छत्तीसगढ़ी छत्तीसगढ़ प्रांत की मातृभाषा एवं राज भाषा है । श्री प्यारेलाल गुप्त के अनुसार ‘‘छत्तीसगढ़ी भाषा अर्धभागधी की दुहिता एवं अवधी की सहोदरा है ।‘‘1 लगभग एक हजार वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ी साहित्य का सृजन परम्परा का प्रारम्भ हो चुका था । अतीत में छत्तीसगढ़ी साहित्य सृजन की रेखयें स्पष्ट नहीं हैं । सृजन होते रहने के बावजूद आंचलिक भाषा को प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी तदापी विभिन्न कालों में रचित साहित्य के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं । छत्तीसगढ़ी साहित्य एक समृद्ध साहित्य है जिस भाषा का व्याकरण हिन्दी के पूर्व रचित है । जिस छत्तीसगढ़ के छंदकार आचार्य जगन्नाथ ‘भानु‘ ने हिन्दी को ‘छन्द्र प्रभाकर‘ एवं काव्य प्रभाकर भेंट किये हों वहां के साहित्य में छंद का स्वर निश्चित ध्वनित होगा ।
छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद के स्वरूप का अनुशीलन करने के पूर्व यह आवश्यक है कि छंद के मूल उद्गम और उसके विकास पर विचार कर लें । भारतीय साहित्य के किसी भी भाषा के काव्य विधा का अध्ययन किया जाये तो यह अविवादित रूप से कहा जा सकता है वह ‘छंद विधा‘ ही प्राचिन विधा है जो संस्कृत, पाली, अपभ्रंष, खड़ी बोली से होते हुये आज के हिन्दी एवं अनुसांगिक बोलियों में क्रमोत्तर विकसित होती रही । हिन्दी साहित्य के स्वर्ण युग से कौन परिचित नही है जिस दौर में अधिकाधिक छंद विधा में काव्य साहित्य का सृजन हुआ । तो इस दौर से छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी छंद से कैसे मुक्त रह सकता था । छत्तीसगढ़ के संदर्भ में यह विदित है कि छत्तीसगढ़ी नाचा, रहस, रामलीला, कृष्ण लीला के मंचन में छांदिक रचनाओं के ही प्रस्तुति का प्रचलन रहा है ।
डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा ने ‘छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास‘ में छत्तीसगढ़ी साहित्य को गाथा युग (सन् 1000 से 1500), भक्ति युग (1500 से 1900) एवं आधुनिक युग (1900 से अब तक) में विभाजित किया है । अतीत में छत्तीसगढ़ी साहित्य लैखिक से अधिक वाचिक परम्परा से आगे आया । उस जमाने में छापाखाने की कमी इसका वजह हो सकता है । किन्तु ये कवितायें अपनी गेयता के कारण, लय बद्धता के कारण वाचिक रूप से आगे बढ़ता गया ।
गाथा काल के ‘अहिमन रानी‘, ‘केवला रानी‘ ‘फुलबासन‘, पण्ड़वानी‘ आदि वाचिक परम्परा के धरोहर के रूप में चिर स्थाई हैं । इसका विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि ये रचनायें अनुशासन के डोर में बंधे छंद के आलोक से प्रदीप्तमान रहा ।
भक्ति काल में कबीर दास के शिष्य और उनके समकालीन (संवत 1520) धनी धर्मदास को छत्तीसगढ़ी के आदि कवि का दर्जा प्राप्त है, जिनके पदों में छंद विधा का पुट मिलता है । जैसे धरमदासजी के इन पंक्तियों में ‘सार छंद‘ दृष्टव्य है-
ये धट भीतर वधिक बसत हे (16 मात्रा)
दिये लोग की ठाठी । (12 मात्रा)
धरमदास विनमय कर जोड़ी (16 मात्रा)
सत गुरु चरनन दासी। (12 मात्रा)
हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के प्रारंभिक दशकों में हिन्दी भाषा, साहित्य और साहित्य शास्त्र के विकास के लिये अथक प्रयत्न किए गए थे । इस प्रयत्न में तीन महान विभूति आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. कामता प्रसाद गुरू एवं छत्तीसगढ़ बिलासपुर के आचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘‘भानु‘‘। ये तीनों क्रमशः भाषा, व्याकरण एवं साहित्य शास्त्र में अद्वितीय योगदान दिये । आचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ ने साहित्य शास्त्र में ‘छंद प्रभाकर‘ (1894) की रचना की । आचार्य ‘भानु‘ स्वयं छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक काल के प्रथम पंक्ति के कवि हैं। आाचार्य ‘भानु‘ छंद को इस प्रकार परिभाषित करते हैं-
‘‘मत बरण गतियति नियम, अंतहि समताबंद ।
ज पद रचना में मिले, ‘भानु‘ भनत स्वइ छंद ।।‘‘ 2
छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक युग में पं. सुन्दरलाल शर्मा छत्तीसगढ़ी साहित्य के पुस्तकर्ता कवि हैं । पं. सुन्दर लाल शर्मा, आचार्य ‘भानु‘ शुकलाल पाण्ड़े, कपिलनाथ मिश्र आदि छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक युग के प्रथम सोपान के कवि हैं । जिनके रचनाओं में छंद सहज ही देखने को मिलते हैं ।
पं. सुदरलाल शर्मा छत्तीसगढ़ी साहित्य के पुरोधा साहित्यकार हैं । इनके रचनाओं में छंद के कई रूप देखने को मिलते हैं । उनके ‘छत्तीसगढ़ी दान लीला‘ में छंद का साहसिक अनुप्रयोग चिर स्थायी है । इन्ही प्रयास को देखते हुये पं. शर्मा को छत्तीसगढ़ी साहित्य के प्रथम सामर्थ्यवान कवि कहा गया । ‘छत्तीसगढ़ी दान लीला‘ में उन्होंने दोहा, चौपाई जैसे प्रचलित छंदो के साथ-साथ त्रोटक छंद पर भी रचनायें की हैं । उनके रचनाओं में कुछ छंद पद दृष्टव्य हैं -
दोहा- जगदिश्वर के पाँव मा, आपन मूड़ नवाय ।
सिरी कृष्ण भगवान के, कहिहौं चरित सुनाय ।।
चौपाई- काजर आंजे अलगा डारे । मुड़ कोराये पाटी पारे
पाँव रचाये बीरा खाये । तरूवा मा टिकली चटकाये
बड़का टेड़गा खोपा पारे । गोंदा खोचे गजरा डारे
नगदा लाली गांग लगाये । बेनी मा फुँदरी लटकाये
खोटल टिकली झाल बिराजै । खिनवा लुरकी कानन राजै
तेखर खल्हे झुमका झूलै । देखत उन्खर तो दिल भूलै
एक-एक के धरे हाथ हे । गिजगिज-गिजगिज करत जात हे
चुटकी-चुटका गोड़ सुहावै । चुटपुट-चुटपुट बाज बजावै 3
- (छत्तीसगढ़ी दान लीला-पं. सुन्दरलाल शर्मा)
शुकलाल प्रसाद पाण्ड़े छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक काल के प्रथम पड़ाव के कवि हैं । शुकलालजी कई प्रकार छन्द के रंग से अपने कलम की स्याही को रंगे हैं-
चौपाई- बहे लगिस फेर निचट गर्रा । जी होगे दुन्नो के हर्रा
येती-ओती खुब झोंका ले । लगिस जहाज निचच्टे हाले
जानेन अब ये देथे खपले । बुड़ेन अब सब समुंद म झप ले
धुक-धुक धुक-धुक धुक्की धड़के । डेरी भुजा नैन हर फरके
दोहा- मुरछा ले झट जाग के, दुन्नो पुरूल पोटार ।
कलप-कलप रोये लगिस, साहुन हर बम्हार ।।
चौबोला- मोर कन्हैया ! अउ बलदाऊ ! मोर राम लछिमन ।
मोर अभागिन के मुँह पोछन ! मोर-परान रतन धन ।।
मोर लेवाई आवा बछर ! चाट देह ला झारौ ।
उर माम सक कसक ला जी के मैहर अपन निकारौ ।। 4
कपिलनाथ कश्यप जी छत्तीसगढ़ी साहित्य को समृद्ध करने अनवरत प्रयास करते रहे । उनके द्वारा रचित दो महाकाव्य उनके अथक प्रयास को ही इंगित करता है । कश्यपजी अपनी रचनाओं में छन्द को सम्यक स्थान दिये हैं । उनके छत्तीसगढ़ी खण्ड़ काव्य ‘हीराकुमार‘ में ‘सरसी छंद‘ का यह उदाहरण-
कंचनपुर मा तइहा तइहा, रहैं एक धनवान ।
जेखर धन-दौलत अतका की, बनै न करत बखान ।।4
श्री कश्यपजी के ‘समधी के फजीता‘ कविता में ‘सार छंद‘ का अनुपम प्रयोग देखते ही बनता है-
दुहला हा तो दुलही पाइस, बाम्हन पाइस टक्का ।
सबै बराती बरा सोंहारी, समधी धक्कम धक्का ।।
नाऊ बजनियां दोऊ झगरे, नेग चुका दा पक्का ।
पास म एको कौड़ी नई हे, समधी हक्का बक्का ।।
काढ़ मूस के ब्याह करायो, गांठी सुख्खम खुख्खा ।
सादी नई बरबादी भइगे, घर मा फुक्कम फुक्का ।।
पूँजी रह तो सबो गंवागे, अब काकर मुँह तक्का ।
टुटहा गाड़ा एक बचे हे, ओखरो नइये चक्का । 5
नरसिंह दास के छत्तीसगढ़ी साहित्य में एक बहुचर्चित नाम है । उन्होंने अपना परिचय ही दोहा छंद में दिया है जिसमें पिंगल शास्त्र का उल्लेख करना उनके छंद के प्रति रूचि को उजागर करता है -
पुत्र पिताम्बर दास के, नरिंसह दास नाम ।
जन्म भूमि घिवरा तजे, बसे तुलसी ग्राम ।।
पिंगल शास्त्र न पढ़ेंव कछु, मैं निरक्षर अधाम ।
अंध मंदमति मूढ़ है, जानत जानकि राम ।। 6
नरसिंह दास के रचनायें कवित्त (घनाक्षरी), सवैया आदि छंद शिल्प से अलंकृत हैं-
कवित्त- आइगे बरात गाँव तीर भोला बबाजी के,
देखे जाबो चला गिंया, संगी ला जगाव रे ।
डारो टोपी धोती पाँव, पैजामा ल कसिगर
गल बंधा अँग-अँग, कुरता लगाव रे ।।
हेरा पनही दोड़त बनही कहे नरसिंग दास
एक बार हुँआ करि, सबे कहूँ धाव रे ।
पहुँच गये सुक्खा भये देखी भूत-प्रेत
कहे नहीं बाचान दाई ददा प्राण ले भगाव रे ।।
सवैया- साँप के कुण्डल कंकण साँप के, साँप जनेउ रहे लपटाई ।
साँप के हार हे साँप लपेटे, हे साँप के पाग जटा सिर छाई ।।
दास नरसिंह देखो सखि रे, बर बाउर हे बइला चढ़ि आई ।
कोउ सखी कहे कइसे हे छी कुछ ढंग खीख हावे छी दाई ।। 7
छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक काल के द्वितीय सोपान स्वाधीनता आंदोलन एवं आजादी के पश्चात भारत निर्माण काल में उदित हुआ । इस युग के हस्ताक्षर नारायण लाल परमार, कुंजबिहारी चौबे, द्वारिका प्रसाद तिवारी ‘विप्र‘, कोदूराम दलित एवं श्यामलाल चतुर्वेदी हुये ।
नारायल लाल परमार के रचनाओं में गेय छंद के साथ-साथ मुक्त छंद भी मिलते हैं । श्यामलाल चतुर्वेदी जी के रचना में सार छंद दृष्टव्य है -
रात कहै अब कोन दिनो मा, घपटे हैं अँधियारी ।
सूपा सही रितोवय बादर, अलमल एक्केदारी ।।
सुरूज दरस कहितिन कोनो, बात कहां अब पाहा ।
हाय-हाय के हवा गइस गुंजिस अब ही-ही हाहा ।।
कोदूराम ‘दलित‘ को छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद को स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है । ‘दलित‘ जी शास्त्रीय छंद के अनुरूप विभिन्न छंदों का अपनी रचनाओं में भरपूर प्रयोग किये हैं । कुछ छंदों पर उनकी रचनाएं इस प्रकार रेखांकित हैं -
दोहा- पाँव जान पनही मिलय, घोड़ा जान असवार ।
सजन जान समधी मिलय, करम जान ससुरार ।।
कुण्ड़लियां- छत्तीसगढ़ पैदा करय , अड़बड़ चाँउर दार
हवय लोग मन इहाँ के, सिधवा अउ उदार
सिधवा अउ उदार, हवयँ दिन रात कमावयँ
दे दूसर ला भात , अपन मन बासी खावयँ
ठगथयँ बपुरा मन ला , बंचक मन अड़बड़
पिछड़े हवय अतेक, इही करन छत्तीसगढ़ ।।
चौपाई- बन्दौं छत्तीसगढ़ शुचिधामा । परम मनोहर सुखद ललामा
जहाँ सिहावादिक गिरिमाला । महानदी जहँ बहति विशाला
मनमोहन वन उपवन अहई । शीतल - मंद पवन तहँ बहई
जहँ तीरथ राजिम अतिपावन । शवरी नारायण मन भावन
अति उर्वरा भूमि जहँ केरी । लौहादिक जहँ खान घनेरी
उपजत फल अरु विविध अनाजू । हरषित लखि अति मनुज समाजू
बन्दौं छत्तीसगढ़ के ग्रामा । दायक अमित शांति दृ विश्रामा
बसत लोग जहँ भोले-भाले । मन के उजले तन के काले
धारण करते एक लँगोटी । जो करीब आधा गज होती
मर मर कर दिन-रात कमाते द्य पर-हित में सर्वस्व लुटाते 8
छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक काल तृतीय सोपान के आधार स्तम्भ श्री नारायण लाल परमार ने मुक्त छन्द को जन्म दिया और लखन लाल गुप्त ने इसे स्वीकारा । लाला जगदलपुरी, विमल पाठक, विनय पाठक, केयर भूषण, दानेश्वर शर्मा, मुकुन्द कौशल, लक्ष्मण मस्तुरिया, हरि ठाकुर नरेन्द्र वर्मा आदि कवियों ने छत्तीसगढ़ी साहित्य के यज्ञ में अपनी आहूति दी हैं । इस दौर में भी छन्द की छनक गुंजित रही-
पं.दानेश्वर शर्मा घनाक्षरी छन्द को ध्वनित करते हुये लिखते हैं-
बइठ बहिनी पारवती काय साग राँधे रहे
हालचाल कइसे हवय परभू ‘पसुपति के ?
बइठत हवँव लछमिन, जिमी कांदा राँधे रहेंव
‘पसुपति‘ धुर्रा छानत होही वो बिरिज के
टोला नहीं कहँ बही, पूछत हवँव आन ल
कहां हवय आजकल साँप् के धरइया ह?
महू तो उही ल कहिथँव, कालीदाह गेय होही
पुक-गेंद खेलत होही नाँग के नथइया ह ।
छत्तीसगढ के सुप्रसिद्ध गायक कवि लक्ष्मण मस्तुरिया ऐसे तो अपने आव्हान के गीत के लिये जाने जाते हैं किन्तु उनके द्वारा रचित दोहों की भी कम प्रसिद्धि नही है -
भेड़ चाल भागे नही, मन मा राखे धीर ।
काम सधे मनखे बने, मगन रहे गँभीर ।।
जोरे ले दुख नइ घटे, छोड़े ले सुख आय ।
पेट भरे ओंघावत बइठे, भुखहा दउंडत जाय ।।
धन संपत जोरे बहुत, नइ जावे कु साथ ।
पुरखा-पीढ़ी खप गए, सब गे खाली हाथ ।।
सुख-छइहां बाहर नहीं, अपने भीतर खोज ।
सबले आगू मया मिले, रद्दा रेंगव सोझ ।।
लक्ष्मण मस्तुरिया द्वारा रचित ‘सोनाखान के आगी‘ आल्हा छंद के धुन ले अनुगुजित हे-
धरम धाम भारत भुईंया के, मंझ मे हे छत्तीसगढ़ राज ।
जिहां के माटी सोनहा धनहा, लोहा कोइला उगलै खान ।।
जोंक नदी इन्द्रावती तक ले, गढ़ छत्तीसगढ़ छाती कस ।
उती बर सरगुजा कटाकट, दक्खिन बस्तर बागी कस ।।
जिहां भिलाई कोरबा ठाढ़े, पथरा सिरमिट भरे खदान ।
तांबा-पीतल टीन कांछ के, इहां माटी म थाथी खान ।।9
छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना के पश्चात छत्तीसगढ़ी साहित्य में एक नये दौर का प्रारंभ हुआ । इससे पूर्व छत्तीसगढ़ी को हेय की दृष्टि से देखा जाता था । इस दृष्टि कोण में अंतर आया फिर छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त होना छत्तीसगढ़ी साहित्य के लिये एक वरदान साबित हुआ । इस दौर में अनेक साहित्यकार जो छत्तीसगढ़ी को हेय की दृष्टि से देखा करते थे, अब इस भाषा में लिखने को तत्पर दिखे । छत्तीसगढ़ी काव्य साहित्य अनेक काव्य शिल्प गजल, मुक्तक, गीत, हाइकू आदि में लिखे जाने लगे । ‘छंद शिल्प‘ का भी उत्थान हुआ । रामकैलाश तिवारी ‘रक्तसुमन‘ ने छत्तीसगढ़ी में ‘दीब्य-गीता‘ की रचना की है जिसमें दोहा को ‘दुलड़िया‘ एवं चौपाई को ‘चरलड़िया‘ नाम दिये हैं -
दोहा (दुइलड़िया)- गीता जी के ज्ञान पढ़, जउन समझ नहि पाय ।
अइसन मनखे असुर जस, अधम बनय बछताय ।।
चौपाई (चरलड़िया) जउन पढ़य नहि गीता भाई । मनखे तन सूंरा के नाई
जे जानय नहि गीता भाई । अधम मनुख के कहां भलाई 10
छत्तीसगढ़ी साहित्य में अपनी समिधा अर्पित करते हुये बुधराम यादव ने दोहा छंद पर कार्य किया उनका यह प्रयास सदैव वंदनीय रहेगा । श्री यादव हिन्दी साहित्य के स्वर्ण युग के ‘दोहा सतसई‘ की तरह छत्तीसगढ़ी में सतसई दोहा संग्रह ‘चकमक चिन्गारी भरे‘ छत्तीसगढ़ साहित्य को दिये हैं जिनमें 700 दोहों का संग्रह है । कुछ स्मरणीय है-
तैं लूबे अउ टोरबे, जइसन बोबे बीज ।
अमली आमा नइ फरय, लाख जतन ले सींच ।।
नदिया तरिया घाट अउ, गली खोर चौपाल ।
साफ-सफाई नित करन, बिन कुछु करे सवाल ।।11
छत्तीसगढ़ी साहित्य के काव्य शिल्प में अरूण निगम द्वारा 2015 में रचित ‘छन्द के छ‘ छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद शिल्प को प्रोत्साहित करने में सफल रहा । ‘छन्द के छ‘ में प्रत्येक स्वरचित छंद के नीचे उस छंद के छंद विधान को समझाया गया है । मात्रा गिनने के रीति, छंद गठन की रीति को सहज छत्तीसगढ़ी में समझाया गया है । इस पुस्तक में प्रचलित छंद दोहा, सोरठा, रोला, कुण्ड़लियां छप्पय, गीतिका घनाक्षरी आदि के साथ-साथ अप्रचलित छंद शोभान, अमृत ध्वनि, कुकुभ, छन्न पकैया, कहमुकरिया आदि को जनसमान्य के लिये प्रस्तुत किया गया है । जहां आदरणीय कोदूराम ‘दलित‘ ने छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद का बीजारोपण किया वहीं उनके सुपुत्र अरूण निगम की रचनाओं में छंद पुष्पित पल्लवित दृष्टिगोचर हो रहा है । निगमजी के छंद साधना को उनके रचनाओं में महसूस किया जा सकता है -
गंगोदक सवैया- खेत मा साँस हे खेत मा आँस हे खेत हे तो इहाँ देह मा जान हे ।
देख मोती सहीं दीखथे गहूँ, धान के खेत मा सोन के खान हे ।।
माँग के खेत ला का बनाबे इहाँ खेत ला छोड़ ये मोर ईमान हे ।
कारखाना लगा जा अऊ ठौर मा, मोर ये खेत मा आन हे मान हे ।
जलहरण घनाक्षरी- रखिया के बरी ला बनाये के बिचार हवे
धनी टोर दूहूँ छानी फरे रखिया के फर
डरिद के दार घलो रतिहा भिंजोय दूहूँ
चरिहा मा डार, जाहूँ तरिया बड़े फजर
दार ला नँगत धोहूँ चिबोर-चिबोर बने
फोकला ला फेक दूहूँ दार दिखही उज्जर
तियारे पहटनीन ला आही पहट काली
सील लोढ़हा मा दार पीस देही वो सुग्घर
कहमुकरिया- सौतन कस पोटारिस बइहांँ
डौकी लइका कल्लर कइयाँ
चल-चलन मा निच्चट बजारू
क सखि भाटो, ना सखि दारू 12
अरूण निगमजी सेवा निवृत्ति के पश्चात छंद के प्रति समर्पित जीवन यापन कर रहे हैं । सोशल मिडिया वॉटश्षएप में ‘छन्द के छ‘ नामक समूह बनाकर छन्द पाठ को रचनाधर्मीयों को बांट रहे हैं । उनके इस सद्प्रयास की उपज श्रीमती शंकुतला शर्मा, श्री सूर्यकांत गुप्ता, श्री हेमलाल साहू, श्री चोवा राम वार्मा आदि हैं जो छंद के ध्वज वाहक बन रहे हैं ।
निगमजी के प्रेरणा से मैं सोशल मिडिया के फेसबुक मे ‘छत्तीसगढ़ी साहित्य मंच‘ नामक सार्वजनिक समूह में छंद का अलख जगाने का प्रयास कर रहा हूॅ । छंद कर्म करते हुये मैने जनवरी 2016 छत्तीसगढ़ी कुण्डलियां संग्रह ‘आँखी रहिके अंधरा‘ लिखी है । अगस्त 2017 में मेरे द्वारा रचित ‘दोहा के रंग‘ का विमोचन हुआ है, जिसमें मैंने दोहा छंद के विधान को समझाने का प्रयास किया है ।
मैंने 2014 में ‘सुरता‘ छत्तीसगढ़ी कविता के कोठी में कुछ छंद जैसे दोहा, रोला कुण्ड़लियां, सवैया, आल्हा, गीतिका, हरिगीतिका, त्रिभंगी, घनाक्षरी छंद में कुछ छत्तीसगढ़ी कविताये लिखी हैं और उस छंद को उसी छंद में परिभाषित करने का प्रयास किया -
दोहा- चार चरण दू डांड के, होथे दोहा छंद ।
तेरा ग्यारा होय यति, रच ले तैं मतिमंद ।।
रोला- आठ चरण पद चार, छंद सुघ्घर रोला के ।
ग्यारा तेरा होय, लगे उल्टा दोहा के ।।
विषम चरण के अंत, गुरू लघु जरूरी होथे ।
गुरू-गुरू के जोड़, अंत सम चरण पिरोथे ।।
आल्हा- दू पद चार चरण मा, रहिथे सुघ्घर आल्हा छंद ।
विषम चरण के सोलह मात्रा, पंद्रह मात्रा बाकी बंद ।।
गीतिका छंद- गीत गुरतुर गा बने तैं, गीतिका के छंद ला ।
ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ।
मातरा छब्बीस होथे, चार पद सुघ्घर गुथे ।
आठ ठन एखर चरण हे, गीतिका एला कथे ।13
अभी-अभी जनवारी 201 में छत्तीसगढ़ी राजभाषा के प्रांतीय सम्मेमलन छंद से संबंधित दो पुस्तको ‘छंद चालीसा‘ एवं छंद बिरवा‘ का विमोचन हुआ जो छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद के लिये एक नये अध्याय का सूत्रपात है । श्री चोवाराम वर्मा ‘बादल’ रचित ‘छंद बिरवा‘ में 50 प्रकार के मात्रिक एवं वार्णिक छंदों के विधान एवं उदाहरण दिया गया है । मेरे द्वारा रचित ‘छंद चालीसा‘ में चालीस छंदों को उसी छंद में उकेरते हुये विधान एवं उदाहरण स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है ।
छत्तीसगढ़ी साहित्य के आदि काल से आज तक अनके कवियों के रचनाओं में ‘छंद विधा‘ के दर्शन होते हैं । किन्तु छत्तीसगढ़ी लोक भाषा के रूप लोकगीतों ददरिया, सुवा, भोजली, भड़ौनी, करमा, पंथी आदि को पल्लवित करती रही है । इन गीतों का प्रभाव छत्तीसगढ़ी साहित्य में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है । ऐसा प्रतित होता है कि गेयता को प्रमख साधन मान कर छत्तीसगढ़ी काव्य का सृजन हुआ है यही कारण है छंद के विधान के मात्रिकता, वार्णिकता को महत्व न देकर उनके लय, प्रवाह को आधार मानकर कई कवियों ने अपनी रचनाओं में छंद विधा का प्रयोग करने का प्रयास किये हैं । इन रचनाओं में छंद का आभास तो मिलता है किन्तु छंद विधान का पालन पूरी तरह से नही किया गया है । इसके उपरांत भी यह कहना अतिशियोक्ति नही होगा कि- ‘छत्तीसगढ़ी साहित्य छंद विधा से ओत-प्रोत है ।
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