‘‘गुरू की
सर्वव्यापकता‘‘
- रमेशकुमार
सिंह चौहान
भारतीय जीवनशैली गुरू रूपी सूर्य के तेज से आलोकित है । भारतीय साहित्य संस्कृत से लेकर विभिन्न भारतीय भाषाओं तक गुरू
महिमा से भरा पड़ा है । भारतीय जनमानस में गुरू पूर्णतः रचा बसा हुआ है । गुरू स्थूल
से सूक्ष्म, सहज से क्लिष्ठ, गम्य से अगम्य, साधारण से विशेष, जन्म से मृत्यु, तक व्याप्त
है । ‘‘गुरू शब्द ‘गु+रू‘ का मेल है जिसमें गुकार को अंधकार एवं रूकार को तेज अर्थात
प्रकाश कहते हैं । जो अंधकार का निरोध करता है, उसे ही गुरू कहा जाता है-
‘‘गुकारस्त्वन्धकारस्तु
रुकार स्तेज उच्यते ।
अन्धकार
निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ।।‘‘
‘‘वास्तव में जीवन में अज्ञानता का अंधकार और ज्ञान का प्रकाश होता है
। जो शक्ति अज्ञानता के अंधकार को नष्ट कर
ज्ञान रूपी प्रकाश हमारे अंदर प्रकाशित कर दे वही गुरू है ।‘‘ यही गुरू का सर्वमान्य
व सहज परिभाषा है । गुकार अज्ञानता पर अवलंबित है । अज्ञान निशा को ज्ञान रवि ही नष्ट कर सकता है ।
दिवस-निशा के क्रम में जैसे सूर्य शाश्वत एवं सर्वव्यापी है उसी प्रकार गुरू सर्वव्याक
हैं ।
स्थूल से सूक्ष्म, सहज से क्लिष्ठ, गम्य से अगम्य, साधारण से विशेष, जन्म
से मृत्यु, तक गुरू के व्यापीकरण में गुरू के विभिन्न रूप हैं किन्तु उद्देश्य केवल
एक ही है अज्ञानता, अबोधता को दूर करना -
‘‘प्रेरकः
सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा ।
शिक्षको
बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ।।‘‘
प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, सच बतानेवाले, रास्ता दिखानेवाले, शिक्षा
देनेवाले, और बोध करानेवाले । ये सब गुरु ही हैं । वास्तव में गुरू प्रेरक, सूचनातदाता, सत्यवाचक,
पथप्रदर्शक, शिक्षक और बोध कराने वालों का समुच्चय है । जैसे स्वर्ण धातु का एक रज
भी स्वर्ण होता है उसी प्रकार इन छः गुणों में से एक भी गुण होने पर भी वह गुरू ही
है । इन सभी रूपों में गुरू अपने शिष्य को
अंधेरे से प्रकाश की ओर अभिप्रेरित करता है ।
प्रेरक के लिये आजकल मेंटर शब्द प्रयुक्त हो रहा है, जो व्यवसायिक अथवा
अव्यवसायिक रूप से विभिन्न समस्याओं के निराकरण के लिये उपाय सुझाते हैं । मेंटर अपने
अनुभव को चमत्कारिक रूप से लोगों के मन में इस प्रकार अभिप्रेरित करता है कि वह अपने
उद्देश्य की ओर सहज भाव से अग्रसर हो सके । प्रेरक अपने सत्यापित तथ्यों के आधार पर
लोगों के मनोभाव को परिवर्तित करने में सफल रहता है । किसी एक लक्ष्य को पाने के लिये
ललक उत्पन्न कर सकता है । भारत में विवेकानंद
को कौन नही जानता, भारतीय युवाओं के लिये तब से आज तक विवेकानंद जी प्रेरक बने हुये
हैं । विवेकानंदजी भारतीय समाज के लिये गुरू हैं । जनजागृति करने वाले समाजसेवक, समाजसुधारक प्रेरणा
के पुंज होते हैं- समाज के प्रेरक महात्मा गांधी, डॉ. भीवराव अम्बेडकर, गुरू घासीदास
जैसे महापुरूष गुरू के रूप में स्थापित हैं ।
सदियों से प्रेरक के लिये साहित्य को सर्वोपरी माना गया है । यही कारण
है कि हमारे देश में साहित्यकार कवि श्रेष्ठ कबीरदासजी गुरू श्रेष्ठ के रूप में स्थापित
हैं । सूरदास, तुलसीदास, रैदास, रहिम जैसे
प्रेरक कवि भारतीय समाज में गुरू के रूप स्थापित हैं । ‘‘सभी धर्मो के पावन धर्म ग्रन्थ सदैव से गुरू सदृश्य
ही हैं ।‘‘ इस बात की पुष्टि ‘गुरू ग्रंथ साहिब‘
से होती है । जिसे गुरू गोंविद सिंह ने गुरू रूप में प्रतिस्थापित किया है ।
सूचक अर्थात सूचना देने वाले, लोगों को संभावित समस्याओं के प्रति आगाह
करते हुये सूचना देते रहते है, अमुक काम करने से लाभ होगा इसे करना चाहिये या अमुक
काम करने से नुकसान होगा इसे नहीं करना चाहिये । इनकी सूचनाओं में नीतिपरक तथ्य निहित
होते हैं । किसी विषय-विशेष की सूचना देते
हैं जिससे समाज का कल्याण हो । जैसे-
मुखिया मुख
सो चाहिए, खान पान को एक ।
पालइ पोषइ
सकल अंग, तुलसी सहित बिबेक।।
-तुलसीदास
वाचक का समान्य अर्थ बोलने वालों से न होकर सत्य बोलने वालो से है । अपने
वाणी की सहायता से जो सत्य का दिग्दर्शन कराता हो । सत्य भौतिक जगत का अथवा अध्यात्मिक
जगत का हो सकता है । कथा वाचक, उपदेशक आदि इस रूप में समाज को जागृत कर रहे हैं । आज
इस रूप में सर्वाधिक व्यक्ति गुरू पदवी धारण किये हुये हैं । विभिन्न गुरू प्रधान समूह,
परिवार, संस्था अथवा पंथ के रूप में आज हमारे समाज में स्थापित हैं जो समाज के मानसिक
उत्थान के लिये सतत् प्रयासरत हैं । इनमें प्रमुख रूप से पं. श्री राम शर्मा का गायत्री
परिवार, दादा लेखराज जिसे बाद में ब्रह्माबाबा कहा गया का ‘प्रजापति ब्रह्म कुमारी
विश्वविद्यालय‘, श्री नारायणमाली की संस्था,
पं. रविशंकरजी की संस्था, ‘राधास्वामी‘ जैसी संस्था हैं । कथा वाचक के रूप में
अनगिनत गुरू हमारे सम्मुख हैं ।
दिग्दर्शक सत्यपथगामी होते हैं जो प्रत्यक्षीकरण से शिष्य को सत्य से
भेंट कराते हैं । रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंदजी के पूछे जाने पर कि- क्या आप ने ईश्वर
को देखा है? उत्तर में केवल हां ही नहीं कहते अपितु विवेकानंदजी को प्रत्यक्षतः ईश्वर
का दिग्दर्शन कराते हैं । हमारे जीवन में कोई ना कोई ऐसा होता है जो हमारे लिये पथप्रदर्शक
का कार्य करता है ।
शिक्षक ज्ञात ज्ञान को हस्तांतरित करता है । सांसारिक रूप से ज्ञात जानकारी को एक विषय के रूप में हमें बांट कर उस विषय में हमें दक्ष करता है
। ज्ञान के इस हस्तांतरण को ही शिक्षा कहते
हैं । इसी शिक्षा के आधार पर हम सांसारिक दिनचर्या
सफलता पूर्वक कर पाते हैं । विषय विशेष के आधार पर शिक्षक विभिन्न प्रकार के हो सकते
हैं यथा स्कूली शिक्षक, संगीत शिक्षक, खेल शिक्षक आदि आदि ।
बोध कराने से अभिप्राय स्मृति
में लाना है । रामचरित मानस के प्रसंग में जामवंतजी द्वारा हनुमान को बल बुद्धि का
स्मरण कराना ‘बोध‘ कराना है । जो अपने अंदर
तो है, किन्तु हम अज्ञानतावष उसे जान नही पाते उन्हे बोध कराने की शक्ति गुरू में ही
है । अध्यात्मिक रूप से ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी‘ अर्थात ‘जीव ईश्वर का अंश है‘ का बोध
कराने वाले हमारे अध्यात्मिक गुरू होते हैं । सांसारिक रूप से भी हमारी क्षमताओं का
बोध हमारे गुरू ही करते हैं ।
इस प्रकार गुरू विभिन्न रूपों में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष
रूप से जीवन के सफल संपादन में महती भूमिका निभाते हैं । इन विभिन्न रूपों में गुरू का लक्षण कैसे होता है-
धर्मज्ञो
धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।
तत्त्वेभ्यः
सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते।।
गुरू धर्म को जानने वाला, धर्म को करने वाला, सदा धर्म परायण, सभी शास्त्रों
अर्थात ज्ञान के तत्व को जानने वाला होता है । ‘धारयति इति धर्मः‘‘ अर्थात मनुष्य मात्र
को धारण करने योग्य ज्ञान के समूह को ही धर्म कहते हैं । जिस ग्रंथ में धारण करने योग्य
तथ्य सविस्तार लिखे हों, उसे ही शास्त्र समझें ।
निवर्तयत्यन्यजनं
प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।
गुणाति तत्त्वं
हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते।।
गुरू जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निश्पाप रास्ते से
चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं ।
गुरू शक्ति उस अदृश्य ऊर्जा की भांति है अवलोकन नहीं
अनुभव किया जा सकता है । गुरु और शिष्य का
रिश्ता ऊर्जा पर आधारित होता है। वे आपको एक ऐसे आयाम में स्पर्श करते हैं, जहां आपको
कोई और छू ही नहीं सकता। इसी भाव से हिन्दू धर्म ग्रन्थों में गुरु की अलौकिक महिमा
गायी गयी है-
ध्यानमूलं
गुर्रुमूर्तिम पूजा मूलं गुरुर्पदम्।
मन्त्र मूलं
गुरुर्वाक्यम् मोक्ष मूलं गुरु कृपा ।।
गुरू इतना व्यापक है कि ध्यान का मूल गुरू प्रतिमा, पूजा का मूल गुरू
पद, मंत्र का मूल गुरू वाक्य और मोक्ष का मूल गुरू कृपा को कहा गया है । गुरू का व्यापीकरण
इतना है कि गुरू की तुलना सृष्टि संचालक त्रिदेव
से कर दिया गया है-
गुरुर्ब्रह्मा
ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात्
परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
अर्थात गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात्
परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम । क्योंकि-
किमत्र बहुनोक्तेन
शास्त्रकोटि शतेन च ।
दुर्लभा
चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ।।
बहुत कहने
से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना
दुर्लभ है ।
शरीरं चैव
वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च ।
नियम्य प्राञ्जलिः
तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ।।
शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर, हाथ जोडकर गुरु
को सन्मुख देखना चाहिए । अतः गुरू की परम शक्ति
को शुद्ध अंतःकरण से बार-बार नमस्कार करता हूँ ।
-रमेशकुमार सिंह चौहान
मिश्रापारा, नवागढ्
जिला-बेमेतरा, छत्तीसगढ़
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