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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

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शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

परिवार का अस्तित्व

       परिवार का अस्तित्व


हम बाल्यकाल से पढ़ते आ रहे हैं की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं और समाज का न्यूनतम इकाई परिवार है । जब हम यह कहते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं तो इसका अर्थ क्या होता है ?  किसी मनुष्य का जीवन समाज में  उत्पन्न होता है और समाज में ही विलीन हो जाता है । सामाज का नींव परिवार है ।

परिवार क्या है  ?

कहने के लिये हम कह सकते हैं-"वह सम्मिलित वासवाले रक्त संबंधियों का समूह, जिसमें विवाह और दत्तक प्रथा स्वीकृत व्यक्ति  सम्मिलित होता है परिवार कहलाता है ।" इस परिभाषा के अनुसार परिवार में रक्त संबंधों के सारे संबंधी साथ रहते हैं जिसे  आजकल संयुक्त परिवार कह दिया गया । और व्यवहारिक रूप से पति पत्नी और बच्चों के समूह को ही परिवार में माना जा रहा है ।

 परिवार का निर्माण 

  परिवार का निर्माण  तभी संभव है  जब अलग अलग-अलग रक्त से उत्पन्न  महिला-पुरुष  एक साथ रहें । भारत में पितृवंशीय परिवार अधिक प्रचलित है । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि परिवार में नारी का स्थान कमतर है वस्तुतः परिवार का अस्तित्व ही नारी पर निर्भर है । नारी अपना जन्म स्थान छोड़कर पुरुष के परिवार का निर्माण करती है । व्यक्ति की सामाजिक मर्यादा परिवार से  निर्धारित होती है। नर-नारी के यौन संबंध परिवार के दायरे में निबद्ध होते हैं। यदि नारी पुरुष के साथ रहने से इंकार कर दे तो परिवार का निर्माण संभव ही नहीं है,  इसी बात को ध्यान में रखकर लड़की की माता-पिता अपनी बेटी को बाल्यावस्था से इसके लिये मानसिक रूप तैयार करती है । परिवार में पुरुष का दायित्व परिवार का भरण-पोषण करना और परिवार को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने का दायित्व दिया  गया है । पुरूष इस दायित्व का निर्वहन तभी न करेंगे जब परिवार का निर्माण होगा । परिवार का निर्माण नारी पर ही निर्भर है ।

विवाह का महत्व

        परिवार विवाह से उत्पन्न होता है और इसी संबंध पर टिका रहता है । भारतीय समाज में विवाह को केवल महिला पुरुष के मेल से नहीं देखा जाता । अपितु  दो परिवारों, दो कुटुंबों के मेल से देखा जाता है । परिवार का अस्तित्व तभी तक बना रहता है जब तक नारी  यहां नर के साथ रहना स्वीकार करती है जिस दिन वह नारी पृथक होकर अलग रहना चाहती है उसी दिन परिवार टूट जाता है यद्यपि परिवार नर नारी के संयुक्त उद्यम से बना रहता है तथापि पुरुष की तुलना में परिवार को बनाने और बिगाड़ने में नारी का महत्व अधिक है । यही कारण है कि विवाह के समय बेटी को विदाई देते हुए बेटी के मां बाप द्वारा उसे यह शिक्षा दी जाती है के ससुराल के सारे संबंधियों को अपना मानते हुए परिवार का देखभाल करना ।

 बुजुर्ग लोग यहां तक कहा करते थे कि बेटी मायका जन्म स्थल होता है और ससुराल जीवन स्थल ससुराल में हर सुख दुख सहना और अपनी आर्थी ससुराल से ही निकलना । किसी भी स्थिति में मायका में जीवन निर्वहन की नहीं सोचना । इसी शिक्षा को नारीत्व की शिक्षा कही गयी ।

परिवारवाद पर ग्रहण

        नारीत्व की शिक्षा ही परिवार के लिये ग्रहण बनता चला गया । ससुराल वाले कुछ लोग इसका दुरूपयोग कर नारियों पर अत्याचार करने लगे । यह भी एक बिड़बना है कि परिवार में एक नारी के सम्मान को पुरूष से अधिक एक नारी ही चोट पहुँचाती है । सास-बहूँ के संबंध को कुछ लोग बिगाड़ कर रखे हैं । अत्याचार का परिणाम यह हुआ कि अब परिवार पर ही प्रश्नवाचक चिन्ह लगने लग गया है । नारी इस नारीत्व की शिक्षा के विरूद्ध होने लगे ।  परिणाम यह हुआ कि आजकल कुछ उच्च शिक्षित महिलाएं आत्मनिर्भर होने के नाम पर परिवार का दायित्व उठाने से इंकार करने लगी हैं । 

परिवार का अपघटन

       परिवार का अर्थ पति-पत्नि और बच्चे ही कदापि नहीं हो सकता । परिवार में जितना महत्व पति-पत्नि का है उससे अधिक महत्व सास-ससुर और बेटा-बहू का है । आजकल के लोग संयुक्त परिवार से भिन्न अपना परिवार बसाना चाहते हैं । यह चाहत ही परिवार को अपघटित कर रहा है ।

पति-पत्नि के इस परिवार को देखा जाये तो बहुतायत यह दिखाई दे रहा है कि महिला पक्ष के संबंधीयों से इनका संबंध तो है किन्तु पुरूष के संबंधियों से इनका संबंध लगातार बिगड़ते जा रहे हैं ।

कोई बेटी अपने माँ-बाप की सेवा करे इसमें किसी को कोई आपत्ती नहीं, आपत्ति तो इस बात से है कि वही बेटी अपने सास-ससुर की सेवा करने से कतराती हैं ।

 हर बहन अपने भाई से यह आपेक्षा तो रखती हैं कि उसका भाई उसके माँ-बाप का ठीक से देख-रेख करे किन्तु वह यह नहीं चाहती कि उसका पति अपने माँ-बाप का अधिक ध्यान रखे ।

यही सोच आज परिवार के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा कर रहा है ।   शतप्रतिशत महिलायें ऐसी ही हैं  यह कहना नारीवर्ग का अपमान होगा, ऐसा है भी नहीं किन्तु यह कटु सत्य इस प्रकार की सोच रखनेवाली महिलाओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ रहीं हैं ।

कुछ पुरूष नशाखोरी, कामचोरी के जाल में फँस कर अपने परिवारिक दायित्व का निर्वहन करने से कतरा रहे हैं, यह भी परिवार के विघटन का एक बड़ा कारण है ।

परिवार का संरक्षण

संयुक्त परिवार से भिन्न अपना परिवार बसाने की चाहत पर यदि  अंकुश नहीं लगाया गया तो वह दिन दूर नहीं जब भारतीय परिवार की अभिधारणा केवल इतिहास की बात होगी ।  हमें इस बात पर गहन चिंतन करने की आवश्यकता है कि-महिलाओं पर अत्याचार क्यों ? महिलाओं का अपमान क्यों ? जब परिवार की नींव ही महिलाएं हैं तो  महिलाओं का सम्मान क्यों नही ? इसके साथ-साथ इस बात पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि महिला अपने ससुराल वालों का सम्मान क्यों नहीं कर सकती ? क्या एक आत्मनिर्भर महिला परिवार का दायित्व नहीं उठा सकती ?  चाहे वह महिला सास हो, बहू हो, ननद हो, भाभी हो या देरानी-जेठानी । पत्नि और बेटी के रूप एफ सफल महिला अन्य नातों में असफल क्यों हो रही हैं ? इन सारे प्रश्नों का सकारात्मक उत्तर ही परिवार को संरक्षित रख सकता है ।

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