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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

बुधवार, 18 जुलाई 2018

विमुक्त जाति-देवार का दर्द (साक्षात्कार पर आधारित शोध आलेख)


देवार का दर्द

(साक्षात्कार पर आधारित शोध आलेख)
-रमेशकुमार सिंह चौहान
मैं प्रतिदिन पौ फटने के पूर्व  सैर करने जाता हूँ सैर करने जाते समय प्रतिदिन मैं कुछ बच्चों को देखता -इन बच्चों पर कुछ कुत्ते भौंकते और ये बच्चे वहां से किसी तरह कुत्तों को हकालते-भगाते  स्वयं भागते बचकर निकलते और सड़क किनारे पड़े कूड़े-कर्कट से अपने लिये कुछ उपयोगी कबाड़ एकत्रित करते   इन बच्चों में 6 वर्ष से 13 वर्ष तक के लड़के-लड़कियां हुआ करती हैं यह घटना कमोबेश आज भी प्रतिदिन घट रही हैं   एक दिन मैंने सोचा कि इन बच्चों से बात करूँ, इन लोगों से पूछूँ ये बच्चे स्कूल जाते भी हैं कि नहीं ? मैंने बच्चों के सामने जा कर कुछ पूछना ही चाहा कि वे सारे बच्चे उसी प्रकार भाग खड़ हुये जैसे ये कुत्तों के भौंकने से भाग खड़े होते हैं तब से ये बच्चे मुझे देखकर दूर से चले जाते कोई पास ही नहीं आता   एक दिन करीब 12 वर्ष की एक लड़की जो बच्चों के उस समूह से कुछ दूरी पर कबाड़ चुन रही थी  उनके सामने मैंने अपना प्रश्न दाग ही दिया-
बिटिया, क्या पढ़ती हो ?
उसने सहजता से जवाब दिया- मैं नहीं पढ़ती
मतलब तुम स्कूल नहीं जाती -मैंने आश्चर्य से पूछा
उसने उतनी ही सहजता से जवाब दिया- नहीं, मैं स्कूल नहीं जाती
फिर मैंने पूछा-‘ये सारे बच्चे ?‘
उसने जवाब नहीं में दिया -इनमें से कोई स्कूल नहीं जाते
मैंने पूछा- क्यों ???
जवाब आया- हमलोग देवार हैं साहब !
तो क्या हुआ ?  क्या देवारों को स्कूल जाना वर्जित है या स्कूल वाले मना करते हैं ?
नहीं साहब, स्कूल वाले मना नहीं करते बल्कि इनमें से कुछ बच्चों का नाम स्कूल में दर्ज है
तो फिर क्यों स्कूल नहीं जाते आप लोग ?
इस काम से पैसा जो मिलता है साहब
क्या तुम्हारे माँ-बाप तुमलोगों को स्कूल जाने नहीं कहते ?
नहीं
            मैंने सोचा इन बच्चों के माँ-बाप से जाकर बात किया जाये इस काम के लिये मैंने अपने एक पत्रकार मित्र से चर्चा की उसने साथ जाना स्वीकार किया कोई तीन दिन के योजना पश्चात हम दोनों का उनके निवास स्थलदेवार डेराजाना तय हुआ   मैंने उस समुदाय के एक लड़के जो कबाड़ बेचने जा रहा था, से बात किया आप लोगों के परिवार के मुखिया अभी घर पर मिलेंगे क्या ? उसने प्रति प्रश्न पूछा क्या काम है ? कबाड़ी का काम करना है क्या ? यदि कबाड़ी का काम करना है तो मैं ही बता दूँगा   मैंने कहा नहीं भाई मुझे कबाड़ी का काम नहीं करना है मैं आपलोगों के जाति, इतिहास और बच्चों के संबंध में बात करना चाहता हूँ वह लड़का चहक उठा शायद उसे लगा कि कोई तो है जो हमारे विषय में बात करना चाहता है वह खुद से कहने लगा चलो मैं आपको ले चलता हूँ मैंने कहा बेटा तू निकल मैं अपने मित्र के साथ रहा हूँ मैंने अपने पत्रकार मित्र को सूचित किया फिर हम दोनों उनके निवास स्थल की ओर निकल पड़े देवार डेरा कस्बे से लगभग 1.5 किमी की दूरी पर कस्बे से बाहर स्थित था पिछली रात को कुछ बारिश हुई थी इसलिये कच्चे मार्ग पर कीचड़ पसरा था   जैसे-तैसे हम दोनों वहां तक पहुँचे हमने वहां पहुँच कर देखा वह लड़का जिससे मेरी बातचीत हुई थी वह अपने बड़े-बुजुर्गों को एकत्रित कर लिया था   सभी हमारे लिये प्रतीक्षारत थे उन लोगों ने दो कुर्सी की व्यवस्था कर हम लोगों को बैठने का आग्रह किया कुर्सी देखकर लग रहा था कि कबाड़ का है   लग ही नहीं रहा था, था कबाड़ का ही   हम लोग चर्चा शुरू करते इनसे पूर्व ही वे लोग अपनी समस्याएं हमें बताने लगे   शायद उन लोंगो को लग रहा था कि हम लोग कोई सरकारी कर्मचारी हैं जो सरकारी दायित्व पूरा करने आये हैं   मित्र ने बतलाया कि हम लोग पत्रकार लेखक हैं, आप लोंगो से कुछ बातचीत करने आये हैं चर्चा की शुरूआत मेरे मित्र ने की उनमें से जो सबसे बुजुर्ग लग रहा था उनसे उन्होंने पूछा-

आपका क्या नाम है ?
परमसुख
यहां कब से रह रहो हो ?
तीस-चालीस वर्ष से
इससे पहले कहां रहते थे ?
कवर्धा में
क्या आपके पूर्वज कवर्धा में ही रहते थे ?
नहीं साहब, रायगढ़ में
तो यहां कैसे आना हुआ ?
तीस-चालीस साल पहले यहां एक गाँव से दूसरे गाँव भीख मांगते हुये आये पंचायत ने यहां डेरा लगाने के लिये स्थान दे दिया तब से यहीं रह रहे हैं किन्तु साहब इन तीस वर्षों में दर्जनों स्थान से हमारा डेरा हटवाते रहे
इसी बीच मैंने पूछा- मैंने सुना है आपके पूर्वज एक स्थान पर नहीं रहते थे ?
हाँ, साहब हमारे बुर्जुग गाँव-गाँव घूमा करते थे
घूम-घुम कर क्या करथे थे ?
यही कबाड़ी का काम करते थे
पहले तो कबाड़ी का काम आज के जैसे तो नहीं चलता रहा होगा ?  फिर ये लोग क्या करते थे ?
गोदना गोदते थे
ये काम तो आप लोगों की महिलाएं करती हैं ना ?
हां, महिलाएं करती थीं, अब ये काम कहां चलता है साहब
और पुरूष लोग क्या करते थे ?
हम लोग चिकारा बजाकर गीत गा-गाकर भीख मांगते थे
क्या कोई विशेष गीत गाते थे ?
ओडनिन-ओड़िया का
क्या अभी भी गाते हो ?
नहीं, हम लोग पहले जैसे घर-घर जाकर नहीं गाते कभी-कभार अपने डेरा में गुनगुना लेते हैं, किन्तु हमारे समाज के रेखा देवार, चिंताराम देवार आदि गातें हैं, जो रेडियो, टी.वी. में भी प्रसारित होता है
और क्या काम करते थे ?
नाचते थे ?
महिलाएं भी ?
महिलाएं ही नाचती थीं
घर की सभी बहू-बेटी ?
हाँ-हाँ, घर की बहू-बेटी सभी
आज भी ये नाचती हैं क्या ?
जिसके माँ-बहन नाची हों उसकी बेटियां नहीं नाचेंगी साहब ? तो और क्या करेंगी ? नाचतीं है साहब आज भी नाचती हैं सांस्कृतिक कार्यक्रम के रंगमंचों पर हमारी लड़कियां नाचने जाती हैं
पास में खड़े बच्चों की ओर इंगित करते हुये मित्र ने पूछा-ये बच्चे स्कूल जाते हैं ?
पास में खड़ा एक दूसरे व्यक्ति ने जवाब दिया- नहीं जाते सरजी
क्यों नहीं जाते ?
उसने झल्लाते हुये जवाब दिया-नहीं जाते
मैंने पूछा- क्या स्कूल वाले दाखिला नहीं लेते ?
लेते हैं सरजी, कुछ का नाम भी लिखा है
तो फिर बच्चे स्कूल क्यों नहीं जाते
इस बीच एक तीसरे व्यक्ति ने जवाब दिया-सड़क में कुछ लोग दारू पीकर गाड़ी चलाते हैं इस डर से हम अपने बच्चों को स्कूल नही भेजते इसी बीच एक अन्य ने जवाब दिया हम अपने बच्चों को दुकान तक नही भेजते
मित्र ने कहा- इन बच्चों को तो हम प्रतिदिन सुबह सड़क किनारे कबाड़ चुनते हुये देखते हैं
मैंने भी सहमति जताते हुये कहा- आखिर ये लोग तो घर से बाहर जाते ही हैं
इसी बीच एक अन्य युवक ने बात काटते हुये कहा- ‘‘असली बात ये है सरजी, इन बच्चों को बचपन से खाने-पीने का आदत पड़ गयी है ये बच्चे लोग प्रतिदिन चालीस-पच्चास रूपये कमा लेते हैं अपने खाने-पीने के लिये ’’
मित्र ने कहां- आप लोग तो अपने ही कथन को झूठला रहे हो   जब इस कबाड़ के व्यवसाय में बच्चे इतने कमा लेते हैं तो आप लोगों की आमदानी भी ठीक-ठाक होगा फिर आप लोग अपना रहन-सहन, घर-द्वार को क्यों नहीं सुधारते ?
युवक ने जवाब दिया- हम लोगों को एक बुरा लत है हम लोग दारू पीते हैं
इस लत में सुधार करना चाहिये ना ?
 ‘‘ ये पढ़ाई-लिखाई, दारू-वारू की बातें छोड़ो हम लोगों की समस्या देखो और जो आपसे जो बन पड़ता हो करो ’’  एक अन्य युवक ने कर्कश आवाज में कहा
इसी बीच एक और दूसरा युवक अपने हाथ में मोबाइल लेकर सीधे मेरे पत्रकार मित्र के सम्मुख आकर मोबाइल से फोटो दिखाते हुये कहने लगा -इसको पेपर में जरूर छापना देखो हम लोगों का हाल पूरा डेरा पानी में डूबा है उनके दखल से आप लोगों के बातचीत में विघ्न पड़ गया किन्तु उनके चित्र ने हम दोनों को उसे देखने पर जरूर विवश कर दिया   मित्र ने मुझसे कहा, इस फोटो का अपने मोबाइल में ले लो मैंने देखा फोटो साफ नहीं आया था क्योंकि उनका मोबाइल का कैमरा उचित क्वालिटी का नहीं था   मैंने कहा ये फोटो सही नहीं आया है चलो दूसरा ले लेते हैं   अभी तक हम लोग उनके डेरे के समीप मैदान पर थे फोटो लेने के लिये उनके डेरे के समीप जाते हुये हमने पाया कि उन लोगों के डेरे ढलान पर है, जहां वर्षा का पानी बह रहा है समीप पहुँचाने पर हमने पाया कि घास-फूस से बने हुये छोटी-छोटी झोपड़ीयां हैं, झोपडी़ के बाहर टूटी-फूटी सायकल, कुछ बर्तन, कुछ कबाड़ बेतरतीब तरीके से बिखरे हुये हैं, पास ही कुछ सूअर के बच्चे भी हैं सभी डेरों तक पानी भरा हुआ है डेरे तक जाने के लिये केवल और केवल पानी और कीचड़ का ही एक मात्र रास्ता था   कुछ डेरों के अंदर तक पानी घुस आया है   डेरों से महिलायें बताने लगी कि अभी तो बरसात शुरू ही हुआ है, तो हम लोगों का ये हाल है अभी तो पूरी वर्षा शेष है राम जाने आगे क्या होगा ?  एक युवक ने कहा- ये स्थिति देखिये सरजी यही स्थिति रहा तो हैजा आदि बीमारी से हम में से कुछ लोग जरूर मर जायेंगे यह दशा देखकर हम लोगों के तन मन में एक सिहरन पैदा हो गई   वो लोग कहने लगे देख लो साहब हम इस दलदल में रहने मजबूर हैं   इस दशा को देखकर जवाब देने के लिये के हमारे पास कोई शब्द ही नही थे ना ही आगे कुछ पूछने के लिये ही   हमने उस भयावह दृश्य को अपने मोबाइल कैमरे में कैद कर वापस आना ही उचित समझा
उक्त साक्षात्कार का चिंतन करते हुये मैने प्राथमिक निष्कर्ष के रूप में पाया कि - ‘‘इन लोगों की स्थिति ठीक उसी प्रकार है जैसे कोई रोगी रोग से मुक्त तो होना चाहता है किन्तु उपचार के लिये औषधि उपलब्ध ना हो और औषधि उपलब्ध होने पर भी औषधि सेवन नहीं करना चाहता ’’
एक सभ्य समाज की प्राथमिक आवश्यकता जीवन जीने की स्वतंत्रता है, किन्तु यह स्वतंत्रता तभी संभव है जब समाज में समानता हो यह समानता एक हाथ से बजने वाली ताली नहीं है भारत की आजादी के पश्चात भी सामाजिक समानता का असार अभी दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है भारतीय इतिहास की केन्द्रिय विषय-वस्तु एवं वर्तमान समस्याओं का मूलजाति  ही है   धर्म, वर्ण, जाति लोकतंत्र में राजनेताओं का हथियार बन चुका है   विभिन्न सरकारों द्वारा विभिन्न जाति समुदाय जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति बनाकर इन जातियों के जीवनशैली में परिवर्तन करने का सतत् प्रयास किया जा रहा है, चाहे वह केवल वोट बैंक के लिये ही क्यो ना हो    किन्तु इन जातियों के बीच एक ऐसी वंचित उपेक्षित जाति बची रह गयी जिन्हें इनमें से किसी वर्ग में नहीं रखा गया है यदि किसी राज्य में रखा भी गया तो भी ये लोग उन सुविधाओं से वंचित ही हैं ऐसे वंचित समाज को आज हम विमुक्त जाति कहते हैं   विमुक्त जाति आज भी समाज के मुख्यधारा से अछूती रह गयी हैं   ऐसा नही है कि किसी सरकार द्वारा विमुक्त जाति के लिये कुछ भी नहीं किया गया है, किया गया है किन्तु जो भी हुआ है वह-नगण्य है
विमुक्त जातियां उन कबिलों और समुदाय को कहा जाता है जिसे 1952 के पूर्व अपराधी प्रवृत्ति की जातियां कहा जाता था अंग्रेजी शासन के समय 1871 के अधिनियम के अनुसार कुछ जातियों की सूची बनाई गई, जिसे अपराधशील जाति की संज्ञा दी गई, इन जातियों को अपराधी प्रवृत्ति का माना गया देशा की आजादी पश्चात 31 अगस्त 1952 को इस सूची को असम्बद्ध सूची करते हुये इन्हे नई संज्ञा दी गई -विमुक्त जाति  
इसी विमुक्त जाति में एक जाति है देवार देवार भारत की एक घुमंतु जनजाति है। यह मुख्यतः छत्तीसगढ़ में पायी जाती है। ये प्रायः गाँवों के बाहर तालाब, नदी या नहर के किनारे अपने अस्थायी निवास बनाते हैं। देवार स्वयं को गोंड जनजाति की ही एक उपजाति मानते हैं। संभवतः देवी की पूजा करने के कारण ही इन्हें देवार कहा गया हो, ऐसा कई विद्वान भी मानते हैं। परन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि- दिया जलाने वाले से देवार शब्द की उत्पत्ति हुई हैं। कहा जाता है कि- ये लोग टोना-टोटका आदि के लिए दिया जलाते थे   पश्चिमी विद्वान स्टीफन कुक्स इन्हें भूमियां जनजाति से विकसित एक अलग जातीय समुदाय मानते हैं परन्तु ये स्वयं ऐसा नहीं मानते। 
छत्तीसगढ़ की जनजातियां और जातियां ग्रन्थ में डॉ संजय अलंग लिखते हैं -‘‘देवार जाति का मुख्य कार्य व्यवसाय भिक्षा मांगना है   ये लोग सुअर भी पालते हैं   इस जाति की महिलाएं हस्तशिल्प में गोदना गोदने में निपुण होती हैं   यह उनका व्यवसाय है   छत्तीसगढ़ के लोग उनसे गोदना गुदवातें हैं, जो यहां जनजातियों एवं जाति के स्थाई आभूषण या गहना माना जाता है देवार लोग अत्यधिक गरीब हैं यह लोग छत्तीसगढ़ के समस्त क्षेत्र में हैं रायपुर संभाग में इनका संकेन्द्रण अधिक हैं देवार लोग हिन्दू धर्म के वैष्णव को मानने वाले हैं   हिन्दू देवी-देवाताओं के पूजा करते हैं और हिन्दू त्यौहारों को मानते हैं ।’’
गुरतुगोठ’ के संपादक श्री संजीव तिवारी लिखते है कि- ‘‘वाचिक परम्परा में सदियों से  दसमतकैना लाकेगाथा को छत्तीसगढ के घुमंतु देवार जाति के लोग पीढी दर पीढी गाते रहे हैं वर्तमान में इस गाथा को अपनी मोहक प्रस्तुति के साथ जीवंत बनाए रखने का एकमात्र दायित्व का निर्वहन श्रीमति रेखा देवार कर रही हैं छत्तीसगढ के इस गाथा का प्रसार अपने कथानक में किंचित बदलाव के साथ, भारत के अन्य क्षेत्रों में अलग अलग भाषाओं में भी हुआ है  गुजरात, राजस्थान एवं मेवाड में प्रचलितजस्मा ओडनकी लोक गाथा इसी गाथा से प्रभावित है राजस्थानी - ’मांझल रात’, गुजराती ’ ’सती जस्मा ओडन का वेशइसके प्रिंट प्रमाण हैं जबकि छत्तीसगढ में अलग अलग पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशित लेखों के अतिरिक्त प्रिट रूप में संपूर्ण गाथा का एकाकार नहीं नजर आता ‘‘
देवार छत्तीसगढ़ के परम्परागत लोकगाथा गायक हैं। छत्तीसगढ़ के रायपुरिया देवार की विशेषता है कि ये लोकगाथाओं को सारंगी की संगत पर गाते हैं। रतनपुरिया देवार की विशेषता है कि ये लोकगाथाओं के ढुंगरू वाद्य के साथ गाते हैं। इनके पारंपरिक गाथा गीत हैं - चंदा रउताइन, दसमत, सीताराम नायक, नगेसर कैना, गोंडवानी और पंडवानी। अनेक देवार बंदर के खेल भी दिखाते हैं। देवार स्त्रियां परम्परागत रुप से गोदना का काम करती रही हैं।
यद्यपि देवार हस्तशिल्प गोदना, लोकगायन, लोकनृत्य में पारंगत होते हैं तथापि इनका जीवन स्तर अति निम्न है कबाड़ी के कार्य से रोजी-मजूरी भी औसत है किन्तु अशिक्षा एवं मदिरा व्यसन इनके विकास मार्ग के मुख्य बाधक हैं   इन जातियों को राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार के उन समस्त योजनाओं का लाभ जैसे खद्यान योजना, शिक्षा स्वास्थ आदि का समान रूप से उपलब्ध हैं किन्तु ये लोग केवल राशन लेने में ही ज्यादा रूचि लेते हैं   शिक्षा और स्वास्थ संबंधी सुविधा में इनकी कोई विशेष रूचि परिलक्षित नहीं हो रही है; यही कारण है कि बच्चों के स्कूल दाखिला होने के पश्चात भी बच्चों को स्कूल नहीं भेजते यहां तक इस विषय में चर्चा करने पर भी उदासीन बने रहते हैं
ग्रामीण विकास मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के मुताबिक़, विमुक्त जातियों का आधे से ज़्यादा हिस्सा ग़रीबी की रेखा से नीचे पाया गया है।  इनकी प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे नीची रहती है।
दरअसल, शिक्षा ही दुनिया का सबसे बड़ा हथियार है इसके द्वारा ही व्यापक परिवर्तन संभव है   यदि देवार समुदाय को अपने हितों का संरक्षण करना है और अपनी अस्मिता बचानी है तो उनका शिक्षित होना अनिवार्य है इसके लिये इनमें शिक्षा के प्रति जागृति लाने के लिये विशेष संपर्क बनाये रखने की आवश्यकता है   किन्तु आश्चर्य की बात है कि समाजसेवा के नाम पर मोटी-मोटी चंदा उगाही करने वाली संस्थाएं भी ऐसे तबको पर ध्यान नही दे पाते व्यसन मुक्ति और शिक्षा के लिये इन जातियों में जागृति लाने के लिये सरकार के अतिरिक्त समाज सेवी संस्था को भी आगे आने की आवश्यकता है
मैंने जिस देवार बस्ती का निरिक्षण किया वहां मैंने पाया कि ये लोग जिस स्थिति में रह रहे हैं उस स्थिति के अभ्यासी हो गये हैं, इस स्थिति को आत्मसात कर बैठे हैं इस स्थिति से उबरने के लिये उनमें कोई ललक प्रत्यक्षतः परिलक्षित नहीं हो रहा है   हां, यह उत्कंठा जरूर दिख रही है कि कोई बाहर का व्यक्ति इन्हें सहयोग करता रहे, समस्याओं से निजात दिलाता रहे, किन्तु स्वयं दो कदम आगे बढ़ कर इस स्थिति से उबरने का प्रयास करते नहीं दिखता   सूक्ष्मविश्लेषण करते हुये मैंने पाया कि शायद एक लंबे समय से समाज की उपेक्षा, तिरस्कार झेलते हुये ये मान बैठे हैं कि हम मुख्यधारा से पृथ्क ही हैं और हमारा अस्तित्व पृथ्क रहने में ही है   लेकिन वास्तविक धरातल पर इस समाज के प्रति अस्पृश्यता में निश्चित रूप से कमी देखने को मिल रहा है  
देवार जाति के उत्थान के लिये सबसे पहले इनके आवास पर ध्यान देना चाहिये वर्तमान सरकार के महत्वाकांक्षी योजनाप्रधनमंत्री आवास योजना’’ के अंतर्गत इनके आवास बनने चाहिये   किन्तु इस आवास योजना का प्राथमिक शर्त स्वयं का आवासी भूमि होना, इनके लिये रोड़ा साबित हो रहा है जीवन के प्राथमिक आवश्यकतारोटी-कपड़ा-मकान’ के पूर्ति में इनकेरोटी-कपड़ा’ की पूर्ति ऐन-केन प्रकार से हो रहा है किन्तु मकान की पूर्ति होना नितान्त आवश्यक है
सभ्य समाज में जीवन की आवश्यकता रोटी, कपड़ा, मकान के अतिरिक्त शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा है   देवार समुदाय के लिये प्राथमिक आवश्यकता रोटी, कपड़ा, मकान के पूर्ति होने के ही पश्चात ही शिक्षा, स्वास्थ्य, एवं सुरक्षा पर ध्यान दिया जा सकता है   इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति का एक मात्र साधन शिक्षा है यदि नौनिहालों को शिक्षा का साधन दे दिया जाये तो निश्चित रूप से आने वाले कुछ समय पश्चात आने वाली पीढ़ी समाज के मुख्यधरा के अभिन्न अंग होगें
-रमेशकुमार सिंह चौहान
मेलन निवास’, मिश्रापारा
नवागढ़, जिला-बेमेतरा
छत्तीसगढ़,  पिन- 491337
मोबाइल-9977069545,
8839024871


गुरुवार, 10 मई 2018

‘‘छत्तीसगढ़ी साहित्य में काव्य शिल्प-छंद‘‘

छत्तीसगढ़ी छत्तीसगढ़ प्रांत की मातृभाषा एवं राज भाषा है । श्री प्यारेलाल गुप्त के अनुसार ‘‘छत्तीसगढ़ी भाषा अर्धभागधी की दुहिता एवं अवधी की सहोदरा है ।‘‘1 लगभग एक हजार वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ी साहित्य का सृजन परम्परा का प्रारम्भ हो चुका था ।  अतीत में छत्तीसगढ़ी साहित्य सृजन की रेखयें स्पष्ट नहीं हैं । सृजन होते रहने के बावजूद आंचलिक भाषा को प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी तदापी विभिन्न कालों में रचित साहित्य के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं । छत्तीसगढ़ी साहित्य एक समृद्ध साहित्य है जिस भाषा का व्याकरण हिन्दी के पूर्व रचित है ।  जिस छत्तीसगढ़ के छंदकार आचार्य जगन्नाथ ‘भानु‘ ने हिन्दी को ‘छन्द्र प्रभाकर‘ एवं काव्य प्रभाकर भेंट किये हों वहां के साहित्य में छंद का स्वर निश्चित ध्वनित होगा ।
छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद के स्वरूप का अनुशीलन करने के पूर्व यह आवश्यक है कि छंद के मूल उद्गम और उसके विकास पर विचार कर लें । भारतीय साहित्य के किसी भी भाषा के काव्य विधा का अध्ययन किया जाये तो यह अविवादित रूप से कहा जा सकता है वह ‘छंद विधा‘ ही प्राचिन विधा है जो संस्कृत, पाली, अपभ्रंष, खड़ी बोली से होते हुये आज के हिन्दी एवं अनुसांगिक बोलियों में क्रमोत्तर विकसित होती रही । हिन्दी साहित्य के स्वर्ण युग से कौन परिचित नही है जिस दौर में अधिकाधिक छंद विधा में काव्य साहित्य का सृजन हुआ । तो इस दौर से छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी छंद से कैसे मुक्त रह सकता था । छत्तीसगढ़ के संदर्भ में यह विदित है कि छत्तीसगढ़ी नाचा, रहस, रामलीला, कृष्ण लीला के मंचन में छांदिक रचनाओं के ही प्रस्तुति का प्रचलन रहा है । 
डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा ने ‘छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास‘ में छत्तीसगढ़ी साहित्य को गाथा युग (सन् 1000 से 1500), भक्ति युग (1500 से 1900) एवं आधुनिक युग (1900 से अब तक) में विभाजित किया है ।  अतीत में छत्तीसगढ़ी साहित्य लैखिक से अधिक वाचिक  परम्परा से आगे आया ।  उस जमाने में छापाखाने की कमी इसका वजह हो सकता है ।  किन्तु ये कवितायें अपनी गेयता के कारण, लय बद्धता के कारण वाचिक रूप से आगे बढ़ता गया । 
गाथा काल के ‘अहिमन रानी‘, ‘केवला रानी‘ ‘फुलबासन‘, पण्ड़वानी‘ आदि वाचिक परम्परा के धरोहर के रूप में चिर स्थाई हैं । इसका विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि ये रचनायें अनुशासन के डोर में बंधे छंद के आलोक से प्रदीप्तमान रहा ।
भक्ति काल में कबीर दास के शिष्य और उनके समकालीन (संवत 1520) धनी धर्मदास को छत्तीसगढ़ी के आदि कवि का दर्जा प्राप्त है, जिनके पदों में छंद विधा का पुट मिलता है । जैसे धरमदासजी के इन पंक्तियों में ‘सार छंद‘ दृष्टव्य है-

ये धट भीतर वधिक बसत हे  (16 मात्रा)
दिये लोग की ठाठी । (12 मात्रा)
धरमदास विनमय कर जोड़ी (16 मात्रा)
सत गुरु चरनन दासी। (12 मात्रा)

हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के प्रारंभिक दशकों में हिन्दी भाषा, साहित्य और साहित्य शास्त्र के विकास के लिये अथक प्रयत्न किए गए थे ।  इस प्रयत्न में तीन महान विभूति आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. कामता प्रसाद गुरू एवं छत्तीसगढ़ बिलासपुर के आचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘‘भानु‘‘। ये तीनों क्रमशः भाषा, व्याकरण एवं साहित्य शास्त्र में अद्वितीय योगदान दिये । आचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ ने साहित्य शास्त्र में ‘छंद प्रभाकर‘ (1894) की रचना की ।  आचार्य ‘भानु‘ स्वयं छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक काल के प्रथम पंक्ति के कवि हैं।  आाचार्य ‘भानु‘ छंद को इस प्रकार परिभाषित करते हैं-
‘‘मत बरण गतियति नियम, अंतहि समताबंद ।
ज पद रचना में मिले, ‘भानु‘ भनत स्वइ छंद ।।‘‘ 2

 
 छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक युग में पं. सुन्दरलाल शर्मा छत्तीसगढ़ी साहित्य के पुस्तकर्ता कवि हैं । पं. सुन्दर लाल शर्मा, आचार्य ‘भानु‘ शुकलाल पाण्ड़े, कपिलनाथ मिश्र  आदि छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक युग के प्रथम सोपान के कवि हैं । जिनके रचनाओं में छंद  सहज ही देखने को मिलते हैं । 
पं. सुदरलाल शर्मा छत्तीसगढ़ी साहित्य के पुरोधा साहित्यकार हैं । इनके रचनाओं में छंद के कई रूप देखने को  मिलते हैं ।  उनके ‘छत्तीसगढ़ी दान लीला‘ में छंद का साहसिक अनुप्रयोग चिर स्थायी है ।  इन्ही प्रयास को देखते हुये पं. शर्मा को छत्तीसगढ़ी साहित्य के प्रथम सामर्थ्यवान कवि कहा गया । ‘छत्तीसगढ़ी दान लीला‘ में उन्होंने दोहा, चौपाई जैसे प्रचलित छंदो के साथ-साथ त्रोटक छंद पर भी रचनायें की हैं । उनके रचनाओं में कुछ छंद पद दृष्टव्य हैं -

दोहा- जगदिश्वर के पाँव मा, आपन मूड़ नवाय ।
सिरी कृष्ण भगवान के, कहिहौं चरित सुनाय ।।

चौपाई- काजर आंजे अलगा डारे । मुड़ कोराये पाटी पारे
पाँव रचाये बीरा खाये । तरूवा मा टिकली चटकाये

बड़का टेड़गा खोपा पारे । गोंदा खोचे गजरा डारे
नगदा लाली गांग लगाये । बेनी मा फुँदरी लटकाये

खोटल टिकली झाल बिराजै । खिनवा लुरकी कानन राजै
तेखर खल्हे झुमका झूलै । देखत उन्खर तो दिल भूलै

एक-एक के धरे हाथ हे । गिजगिज-गिजगिज करत जात हे
चुटकी-चुटका गोड़ सुहावै । चुटपुट-चुटपुट बाज बजावै 3

- (छत्तीसगढ़ी दान लीला-पं. सुन्दरलाल शर्मा)

शुकलाल प्रसाद पाण्ड़े छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक काल के प्रथम पड़ाव के कवि हैं । शुकलालजी कई प्रकार छन्द के रंग से अपने कलम की स्याही को रंगे हैं-

चौपाई- बहे लगिस फेर निचट गर्रा ।  जी होगे दुन्नो के हर्रा
येती-ओती खुब झोंका ले । लगिस जहाज निचच्टे हाले
जानेन अब ये देथे खपले ।  बुड़ेन अब सब समुंद म झप ले
धुक-धुक धुक-धुक धुक्की धड़के । डेरी भुजा नैन हर फरके

दोहा- मुरछा ले झट जाग के, दुन्नो पुरूल पोटार ।
कलप-कलप रोये लगिस, साहुन हर बम्हार ।।

चौबोला- मोर कन्हैया ! अउ बलदाऊ ! मोर राम लछिमन ।
मोर अभागिन के मुँह पोछन ! मोर-परान रतन धन ।।
मोर लेवाई आवा बछर ! चाट देह ला झारौ ।
उर माम सक कसक ला जी के मैहर  अपन निकारौ ।। 4

कपिलनाथ कश्यप जी छत्तीसगढ़ी साहित्य को समृद्ध करने अनवरत प्रयास करते रहे । उनके द्वारा रचित दो महाकाव्य  उनके अथक प्रयास को ही इंगित करता है ।  कश्यपजी अपनी रचनाओं में छन्द को सम्यक स्थान दिये हैं । उनके छत्तीसगढ़ी खण्ड़ काव्य ‘हीराकुमार‘ में ‘सरसी छंद‘ का यह उदाहरण-

कंचनपुर मा तइहा तइहा, रहैं एक धनवान ।
जेखर धन-दौलत अतका की, बनै न करत बखान ।।4

श्री कश्यपजी के ‘समधी के फजीता‘ कविता  में ‘सार छंद‘ का अनुपम प्रयोग देखते ही बनता है-
दुहला हा तो दुलही पाइस, बाम्हन पाइस टक्का ।
सबै बराती बरा सोंहारी, समधी धक्कम धक्का ।।
नाऊ बजनियां दोऊ झगरे, नेग चुका दा पक्का ।
पास म एको कौड़ी नई हे, समधी हक्का बक्का ।।
काढ़ मूस के ब्याह करायो, गांठी सुख्खम खुख्खा ।
सादी नई बरबादी भइगे, घर मा फुक्कम फुक्का ।।
पूँजी रह तो सबो गंवागे, अब काकर मुँह तक्का ।
टुटहा गाड़ा एक बचे हे, ओखरो नइये चक्का । 5

नरसिंह दास के छत्तीसगढ़ी साहित्य में एक बहुचर्चित नाम है । उन्होंने अपना परिचय ही दोहा छंद में दिया है जिसमें पिंगल शास्त्र का उल्लेख करना उनके छंद के प्रति रूचि को उजागर करता है -
पुत्र पिताम्बर दास के, नरिंसह दास नाम ।
जन्म भूमि घिवरा तजे, बसे तुलसी ग्राम ।।

पिंगल शास्त्र न पढ़ेंव कछु, मैं निरक्षर अधाम ।
अंध मंदमति मूढ़ है, जानत जानकि राम ।। 6

नरसिंह दास के रचनायें कवित्त (घनाक्षरी), सवैया आदि छंद शिल्प  से अलंकृत हैं-

कवित्त- आइगे बरात गाँव तीर भोला बबाजी के,
देखे जाबो चला गिंया, संगी ला जगाव रे ।
डारो टोपी धोती पाँव, पैजामा ल कसिगर
गल बंधा अँग-अँग, कुरता लगाव रे ।।
हेरा पनही दोड़त बनही कहे नरसिंग दास
एक बार हुँआ करि, सबे कहूँ धाव रे ।
पहुँच गये सुक्खा भये देखी भूत-प्रेत
कहे नहीं बाचान दाई ददा प्राण ले भगाव रे ।।

सवैया- साँप के कुण्डल कंकण साँप के, साँप जनेउ रहे लपटाई ।
साँप के हार हे साँप लपेटे, हे साँप के पाग जटा सिर छाई ।।
दास नरसिंह देखो सखि रे, बर बाउर हे बइला चढ़ि आई ।
कोउ सखी कहे कइसे हे छी कुछ ढंग खीख हावे छी दाई ।। 7

छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक काल के द्वितीय सोपान स्वाधीनता आंदोलन एवं आजादी के पश्चात भारत निर्माण काल में उदित हुआ ।  इस युग के हस्ताक्षर नारायण लाल परमार, कुंजबिहारी चौबे, द्वारिका प्रसाद तिवारी ‘विप्र‘, कोदूराम दलित एवं श्यामलाल चतुर्वेदी हुये । 

नारायल लाल परमार के रचनाओं में गेय छंद के साथ-साथ मुक्त छंद भी मिलते हैं । श्यामलाल चतुर्वेदी जी के रचना में सार छंद दृष्टव्य है -

रात कहै अब कोन दिनो मा, घपटे हैं अँधियारी ।
सूपा सही रितोवय बादर, अलमल एक्केदारी ।।
सुरूज दरस कहितिन कोनो, बात कहां अब पाहा ।
हाय-हाय के हवा गइस गुंजिस अब ही-ही हाहा ।।

कोदूराम ‘दलित‘ को छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद को स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है । ‘दलित‘ जी शास्त्रीय छंद के अनुरूप विभिन्न छंदों का अपनी रचनाओं में भरपूर प्रयोग किये हैं । कुछ छंदों पर उनकी रचनाएं इस प्रकार रेखांकित हैं -

दोहा- पाँव जान पनही मिलय, घोड़ा जान असवार ।
सजन जान समधी मिलय, करम जान ससुरार ।।

कुण्ड़लियां- छत्तीसगढ़ पैदा करय , अड़बड़ चाँउर दार
हवय लोग मन इहाँ के, सिधवा अउ उदार
सिधवा अउ उदार, हवयँ दिन रात कमावयँ
दे दूसर ला भात , अपन मन बासी खावयँ
ठगथयँ बपुरा मन ला , बंचक मन अड़बड़
पिछड़े हवय अतेक, इही करन छत्तीसगढ़ ।।

चौपाई- बन्दौं छत्तीसगढ़ शुचिधामा । परम मनोहर  सुखद ललामा 
  जहाँ सिहावादिक गिरिमाला । महानदी जहँ बहति विशाला 
            मनमोहन  वन  उपवन अहई । शीतल - मंद पवन तहँ  बहई 
जहँ तीरथ  राजिम अतिपावन । शवरी नारायण मन भावन 
            अति  उर्वरा   भूमि  जहँ  केरी  । लौहादिक जहँ खान घनेरी 
उपजत फल अरु विविध अनाजू । हरषित लखि अति मनुज समाजू 
            बन्दौं छत्तीसगढ़ के ग्रामा । दायक अमित शांति दृ विश्रामा 
            बसत लोग जहँ भोले-भाले । मन के  उजले  तन के  काले 
            धारण  करते  एक लँगोटी ।  जो करीब  आधा  गज  होती 
मर मर  कर  दिन-रात कमाते द्य पर-हित में सर्वस्व लुटाते 8

छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक काल तृतीय सोपान के आधार स्तम्भ  श्री नारायण लाल परमार ने मुक्त छन्द को जन्म दिया और लखन लाल गुप्त ने इसे स्वीकारा ।  लाला जगदलपुरी, विमल पाठक, विनय पाठक, केयर भूषण, दानेश्वर शर्मा, मुकुन्द कौशल, लक्ष्मण मस्तुरिया, हरि ठाकुर नरेन्द्र वर्मा आदि कवियों ने छत्तीसगढ़ी साहित्य के यज्ञ में अपनी आहूति दी हैं ।  इस दौर में भी छन्द की छनक गुंजित रही-

पं.दानेश्वर शर्मा घनाक्षरी छन्द को ध्वनित करते हुये लिखते हैं-

बइठ बहिनी पारवती काय साग राँधे रहे
हालचाल कइसे हवय परभू ‘पसुपति के ?
बइठत हवँव लछमिन, जिमी कांदा राँधे रहेंव
‘पसुपति‘ धुर्रा छानत होही वो बिरिज के
टोला नहीं कहँ बही, पूछत हवँव आन ल
कहां हवय आजकल साँप् के धरइया ह?
महू तो उही ल कहिथँव, कालीदाह गेय होही
पुक-गेंद खेलत होही नाँग के नथइया ह ।

छत्तीसगढ के सुप्रसिद्ध गायक कवि लक्ष्मण मस्तुरिया ऐसे तो अपने आव्हान के गीत के लिये जाने जाते हैं किन्तु उनके द्वारा रचित दोहों की भी कम प्रसिद्धि नही है -

भेड़ चाल भागे नही, मन मा राखे धीर ।
काम सधे मनखे बने, मगन रहे गँभीर ।।
जोरे ले दुख नइ घटे, छोड़े ले सुख आय ।
पेट भरे ओंघावत बइठे, भुखहा दउंडत जाय ।।
धन संपत जोरे बहुत, नइ जावे कु साथ ।
पुरखा-पीढ़ी खप गए, सब गे खाली हाथ ।।
सुख-छइहां बाहर नहीं, अपने भीतर खोज ।
सबले आगू मया मिले, रद्दा रेंगव सोझ ।।

लक्ष्मण मस्तुरिया द्वारा रचित ‘सोनाखान के आगी‘ आल्हा छंद के धुन ले अनुगुजित हे-

धरम धाम भारत भुईंया के, मंझ मे हे छत्तीसगढ़ राज ।
जिहां के माटी सोनहा धनहा, लोहा कोइला उगलै खान ।।

जोंक नदी इन्द्रावती तक ले, गढ़ छत्तीसगढ़ छाती कस ।
उती बर सरगुजा कटाकट, दक्खिन बस्तर बागी कस ।।

जिहां भिलाई कोरबा ठाढ़े, पथरा सिरमिट भरे खदान ।
तांबा-पीतल टीन कांछ के, इहां माटी म थाथी खान ।।9
छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना के पश्चात छत्तीसगढ़ी साहित्य में एक नये दौर का प्रारंभ हुआ ।  इससे पूर्व छत्तीसगढ़ी को हेय की दृष्टि से देखा जाता था ।  इस दृष्टि कोण में अंतर आया फिर छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त होना छत्तीसगढ़ी साहित्य के लिये एक वरदान साबित हुआ ।  इस दौर में अनेक साहित्यकार जो छत्तीसगढ़ी को हेय की दृष्टि से देखा करते थे, अब इस भाषा में लिखने को तत्पर दिखे । छत्तीसगढ़ी काव्य साहित्य अनेक काव्य शिल्प गजल, मुक्तक, गीत, हाइकू आदि में लिखे जाने लगे । ‘छंद शिल्प‘ का भी उत्थान हुआ ।  रामकैलाश तिवारी ‘रक्तसुमन‘ ने छत्तीसगढ़ी में ‘दीब्य-गीता‘ की रचना की है जिसमें दोहा को ‘दुलड़िया‘ एवं चौपाई को ‘चरलड़िया‘ नाम दिये हैं -
दोहा (दुइलड़िया)- गीता जी के ज्ञान पढ़, जउन समझ नहि पाय ।
अइसन मनखे असुर जस, अधम बनय बछताय ।।

चौपाई (चरलड़िया) जउन पढ़य नहि गीता भाई । मनखे तन सूंरा के नाई
जे जानय नहि गीता भाई । अधम मनुख के कहां भलाई 10

छत्तीसगढ़ी साहित्य में अपनी समिधा अर्पित करते हुये बुधराम यादव ने दोहा छंद पर कार्य किया उनका यह प्रयास सदैव वंदनीय रहेगा । श्री यादव हिन्दी साहित्य के स्वर्ण युग के ‘दोहा सतसई‘  की तरह छत्तीसगढ़ी में सतसई दोहा संग्रह ‘चकमक चिन्गारी भरे‘ छत्तीसगढ़ साहित्य को दिये हैं जिनमें 700 दोहों का संग्रह है । कुछ स्मरणीय है-

तैं लूबे अउ टोरबे, जइसन बोबे बीज ।
अमली आमा नइ फरय, लाख जतन ले सींच ।।

नदिया तरिया घाट अउ, गली खोर चौपाल ।
साफ-सफाई नित करन, बिन कुछु करे सवाल ।।11

छत्तीसगढ़ी साहित्य के काव्य शिल्प में अरूण निगम द्वारा 2015 में रचित ‘छन्द के छ‘ छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद शिल्प को प्रोत्साहित करने में सफल रहा । ‘छन्द के छ‘ में प्रत्येक स्वरचित छंद के नीचे उस छंद के छंद विधान को समझाया गया है । मात्रा गिनने के रीति, छंद गठन की रीति को सहज छत्तीसगढ़ी में समझाया गया है । इस पुस्तक में प्रचलित छंद दोहा, सोरठा, रोला, कुण्ड़लियां छप्पय, गीतिका घनाक्षरी आदि के साथ-साथ अप्रचलित छंद शोभान, अमृत ध्वनि, कुकुभ, छन्न पकैया, कहमुकरिया आदि को जनसमान्य के लिये प्रस्तुत किया गया है । जहां आदरणीय कोदूराम ‘दलित‘ ने छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद का बीजारोपण किया वहीं उनके सुपुत्र अरूण निगम की रचनाओं में छंद पुष्पित पल्लवित दृष्टिगोचर हो रहा है । निगमजी के छंद साधना को उनके रचनाओं में महसूस किया जा सकता है -

गंगोदक सवैया- खेत मा साँस हे खेत मा आँस हे खेत हे तो इहाँ देह मा जान हे ।
देख मोती सहीं दीखथे गहूँ, धान के खेत मा सोन के खान हे ।।
माँग के खेत ला का बनाबे इहाँ खेत ला छोड़ ये मोर ईमान हे ।
कारखाना लगा जा अऊ ठौर मा, मोर ये खेत मा आन हे मान हे ।
जलहरण घनाक्षरी- रखिया के बरी ला बनाये के बिचार हवे
धनी टोर दूहूँ छानी फरे रखिया के फर
डरिद के दार घलो रतिहा भिंजोय दूहूँ
चरिहा मा डार, जाहूँ तरिया बड़े फजर
दार ला नँगत धोहूँ चिबोर-चिबोर बने
फोकला ला फेक दूहूँ दार दिखही उज्जर
तियारे पहटनीन ला आही पहट काली
सील लोढ़हा मा दार पीस देही वो सुग्घर
कहमुकरिया- सौतन कस पोटारिस बइहांँ
डौकी लइका कल्लर कइयाँ
चल-चलन मा निच्चट बजारू
क सखि भाटो, ना सखि दारू 12

अरूण निगमजी सेवा निवृत्ति के पश्चात छंद के प्रति समर्पित जीवन यापन कर रहे हैं ।  सोशल मिडिया वॉटश्षएप में ‘छन्द के छ‘ नामक समूह बनाकर छन्द पाठ को रचनाधर्मीयों को बांट रहे हैं । उनके इस सद्प्रयास की उपज श्रीमती शंकुतला शर्मा, श्री सूर्यकांत गुप्ता, श्री हेमलाल साहू, श्री चोवा राम वार्मा आदि हैं जो छंद के ध्वज वाहक बन रहे हैं । 
निगमजी के प्रेरणा से मैं सोशल मिडिया के फेसबुक मे ‘छत्तीसगढ़ी साहित्य मंच‘ नामक सार्वजनिक समूह में छंद का अलख जगाने का प्रयास कर रहा हूॅ । छंद कर्म करते हुये मैने जनवरी 2016 छत्तीसगढ़ी कुण्डलियां संग्रह ‘आँखी रहिके अंधरा‘ लिखी है । अगस्त 2017 में  मेरे द्वारा रचित ‘दोहा के रंग‘ का विमोचन हुआ है, जिसमें मैंने दोहा छंद के विधान को समझाने का प्रयास किया है । 
मैंने 2014 में ‘सुरता‘ छत्तीसगढ़ी कविता के कोठी में कुछ छंद जैसे दोहा, रोला कुण्ड़लियां, सवैया, आल्हा, गीतिका, हरिगीतिका, त्रिभंगी, घनाक्षरी छंद में कुछ छत्तीसगढ़ी कविताये लिखी हैं और उस छंद को उसी छंद में परिभाषित करने का प्रयास किया -

दोहा- चार चरण दू डांड के, होथे दोहा छंद ।
तेरा ग्यारा होय यति, रच ले तैं मतिमंद ।।
रोला- आठ चरण पद चार, छंद सुघ्घर रोला के ।
ग्यारा तेरा होय, लगे उल्टा दोहा के ।।
विषम चरण के अंत, गुरू लघु जरूरी होथे ।
गुरू-गुरू के जोड़, अंत सम चरण पिरोथे ।।
आल्हा- दू पद चार चरण मा, रहिथे सुघ्घर आल्हा छंद ।
विषम चरण के सोलह मात्रा, पंद्रह मात्रा बाकी बंद ।।
गीतिका छंद-  गीत गुरतुर गा बने तैं, गीतिका के छंद ला ।
ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ।
मातरा छब्बीस होथे, चार पद सुघ्घर गुथे ।
आठ ठन एखर चरण हे, गीतिका एला कथे ।13

 अभी-अभी जनवारी 201 में छत्तीसगढ़ी राजभाषा के प्रांतीय सम्मेमलन छंद से संबंधित दो  पुस्तको ‘छंद चालीसा‘ एवं छंद बिरवा‘ का विमोचन हुआ जो छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद के लिये एक नये अध्याय का सूत्रपात है ।  श्री चोवाराम वर्मा ‘बादल’ रचित ‘छंद बिरवा‘ में 50 प्रकार के मात्रिक एवं वार्णिक छंदों के विधान एवं उदाहरण दिया गया है । मेरे द्वारा रचित ‘छंद चालीसा‘ में  चालीस छंदों को उसी छंद में उकेरते हुये विधान एवं उदाहरण स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है ।
छत्तीसगढ़ी साहित्य के आदि काल से आज तक अनके कवियों के रचनाओं में ‘छंद विधा‘ के दर्शन होते हैं । किन्तु छत्तीसगढ़ी लोक भाषा के रूप लोकगीतों ददरिया, सुवा, भोजली, भड़ौनी, करमा, पंथी आदि को पल्लवित करती रही है ।  इन गीतों का प्रभाव छत्तीसगढ़ी साहित्य में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है । ऐसा प्रतित होता है कि गेयता को प्रमख साधन मान कर छत्तीसगढ़ी काव्य का सृजन हुआ है  यही कारण है छंद के विधान के मात्रिकता, वार्णिकता को महत्व न देकर उनके लय, प्रवाह को आधार मानकर कई कवियों ने अपनी रचनाओं में छंद विधा का प्रयोग करने का प्रयास किये हैं । इन रचनाओं में छंद का आभास तो मिलता है किन्तु छंद विधान का पालन पूरी तरह से नही किया गया है । इसके उपरांत भी यह कहना अतिशियोक्ति नही होगा कि- ‘छत्तीसगढ़ी साहित्य छंद विधा से ओत-प्रोत है ।

एक महात्मा साहित्यकार-‘‘श्री कृष्ण कुमार भट्ट ‘पथिक‘ ‘‘



सिद्धांतों का मूर्ति बनाना और  सिद्धांतों को जीवित करना दो अलग-अलग बातें होती हैं ।  सिद्धांतों का कथन करने वाले सैकड़ों होते हैं किन्तु सिद्धांत को अपना जीवन बना लेने वाले सैकड़ों में कुछ एक ही होते हैं ।  ऐसे ही कुछ लोगों में शीर्षस्थ हैं श्री कृष्ण कुमार भट्ट ‘पथिक‘ । ‘भट्ट सर‘ के नाम से छत्तीसगढ़ के रचनाधर्मिर्यो के मध्य उनकी लोकप्रियता उनके जीवंतता, कर्मठता एवं आदर्शता के कारण ही है । जीवंतता, कर्मठता एवं आदर्शता के नींव पर एक साहित्यकार के रूप में अपना महल खड़ा करने वाले श्री भट्ट सर के ‘व्यक्तित्व एवं कृतित्व‘ पर चिंतन करने में मैं अपने आप को असमर्थ पाता हूॅ ।  किन्तु उनके साहित्य के प्रति समर्पण के झोकों से मेरा हृदय आह्लादित है । मैं केवल अपने हृदयस्पंदन को शब्द रूप देने का प्रयास कर रहा हूॅ ।
बहुधा रचनाकार केवल रचनाओं का सृजन करना ही अपना कर्म मानते हैं । किन्तु रचनाओं के मूल्यों एवं समसमायिकता पर चिंतन करने से ही बात बनती है ।  सृजन के लिये पृष्ठभूमि तैयार करना, नवोदित रचनाकारों को अवसर उपलब्ध कराना । उनके रचनाओं का यथेष्ठ मूल्यांकन कर उचित मार्गदर्शन करना साहित्य सेवा नही तो और क्या है ?  साहित्यकार का कलमकार होना अथवा रचनाओं का सृजन करना साहित्यकार के केवल संकुचित अर्थ को ही स्पष्ट कर सकता है । किन्तु एक सच्चा साहित्यकार तो वही कहलायेगा जो आजीवन साहित्य संवर्धन एवं पल्लवन के लिये प्रयासरत हों । ऐसे उद्यमी सद्प्रयासी ‘श्री कृष्ण कुमार भट्ट ही हैं । राग द्वेष से रहित निःस्वार्थ अपने ही संसाधनों से वरिष्ठ एवं कनिष्ठ रचनाकारों का समान रूप से सहयोगी होने पर आपको ‘महात्मा साहित्यकार‘ कहूँ तो कोई अतिशियोक्ति नही होगी । अपने जीवन के सातवे दशक में भी साहित्यिक आयोजना का निमंत्रण सायकिल से घूम-घूम कर अकेले केवल एक ‘महात्मा साहित्यकार‘ ही वितरित कर सकता है । जहां अनेक स्थानों पर अपनी उच्चश्रृंखलता, स्वार्थपरकता के कारण अनेक साहित्य समिति निर्मित कर एक-दूसरे को नीचे दिखाने का प्रयास करते रहते हैं ।  ऐसे में एक ही स्थान के कई-कई साहित्यक मंच को उनमें से किसी एक के बेनर तले सभी साहित्यकार को केवल एक ‘महात्मा साहित्यकार‘ ही एकत्रित कर सकता है ।
महात्मा का परिचय उनकी सादगी एवं कर्मठता से प्राप्त होता है ।  एक छोटे से कमरे में अस्त-व्यस्त समान, एक टूटी कुर्सी, एक पुराना टेबल पंखा और सबके बीच साहित्यिक पुस्तकों से घिरे, एक सादे कागज पर इनके मूल्य अंकित करते कोई भी, कभी भी मुंगेली में भट्ट सर को देख सकते हैं । जिनका परिवार बिलासपुर में हो, जो केवल साहित्य सेवा के लिये मुंगेली में एक कमरा किराये पर ले रखें हों । एक भूतपूर्व प्राचार्य जमीन में बैठकर अकेले साहित्य साधना में निमग्न हों, महात्मा होने का ही परिचायक है ।
भट्ट सर का जन्म 18 जून 1946 को श्री जगत राम भट्ट के यहां गोड़पारा बिलासपुर में हुआ । आपने हिन्दी एवं अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त की है ।  आप एक शिक्षक के रूप में विभिन्न शैक्षिक संस्थाओं में अपनी सेवा प्रदान की है ।  आप हिन्दी व्याख्याता के रूप में में 1987-89 के मध्य शा.उ.मा.वि. नवागढ़ में मुझे कक्षा 9वीं-10वीं में अध्यापन कराया है । आप प्राचार्य के रूप में मुंगेली में सेवा देते हुये सेवानिवृत्त हुये ।  यद्यपि आपका जन्म भूमि बिलासपुर है तथापि आपने कर्मभूमि के रूप में मुंगेली को ही वरियता देते आ रहे हैं ।
भट्ट सर अपने विद्यार्थी जीवन से ही 1967-68 में लेखन कार्य का श्रीगणेश किया और 1972 में शासकीय शिक्षा महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका का संपादन किया ।  आपके प्रकाशित कृति ‘शहर का गाड़ीवान‘ (काव्य संग्रह), ‘युग मेला‘ (काव्य संग्रह) आपके सृजनात्मक क्षमता को प्रकट करने में समर्थ रहा ।  ‘इतिहास की साहित्य पगडंड़ियों पर‘ समीक्षा ग्रंथ से समीक्षा के पगडंड़ियों पर चलना प्रारंभ कर दिये । ‘चेहरे के आसपास‘ (कहानी संग्रह) का संपादन कर आपने समीक्षक एवं संपादक के रूप में अपना स्वयं का परिचय साहित्यकारों से कराया । आकाशवाणी रायपुर से फाग पर ‘नाचे नंद को कन्हैया‘ वार्ता का प्रसारण हुआ है तथा आकाशवाणी बिलासपुर से आपका साक्षात्कार प्रसारित हुआ है ।
कवि सम्मेलनों के तामझाम से दूर आप प्रादेशिक, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय साहित्य शोध संगोष्ठियों में आनंदित रहे ।  इस स्तर पर रहते हुये भी स्थानीय स्तर पर साहित्य संगोष्ठियों का आयोजन कराना आपके साहित्य के प्रति समर्पण को ही निरूपित करता है । आपके सद्प्रयास से बिलासपुर मुंगेली, लोरमी, नवागढ़ जैसे कई स्थानों में साहित्य संगोष्ठि का आयोजन एकाधिक बार किया गया है ।
‘हमर कथरी के ऊपर अकास‘-राघवेन्द्र लाल जायसवाल, ‘काला सा आदमी‘-डॉ राजेश कुमार मानस, ‘उम्र भर की तलाश‘-सतीष पांडे, ‘मरजाद‘-नंदराम यादव निषांत, ‘घनानंद के काव्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन‘-डॉ हरिराम निर्मलकर, ‘सुरता‘ एवं ‘ऑखी रहिके अंधरा‘-रमेशकुमार सिंह चौहान जैसे अनेक कृतियों पर भूमिका एवं अनुशंसा प्रदान करना आपके साहित्यिक पठन-पाठन अभिरूचि के साथ-साथ आपके सहज उपलब्धता का मूर्त रूप है ।  आपके इसी सहजता का कृपा पात्र मेरे जैसे कई साहित्यकार हैं ।
‘भट्ट सर‘ का व्यक्तित्व हम सभी साहित्कारों, रचनाधर्मीयों एवं साहित्य प्रेमियों के लिये अनुकरणीय धरोहर है ।  अपने व्यक्तिगत समस्याओं से परे केवल साहित्य चिंतन एवं साहित्य संवाद ही आपका व्यक्तित्व है ।  आप हर छोटे-बडे साहित्यिक आयोजनों की सूचना हम जैसे साहित्यकारों को समय पूर्व देते रहते हैं। हाल ही में कुछ माह पूर्व आप दुर्घटना में चोटिल होकर चलने में असमर्थ होने के बाद भी साहित्य सेवा करते रहे और राजभाषा के प्रांतीय सम्मेलन, बेमेतरा में मुंगेली जिला समन्वयक का दायित्व का सफलता पूर्वक निर्वहन किये हैं ।
आप अपने उपनाम ‘पथिक‘ के अनुरूप साहित्य पथ पर अनवरत चल रहे हैं । अपने साहित्यिक यात्रा में रास्ते में पतित साहित्यकारों को संबल प्रदान करते हुये हमराही किये हैं ।  आपका प्रत्येक साहित्यिक कृत आपको ‘महात्मा साहित्यकार‘ ही निरूपित करता है । आपके इस विराट कार्य को मैं कुछ शब्दों में पिरोने का दुःसाहस कर रहा हूॅ-

बढ़ता रहता ‘पथिक‘ डगर पर, होकर पथ का धूल ।
चलते रहना श्वेद भूल कर, सच्चे राही का मूल ।।

साहित्य पथ का राही वह तो, चलना जिसका काम ।
दीन-हीन का सच्चा साथी, भट्ट ‘पथिक‘ है नाम ।।

साहित्य साधक और उपासक, जिसका परिचय एक ।
समरसता का जो भागीरथ, साहित्य सर्जक नेक ।।

वरिष्ठ-कनिष्ठ का अंतर तज, जो रहते हैं साथ ।
कर्म डगर भी जिनका गाता, साहित्य सेवा गाथ ।।

साहित्य सेवा जीवन जिसका, साहित्य जिसका कर्म ।
‘पथिक‘ महात्मा साहित्य जग का, कहे कर्म का मर्म ।।

-रमेशकुमार सिंह चौहान

जूनी मेला

जूनी मेला



मेला हमारे देश की संस्कृति है । मेला केवल ऐसा स्थान ही नहीं है जहां मनोरंजन एवं व्यवसायीक उद्देश्य से लोग एकत्रीत होते हैं, अपितु मेले के आयोजन का कोई न कोई धार्मिक कारण अवश्य ही होता है । भारत देश का सबसे बड़ा मेला ‘कुंभ का मेला‘ होता है ।  प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में प्रति बारह वर्ष पर कुंभ का मेला लगता है और प्रति छः वर्ष पर अर्धकुंभ का आयोजन किया जाता है । तीर्थराज प्रयाग में गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम तट पर मेले का आयोजन होता है । इसी के प्रतिरूप देश के अनेक ऐसे स्थानों पर जहां तीन नदियों का संगम होता है वहां मेला अवश्य लगता है ।  छत्तीसगढ़ के प्रयाग राजीम में महानदी, पैरी एवं सोढूर के संगम पर प्रतिवर्ष मेला लगता है ।  तीन नदियों के संगम तट के अतिरिक्त ऐसे और स्थानों पर मेले लगते हैं जहां पर लोगों की आस्था, मान्यता जुड़ी हो ।  लोगों की मान्यता होती कि उस स्थान से उनके मनोकामना, अभिलाषा अवश्य पूरी होती है । ऐसे ही स्थानों में उभरती हुई मेला है ‘जुनी मेला‘ ।  जहां दिनों दिन भीड़ बढ़ती ही जा रही है ।
छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिला में जिला मुख्यालय से लगभग 35 किमी की दूरी पर, नवागढ़-सम्बलपुर मार्ग पर कांपा मोड़ से दक्षिण दिशा में 4 किमी की दूरी पर स्थित है ग्राम ढनढनी, गांव से कुछ ही दूरी पर एक सरोवर है ‘जुनी सरोवर‘ इसी सरोवर के तट पर प्रतिवर्ष पौष पूर्णिमा को ‘जुनी मेला‘ का आयोजन किया जाता है ।
इस मेले से जुड़ी जनश्रुति के अनुसार-एक बार एक कुष्ठ रोगी राह से गुजरते हुये इस तालाब पर स्नान किया  दैवीसंयोग से उस व्यक्ति का कुष्ठ कुछ ही दिनों में ठीक हो गया ।  यह तब की बात है जब कुष्ठ एक असाध्य रोग था । इस चमत्कार से ही लोगों का ध्यान इस सरोवर की ओर गया । तब से लोग अपनी मनोकामना लेकर इस सरोवर पर स्नान करने लगे । ऐसी मान्यता पैदा हुई कि इस सरोवर में स्नान करने पर चर्मरोग निश्चित ही दूर हो जाता है।
इस मेले की दूसरी मान्यता को कोई भी व्यक्ति मेले के दिन आकर परख सकता है । यह मेला अन्य मेलों से इस बात पर भिन्न है कि ज्यादातर मेलों पर ऐसे लोगों की भीड़ होती है जो मंदिर दर्शन करने आयें हो, मनोरंजन के लिये घूमने आये हो किन्तु यहां ऐसे लोग अधिक होते है जिनके मनोकामना पूर्ण हो गये हों, वे अपने मनोकामना पूर्ण होने पर ‘सत्यनारायण पूजा‘ कराने आये हों ।  इस मेले का अद्भूत दृश्य किसी को भी अभिभूत कर सकता है कई-कई स्थानों पर ‘सत्यनारायण का पूजा‘ चल रहा होता है और प्रत्येक पूजा स्थल पर एक नौनिहाल, जिनकी आयु लगभग 1-2 वर्ष । जुनी सरोवर, तट पर सत्यनारायण पूजा और नौनिहाल इन तीनों का संबंध इस स्थान के दूसरी मान्यता से है । इस मान्यता के अनुसार-यदि कोई निःसंतान दम्पत्ती एक साथ इस सरोवर पर श्रद्धा पूर्वक स्नान करे तो स्नान करने के एक वर्ष के भीतर-भीतर इनके गोद अवश्य भर जातें हैं ।  इस मनोकामना के लिये निःसंतान दम्पत्ती एक साथ हाथ में श्रीफल लेकर जूनी सरोवर में डूबकी लगाते हुये नारियल को सरोवर के अंदर किचड़ में यह कहते हुये गड़ा दिया जाता है कि माँ हमारी गोद भर दे ।  सच्ची आस्था होने पर निश्चित ही एक वर्ष के अंदर संतान सुख की प्राप्ती होती है ।

एक मान्यता के अनुसार इस स्थान पर देवी का वास है ।  सरोवर की खुदाई आज से लगभग 40 वर्ष पूर्व हुई, इसके पूर्व यह सरोवर स्वतंत्र रूप में था।  बताया जाता है उक्त क्षेत्र को तात्कालीन राजा ने ठाकुरों को पुरस्कार के रूप में प्रदान कर दिया था। सरोवर की खुदाई के दौरान अवशेष के रूप में सरई का खंभा निकला जो आज भी मौजूद है।
इस मेले के आयोजन के लिये एक मेला समिति कार्यरत है ।  इस समिति द्वारा शिव जी एवं श्री कृष्ण जी का मंदिर भी इस स्थान पर बनवाया गया है। मेला स्थल पर सरोवर के उत्तर-पश्चिम में बूढ़ा महादेव का मंदिर है जिसके ऊपर दुर्गा माता का मंदिर है। बूढ़ा महादेव के पूर्व में काली मॉं व हनुमान जी का मंदिर हैं। बूढ़ा महादेव के पश्चिम में यज्ञ स्थल है। यज्ञ स्थल के दक्षिण में ज्योति कक्ष व मंच है।  मंच के दक्षिण में राधा-कृष्ण, दक्षिण में मुख्य शिव जी, उसके दक्षिण में दुर्गा जी, उसके दक्षिण में एक मंच है। बूढ़ा महादेव के उत्तर में पीछे की ओर एक और दुर्गा माता है तथा उसके ऊपर में एक बड़ी दुर्गा माता है। दुर्गा माता के उत्तर में मंच व ज्योति कक्ष है। बूढ़ा महादेव के पश्चिम में शिव के दो मंदिर हैं।
प्रतिवर्ष पौषपूर्णिमा के एक सप्ताह पूर्व से यहां धार्मिक आयोजन होने लगते हैं ।  इस एक सप्ताह के आयोजन में दिन में धार्मिक आयोजन में रात्रि में सांस्कृतिक आयोजन होता है ।  जूनी मेला का परिसर 14 एकड़ में फैला हुआ है ।  इस परिसर पर मेला अवधी में विभिन्न व्यवसायिक प्रतिष्ठान एवं मनोरंजन केन्द्र सजा होता है ।  इस मेले में आस-पास के क्षेत्रवासीयों के साथ-साथ दूर-दूर के आस्थावन पर्यटक भी पहुॅचते हैं ।
-रमेशकुमार सिंह चौहान
नवागढ, जिला-बेमेतरा छ.ग.

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