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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

गुरुवार, 10 मई 2018

एक महात्मा साहित्यकार-‘‘श्री कृष्ण कुमार भट्ट ‘पथिक‘ ‘‘



सिद्धांतों का मूर्ति बनाना और  सिद्धांतों को जीवित करना दो अलग-अलग बातें होती हैं ।  सिद्धांतों का कथन करने वाले सैकड़ों होते हैं किन्तु सिद्धांत को अपना जीवन बना लेने वाले सैकड़ों में कुछ एक ही होते हैं ।  ऐसे ही कुछ लोगों में शीर्षस्थ हैं श्री कृष्ण कुमार भट्ट ‘पथिक‘ । ‘भट्ट सर‘ के नाम से छत्तीसगढ़ के रचनाधर्मिर्यो के मध्य उनकी लोकप्रियता उनके जीवंतता, कर्मठता एवं आदर्शता के कारण ही है । जीवंतता, कर्मठता एवं आदर्शता के नींव पर एक साहित्यकार के रूप में अपना महल खड़ा करने वाले श्री भट्ट सर के ‘व्यक्तित्व एवं कृतित्व‘ पर चिंतन करने में मैं अपने आप को असमर्थ पाता हूॅ ।  किन्तु उनके साहित्य के प्रति समर्पण के झोकों से मेरा हृदय आह्लादित है । मैं केवल अपने हृदयस्पंदन को शब्द रूप देने का प्रयास कर रहा हूॅ ।
बहुधा रचनाकार केवल रचनाओं का सृजन करना ही अपना कर्म मानते हैं । किन्तु रचनाओं के मूल्यों एवं समसमायिकता पर चिंतन करने से ही बात बनती है ।  सृजन के लिये पृष्ठभूमि तैयार करना, नवोदित रचनाकारों को अवसर उपलब्ध कराना । उनके रचनाओं का यथेष्ठ मूल्यांकन कर उचित मार्गदर्शन करना साहित्य सेवा नही तो और क्या है ?  साहित्यकार का कलमकार होना अथवा रचनाओं का सृजन करना साहित्यकार के केवल संकुचित अर्थ को ही स्पष्ट कर सकता है । किन्तु एक सच्चा साहित्यकार तो वही कहलायेगा जो आजीवन साहित्य संवर्धन एवं पल्लवन के लिये प्रयासरत हों । ऐसे उद्यमी सद्प्रयासी ‘श्री कृष्ण कुमार भट्ट ही हैं । राग द्वेष से रहित निःस्वार्थ अपने ही संसाधनों से वरिष्ठ एवं कनिष्ठ रचनाकारों का समान रूप से सहयोगी होने पर आपको ‘महात्मा साहित्यकार‘ कहूँ तो कोई अतिशियोक्ति नही होगी । अपने जीवन के सातवे दशक में भी साहित्यिक आयोजना का निमंत्रण सायकिल से घूम-घूम कर अकेले केवल एक ‘महात्मा साहित्यकार‘ ही वितरित कर सकता है । जहां अनेक स्थानों पर अपनी उच्चश्रृंखलता, स्वार्थपरकता के कारण अनेक साहित्य समिति निर्मित कर एक-दूसरे को नीचे दिखाने का प्रयास करते रहते हैं ।  ऐसे में एक ही स्थान के कई-कई साहित्यक मंच को उनमें से किसी एक के बेनर तले सभी साहित्यकार को केवल एक ‘महात्मा साहित्यकार‘ ही एकत्रित कर सकता है ।
महात्मा का परिचय उनकी सादगी एवं कर्मठता से प्राप्त होता है ।  एक छोटे से कमरे में अस्त-व्यस्त समान, एक टूटी कुर्सी, एक पुराना टेबल पंखा और सबके बीच साहित्यिक पुस्तकों से घिरे, एक सादे कागज पर इनके मूल्य अंकित करते कोई भी, कभी भी मुंगेली में भट्ट सर को देख सकते हैं । जिनका परिवार बिलासपुर में हो, जो केवल साहित्य सेवा के लिये मुंगेली में एक कमरा किराये पर ले रखें हों । एक भूतपूर्व प्राचार्य जमीन में बैठकर अकेले साहित्य साधना में निमग्न हों, महात्मा होने का ही परिचायक है ।
भट्ट सर का जन्म 18 जून 1946 को श्री जगत राम भट्ट के यहां गोड़पारा बिलासपुर में हुआ । आपने हिन्दी एवं अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त की है ।  आप एक शिक्षक के रूप में विभिन्न शैक्षिक संस्थाओं में अपनी सेवा प्रदान की है ।  आप हिन्दी व्याख्याता के रूप में में 1987-89 के मध्य शा.उ.मा.वि. नवागढ़ में मुझे कक्षा 9वीं-10वीं में अध्यापन कराया है । आप प्राचार्य के रूप में मुंगेली में सेवा देते हुये सेवानिवृत्त हुये ।  यद्यपि आपका जन्म भूमि बिलासपुर है तथापि आपने कर्मभूमि के रूप में मुंगेली को ही वरियता देते आ रहे हैं ।
भट्ट सर अपने विद्यार्थी जीवन से ही 1967-68 में लेखन कार्य का श्रीगणेश किया और 1972 में शासकीय शिक्षा महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका का संपादन किया ।  आपके प्रकाशित कृति ‘शहर का गाड़ीवान‘ (काव्य संग्रह), ‘युग मेला‘ (काव्य संग्रह) आपके सृजनात्मक क्षमता को प्रकट करने में समर्थ रहा ।  ‘इतिहास की साहित्य पगडंड़ियों पर‘ समीक्षा ग्रंथ से समीक्षा के पगडंड़ियों पर चलना प्रारंभ कर दिये । ‘चेहरे के आसपास‘ (कहानी संग्रह) का संपादन कर आपने समीक्षक एवं संपादक के रूप में अपना स्वयं का परिचय साहित्यकारों से कराया । आकाशवाणी रायपुर से फाग पर ‘नाचे नंद को कन्हैया‘ वार्ता का प्रसारण हुआ है तथा आकाशवाणी बिलासपुर से आपका साक्षात्कार प्रसारित हुआ है ।
कवि सम्मेलनों के तामझाम से दूर आप प्रादेशिक, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय साहित्य शोध संगोष्ठियों में आनंदित रहे ।  इस स्तर पर रहते हुये भी स्थानीय स्तर पर साहित्य संगोष्ठियों का आयोजन कराना आपके साहित्य के प्रति समर्पण को ही निरूपित करता है । आपके सद्प्रयास से बिलासपुर मुंगेली, लोरमी, नवागढ़ जैसे कई स्थानों में साहित्य संगोष्ठि का आयोजन एकाधिक बार किया गया है ।
‘हमर कथरी के ऊपर अकास‘-राघवेन्द्र लाल जायसवाल, ‘काला सा आदमी‘-डॉ राजेश कुमार मानस, ‘उम्र भर की तलाश‘-सतीष पांडे, ‘मरजाद‘-नंदराम यादव निषांत, ‘घनानंद के काव्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन‘-डॉ हरिराम निर्मलकर, ‘सुरता‘ एवं ‘ऑखी रहिके अंधरा‘-रमेशकुमार सिंह चौहान जैसे अनेक कृतियों पर भूमिका एवं अनुशंसा प्रदान करना आपके साहित्यिक पठन-पाठन अभिरूचि के साथ-साथ आपके सहज उपलब्धता का मूर्त रूप है ।  आपके इसी सहजता का कृपा पात्र मेरे जैसे कई साहित्यकार हैं ।
‘भट्ट सर‘ का व्यक्तित्व हम सभी साहित्कारों, रचनाधर्मीयों एवं साहित्य प्रेमियों के लिये अनुकरणीय धरोहर है ।  अपने व्यक्तिगत समस्याओं से परे केवल साहित्य चिंतन एवं साहित्य संवाद ही आपका व्यक्तित्व है ।  आप हर छोटे-बडे साहित्यिक आयोजनों की सूचना हम जैसे साहित्यकारों को समय पूर्व देते रहते हैं। हाल ही में कुछ माह पूर्व आप दुर्घटना में चोटिल होकर चलने में असमर्थ होने के बाद भी साहित्य सेवा करते रहे और राजभाषा के प्रांतीय सम्मेलन, बेमेतरा में मुंगेली जिला समन्वयक का दायित्व का सफलता पूर्वक निर्वहन किये हैं ।
आप अपने उपनाम ‘पथिक‘ के अनुरूप साहित्य पथ पर अनवरत चल रहे हैं । अपने साहित्यिक यात्रा में रास्ते में पतित साहित्यकारों को संबल प्रदान करते हुये हमराही किये हैं ।  आपका प्रत्येक साहित्यिक कृत आपको ‘महात्मा साहित्यकार‘ ही निरूपित करता है । आपके इस विराट कार्य को मैं कुछ शब्दों में पिरोने का दुःसाहस कर रहा हूॅ-

बढ़ता रहता ‘पथिक‘ डगर पर, होकर पथ का धूल ।
चलते रहना श्वेद भूल कर, सच्चे राही का मूल ।।

साहित्य पथ का राही वह तो, चलना जिसका काम ।
दीन-हीन का सच्चा साथी, भट्ट ‘पथिक‘ है नाम ।।

साहित्य साधक और उपासक, जिसका परिचय एक ।
समरसता का जो भागीरथ, साहित्य सर्जक नेक ।।

वरिष्ठ-कनिष्ठ का अंतर तज, जो रहते हैं साथ ।
कर्म डगर भी जिनका गाता, साहित्य सेवा गाथ ।।

साहित्य सेवा जीवन जिसका, साहित्य जिसका कर्म ।
‘पथिक‘ महात्मा साहित्य जग का, कहे कर्म का मर्म ।।

-रमेशकुमार सिंह चौहान

जूनी मेला

जूनी मेला



मेला हमारे देश की संस्कृति है । मेला केवल ऐसा स्थान ही नहीं है जहां मनोरंजन एवं व्यवसायीक उद्देश्य से लोग एकत्रीत होते हैं, अपितु मेले के आयोजन का कोई न कोई धार्मिक कारण अवश्य ही होता है । भारत देश का सबसे बड़ा मेला ‘कुंभ का मेला‘ होता है ।  प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में प्रति बारह वर्ष पर कुंभ का मेला लगता है और प्रति छः वर्ष पर अर्धकुंभ का आयोजन किया जाता है । तीर्थराज प्रयाग में गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम तट पर मेले का आयोजन होता है । इसी के प्रतिरूप देश के अनेक ऐसे स्थानों पर जहां तीन नदियों का संगम होता है वहां मेला अवश्य लगता है ।  छत्तीसगढ़ के प्रयाग राजीम में महानदी, पैरी एवं सोढूर के संगम पर प्रतिवर्ष मेला लगता है ।  तीन नदियों के संगम तट के अतिरिक्त ऐसे और स्थानों पर मेले लगते हैं जहां पर लोगों की आस्था, मान्यता जुड़ी हो ।  लोगों की मान्यता होती कि उस स्थान से उनके मनोकामना, अभिलाषा अवश्य पूरी होती है । ऐसे ही स्थानों में उभरती हुई मेला है ‘जुनी मेला‘ ।  जहां दिनों दिन भीड़ बढ़ती ही जा रही है ।
छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिला में जिला मुख्यालय से लगभग 35 किमी की दूरी पर, नवागढ़-सम्बलपुर मार्ग पर कांपा मोड़ से दक्षिण दिशा में 4 किमी की दूरी पर स्थित है ग्राम ढनढनी, गांव से कुछ ही दूरी पर एक सरोवर है ‘जुनी सरोवर‘ इसी सरोवर के तट पर प्रतिवर्ष पौष पूर्णिमा को ‘जुनी मेला‘ का आयोजन किया जाता है ।
इस मेले से जुड़ी जनश्रुति के अनुसार-एक बार एक कुष्ठ रोगी राह से गुजरते हुये इस तालाब पर स्नान किया  दैवीसंयोग से उस व्यक्ति का कुष्ठ कुछ ही दिनों में ठीक हो गया ।  यह तब की बात है जब कुष्ठ एक असाध्य रोग था । इस चमत्कार से ही लोगों का ध्यान इस सरोवर की ओर गया । तब से लोग अपनी मनोकामना लेकर इस सरोवर पर स्नान करने लगे । ऐसी मान्यता पैदा हुई कि इस सरोवर में स्नान करने पर चर्मरोग निश्चित ही दूर हो जाता है।
इस मेले की दूसरी मान्यता को कोई भी व्यक्ति मेले के दिन आकर परख सकता है । यह मेला अन्य मेलों से इस बात पर भिन्न है कि ज्यादातर मेलों पर ऐसे लोगों की भीड़ होती है जो मंदिर दर्शन करने आयें हो, मनोरंजन के लिये घूमने आये हो किन्तु यहां ऐसे लोग अधिक होते है जिनके मनोकामना पूर्ण हो गये हों, वे अपने मनोकामना पूर्ण होने पर ‘सत्यनारायण पूजा‘ कराने आये हों ।  इस मेले का अद्भूत दृश्य किसी को भी अभिभूत कर सकता है कई-कई स्थानों पर ‘सत्यनारायण का पूजा‘ चल रहा होता है और प्रत्येक पूजा स्थल पर एक नौनिहाल, जिनकी आयु लगभग 1-2 वर्ष । जुनी सरोवर, तट पर सत्यनारायण पूजा और नौनिहाल इन तीनों का संबंध इस स्थान के दूसरी मान्यता से है । इस मान्यता के अनुसार-यदि कोई निःसंतान दम्पत्ती एक साथ इस सरोवर पर श्रद्धा पूर्वक स्नान करे तो स्नान करने के एक वर्ष के भीतर-भीतर इनके गोद अवश्य भर जातें हैं ।  इस मनोकामना के लिये निःसंतान दम्पत्ती एक साथ हाथ में श्रीफल लेकर जूनी सरोवर में डूबकी लगाते हुये नारियल को सरोवर के अंदर किचड़ में यह कहते हुये गड़ा दिया जाता है कि माँ हमारी गोद भर दे ।  सच्ची आस्था होने पर निश्चित ही एक वर्ष के अंदर संतान सुख की प्राप्ती होती है ।

एक मान्यता के अनुसार इस स्थान पर देवी का वास है ।  सरोवर की खुदाई आज से लगभग 40 वर्ष पूर्व हुई, इसके पूर्व यह सरोवर स्वतंत्र रूप में था।  बताया जाता है उक्त क्षेत्र को तात्कालीन राजा ने ठाकुरों को पुरस्कार के रूप में प्रदान कर दिया था। सरोवर की खुदाई के दौरान अवशेष के रूप में सरई का खंभा निकला जो आज भी मौजूद है।
इस मेले के आयोजन के लिये एक मेला समिति कार्यरत है ।  इस समिति द्वारा शिव जी एवं श्री कृष्ण जी का मंदिर भी इस स्थान पर बनवाया गया है। मेला स्थल पर सरोवर के उत्तर-पश्चिम में बूढ़ा महादेव का मंदिर है जिसके ऊपर दुर्गा माता का मंदिर है। बूढ़ा महादेव के पूर्व में काली मॉं व हनुमान जी का मंदिर हैं। बूढ़ा महादेव के पश्चिम में यज्ञ स्थल है। यज्ञ स्थल के दक्षिण में ज्योति कक्ष व मंच है।  मंच के दक्षिण में राधा-कृष्ण, दक्षिण में मुख्य शिव जी, उसके दक्षिण में दुर्गा जी, उसके दक्षिण में एक मंच है। बूढ़ा महादेव के उत्तर में पीछे की ओर एक और दुर्गा माता है तथा उसके ऊपर में एक बड़ी दुर्गा माता है। दुर्गा माता के उत्तर में मंच व ज्योति कक्ष है। बूढ़ा महादेव के पश्चिम में शिव के दो मंदिर हैं।
प्रतिवर्ष पौषपूर्णिमा के एक सप्ताह पूर्व से यहां धार्मिक आयोजन होने लगते हैं ।  इस एक सप्ताह के आयोजन में दिन में धार्मिक आयोजन में रात्रि में सांस्कृतिक आयोजन होता है ।  जूनी मेला का परिसर 14 एकड़ में फैला हुआ है ।  इस परिसर पर मेला अवधी में विभिन्न व्यवसायिक प्रतिष्ठान एवं मनोरंजन केन्द्र सजा होता है ।  इस मेले में आस-पास के क्षेत्रवासीयों के साथ-साथ दूर-दूर के आस्थावन पर्यटक भी पहुॅचते हैं ।
-रमेशकुमार सिंह चौहान
नवागढ, जिला-बेमेतरा छ.ग.

‘‘लोक-चेतना लोक-संस्कृति के संवाहक-डॉ. सोमनाथ यादव‘‘

‘लोक-चेतना लोक-संस्कृति के संवाहक-डॉ. सोमनाथ यादव



किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व की छाप समाज पर तब दृष्टिगोचर होता है जब वह अपने सृजनात्मक एवं समाजोपयोगी कार्य के बल पर दृढ़ता से आगे बढ़ता रहता है। एक 21-22 वर्ष के युवक द्वारा अपनी संस्कृति, अपनी परम्परा का चिंतन करते हुये ‘‘बिलासा कला मंच‘ का गठन करना एक अतिशियोक्ति से कम नहीं है । यह साहसिक कार्य करने का माद्दा बिलासपुर नगर के ठेठ ग्रामीण परिवेश वाले जूना बिलासपुर में श्री चमन लाल यादव के यहां 9 अप्रैल 1968 को जन्मे श्री सोमनाथ यादव तब कर दिखाये जब वह अभी-अभी बी.कॉम. की परीक्षा उत्तीर्ण ही किये थे, जहां इस समय एक युवक अपने कैरियर के प्रति चिंतित होकर हाथ-पैर मारते रहता है, उस अवस्था में श्री यादव ने अपनी ठेठ ग्रामीण संस्कृति को संरक्षित करने का विचार ही नहीं किया अपितु एक सैनिक की भांति तन-मन अर्पित कर प्राण-पण से समर्पित हो प्रयास भी किया।
‘बिलासा कला मंच‘, बिलासपुर नगर का बिलासा बाई केंवटिन के नाम से बसे होने के कारण केवल उन्हें याद करने का एक उपक्रम मात्र न होकर, पावन अरपा तट पर बसे बिलासपुर का कस्बाई संस्कृति को अक्षुण्ण रखते हुये छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल के संस्कृति को अक्षुण्ण रखने का एक उपक्रम है । बिलासा कला मंच का स्लोगन ही ‘लोक संस्कृति, हमारी जीवन शैली‘ है ।  स्वयं डॉ. सोमनाथ यादव बिलासा महोत्सव के ‘पच्चीस वर्ष की यात्रा....‘ में लिखते हैं-‘‘ 1990 में बिलासा कला मंच के बेनर तले एक दिवसीय महोत्सव प्रारंभ हुआ था। मई महीना था जूना बिलासपुर स्थित शासकीय कन्या शाला में बाँसगीत महोत्सव के रूप में इस महोत्सव का बीज बोया गया ।‘‘ डॉ. परदेशीराम वर्मा कहते हैं-‘‘बिलासा महोत्सव का संयोजन कर डॉ. सोमनाथ यादव ने बिलासा की महत्ता से प्रदेश और देश के कलाकारों, चिंतको को परिचित होने का अवसर दिया ।‘‘ वरिष्ठ भरथरी गायिका श्रीमती सुरूजबाई खाण्डे कहती हैं- ‘बिलासा महोत्सव के माध्यम से मेरे नाम की प्रसिद्धि हुई है । भरथरी को देश-विदेश में प्रस्तुत कर गौरवान्वित हूॅं । मैं सोमनाथ यादव को बहुत आशीष देती हूँ जो हमारी संस्कृति को बचाने के लिये कार्य कर रहा है ।‘‘ बिलासा महोत्सव, जो रजतीय पड़ाव को पार कर लोक संस्कृति, लोक संस्कार को अपनी बाहों में भरकर गुमनामी के अंधेरे से महानगरी प्रकाश में लाने हेतु सतत् यात्रा में गतिमान है । बिलासा महोत्सव डॉ. सोमनाथ के स्वेद धार में एक प्रवाहित धारा है जो अपने साथ ग्राम्य जीवन, ग्राम्य संस्कृति को लेकर प्रवाहित है ।
छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के अध्यक्ष डॉ. विनय पाठक बिलासा महोत्सव के संबंध में लिखते हैं-‘‘बिलासा महोत्सव छत्तीसगढ़ी लोकोत्सव का वह स्वरूप है जो लोकगीत, लोकनृत्य, लोकवाद्य व लोककथा के मूल रूप को सुरक्षित रखने के लिए छत्तीसगढ़ी लोककला मंडलियों से निवेदन करता है ।‘‘ डॉ.पाठक के ही शब्दों में- ‘‘डॉ. सोमनाथ यादव का जो बिलासा कला मंच की नींव रखने के दो वर्ष पश्चात बिलासा महोत्सव को मूर्त करते हैं और दोनो को प्रदेश स्तर का प्रतिष्ठापूर्ण मंच व महोत्सव बनाकर इतिहास की कड़ी बन जाते हैं ।‘‘ इस प्रकार कहा जा सकता है -‘‘बिलासा महोत्सव का परिचय डॉ. सोमनाथ यादव एवं डॉ. सोमनाथ का परिचय बिलासा महोत्सव है।‘‘ गिरीश पंकज के शब्दो में -‘‘बिलासा कला मंच यानी लोक चेतना का संवाहक‘‘। डॉ. पीसी लाल यादव के शब्दों में -‘‘लोक संस्कृति का संवाहक-बिलासा महोत्सव‘‘ । फलतः लोक-चेतना लोक-संस्कृति के संवाहक-डॉ. सोमनाथ यादव हैं।

डॉ. सोमनाथ यादव बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। वह केवल बिलासा कला मंच के संस्थापक ही नहीं है अपितु पत्रकार, संपादक, लेखक, कवि, प्राध्यापक, स्काउटर के रूप में भी प्रख्यात हैं ।  इन विभिन्न क्षेत्रों में इनकी केवल उपस्थिति ही नहीं अपितु दखल भी है ।
पत्रकार के रूप में दैनिक स्वदेश बिलासपुर, दैनिक सांध्य समीक्षक समाचार, राष्ट्रीय हिन्दी पाक्षिक लोकायत नई दिल्ली में सेवा देते हुये दैनिक जागरण के ब्यूरोचीफ के पद पर भी कार्यरत रहे । पत्रकार रहते हुये लोक-स्वर को ही ध्वनित किया ।

सम्पादक के रूप में संस्कृति विभाग छत्तीसगढ़ शासन द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘बिहनिया‘ में उपसम्पादक रहते हुए छत्तीसगढ़ की संस्कृति को सहेजने का ही प्रयास किया । एक लेखक के रूप में शोधग्रन्थ-‘बांॅसगीत-गाथा‘ देकर हमारे छत्तीसगढ़ के भूले-बिसरे लोक विधा को पुनः प्रकाशवान करने का भगीरथ प्रयास किया है। उनके चुनिंदा किताबों में ‘लोकनाट्य संदर्भ छत्तीसगढ़‘, ‘छत्तीसगढ़ के लोक संगीत‘, ‘छत्तीसगढ़ की लोककथाएॅं‘‘, ‘बांॅसगीत एवं गाथा‘, ‘छत्तीसगढ़ समग्र‘, ‘एक आदर्श गॉंव‘ एवं ‘बिलासा और बिलासपुर‘ प्रमुख हैं । इन सभी किताबों का केन्द्रीय भाव एक ही है-‘छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति एक गौरवशाली परम्परा है जिसे केवल स्मरण ही नहीं करना है अपितु लोक जीवन का पुनः गुंजायमान भी करना है ।‘

हमारी लोक संस्कृति लोक भाषा के बिना पंगु है ।  इसे प्रगतिशील रहने के लिये छत्तीसगढ़ी भाषा का गतिमान होना भी आवश्यक है ।  इस बात से डॉ. सोमनाथ यादव जी भली-भांति परिचित हैं, इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने समाज को ‘छत्तीसगढ़ी-हिन्दी‘ शब्दकोष दिया हैं।  ‘छत्तीसगढ़ी दोहे‘ के माध्यम से हमारे छत्तीसगढ़ में बात-बात में दोहा बोलने, राउत नाचा के दोहों के संस्कृति को संरक्षित रखने का सद्प्रयास है । सांस्कृतिक केन्द्र नागपुर भारत सरकार द्वारा निर्मित डाक्यूमेंटरी फिल्म ‘लोरिक चंदा‘ श्री यादवजी का ‘चरामेति चरामेति चलिश्यामा‘ ध्येय वाक्य का अनुगमन है ।
सत्कर्मो का पुण्यफल मिलना प्राकृतिक सत्य है । डॉ. यादव को जो मान सम्मान प्राप्त हुये हैं उनकी सूची बहुत लम्बी है- एशिया पैसेपिक अवार्ड, कला गुरू सम्मान, साहित्य साधना सम्मान आदि । इसके उपरांत भी इनके कार्यो की तुलना में ये सम्मान बौने ही प्रतीत होते हैं ।
डॉ. सोमनाथ यादव के अभी तक के कर्मपथ का सूक्ष्म अवलोकन करने पर  हम पाते हैं कि वह कंटक भरी पगडंडियों पर अपने आत्मबल से आगे बढ़ रहे हैं । ‘बिलासा कला मंच‘ की स्थापना से लेकर ‘अरपा नदी बचाओ आंदोलन‘ तक लोक संस्कृति, लोक चेतना रूपी गंगा अवतरण हेतु भगीरथ प्रयास है। अरपा नदी के उद्गम से संगम तक के 165 किलोमीटर की यात्रा कर जो जनजागरण अभियान चलाया जा रहा है, वह लोक चेतना को झंकृत करने का एक नूतन पथ है ।
छत्तीसगढ़ की संस्कृति, साहित्य एवं कला पर कार्य करते हुए अनेक शोधपरक किताबों का प्रकाशन करके एवं लुप्त हो रहे छत्तीसगढ़ की कला, संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन हेतु सतत् विभिन्न आयोजन करके निश्चित रूप से डॉ. सोमनाथ यादव लोक चेतना, लोक संस्कृति के संवाहक हैं ।

-रमेशकुमार सिंह चौहान
अध्यक्ष, श्रीशमीगणेश साहित्य समिति
नवागढ़, जिला-बेमेतरा (छ.ग.)
मो. 9977069545

छत्तीसगढ़ी के मानकीकरण बर

छत्तीसगढ़ी के मानकीकरण



मानकीकरण के संदर्भ म हमर विद्वान मन के दू प्रकार के विचार देखे ल मलिथे एक विचार धारा के अनुसार- ‘‘मानक भाषा अपन बनावट ले अपन भाषा के नाना प्रकार के रूप ले कोनो एक रूप या एक बोली ऊपर आधारित होथे। येखर मानक बने ले येखर बोलीगत गुण खतम होय लगथे अउ वो क्षेत्रीय ले अक्षेत्रीय हो जाथे। येखर कोनो तय सीमा क्षेत्र नई होवय अउ न ही ये कोनो भाषा-भाषी समुदाय के मातृबोली होवय।‘‘ दूसर विचार के अनुसार- ‘‘मानक रूप के मतलब एक अइसन रूप ले हे जउन भाषा के प्रकृति ला समझत अउ ओखर बहाव ला देखत येला सरल करे जाये ना कि दूसर भाषा के प्रकृति के आधार मा मानकीकरण के चक्कर मा भाषा के प्रवाह ला, प्रकृति ला रोक दे जाये। मानकीकरण के आधार भाषा के मूल रूप मा होना चाही।‘‘ दूनों विचार के सार एके हे मानक भाषा सरल होवय, अपन प्रकृति म रहत जन-व्यापक होवय।

मानक भाषा के प्रमुख तत्व ऐतिहासिकता, मौलिकता, केन्द्रीयकरण, सहजता, एकरूपता अउ व्याकरण संमत होथे। ये तत्वमन मन मा भाषा के मानकीकरण करत बखत ध्यान दे ल परथे। भाषा के मानकीकरण बर ये दू काम धारन बरोबर होथे ।  पहिली ओ भाषा के प्रचलित नाना प्रकार के बोली म कोनो एक बोली ला आधार मान के या सांझर-मिंझर भाषा बर शब्द के गठन करे जाये। अउ दूसर ओखर लिखे के लिपी अउ वर्तनी म एक रूपता लाये जाये।

कोनो भी भाषा ला ओखर बोलीमन ओला मजबूत करथे, फेर कोनो भी बोली ओ भाषा ऊपर अपन अधिकार नई जतावय न अपन ल ओखर ले अलग समझय। छत्तीसगढ़ी के खलटाही, कमारी, सरगुजिया, सदरी-कोरबा, रायपुरी, बिलासपुरी, कांकेरी, बस्तरिया, लरिया, बिंझवारी जइसे नाना बोली प्रचलित हे। ये सबो बोली म जेन बोली ल छत्तीसगढ़ के जादा ले जादा मनखे अपन दिनचर्या म उपयोग करथे ओही ल आधार बनाना चाही। ये खोज के विषय हो सकत हे के छत्तीसगढ़ी के कोन बोली ह बोल-चाल म जादा ले जादा उपयोग होवत हे। फेर जेन छत्तीसगढ़ी ल धनी धरम दास, गुरू घासीदास, पं. सुंदरलाल शर्मा, शुकलाल पाण्ड़े, कोदूराम दलित, नारायण लाल परमार जइसे साहित्यकार मन अपनाइन, जेन छत्तीसगढ़ी ला अंतर्राष्ट्रीय स्तर म हबीब तनवीर, तीजन बाई, देवादास, डॉ. सुरेन्द्र दुबे मन जइसे कलाकार मन जेन रूप म बगरायें हें, चंदैनी-गोंदा जइसे संस्था छत्तीसगढ़ी के जेन रूप ला दुनियाभर म बगरायें हें, जेन रूप म आकाशवाणी अपन स्थापना के बखत ले आज तक छत्तीसगढ़ी ला पालत-पोषत हे ओही रूप ल मानकीकरण के आधार चुने जा सकत हे काबर छत्तीसगढ़ी के ये रूप ले जादा ले जादा मनखे मन परिचित हे ओखर उपयोग छत्तीसगढिय़ा मन के संगे-संग दूसर भाषा-भाषाई मन घला करत हें। आज छत्तीसगढ़ी मा लिखईया साहित्यकार मन, फिल्मकार मन, कलाकार मन घला येही रूप ला चलावंत हे।

मानकीकरण के दूसर धारन लिपी अउ वर्तनी हे। छत्तीसगढ़ी ह देवनागरी लिपी ल अपना चुके हे लिपी के चयन के कोनो समस्या नई हे। अब एके बात बाचथे जेमा विचार करे के जरूरत हे ओ हे- ‘वर्तनी‘। भाषा के वर्तनी के अर्थ हे- ‘‘भाषा मा शब्द मन ला वर्ण आखर ले व्यक्त करना। कई ठन भाषा, जइसे अंग्रेजी उर्दू मा सालों-साल ले वर्तनी (अंग्रेज़ीके स्पेलिंग, उर्दू के हिज्जा) ला रटावये जाथे। हम नान-नान मा अंग्रेजी के बहुत स्पेलिंग रटे हन। ये अभ्यास आज घलो चलत हे। फेर छत्तीसगढ़ी म अभी तक वर्तनी के महत्ता ल परखे नई गे हे। छत्तीसगढ़ी भाषा के पहिली अउ सबले बड़े गुण ‘ध्वन्यात्मकता‘ हे। छत्तीसगढ़ी ल देवनागरी लिपी म लिखे जाथे। देवनागरी लिपी के सबले बढिय़ा बात हे- ‘जइसे बोले जाथे वइसने लिखे जाथे।‘‘ बोले गेय ध्वनि ला व्यक्त करना बहुत सरल हे। फेर ये हा कठिन हो जाथे शब्द ला अलग-अलग ढंग ले बोले मा। क्षेत्र अंतर होय मा, बोली के अंतर होय मा शब्द के उच्चारण म अंतर होथे, दूसर भाषा के आये शब्द के उच्चारण ल घला अलग-अलग ढंग ले करे म वर्तनी एक ठन समस्या के रूप म हमर बीच खड़े हे।

छत्तीसगढ़ी के मूल शब्द के मानकीकरण म कोनो बड़े समस्या नई हे। छत्तीसगढ़ी के केन्द्रीय बोली के चयन होत्ते येखर निदान हो जही। सबले बड़े समस्या जउन आज दिखत हे ओ हे- हिन्दी शब्द के छत्तीसगढ़ी म प्रयोग। अभी तक छत्तीसगढ़ी ह हमर मातृबोली अउ हिन्दी ह मातृभाषा रहिस हे। येखर सेती बासी म नून कस हिन्दी ह छत्तीसगढ़ी म घुर गे हे। जेन ला निकालना अब कठिन हे। हां, हमला येखर प्रयोग के ढंग म चिंतन करना चाही। छत्तीसगढ़ी म हिन्दी के प्रयोग अइसे होवय के छत्तीसगढ़ी के अपन खुद के मौलिकता बने रहय। अइसन करत बखत हमला येहू देखना चाही के हिन्दी शब्द के उच्चारण छत्तीसगढ़ी म करत बखत ओ शब्द के ओइसने उच्चारण होवय जेन ओही अर्थ दे सकय जेखर बर येखर प्रयोग करे जात हे। अर्थ के अनर्थ नई होना चाही।

हिन्दी शब्द के छत्तीसगढ़ी अपभ्रंश ल स्वीकार करना चाही के हिन्दी के मूल रूप म। येही हा सोचे के विषय हे। येमा कुछु निर्णय ले के पहिली कुछ जरूरी बात म जरूर सोचना चाही। हिन्दी के छत्तीसगढ़ी अपभ्रंश कइसे बनिस। कइसन शब्द के अपभ्रंश प्रचलित होइस अउ कइसन शब्द ह अपन हिन्दी के मूल रूप म चलत हें। जइसे हिन्दी के घर, छाता, जहाज, कागज जइसे बहुत अकन शब्द ह जस के तस छत्तीसगढ़ी मा प्रयोग होत हे। जेन शब्द के अपभ्रंश रूप चलत हे ओला देखे म मोटा-मोटी दू प्रकार दिखथे ‘आधा वर्ण‘ वाले शब्द अउ ‘संयुक्त वर्ण‘ वाले शब्द। सबले जादा ‘र‘ के पहिली कोनो आधा वर्ण आथे त अउ ‘आधा र‘ आथे त जइसे प्रसन्न-परसन, प्रदेश-परदेश, प्रसार-परसार, प्राथमिक-पराथमिक अर्घ-अरघ, फर्श-फरस आदि। संयुक्त वर्ण म शिक्षा-सिक्छा, श्री-सिरी, विज्ञान-बिग्यान, वैज्ञानिक-बिगयानिक या बइग्यानिक श्राप-सराप, त्रिशूल-तिरसूल आदि। अपभ्रंश रूप तभे स्वीकारे जाये जब येखर अर्थ ह ओही होय जेखर बर येखर प्रयोग करे गे। हिन्दी के प्रदेश, जेखर अर्थ अपन प्रांत, अपन राज्य होथे ओही मेरा येखर अपभ्रंश परदेश ह आन के देश, आन के राज्य के बोध कराथे जेखर प्रयोग उचित नई कहे जा सकय। ‘श्री‘ जेन संस्कृत ले हिन्दी म चलत हे ल ‘सिरी‘ कहे मा ओ अर्थ नई होवय जउन श्री कहे मा होथे। ये मेरन ध्यान दे के बात हे ‘श्री‘ के ध्वनि ला अंग्रेजी म ज्यों के त्यों स्द्धह्म्द्ब प्रयोग करे जाथे। फेर छत्तीसगढ़ी म जेखर लिपी ओही हिन्दी के देवनागरी हे तेमा ‘सिरी‘ काबर ? स, ष, श के प्रयोग बर घला सोचे चाही ये सही हे के मूल छत्तीसगढ़ी म केवल ‘स‘ के प्रयोग होथे फेर हिन्दी ले आये शब्द के श अउ ष ल घला स कहिना कहा तक सही हे ? व्याकरण के दृष्टिकोण ले व्यक्ति वाचक संज्ञा भाषा बदले म नई बदलय त कोखरो नाम संतोष ल संतोस, रमेश ल रमेस कहिना कहां तक उचित हे ?

कोनो भाषा के मानकीकरण ले ओ भाषा के प्राण हा बाचे रहय, ओखर प्रकृति लहजा, मीठास हा बाचे रहय। ये चिंता जायज हे के हिन्दी के धडल्ले ले प्रयोग ला सही कहिना छत्तीसगढ़ी ल प्राणहीन कर सकत हे। ये चिंता जतके बड़े हे ओतके बड़े चिंता येहू हे के हिन्दी के अपभ्रंश छत्तीसगढ़ी ले अर्थ के अनर्थ मत होवय। ये दूनों चिंता ला मिला के येखर हल खोजे के उदीम करे जाये। सबले पहिली जेन अर्थ बर छत्तीसगढ़ी शब्द पहिली ले हवय ओखर बर हिन्दी शब्द के प्रयोग कतई नई करना चाही। जेन अर्थ म छत्तीसगढ़ी आसानी से नई मिलय ओ अर्थ म हिन्दी के शब्द ल मूल रूप म स्वीकार करे चाही। काबर के मानक भाषा के रूप सर्वग्राही-सर्वव्यापी होना चाही। येखर बर भाषा म कुछ लचीलापन   घला होना चाही। जुन्ना-जुन्ना साहित्यकार मन, कलाकार मन छत्तीसगढ़ी के जुन्ना शब्द जउन नंदावत हे ओला सहेज के नवा मनखे ल देंवय, नवा लइका मन घला छत्तीसगढ़ी लिख-पढ़ सकय येखर बर देवनागरी स्वर, व्यंजन, आधा वर्ण, संयुक्त वर्ण ला महत्ता देवंय। जेन शब्द मूल छत्तीसगढ़ी के हे तेमा आधा वर्ण या संयुक्त वर्ण, ष, श के उपयोग या बिल्कुल नई हे या नही के बराबर हे। ये सबो लफड़ा हिन्दी ले छत्तीसगढ़ी म अपभ्रंश के रूप म प्रयोग करब म होत हे। जब छत्तीसगढ़ी म अंग्रेजी के शब्द डॉक्टर, मास्टर, हॉफपेंट, रेल, जइसे शब्द ल बिना अपभ्रंश करे जेंव के तेंव स्वीकार कर ले गे त हिन्दी के शब्द ल मूल रूप म ग्रहण करे बर अतेक न नुकुर काबर।


-रमेशकुमार सिंह चौहान

नवागढ़, जिला-बेमेतरा

शुक्रवार, 23 मार्च 2018

स्वतंत्रता सेनानी भागवत प्रसाद उपाध्याय

स्वतंत्रता  सेेनानी भागवत प्रसाद उपाध्याय

किसी भूमि के टुकड़े को राष्ट्र कहके तब पुकारा जाता है, जब उस स्थान पर ऐसे लोग निवास करते हो जो उस मिट्टी से प्रेम करते हों । उस मिट्टी में निवास करते हुये एक संस्कृति विकसित कर लेते हों और जीवन पर्यन्त अपनी मिट्टी और संस्कृति से प्रेम करते हों ।  लोगों के उस मिट्टी के प्रति जो अनुराग, जो श्रद्धा होता है, उसे राष्ट्रीयता की संज्ञा दी जाती है । इसी श्रद्धा और अनुराग से हम भारतीय अपने राष्ट्र को भारत माता कहते हैं । जब-जब माँ भारती पर आक्रांताओं ने आक्रमण किया तब-तब हमारे वीर सपूतों ने अपने प्राण उत्सर्ग करते हुये आक्रांताओं को इस पावन मिट्टी से खेदड़ दिया ।  ऐसे ही वीर सपूतों ने देश को अंग्रेजो से मुक्त कराया । देश के आजादी में जिन-जिन महापुरूषों ने अपना योगदान दिया है, उन्हें आज हम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप पूजते हैं ।  भारत के कोने-कोने से माँ भारती के  लाल सामने आये जो अंग्रेजों के विरूद्ध उठ खड़े हुये ।  हमारे देश में असंख्या स्वतंत्रता सेनानी हुये कुछ लोगों का नाम जन परिचित हैं कुछ लोगों का नाम इतिहास के पृष्ठों में दबे पड़े हैं, तो कुछ आज भी अनाम हैं ।
भारत में अंग्रेजी दास्ता खत्म होने के पश्चात देश में जगह-जगह ऐसे वीर सपूतों के योगदान को चिरस्थाई बनाने के लिये जयस्तम्भ बनवाये गये हैं।  ऐसे ही एक जयस्तम्भ ग्राम नवागढ, तत्कालिक जिला-दुर्ग वर्तमान जिला बेमेतरा़ के ग्राम पंचायत मुख्यालय में विकासखण्ड़ के वीर शहीदों का नाम जयस्तम्भ में स्वर्णीम अक्षरों में अंकित है ।  इस शिलालेख के अनुसार नवागढ़ विकासखण्ड़ में तीन शहीदों का नाम श्री बिसाहू प्रसाद चुरावन प्रसाद, श्री भागवत प्रसाद गोपाल उपाध्याय एवं श्री भगवती प्रसाद महादिन मिश्रा उल्लेखित है ।  जिला कार्यालय बेमेतरा से प्राप्त जानकारी के अनुसार श्री बिसाहू प्रसाद ग्राम जेवरा विख. बेमेतरा, श्री भागवत उपाध्याय ग्राम तेन्दुवा विख. नवागढ़ एवं श्री भगवती प्रसाद मिश्रा ग्राम अंधियारखोर वि.ख. नवागढ़ निवासी रहे हैं ।
स्वतंत्रता सेनानी श्री भागवत प्रसाद उपाध्याय एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी के रूप में दर्ज हैं, जो आजादी की लड़ाई में भाग लेने के साथ-साथ आजादी पश्चात देश के नवनिर्माण में भी अपनी महती सेवा अर्पित किये हैं ।

श्री भागवत प्रसाद उपाध्याय का जन्म एक छोटे से ग्राम तेन्दुवा में एक साधारण किसान  पंडित गोपाल प्रसाद उपाध्याय के घर माता ललिता बाई के गर्भ से 23 जून 1927 को हुआ । आप अपने माता-पिता के केवल एक अकेले संतान थे । आपके परिवार के संस्कारित एवं धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण आपके बाल्यकाल पर परिवार का पूरा प्रभाव पड़ा ।  इस कारण आप बाल्यकाल से ही सामाजिक, धार्मिक एवं राश्ट्रीय संवेदनाओं से पूरित रहे जिसकी परिणीति आपके स्वतंत्रता सेनानी होना रहा ।
आपकी प्रारंभिक शिक्षा ग्राम-पुरान तह. मुंगेली जिला-बिलासपुर में हुआ ।  आपके पिता पंड़ित होने के कारण आपको धार्मिक एवं संस्कृत की शिक्षा के लिये संस्कृत पाठशाला दुग्धाधारी, रायपुर में आपको प्रवेश दिलाया ।  जहां आप पूरे लगन से संस्कृत एवं संस्कृति की शिक्षा दुग्धाधरी मठ में रह कर करने लगे ।
आपके किशोरा अवस्था लगभग 15 वर्ष की आयु में देश में महात्मा गांधी द्वारा ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो‘ का आव्हान किया गया जिसका पूरे देश के साथ-साथ छत्तीसगढ़ में भी व्यापक प्रभाव पड़ा । इस प्रभाव से बालक भागवत प्रसाद भी अछूते नहीं रहे ।  उनके कोमल मन मस्तिष्क में माँ भारती को दासता से मुक्त कराने की कल्पना साकार होने लगा । मन ही मन मातृभूमि के लिये मर-मिटने की प्रतिज्ञा कर आजादी के आंदोलन में कूद पड़े ।
किशोर भागवत उपाध्यायजी दुग्धाधारी मठ में रहते हुये अपने सहपाठियों के साथ स्कूल-स्कूल विद्यार्थीयों से संपर्क बढ़ाते हुये एक टोली बना लिये । जिसके माध्यम से रायपुर के गलियों में हाथों में तख्ती, झंड़ा लेकर अपने ओजस्वी उद्बोधन से गांधी जी के आव्हान अंग्रेजों भारत छोड़ो को बुलंद करने लगे । छत्तीसगढ़ में ‘भारत छोड़ो आंदोलन‘ को कुचलने के लिये गोरी अंग्रेज पुलिस ने दमन चक्र चलाया और आंदोलन के शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया । यह आंदोलन इतना सुदृढ़ था का नेतृत्व का संकट नही आया और तुरंत दूसरे कतार के नेता आंदोलन के नेतृत्व करने लगे ।
श्री केयुर भूषण, मोतीलाल त्रिपाढ़ी, मिश्राजी आदि देशभक्तों ने आंदोलन का कमान अपने हाथों में ले लिये, इन्ही नेतृत्व के साथ भागवत प्रसाद उपाध्यायजी अपने सहपाठियों और मातृभूमि के प्रति समर्पित साथियों श्री दीनबन्धु, श्री गजाधर, श्री बिसाहू राम, श्री चेतन प्रसाद, श्री हर प्रसाद द्विवेदी, श्री विष्णु प्रसाद श्री चिंताराम द्विवेदी जैसे सैकड़ो स्वप्राण अर्पित करने वालों ने एक साथ अंग्रेजों, भारत छोड़ो के नारे से अंग्रेजों को ललकारने लगे ।  इस आंदोलन की तीव्रता इतनी अधिक थी इन नन्हे सेनानियों से अंग्रेज दहलने लगे ।
27 सितम्बर 1942 को कालीबाड़ी चौंक में प्रदर्शन कर रहे इन नन्हे सेनानियों के नेतृत्व कर रहे भागवत प्रसाद उपाध्याय सहित अन्य 22 विद्यार्थियों को भयभीत अंग्रेज पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया । इन बच्चों पर मुकदमा चलाते हुये इन्हे 6 माह की सजा सुनाई गई । इस प्रकार भागवत प्रसादजी को उनके मित्रों के साथ रायपुर जेल में बंद कर दिया गया ।
करावास अवधी में जेल के अंदर ही सभी सेनानी माँ भारती के चरणों में प्राण उत्सर्ग करने ललायित रहे ।  इस अवधि में किसी भी समय अपने उत्साह को कमजोर नही पड़ने दिये ।  इसी की परिणिती रही कि 20 मार्च 1943 को जेल से रिहा होने के पश्चात उपाध्यायजी पुनः दुगूने उत्साह के साथ इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते हुये मित्रों, सहपाठियों एवं ग्रामिणों को अपने ओजस्वी उद्बोधनों से प्रेरित करते रहे और आंदोलन को गति देते रहे ।
इस बीच उपाध्यायजी का रायपुर में शिक्षा पूर्ण हो गया और आगे की शिक्षा के लिये उन्हे नागपुर जाना पड़ा ।  भारी मन से उपाध्यायजी रायपुर छोड़कर 1945 में नागपुर चले गये किन्तु वह अपने अंतस में धधक रहे आग को कमजोर नही पड़ने दिये । नये स्थान में नये मित्रों के साथ स्वतंत्रता आंदोलन के अभिन्न अंग बने रहे । अब तक युवा हो चले उपाध्यायजी नागपुर के गलियों-कूचों में स्वतंत्रता आंदोलन के धधक को प्रज्जवलित करते रहे । श्री उपाध्यायजी जैसे देश के असंख्य आंदोलनकारियों के परिश्रम के फलस्वरूप अंत्वोगत्वा 15 अगस्त 1947 को देश आजादा हो गया ।
आजादी के पश्चात महाकैशल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के द्वारा इन सेनानियों का सम्मान किया गया । कांग्रेस कमेटी के सभापति श्री गोंविन्ददासजी के द्वारा श्री भागवतप्रसाद उपाध्याय को प्रशस्ती पत्र के रूप में ताम्रपत्र प्रदान किया गया । 15 अगस्त 1972 को तत्कालिन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा उपाध्यायजी के अविस्मरणीय योगदान के लिये कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से ताम्रपत्र प्रदान किया गया । सरकार द्वारा आपको स्वतंत्रता सेनानी सम्मान निधि प्रदान किया गया ।
आजादी के पश्चात अब इन सेनानियों का कर्तव्य था कि देश का नवनिर्माण किया जाये । देश में समरसता लाते हुये देश का समग्र विकास किया जाये ।  इस दिशा में उपाध्यायजी पूरे मनोवेग से लग गये और अपने जन्मस्थली तेंदुवा में आकर सामाजिक दायित्व का निर्वहन करने लगे ।  इसी बीच देश में पंचायती राज व्वस्था लागू की गई ।  श्री उपाध्याय ग्राम पंचतायत तेन्दुवा के निर्विरोध प्रथम सरपंच निर्वाचित हुये ।
सरपंच रहते हुये ग्राम पंचायत के सर्वागिण विकास में अपनी महती योगदान दिये जिसके परिणाम स्वरूप पुनः ग्राम पंचायत के निर्विरोध सरपंच निर्वाचित हुये । जनजागृति लाने एवं शिक्षा का अलख जगाते हुये आपने अपनी सामाजिक दायित्व का निर्वहन करते रहे । 23 अगस्त 1992 को हृदयगति रूक जाने के कारण आप इस दुनिया को छोड़कर चले गये ।   आपने अपने पीछे चार पुत्र एवं पांच पुत्रियों का भरापूरा परिवार के अतिरिक्त समर्पण एवं त्याग का यश पताका छोड़ गये, जो आज तक खुले गगन में लहरा रहा है ।
आपके योगदान को चिरस्थयी बनाने के लिये आपके स्परण में शसकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय संबलपुर का नामकरण आपके नाम से ‘पं. भागवत प्रसाद उपाध्याय शा.उ.मा.वि. संबलपुर रखा गया है ।  आपके अविस्परणिय योगदान के लिये छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा 2009 में ‘छत्तीसगढ़ गौरव योजना‘ के तहत आपके जन्मस्थली ग्राम तेन्दुवा के सर्वागिण विकास का संकल्प लिया गया ।
जिस प्रकार माता-पिता का ऋण आजीवन नही चुकाया जा सकता उसी प्रकार देश के इन अमर सेनानियों का कर्ज भी नही चुकाया जा सकता ।  उन समस्त वीर अमर शहीद सेनानियों के साथ श्री भागवत प्रसाद उपाध्याय को समूचा राष्ट्र सदैव नमन करता रहेगा ।




शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

तीज-त्यौहारः भैया दूज

तीज-त्यौहारः भैया दूज




तीज-त्यौहार हमारी संस्कृति का आधार स्तंभ है । हर खुशी, हर प्रसंग, हर संबंध, जड़-चेतन के लिये कोई ना कोई पर्व निश्चित है । छत्तीसगढ़ में हर अवसर के लिये कोई ना कोई पर्व है । खुशी का पर्व हरियाली या हरेली, दीपावली, होली आदि, संबंध का पर्व करवा-चौथ, तीजा-पोला, रक्षा बंधन आदि, जड़-चेतन के लिये वट-सावित्री, नाग-पंचमी आदि । छत्तीसगढ़ हिन्दी वर्ष के बारहवों माह में कोई ना कोई पर्व उल्लेखित है -

मोर छत्तीसगढ़ मा, साल भर तिहार हे
लगे जइसे दाई हा, करे गा सिंगार हे।

(अर्थात छत्तीसगढ़ में वर्ष के प्रत्येक माह में कोई ना कोई त्यौहार होता है, इन त्यौहारों से ही छत्तीसगढ़ की मातृभूमि मां के रूप  में इन त्यौहारों से ही अपना श्रृंगार करती हैं ।)

 संबंध के पर्व में पति के लिये वट-सावित्री, करवा-चौथ, तीजा (हरितालिका) आदि, पुत्र के लिये हल षष्ठी प्रसिद्ध है, इसी कड़ी में भाई-बहन के लिये दो त्यौहार प्रचलित है ।  एक रक्षा बंधन एवं दूसरा भैया दूज, ‘भैया-दूज‘ छत्तीसगढ़ में ‘भाई-दूज‘ के नाम से प्रचलित है ।
बाल्यकाल के शरारत एवं मस्ती के साथी भाई-बहन होते हैं ।  बाल्यकाल से ही एक-दूसरे के प्रति स्नेह रखते हैं । इस स्नेह का प्रदर्शन दो अवसरो पर करते रक्षा-बंधन एवं भाई-दूज पर । ऐसे तो ये दोनों पर्व प्रत्येक आयु वर्ग के भाई-बहनों द्वारा मनाया जाता है किन्तु व्यवहारिक रूप से देखने को मिलता है कि रक्षा- बंधन के प्रति छोटे आयु वर्ग के भाई-बहन अधिक उत्साह रखते हैं जबकि भाई-दूज के प्रति बड़े आयु वर्ग द्वारा अधिक उत्साह देखा गया है । दृष्टव्य है -

ये राखी तिहार,
लागथे अब,
आवय नान्हे नान्हे मन के ।
भेजय राखी,
संग मा रोरी,
दाई माई लिफाफा मा भर के ।
माथा लगालेबे,
तै रोरी भइया,
बांध लेबे राखी मोला सुर कर के ।
नई जा सकंव,
मैं हर मइके,
ना आवस तहू तन के ।
सुख के ससुरार भइया
दुख के मइके,
रखबे राखी के लाज
जब मैं आहंव आंसू धर के ।

(अर्थात राखी का त्यौहार केवल बच्चों का लगने लगा हैं क्योंकि  बहने इस दिन अपने भाई को राखी बांधने नही जा पाती ।  बहनें लिफाफे में राखी एवं रोरी भर कर भाई को भेज देती हैं और कहती हैं-भैया मुझे याद कर रोरी लगा कर अपने कलाई में राखी बांध लेना ।  मैं तो महिला अबला हूं मैं मायके नहीं जा पाई किंतु आप पुरूश होकर भी उत्साह के साथ मेरे ससुराल नही आये ।  भैया सुख में मेरा ससुराल ही हैं किन्तु दुख में मायका है, यदि किसी कारण वष मैं दुख में मयाके आ गई तो मेरा देख-भाल कर लेना ।)

भाई-दूज का पर्व दीपावली के दो दिन बाद कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के द्वितीय तिथि को मनाया जाता है । छत्तीसगढ़ में भी अन्य राज्यों की भांति यह पर्व हर्ष उल्लास के साथ मनाया जाता है ।  इस पर्व में बहने अपने भाई के आनंदमयी दीर्घायु जीवन की कामना करतीं हैं ।  इस दिन बहने भाई के लिये स्वादिष्ट एवं अपने भाई के पसंद का पकवान बनाती हैं । भाई अपने हर काम को छोड़कर इस दिन अपनी बहन के यहां जाते हैं ।  इस दिन बहन अपने भाई के माथे पर रोरी तिलक लगाती फिर पूजा अर्चन कर अपने हाथ से एक निवाला खिलातीं हैं ।  भाई भोजन करने के उपरांत बहन की रक्षा का शपथ करता है फिर सगुन के तौर पर कोई ना कोई उपहार अपनी बहन को भेट करता है ।

भाई-दूज के संबंध में एक कथा प्रचलित है -भगवान सूर्य नारायण की पत्नी का नाम छाया था। उनकी कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ था। यमुना यमराज से बड़ा स्नेह करती थी। वह उससे बराबर निवेदन करती कि इष्ट मित्रों सहित उसके घर आकर भोजन करे ।  अपने कार्य में व्यस्त यमराज बात को टालता रहा। कार्तिक शुक्ल द्वितिया का दिन आया ।   यमुना ने उस दिन फिर यमराज को भोजन के लिए निमंत्रण देकर, उसे अपने घर आने के लिए वचनबद्ध कर लिया। यमराज ने सोचा कि मैं तो प्राणों को हरने वाला हूं। मुझे कोई भी अपने घर नहीं बुलाना चाहता। बहन जिस सद्भावना से मुझे बुला रही है, उसका पालन करना मेरा धर्म है। बहन के घर आते समय यमराज ने नरक निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया ।  यमराज को अपने घर आया देखकर यमुना की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने स्नान कर पूजन करके व्यंजन परोसकर भोजन कराया ।  यमुना द्वारा किए गए आतिथ्य से यमराज ने प्रसन्न होकर बहन को वर मांगने का आदेश दिया।

यमुना ने कहा कि भद्र! आप प्रति वर्ष इसी दिन मेरे घर आया करो ।  मेरी तरह जो बहन इस दिन अपने भाई को आदर सत्कार करके टीका करे, उसे तुम्हारा भय न रहे। यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमलोक की राह की ।   इसी दिन से पर्व की परम्परा बनी। ऐसी मान्यता है कि जो आतिथ्य स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता। इसीलिए भैयादूज को यमराज तथा यमुना का पूजन किया जाता है।
उपरोक्त कथा के आधार पर ऐसा माना जाता है कि भाई-दूज के दिन यदि भाई-बहन एक साथ यमुना नदी में स्नान करते है तो उनके पाप का क्षय होता है ।  भाई-बहन दीर्घायु होते हैं, उन्हें यमराज का आशीष प्राप्त होता है ।

भाई-दूज का त्यौहार हमारे भारतीय चिंतन का प्रतिक है, जिसमें प्रत्येक संबंध को मधुर बनाने, एक-दूजे के प्रति त्याग करने का संदेश निहित है । हमारे छत्तीसगढ़ में केवल सहोदर भाई-बहनों के मध्य ही यह पर्व नही मनाया जाता अपितु चचेरी, ममेरी, फूफेरी बहनों के अतिरिक्त जातीय बंधन को तोड़कर मुहबोली बहन, शपथ पूर्वक मित्रता स्वीकार किये हुये  (मितान, भोजली, महाप्रसाद आदि)  संबंधों का निर्वहन किया जाता है । हमारे छत्तीसगढ़ में यह पर्व सर्वधर्म सौहाद्रर्य के रूप में भी दिखाई देता है, कई हिन्दू बहने मुस्लिम को भाई के रूप में स्वीकार कर भाई-दूज मनाती है तो वहीं कई मुस्लीम बहने हिन्दू भाई को स्नेह पूर्वक भोजन करा कर इस पर्व को मनाती है ।
इस प्रकार आज के संदर्भ में यह पर्व केवल पौराणिक महत्व को ही प्रतिपादित नहीं करता अपितु यह सामाज में सौहाद्रर्य स्थापित करने में भी मददगार है, जो आज के सामाज की आवश्यकता भी है ।

-रमेश कुमार चौहान
मिश्रापारा, नवागढ़
जिला-बेमेतरा
मो.9977069545

मंगलवार, 23 मई 2017

‘स्वच्छता के निहितार्थ एवं व्यवहारिक पक्ष‘‘


‘स्वच्छता के निहितार्थ एवं व्यवहारिक पक्ष‘‘



भारत के प्राचीन संस्कृति सदैव सामाजिक सारोकार से जुड़ी रही किन्तु आधुनिकता के अंधी दौड़ में व्यक्तिनिष्ठ जीवनषैली का विकास होने लगा सामाज के प्रति सामूहिक दायित्व क्षीण प्रतित होने लगा ।  जहां पहले सामाजिक सरोकार व्यक्ति-व्यक्ति के मनो-मस्तिश्क में था वहीं अब सामाजिक दायित्व कुछ सामाजिक संगठन  एवं राज्य तथा केन्द्र सरकार के कंधो पर प्रतित होने लगा । ‘स्वच्छता‘ एक मानसिक संस्कृति है न कि कोई प्रायोजित अभियान ।  भारत के प्राचीन ग्रामिण परिवेष का अध्ययन करें तो पता चलता है ‘स्वच्छता‘ ग्रामीण जीवन शैली का अभिन्न अंग रहा है । गांव में जीवन का शुरूवात ही सूर्योदय के साथ सफाई से हुआ करता था ।  प्रत्येक घर के महिलाएं अपने-अपने धरों के साथ-साथ गलियों की भी सफाई किया करती थीं । गोबर पानी से गलियों में छिटा देना यही वह संस्कृति है ।  अपने घर के कुड़े करकट को प्रतिदिन इक्ठठा कर गांव के बाहर घुरवा (कुड़े का गड्डा) में इकत्र कर खाद बनाया करते थे । प्रत्येक घर में यह कार्य होने से गांव की सफाई प्रतिदिन स्वभाविक रूप से हो जाया करती थी ।
खुले में शौच को कभी भी कुसंस्कृति अथवा गंदगी के कारक के रूप में नही देखा गया जैसे आज प्रचारित किया जा रहा है । इससे प्रश्न उठता है कि क्या हमारे पूर्वज इस बात से अनजान थे अथवा आज के परिस्थिति में खुले में शौच गंदगी का कारण है ? दोनों परिस्थिति पर दृष्टिपात किया जाये तो एक बात स्पष्ट होता है यह परिस्थिति जन्य है पहले प्रत्येक गांव में एकाधिक तालाब हुआ करते थे तालाब से लगे विषाल खाली भू-भाग हुआ करता था । गांव में चिन्हाकित उस स्थल पर ही गांव के लोग शौच के लिये जाया करते थे ।  गांव के पास अत्र-तत्र शौच की प्रथा नही थी । इससे गांव में गंदगी नही होता था किन्तु आज भूमि के अनाधिकृत कब्जा (बेजाकब्जा) से गांव में खुले में वह स्थान नही बच पाया जिससे गांव के समीप सड़क किनारे गलियों पर लोग शौच के लिये जाने लगे जिससे गंदगी होना स्वभाविक है ।
वर्तमान परिदृश्य से ऐसा लग रहा मानो स्वच्छता का अभिप्राय केवल शौचालय का उपयोग करना मात्र है ।  केवल खुले में शौच मुक्त गांव होने से गांव गंदगी मुक्त हो जायेगा ।  शौचलय स्वच्छता का एक अंग है न कि  एक मात्र अंग ।  आज गांव के समुचित स्वचछता पर ध्यान न देकर केवल शौचलय पर जोर देना स्वच्छता संस्कृति को पंगु कर रहा है ।  खुले में शौचमुक्त गांव-षहर बनाने के फेर में यह ध्यान नही दिया जा रहा है कि शौचालय का बनावट कैसे हो उसके ओवरफ्लो का निस्तारी कैसे हो, शौचालय प्रयोग करते समय पानी की व्यवस्था कैसे हो ? इस भीष्ण गर्मी एवं दुश्काल में पानी की व्यवस्थ कहां से हो ? इन बातों पर चिंतन किये बैगर केवल येन-केन प्रकार से शौचालय निर्माण किया जा रहा है । शौचालय निर्माण बाध्यकारी प्रतित होने पर ही ऐसे हो रहा न कि सामाजिक जाग्ररूकता के कारण ।  शौचालय निर्माण के अतिरिक्त सफाई के नाम पर कोई कार्य नही हो रहा है ।  गांव के नालियों में गंदगी अटा पड़ा है ।  लोग गलियों में कुड़े करकट आबाद गति से फेक रहे हैं, इस पर कोई अंकुष नही है । अधिकांष लोग काम चलाऊ शौचलय सड़क किनारे, गली पर ही बना रहे है जिससे उनके शौचालय से प्रवाहित पानी गली पर ही बह रहा है । शौचालय के नाम पर गलियों अतिक्रमण हो रहा है सो अलग ।
गांव-नगर की समुचित सफाई व्यवस्था की आवष्यकता है । यह उद्देष्य केवल प्रशासनिक ईकाईयों द्वारा पूरा करना तब तक संभव नही जब तक आम व्यक्ति सफाई संस्कृति को जीवन में अपनायेंगे नहीं ।  समाज में सामाजिक सरोकार से हर व्यक्ति को जुड़ने की आवष्यकता है । कई ईकाईयों द्वारा खुले में शौच पर दण्ड़ के प्रावधान किये गये है । प्रश्न उठता है अन्य गंदगी हेतु दण्ड़ की व्यवस्था क्यों नही ? उस व्यक्ति के प्रति, उस संस्थान के प्रति जो गंदगी फैला रहे हैं ।  यह भी प्रश्न उठता है उस प्रषासनिक ईकाई पर दण्ड क्यों नही जो गांव-नगर की नियमित सफाई में असफल सिद्ध हो रहे हैं ।  हर व्यक्ति, हर संस्था हर ईकाई के दायित्व निर्धारित करना होगा कि वे गंदगी न करें । तभी गंदगी दैत्य को पराजित कर पाना संभव है ।  जब तक लोगों में व्यक्तिवाद रहेगा, सामाजिक दायित्व से दूर रहेंगे तब तक यह संभव नही है । कुछ लोंगो में यह सोच विकसित हो रहा है जो भविष्य को आशान्वित करता है ।

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