-कभार अपने डेरा में गुनगुना लेते हैं, किन्तु हमारे समाज के रेखा देवार, चिंताराम देवार आदि गातें हैं, जो रेडियो, टी.वी. में भी प्रसारित होता है
और क्या काम करते थे ?
नाचते थे ?
महिलाएं भी ?
महिलाएं ही नाचती थीं
घर की सभी बहू-बेटी ?
हाँ-हाँ, घर की बहू-बेटी सभी
आज भी ये नाचती हैं क्या ?
जिसके माँ-बहन नाची हों उसकी बेटियां नहीं नाचेंगी साहब ? तो और क्या करेंगी ? नाचतीं है साहब आज भी नाचती हैं सांस्कृतिक कार्यक्रम के रंगमंचों पर हमारी लड़कियां नाचने जाती हैं
पास में खड़े बच्चों की ओर इंगित करते हुये मित्र ने पूछा-ये बच्चे स्कूल जाते हैं ?
पास में खड़ा एक दूसरे व्यक्ति ने जवाब दिया- नहीं जाते सरजी
क्यों नहीं जाते ?
उसने झल्लाते हुये जवाब दिया-नहीं जाते
मैंने पूछा- क्या स्कूल वाले दाखिला नहीं लेते ?
लेते हैं सरजी, कुछ का नाम भी लिखा है
तो फिर बच्चे स्कूल क्यों नहीं जाते
इस बीच एक तीसरे व्यक्ति ने जवाब दिया-सड़क में कुछ लोग दारू पीकर गाड़ी चलाते हैं इस डर से हम अपने बच्चों को स्कूल नही भेजते इसी बीच एक अन्य ने जवाब दिया हम अपने बच्चों को दुकान तक नही भेजते
मित्र ने कहा- इन बच्चों को तो हम प्रतिदिन सुबह सड़क किनारे कबाड़ चुनते हुये देखते हैं
मैंने भी सहमति जताते हुये कहा- आखिर ये लोग तो घर से बाहर जाते ही हैं
इसी बीच एक अन्य युवक ने बात काटते हुये कहा- ‘‘असली बात ये है सरजी, इन बच्चों को बचपन से खाने-पीने का आदत पड़ गयी है ये बच्चे लोग प्रतिदिन चालीस-पच्चास रूपये कमा लेते हैं अपने खाने-पीने के लिये ’’
मित्र ने कहां- आप लोग तो अपने ही कथन को झूठला रहे हो   जब इस कबाड़ के व्यवसाय में बच्चे इतने कमा लेते हैं तो आप लोगों की आमदानी भी ठीक-ठाक होगा फिर आप लोग अपना रहन-सहन, घर-द्वार को क्यों नहीं सुधारते ?
युवक ने जवाब दिया- हम लोगों को एक बुरा लत है हम लोग दारू पीते हैं
इस लत में सुधार करना चाहिये ना ?
 ‘‘ ये पढ़ाई-लिखाई, दारू-वारू की बातें छोड़ो हम लोगों की समस्या देखो और जो आपसे जो बन पड़ता हो करो ’’  एक अन्य युवक ने कर्कश आवाज में कहा
इसी बीच एक और दूसरा युवक अपने हाथ में मोबाइल लेकर सीधे मेरे पत्रकार मित्र के सम्मुख आकर मोबाइल से फोटो दिखाते हुये कहने लगा -इसको पेपर में जरूर छापना देखो हम लोगों का हाल पूरा डेरा पानी में डूबा है उनके दखल से आप लोगों के बातचीत में विघ्न पड़ गया किन्तु उनके चित्र ने हम दोनों को उसे देखने पर जरूर विवश कर दिया   मित्र ने मुझसे कहा, इस फोटो का अपने मोबाइल में ले लो मैंने देखा फोटो साफ नहीं आया था क्योंकि उनका मोबाइल का कैमरा उचित क्वालिटी का नहीं था   मैंने कहा ये फोटो सही नहीं आया है चलो दूसरा ले लेते हैं   अभी तक हम लोग उनके डेरे के समीप मैदान पर थे फोटो लेने के लिये उनके डेरे के समीप जाते हुये हमने पाया कि उन लोगों के डेरे ढलान पर है, जहां वर्षा का पानी बह रहा है समीप पहुँचाने पर हमने पाया कि घास-फूस से बने हुये छोटी-छोटी झोपड़ीयां हैं, झोपडी़ के बाहर टूटी-फूटी सायकल, कुछ बर्तन, कुछ कबाड़ बेतरतीब तरीके से बिखरे हुये हैं, पास ही कुछ सूअर के बच्चे भी हैं सभी डेरों तक पानी भरा हुआ है डेरे तक जाने के लिये केवल और केवल पानी और कीचड़ का ही एक मात्र रास्ता था   कुछ डेरों के अंदर तक पानी घुस आया है   डेरों से महिलायें बताने लगी कि अभी तो बरसात शुरू ही हुआ है, तो हम लोगों का ये हाल है अभी तो पूरी वर्षा शेष है राम जाने आगे क्या होगा ?  एक युवक ने कहा- ये स्थिति देखिये सरजी यही स्थिति रहा तो हैजा आदि बीमारी से हम में से कुछ लोग जरूर मर जायेंगे यह दशा देखकर हम लोगों के तन मन में एक सिहरन पैदा हो गई   वो लोग कहने लगे देख लो साहब हम इस दलदल में रहने मजबूर हैं   इस दशा को देखकर जवाब देने के लिये के हमारे पास कोई शब्द ही नही थे ना ही आगे कुछ पूछने के लिये ही   हमने उस भयावह दृश्य को अपने मोबाइल कैमरे में कैद कर वापस आना ही उचित समझा
उक्त साक्षात्कार का चिंतन करते हुये मैने प्राथमिक निष्कर्ष के रूप में पाया कि - ‘‘इन लोगों की स्थिति ठीक उसी प्रकार है जैसे कोई रोगी रोग से मुक्त तो होना चाहता है किन्तु उपचार के लिये औषधि उपलब्ध ना हो और औषधि उपलब्ध होने पर भी औषधि सेवन नहीं करना चाहता ’’
एक सभ्य समाज की प्राथमिक आवश्यकता जीवन जीने की स्वतंत्रता है, किन्तु यह स्वतंत्रता तभी संभव है जब समाज में समानता हो यह समानता एक हाथ से बजने वाली ताली नहीं है भारत की आजादी के पश्चात भी सामाजिक समानता का असार अभी दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है भारतीय इतिहास की केन्द्रिय विषय-वस्तु एवं वर्तमान समस्याओं का मूलजाति  ही है   धर्म, वर्ण, जाति लोकतंत्र में राजनेताओं का हथियार बन चुका है   विभिन्न सरकारों द्वारा विभिन्न जाति समुदाय जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति बनाकर इन जातियों के जीवनशैली में परिवर्तन करने का सतत् प्रयास किया जा रहा है, चाहे वह केवल वोट बैंक के लिये ही क्यो ना हो    किन्तु इन जातियों के बीच एक ऐसी वंचित उपेक्षित जाति बची रह गयी जिन्हें इनमें से किसी वर्ग में नहीं रखा गया है यदि किसी राज्य में रखा भी गया तो भी ये लोग उन सुविधाओं से वंचित ही हैं ऐसे वंचित समाज को आज हम विमुक्त जाति कहते हैं   विमुक्त जाति आज भी समाज के मुख्यधारा से अछूती रह गयी हैं   ऐसा नही है कि किसी सरकार द्वारा विमुक्त जाति के लिये कुछ भी नहीं किया गया है, किया गया है किन्तु जो भी हुआ है वह-नगण्य है
विमुक्त जातियां उन कबिलों और समुदाय को कहा जाता है जिसे 1952 के पूर्व अपराधी प्रवृत्ति की जातियां कहा जाता था अंग्रेजी शासन के समय 1871 के अधिनियम के अनुसार कुछ जातियों की सूची बनाई गई, जिसे अपराधशील जाति की संज्ञा दी गई, इन जातियों को अपराधी प्रवृत्ति का माना गया देशा की आजादी पश्चात 31 अगस्त 1952 को इस सूची को असम्बद्ध सूची करते हुये इन्हे नई संज्ञा दी गई -विमुक्त जाति  
इसी विमुक्त जाति में एक जाति है देवार देवार भारत की एक घुमंतु जनजाति है। यह मुख्यतः छत्तीसगढ़ में पायी जाती है। ये प्रायः गाँवों के बाहर तालाब, नदी या नहर के किनारे अपने अस्थायी निवास बनाते हैं। देवार स्वयं को गोंड जनजाति की ही एक उपजाति मानते हैं। संभवतः देवी की पूजा करने के कारण ही इन्हें देवार कहा गया हो, ऐसा कई विद्वान भी मानते हैं। परन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि- दिया जलाने वाले से देवार शब्द की उत्पत्ति हुई हैं। कहा जाता है कि- ये लोग टोना-टोटका आदि के लिए दिया जलाते थे   पश्चिमी विद्वान स्टीफन कुक्स इन्हें भूमियां जनजाति से विकसित एक अलग जातीय समुदाय मानते हैं परन्तु ये स्वयं ऐसा नहीं मानते। 
छत्तीसगढ़ की जनजातियां और जातियां ग्रन्थ में डॉ संजय अलंग लिखते हैं -‘‘देवार जाति का मुख्य कार्य व्यवसाय भिक्षा मांगना है   ये लोग सुअर भी पालते हैं   इस जाति की महिलाएं हस्तशिल्प में गोदना गोदने में निपुण होती हैं   यह उनका व्यवसाय है   छत्तीसगढ़ के लोग उनसे गोदना गुदवातें हैं, जो यहां जनजातियों एवं जाति के स्थाई आभूषण या गहना माना जाता है देवार लोग अत्यधिक गरीब हैं यह लोग छत्तीसगढ़ के समस्त क्षेत्र में हैं रायपुर संभाग में इनका संकेन्द्रण अधिक हैं देवार लोग हिन्दू धर्म के वैष्णव को मानने वाले हैं   हिन्दू देवी-देवाताओं के पूजा करते हैं और हिन्दू त्यौहारों को मानते हैं ।’’
गुरतुगोठ’ के संपादक श्री संजीव तिवारी लिखते है कि- ‘‘वाचिक परम्परा में सदियों से  दसमतकैना लाकेगाथा को छत्तीसगढ के घुमंतु देवार जाति के लोग पीढी दर पीढी गाते रहे हैं वर्तमान में इस गाथा को अपनी मोहक प्रस्तुति के साथ जीवंत बनाए रखने का एकमात्र दायित्व का निर्वहन श्रीमति रेखा देवार कर रही हैं छत्तीसगढ के इस गाथा का प्रसार अपने कथानक में किंचित बदलाव के साथ, भारत के अन्य क्षेत्रों में अलग अलग भाषाओं में भी हुआ है  गुजरात, राजस्थान एवं मेवाड में प्रचलितजस्मा ओडनकी लोक गाथा इसी गाथा से प्रभावित है राजस्थानी - ’मांझल रात’, गुजराती ’ ’सती जस्मा ओडन का वेशइसके प्रिंट प्रमाण हैं जबकि छत्तीसगढ में अलग अलग पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशित लेखों के अतिरिक्त प्रिट रूप में संपूर्ण गाथा का एकाकार नहीं नजर आता ‘‘
देवार छत्तीसगढ़ के परम्परागत लोकगाथा गायक हैं। छत्तीसगढ़ के रायपुरिया देवार की विशेषता है कि ये लोकगाथाओं को सारंगी की संगत पर गाते हैं। रतनपुरिया देवार की विशेषता है कि ये लोकगाथाओं के ढुंगरू वाद्य के साथ गाते हैं। इनके पारंपरिक गाथा गीत हैं - चंदा रउताइन, दसमत, सीताराम नायक, नगेसर कैना, गोंडवानी और पंडवानी। अनेक देवार बंदर के खेल भी दिखाते हैं। देवार स्त्रियां परम्परागत रुप से गोदना का काम करती रही हैं।
यद्यपि देवार हस्तशिल्प गोदना, लोकगायन, लोकनृत्य में पारंगत होते हैं तथापि इनका जीवन स्तर अति निम्न है कबाड़ी के कार्य से रोजी-मजूरी भी औसत है किन्तु अशिक्षा एवं मदिरा व्यसन इनके विकास मार्ग के मुख्य बाधक हैं   इन जातियों को राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार के उन समस्त योजनाओं का लाभ जैसे खद्यान योजना, शिक्षा स्वास्थ आदि का समान रूप से उपलब्ध हैं किन्तु ये लोग केवल राशन लेने में ही ज्यादा रूचि लेते हैं   शिक्षा और स्वास्थ संबंधी सुविधा में इनकी कोई विशेष रूचि परिलक्षित नहीं हो रही है; यही कारण है कि बच्चों के स्कूल दाखिला होने के पश्चात भी बच्चों को स्कूल नहीं भेजते यहां तक इस विषय में चर्चा करने पर भी उदासीन बने रहते हैं
ग्रामीण विकास मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के मुताबिक़, विमुक्त जातियों का आधे से ज़्यादा हिस्सा ग़रीबी की रेखा से नीचे पाया गया है।  इनकी प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे नीची रहती है।
दरअसल, शिक्षा ही दुनिया का सबसे बड़ा हथियार है इसके द्वारा ही व्यापक परिवर्तन संभव है   यदि देवार समुदाय को अपने हितों का संरक्षण करना है और अपनी अस्मिता बचानी है तो उनका शिक्षित होना अनिवार्य है इसके लिये इनमें शिक्षा के प्रति जागृति लाने के लिये विशेष संपर्क बनाये रखने की आवश्यकता है   किन्तु आश्चर्य की बात है कि समाजसेवा के नाम पर मोटी-मोटी चंदा उगाही करने वाली संस्थाएं भी ऐसे तबको पर ध्यान नही दे पाते व्यसन मुक्ति और शिक्षा के लिये इन जातियों में जागृति लाने के लिये सरकार के अतिरिक्त समाज सेवी संस्था को भी आगे आने की आवश्यकता है
मैंने जिस देवार बस्ती का निरिक्षण किया वहां मैंने पाया कि ये लोग जिस स्थिति में रह रहे हैं उस स्थिति के अभ्यासी हो गये हैं, इस स्थिति को आत्मसात कर बैठे हैं इस स्थिति से उबरने के लिये उनमें कोई ललक प्रत्यक्षतः परिलक्षित नहीं हो रहा है   हां, यह उत्कंठा जरूर दिख रही है कि कोई बाहर का व्यक्ति इन्हें सहयोग करता रहे, समस्याओं से निजात दिलाता रहे, किन्तु स्वयं दो कदम आगे बढ़ कर इस स्थिति से उबरने का प्रयास करते नहीं दिखता   सूक्ष्मविश्लेषण करते हुये मैंने पाया कि शायद एक लंबे समय से समाज की उपेक्षा, तिरस्कार झेलते हुये ये मान बैठे हैं कि हम मुख्यधारा से पृथ्क ही हैं और हमारा अस्तित्व पृथ्क रहने में ही है   लेकिन वास्तविक धरातल पर इस समाज के प्रति अस्पृश्यता में निश्चित रूप से कमी देखने को मिल रहा है  
देवार जाति के उत्थान के लिये सबसे पहले इनके आवास पर ध्यान देना चाहिये वर्तमान सरकार के महत्वाकांक्षी योजनाप्रधनमंत्री आवास योजना’’ के अंतर्गत इनके आवास बनने चाहिये   किन्तु इस आवास योजना का प्राथमिक शर्त स्वयं का आवासी भूमि होना, इनके लिये रोड़ा साबित हो रहा है जीवन के प्राथमिक आवश्यकतारोटी-कपड़ा-मकान’ के पूर्ति में इनकेरोटी-कपड़ा’ की पूर्ति ऐन-केन प्रकार से हो रहा है किन्तु मकान की पूर्ति होना नितान्त आवश्यक है
सभ्य समाज में जीवन की आवश्यकता रोटी, कपड़ा, मकान के अतिरिक्त शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा है   देवार समुदाय के लिये प्राथमिक आवश्यकता रोटी, कपड़ा, मकान के पूर्ति होने के ही पश्चात ही शिक्षा, स्वास्थ्य, एवं सुरक्षा पर ध्यान दिया जा सकता है   इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति का एक मात्र साधन शिक्षा है यदि नौनिहालों को शिक्षा का साधन दे दिया जाये तो निश्चित रूप से आने वाले कुछ समय पश्चात आने वाली पीढ़ी समाज के मुख्यधरा के अभिन्न अंग होगें
-रमेशकुमार सिंह चौहान
मेलन निवास’, मिश्रापारा
नवागढ़, जिला-बेमेतरा
छत्तीसगढ़,  पिन- 491337
मोबाइल-9977069545,
8839024871


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