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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

दैनिक जीवन में विज्ञान


प्रकृति को जानने समझने की जिज्ञासा प्रकति निर्माण के समान्तर चल रही है । अर्थात जब से प्रकृति का अस्तित्व तब से ही उसे जानने का मानव मन में जिज्ञासा है । यह जिज्ञासा आज उतनी ही बलवती है, जितना कल तक था । जिज्ञास सदैव असंतृप्त होता है । क्यों कैसे जैसे प्रष्न सदैव मानव मस्तिक में चलता रहता है । इस प्रष्न का उत्तर कोई दूसरे से सुन कर षांत हो जाते हैं तो कोई उस उत्तर को धरातल में उतारना चाहता है ।  अर्थात करके देखना चाहता, इसी जिज्ञासा से जो जानकारी प्राप्त होती है, वही विज्ञान है । विज्ञान कुछ नही केवल जानकारियों का क्रमबद्ध सुव्यवस्थित होना है, केवल ज्ञान का भण्ड़ार होना नही । गढ़े हुये धन के समान संचित ज्ञान भी व्यर्थ है, इसकी सार्थकता इसके चलायमान होने में है ।
विज्ञान-प्रकृति के सार्वभौमिक नियमों को क्यों? और कैसे? जैसे प्रश्नों में विभक्त करके विश्लेषण करने की प्रक्रिया से प्राप्त होने वाले तत्थों या आकड़ों के समूह को विशिष्ट ज्ञान या संक्षिप्त में विज्ञान कहते हैं।
आईये प्राकृति के किसी सार्वभौमिक नियम का विश्लेषण करके जाने-
प्रकृति का सार्वभौमिक नियम- धूप में टंगे हुये गीले कपड़े सूख जाते हैं। क्यों? और कैसे?
विश्लेषण- सूरज की किरणों में कई तरह के अवरक्त विकिरण होते हैं। जो तरंग के रूप में हम तक पहुंचते हैं। इन अवरक्त विकिरणों में बहुत अधिक ऊर्जा होती है। ये ऊर्जा कपड़े में मौजूद पानी के अणुओं द्वारा सोख ली जाती है। जिसकी वजह से वो कपड़े की सतह को छोड़कर वायुमण्डल में चले जाते हैं। पानी के सारे कण जब कपड़े की सतह को छोड़ देते हैं तो कपड़ा सूख जाता है।
विशिष्ट ज्ञान या विज्ञान- अणु अपनी ऊर्जा स्तर के आधार पर अपनी स्थिती में बदलाव कर लेते हैं तथा एक नई संरचना धारण कर लेते हैं।
जैसे-
1.लोहे के अणुओं को बहुत अधिक ऊर्जा दे दी जाय तो वो पिघल कर द्रव में बदल जाते हैं।
2.मिट्टी की ईटों को बहुत अधिक ऊर्जा देने पर वो पहले से ज्यादा ठोस हो जाती हैं।
3.पानी के अणुओं की ऊर्जा सोख लेने पर वो जमकर बर्फ में बदल जाते हैं।
सिद्धांत क्या है ?
एक सिद्धांत एक वैज्ञानिक आधार मजबूत सबूत और तार्किक तर्क पर सुझाव के रूप में परिभाषित किया गया है। एक सिद्धांत सिद्ध नहीं किया गया है, लेकिन एक वैज्ञानिक मुद्दे को एक सत्य प्रतीत होने वाला स्पष्टीकरण होने का विश्वास है।

वैज्ञानिक विधि-
1.क्रमबद्धप्रेक्षण 2. परिकल्पना निर्माण 3. परिकल्पना का परीक्षण 4.सिद्धांत कथन
दैनिक जीवन में विज्ञान- जीवन के हर क्षेत्र उपयोगी ।
प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा तकनीक को जानने के लिये पुरातत्व और प्राचीन साहित्य का सहारा लेना पडता है। प्राचीन भारत का साहित्य अत्यन्त विपुल एवं विविधतासम्पन्न है। इसमें धर्म, दर्शन, भाषा, व्याकरण आदि के अतिरिक्त गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, रसायन, धातुकर्म, सैन्य विज्ञान आदि भी वर्ण्यविषय रहे हैं।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में प्राचीन भारत के कुछ योगदान निम्नलिखित हैं-
जब किसी व्यक्ति को यह बात बताई जाती है कि हमारे देश में प्राचीन काल में बौधायन, चरक, कौमरभृत्य, सुश्रुत, आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, वाग्भट, नागार्जुन एवं भास्कराचार्य जैसे विश्वविख्यात वैज्ञानिक हुए हैं तो वह सहसा विश्वास ही नहीं कर पाता। इसका एक कारण यह भी है कि लम्बे समय की हमारी गुलामी ने हमारी इस अविछिन्न समृद्ध वैज्ञानिक परम्परा को छिन्न भिन्न कर डाला....अंग्रेजों के औपनिवेशिक विस्तार ने लुप्त प्राय ज्ञान को एक बार फिर अन्वेषित तो किया मगर उनका उद्येश्य हमें गुलाम बनाये रखना और अपनी प्रभुता स्थापित करने का ही था। तथापि अंग्रेजी भाषा के माध्यम से जब पश्चिमी वैज्ञानिक चिंतन ने इस देश की धरती पर पुनः कदम रखा, तो हमारे देश की सोई हुई मेधा जाग उठी और देश को जगदीश चंद्र बसु, श्रीनिवास रामानुजन, चंद्रशेखर वेंकट रामन, सत्येन्द्र नाथ बसु आदि महान वैज्ञानिक प्राप्त हुए, जिन्होंने असुविधाओं से लड़कर अपनी खोजीवृत्ति का विकास किया और एक बार फिर सारी दुनिया में भारत का झण्डा लहराया।

गणित - वैदिक साहित्य शून्य के कांसेप्ट, बीजगणित की तकनीकों तथा कलन-पद्धति, वर्गमूल, घनमूल के कांसेप्ट से भरा हुआ है।
खगोलविज्ञान - ऋग्वेद (2000 ईसापूर्व) में खगोलविज्ञान का उल्लेख है।
भौतिकी - ६०० ईसापूर्व के भारतीय दार्शनिक ने परमाणु एवं आपेक्षिकता के सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख किया है।
रसायन विज्ञान - इत्र का आसवन, गन्दहयुक्त द्रव, वर्ण एवं रंजकों (वर्णक एवं रंजक) का निर्माण, शर्करा का निर्माण
आयुर्विज्ञान एवं शल्यकर्म - लगभग ८०० ईसापूर्व भारत में चिकित्सा एवं शल्यकर्म पर पहला ग्रन्थ का निर्माण हुआ था।
ललित कला - वेदों का पाठ किया जाता था जो सस्वर एवं शुद्ध होना आवश्यक था। इसके फलस्वरूप वैदिक काल में ही ध्वनि एवं ध्वनिकी का सूक्ष्म अध्ययन आरम्भ हुआ।
यांत्रिक एवं उत्पादन प्रौद्योगिकी - ग्रीक इतिहासकारों ने लिखा है कि चौथी शताब्दी ईसापूर्व में भारत में कुछ धातुओं का प्रगलन (स्मेल्टिंग) की जाती थी।
सिविल इंजीनियरी एवं वास्तुशास्त्र - मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त नगरीय सभयता उस समय में उन्नत सिविल इंजीनियरी एवं आर्किटेक्चर के अस्तित्व को प्रमाणित करती है।

होमा जहाँगीर भाभा - भाभा को भारतीय परमाणु का जनक माना जाता है इन्होने ही मुम्बई में भाभा परमाणु शोध संस्थान की स्थापना की थी
विक्रम साराभाई - भाभा के बाद वे परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष बने वे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान  राष्ट्रीय समिति के प्रथम अघ्यक्ष थे थुम्बा में स्थित इक्वेटोरियल रॉकेट प्रक्षेपण केन्द्र के वे मुख्य सूत्रधार थे
एस . एस . भटनागर - इन्हें विज्ञानं प्रशासक के रूप में अपने शानदार कार्य के लिये जाना जाता है इन्होंने देश में वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की स्थापना की थी
सतीश धवन  - सतीश धवन को विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा, सन 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया थाध्वनि के तेज रफ्तार (सुपरसोनिक) विंड टनेल के विकास में इनका प्रयास निर्देशक रहा है
जगदीश चंद्र बसु- ये भारत के पहले वैज्ञानिक शोधकर्त्ता थे 1917 में जगदीश चंद्र बोस को ष्नाइटष् की उपाधि प्रदान की गई तथा शीघ्र ही भौतिक तथा जीव विज्ञान के लिए श्रॉयल सोसायटी लंदनश् के फैलो चुन लिए गए इन्होंने ही बताया कि पौंधों में जीवन होता है
चंद्रशेखर वेंकट रमन - इन्होने स्पेक्ट्रम से संबंधित रमन प्रभाव का आविष्कार किया था जिसके कारण इन्हें 1930 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था
बीरबल साहनी -बीरबल साहनी अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पुरावनस्पति वैज्ञानिक थे इन्हें भारत का सर्व श्रेष्ठ पेलियो-जियोबॉटनिस्ट माना जाता है
सुब्रमण्यम चंद्रशेखर  - 1983 में तारों पर की गयी अपनी खोज के लिये इन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था
हरगोविंद खुराना - इन्होने जीन की संश्लेषण किया जिसके लिए इन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था
ए.पी.जे. अब्दुल कलाम -जिन्हें मिसाइल मैन और जनता के राष्ट्रपति के नाम से जाना जाता है इन्होंने अग्नि एवं पृथ्वी जैसे प्रक्षेपास्त्रों को स्वदेशी तकनीक से बनाया था भारत सरकार द्वारा उन्हें 1981 में पद्म भूषण और 1990 में पद्म विभूषण का सम्मान प्रदान किया गया
क्या धर्म विज्ञान है -
‘मेरे लिए धर्म परम विज्ञान है, सुप्रीम साइंस है। इसलिए मैं नहीं कहूंगा कि धर्म का कोई भी आधार फेथ पर है। कोई आधार धर्म का फेथ पर नहीं है। धर्म का सब आधार नॉलेज पर है।

साइंस, सुप्रीम साइंस! लेकिन साधारणतः धर्म के संबंध में समझा जाता है कि वह विश्वास है, फेथ है। वह गलत है समझना, मेरी दृष्टि में। मेरी दृष्टि में, धर्म भी एक और तरह का ज्ञान है। और धर्म के जितने भी सिद्धांत हैं, वे किसी के ज्ञान से निःसृत हुए हैं, किसी के विश्वास से नहीं। इसलिए मेरा निरंतर जोर है कि मानें मत, जानने की कोशिश करेंय और जिस दिन जान लें उसी दिन मानें। जान कर जो मानना आता है, उसका नाम तो श्रद्धा हैय और बिना जाने जो मानना आता है, उसका नाम विश्वास है। श्रद्धा तो ज्ञान की अंतिम स्थिति है और विश्वास अज्ञान की स्थिति है। और धर्म अज्ञान नहीं सिखाता।

इसलिए मैंने जो कहा है कि आवागमन को मत मानें, पुनर्जन्म को मत मानें, इसका यह मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि आवागमन नहीं है। इसका यह मतलब भी नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि पुनर्जन्म नहीं है। मैं यही कह रहा हूं कि मान लिया अगर तो खोज बंद हो जाती है। जानने की कोशिश करें। और जानना तो तभी होता है जब सम्यक संदेह, राइट डाउट मौजूद हो। उलटा भी मान लें तो भी संदेह नहीं रह जाता। अगर मैं यह भी मान लूं कि पुनर्जन्म नहीं है, तो भी खोज बंद हो जाती है। अगर मैं यह भी मान लूं कि पुनर्जन्म है, तो भी खोज बंद हो जाती है। खोज तो सस्पेंशन में है। मुझे न तो पता है कि है, न मुझे पता है कि नहीं है। तो मैं खोजने निकलता हूं कि क्या है, उसे मैं जान लूं।‘
-ओषो
सिद्धांत क्या है ?
एक सिद्धांत एक वैज्ञानिक आधार मजबूत सबूत और तार्किक तर्क पर सुझाव के रूप में परिभाषित किया गया है। एक सिद्धांत सिद्ध नहीं किया गया है, लेकिन एक वैज्ञानिक मुद्दे को एक सत्य प्रतीत होने वाला स्पष्टीकरण होने का विश्वास है।
आविष्कार
आविष्कार नितांत नवीन और अभूतपूर्व होता है । यूँ मेटाफिजिक्स की दृष्टि से देखें तो अभूतपूर्व भी कुछ नहीं होता । सब कुछ रिपीट होता है, बस केवल हमारे सामने जो पहली बार प्रकट होता है हम उसे आविष्कार मान लेते हैं ।
प्राकृतिक संसाधन
 वो प्राकृतिक पदार्थ हैं जो अपने अपक्षक्रित (?) मूल प्राकृतिक रूप में मूल्यवान माने जाते हैं। एक प्राकृतिक संसाधन का मूल्य इस बात पर निर्भर करता है की कितना पदार्थ उपलब्ध है और उसकी माँग (कमउंदक) कितनी है। प्राकृतिक संसाधन दो तरह के होते हैं-

नवीकरणीय संसाधन और
अनवीकरणीय संसाधन
प्राकृतिक संसाधन वह प्राकृतिक पूँजी है जो निवेश की वस्तु में बदल कर बुनियादी पूंजी (पदतिंजतनबजनतंस बंचपजंस) प्रक्रियाओं में लगाई जाती है।ख्1,ख्2, इनमें शामिल हैं मिट्टी, लकड़ी, तेल, खनिज और अन्य पदार्थ जो कम या ज्यादा धरती से ही लिए जाते हैं। बुनियादी संसाधन के दोनों निष्कर्षण शोधन (तमपिदपदह) करके ज्यादा शुद्ध रूप में बदले जाते हैं जिन्हें सीधे तौर पर इस्तेमाल किया जा सके, (जैसे धातुएँ, रिफाईंड तेल) इन्हें आम तौर पर प्राकृतिक संसाधन गतिविधियाँ माना जाता है, हालांकि जरूरी नही की बाद में हासिल पदार्थ, पहले वाले जैसा ही लगे।
आज भी ऊर्जा के परम्परागत स्रोत महत्वपूर्ण हैं, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता, तथापि ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोतों अथवा वैकल्पिक स्रोतों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। इससे एक ओर जहां ऊर्जा की मांग एवं आपूर्ति के बीच का अन्तर कम हो जाएगा, वहीं दूसरी ओर पारम्परिक ऊर्जा स्रोतों का संरक्षण होगा, पर्यावरण पर दबाव कम होगा, प्रदूषण नियंत्रित होगा, ऊर्जा लागत कम होगी और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक जीवन स्तर में भी सुधार हो पाएगा।

वर्तमान में भारत उन गिने-चुने देशों में शामिल हो गया है, जिन्होंने 1973 से ही नए तथा पुनरोपयोगी ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करने के लिए अनुसंधान और विकास कार्य आरंभ कर दिए थे। परन्तु, एक स्थायी ऊर्जा आधार के निर्माण में पुनरोपयोगी ऊर्जा या गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग के उत्तरोत्तर बढ़ते महत्व को तेल संकट के तत्काल बाद 1970 के दशक के आरंभ में पहचाना जा सका।

आज पुनरोपयोगी और गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के दायरे में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल विद्युत्, बायो गैस, हाइड्रोजन, इंधन कोशिकाएं, विद्युत् वहां, समुद्री उर्जा, भू-तापीय उर्जा, आदि जैसी नवीन प्रौद्योगिकियां आती हैं

जेवारा (जंवारा)



हमर छत्तीसगढ़ मा शक्ति के अराधना के एक विशेषा महत्व हे । छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल से ले के मैदानी क्षेत्र तक आदि शक्ति के पूरा साल भर पूजा पाठ चलत रहिथे । आदि शक्ति अराधना के विशेषा पर्व होथे, जेला नवरात के नाम से जाने जाथे । नवारात पर्व एक साल मा चार बार होथे । दू नवारात ला गुप्त नवरात अउ दून ठन ला प्रगट नवरात कहे जाथे । प्रगट नवरात ला हम सब झन जानथन । पहिली नवरात नवासाल के शुरूच दिन ले शुरू होथे चइत नवरात जेला वासंतीय नवरात के नाम ले जाने जाथे । दूसर नवरात होथे कुंवार महिना के अंजोरी पाख के एकम ले नौमी तक । दूनों नवरात मा देवी के अराधना करे जाथे । मंदिर देवालय मा अखण्ड़ जोत जलाये जाथे । दूनों नवरात मा पूजा पाठ अराधना के एके जइसे महत्व हे फेर लोकाचार लोकाव्यवहार मा दूनों मा कुछ आधारभूत अंतर हे । कुवार नवरात मा मां दुर्गा के प्रतिमा बना के गांव-गांव उत्सव मनाये जाथे । ये काम चइत नवरात मा नई होवय । चइत नवरात कुछ भक्त मन अपन घर मा मां के अराधना करे बर अखण्ड़ जोत जलाथे जेखर साथ गेहू बोये जाथे ऐही ला जंवारा कहिथे ।
वास्तव मा गेहूं के पौधा ला ही जंवारा कहे जाथे, फेर पर्व मा श्रद्धा से आदिषक्ति के वास येमा माने जाथे । येही जेवारा बोना कहे जाथे । येही हा दू प्रकार के होथे- ंपहिली सेत जंवारा, दूसर मारन वाले जेवारा । दूनो जंवारा के बोये के, पूजा पाठके, सेवा करे के विधि सब एक होथे ।  अंतर केवल ऐखर विसर्जन के दिन के रीत मा होथे । सेत जंवारा मा केवल नारियल के भेट करत जंवारा विर्सजन करे जाथे जबकि मारन जंवारा मा बलि प्रथा के निर्वाहन करे जाथे ।
जंवारा चइत महिना के एकम ले लेके पुन्नी तक मनाये जाथे । सेत जंवारा के पर्व मंदिर के पर्व के साथ षुरू होथे अउ होही तिथि मा विसर्जित घला होथे यने कि एकम ले षुरू होके नवमी तक । जबकि मारन जंवारा एकम से लेके अश्टमी तक कोनो दिन षुरू होथे अउ षुरू होय के आठ दिन बाद विसर्जित होथे ।
जंवारा पर्व के चार प्रमुख चरण होथे -
1.बिरही    2. घट स्थापना या जोत जलाना 3.अष्टमी या अठवाही  4. विर्सजन
    सबले पहिली बिरही होथे बिरही यने के गहूं मा जरई जमाना (अंकुरण) आय लेकन येहू ला पूजा पाठ अउ श्रद्धा ले करे जाथे, षुरू दिन सूर्यास्त के बाद पूजा पाठ के बाद साफ गहू ला भींगो के रात भर छोड़ दे जाथे । वैज्ञानिक रूप ले रात भर भींगे गहू अंकुरत हो जाथे । दूसर दिन बा्रम्हण पुरोहित के षोधे गे समय मा पूजा पाठ करके अखण्ड़ दीपक जलाये जाथे जउन हा विसर्जन तक पूरा नव दिन-रात जलथे । येही ला जोत कहे जाथे ।  ये जोत के साथ-साथ नवा-नवा चुरकी मा साफ बोये के लइक माटी डाल के बिरही (जरई आय गहूं) ला सींच दे जाथे । जब गहू जाम जथे ता येला बिरवा कहे जाथे, जउन हा रोज रोज बाढ़त जाथे । ये बिरवा मा दाई वास माने जाथे । बिरवा जल्दी जल्दी बाढ़य बढ़िया रहय ये सोच ले के रोज मां सेवा करे जाथे । मां के सेवा करे के येमारा अर्थ बिरवा अउ जोती के देख-रेख करना अउ मां ला खुष रखें मां बढ़ई करना, गुणगान करना, होथे । मां के गुणगाण करत जउन गीत गाये जाथे होही ला जस गीत कहे जाथे । ये गीत के गवईया मन ला सेऊक कहे जाथे । सेऊक मन ढ़ोलक, मांदर, झांझ, मंजिरा के संग मा के गीत गाथें, ये गीत अपन अलगे लय होथे । जउन एतका मधुर होथे कुछ भगत मन गीत के लय मा झूमें लगथें जेला, देवता चढ़ना कहे जाथे । ये गाना बजना लगातार नव दिन तक चलत रहिथे । आठवां दिन ला अठवाही कहे जाथे, ये दिन मां के पूजा पाठ के षांति अउ होय भूलचूक के माफी बर हूम-हवन करे जाथे । येही दिन हिती-प्रीतू मन ओखर घर जांके जंवारा (फूलवारी) मा नारियल के भेंट चढ़ाथे । आखिर नवां दिन जोत अउ जंवारा के विर्सजन करे जाथे । विर्सजन गांव भर के लइका सियान आये सगा-पहूना मन भाग लेथे । सेउक मन जसगीत गात चलते । सेत मा सब झन नरियर के भेंट करत रहिथे । मारन मा जोत विर्सजन मा घर ले नदिया ले जाये के बेरा घर मा ही भेड़वा बोकरा के बली दे जाथे । बाकी विधि एके रहिथे ।
    जसगीत मा आदिषक्ति के गुणगान ही रहिथे कोनो पौराणिक कथा के आधार मा मां के स्तुति करना हे । चूंकि मां के रूप ला जंवारा मा, जोत मा निहीत मान लेथन ता ये जोत अउ जंवारा के स्तुति करना जस आय । जस मने दाई के यषगान करना आय । छत्तीसगढ़ मा गाये गे गीत के विधा ददरिया, करमा, भडौनी, सोहर, लोरिक चंदा, जस अइसे कहू गिनती करे जाये ता सबले जाथा जस गीत ही पाये जाही ।          

संबंध पहले जन्म लिया या प्यार

लाख टके का प्रश्न है कि संबंध पहले जन्म लिया या प्यार । नवजात शिशु को कोई प्यार करता है इसलिये उसे पुत्र-पुत्री के रूप में स्वीकार करता है अथवा पुत्र-पुत्री मान कर उससे प्यार करता है । यदि पहले तर्क को सही माना जाये तो कोई भी व्यक्ति  किसी भी बच्चे को प्यार कर अपने संतान के रूप में स्वीकार कर सकता है अथवा स्वयं के संतान उत्पन्न होने पर कुछ दिन सोचेंगे कि इससे प्यार करे या ना करे कुछ दिनों पश्चात उस नवजात से प्रेम नही हो पाया तो उसे अपना संतान मानने से इंकार कर देंगे । दूसरे तर्क को सही माना जाये तो संतान उत्पन्न होने पर मेरा संतान है यह संबंध स्थापित कर उससे प्रेम स्वमेव हो जाता है इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति से संबंध स्थापित करने के पष्चात उससे प्रेम कर सकते हैं ।

‘प्यार किया नही जाता प्यार हो जाता है‘ इस पंक्ति का यदा कदा हर  युवक कभी न कभी उपयोग किया ही होगा किन्तु इस पर गंभीर चिंतन शायद ही कोई किया हो । पहले भाग ‘प्यार किया नही जाता‘ का अभिप्राय अनायास ही बिना उद्यम के प्यार हो जाता है । अब यदि ‘प्यार‘ के उद्गम पर चिंतन किया जाये तो स्वभाविक प्रष्न उठता है सर्वप्रथम आपको प्यार का एहसास कब और क्यों हुआ ?  जवाब आप कुछ भी सोच सकते है किन्तु सत्य यह है कि आपको सबसे पहले प्यार अपने मां से हुआ जब आपकी क्षुधा शांत हुई । क्षुधा प्रदर्षित करने के लिये आपको रोने का उद्यम करना पड़ा । दूसरे भाग ‘प्यार हो जाता है‘ का अभिप्राय मन में अपना पन मान लेने से उनके प्रति एक मोह जागृत होता है, इसे कहते है ‘प्यार हो जाता है‘ । जैसे माता-पिता अपने षिषु को जब अपना संतान मान लेते हैं तो उनके प्रति अगाध प्रेम उत्पन्न हो जाता है । किन्तु यदि किसी कारण वश यदि किसी पिता को यह ज्ञात ना हो कि वह शिशु उसी का संतान है तो उसे कदाचित वह प्यार उस शिशु से ना हो । जब कोई्र व्यक्ति किसी वस्तु अथवा किसी व्यक्ति को अपना मान लेता है तो वह उसके प्रति आषक्त हो जाता है यही आषक्ति वह प्यार है । आषक्ति, मोह व प्यार में कुछ अंतर होते हुये भी ये तीनो अंतर्निहित हैं ।
प्यार अपनेपन के भाव में अवलंबित है, अपनापन कब होता है ?  जब हम किसी सजीव-निर्जिव, वस्तु-व्यक्ति के सतत संपर्क में रहते है तो धीरे-धीरे उसके प्रति आकर्षण उसी प्रकार उत्पन्न होता है, जैसे चुंबक के संपर्क में रहने पर लौह पदार्थ में चुम्कत्व उत्पन्न हो जाता है। इसी का परिणाम है कि हम अपने परिवार, अपने घर अपनी वस्तु अपने पालतू जानवर, अपने पड़ोसी, अपने गांव, अपने देष से प्यार करने लगते हैं । प्यार का पैरामीटर अपनापन है । प्यार उसी से होता है जिसके प्रति अपनापन होता है । अपनापन का विकास जिस क्रम होता है उसी क्रम में प्रेम उत्पन्न हो जाता है । अपनेपन में ‘प्यार किया नही जाता प्यार हो जाता है ।

बुधवार, 27 अप्रैल 2016

‘पानी के कमी कइसे दूर होही ?‘

‘पानी के कमी कइसे दूर होही ?‘



आज के यक्ष प्रश्न होगे हे, गांव-गांव, शहर-शहर मा ‘पानी के कमी कइसे दूर होही ?‘ जेन ला देखव तेन हा कहत हे- पानी के कम उपयोग कर बाबू, पानी के बचत कर ।  गांव-गांव, शहर-शहर मा पानी के मारा-मारी हे । अइसे पहिली बार होय हे के पानी बर पहरा लगाये जात हे । पुलिस ला पानी बचाय बर लगाये जात हे । कोनो समस्या न तत्कालिक पैदा होवय न तत्कालिक जावय । तत्कालिक करे गे उपाय केवल समस्या ला कम करे के होथे ओखर जर-मूल ले नाश करे बर ओखर कारण ला जान के कारण ला दूर करे के दीर्घकालिक योजना मा काम करे ला पड़थे । आये पूरा हा ओसकबे करही, दूरदिन हा टरबे करही । फेर ये दिन दुबारा देखे ला झन परय । येखर बर काम करे के जरूरत हवे ।
जम्मो जीव जन्तु अउ  वनस्पती के जीवनयापन पानी के बिना सम्भव नई हे। प्रकृति तभे तो भुईंया मा पानी के अथाह मात्रा दे हवय । भुईंया मा पानी के मात्रा लगभग 75 प्रतिषत हवय । मात्रा के आधार मा भुईंया के पानी करीब 160 करोड़ घन कि0मी0 उपलब्ध हे। लगभग 97.5 प्रतिशत पानी नमकीन हे। केवल 2.5 प्रतिशत पानी ताजा जल के रूप मा उपलब्ध हवय फेर येही पानी बर्फीली क्षेत्र मा बर्फ के रूप मा होय के कारण सिर्फ 0.26 प्रतिशत पानी हा नदियां, झील, मा  मनखे के उपयोग बर उपलब्ध है। 0.26 प्रतिशत जल ला कहूं मात्रा मा देखी ता दुनिया के आबादी करीब 700 करोड़ के आधार मा प्रति व्यक्ति 6,00,000 घन मी0 पानी उपलब्ध हे। पानी के अतका मात्रा ला कहू एक आदमी हा कूद-कूद के  नहाय-धोय, पीये-खाये बर उपयोग करय तभो पानी बच जही । त ये पानी के संकट काबर ?
पानी के उपलब्धता दू प्रकार ले होथे पहिली भुईंया के ऊपर (भूतलीय जल) अउ दूसर भुईंया के भीतर (भू-गर्भी जल) । जब ये उपलब्धता मा कमी आही या के उलब्ध जल उपयोग के लइक नई रहिही ता जल संकट होबे करही । पानी के संग्रहण अउ संरक्षण मा कमी होय ले जल संकट होबे करही ।  प्राकृतिक जल प्रकृति के जीव जंतु के जीवन बर पर्याप्त हे ।  पानी के कमी तब जनावत हे जब येखर उपयोग औद्योगिक रूप ले अउ कृशि मा आवश्यकता ले जादा होय लगीस ।
धंधा मा जइसे आय-व्यय के लेखा-जोखा करे जाथे ओइसने येखर उलब्धता अउ उपयोग ला समझे ला परही । उपलब्धता भूतलीय अउ भूगर्भी हे । भुईंया के ऊपर मा पानी संरक्षित रहे ले भुईंया भीतर के जल स्तर संरक्षित रहिथे । भुईंया के ऊपर के पानी सागर, नदिया, नरवा, तरिया, कुंआ, पोखर, बावली अउ बांध ले होथे जेन हा वर्षा के जल ला संरक्षित करथे । लइका लइका जानथे वर्षा के पानी ला कहू नई रोकबे ता बोहा के सागर मा जाही जेन हमर काम के नई हे । पानी के उपयोग जीव जंतु के जीवन यापन के संगे संग अब औद्योगिक रूप ले अउ उन्नत कृषि मा होत हे ।
एक अनुमान के अनुसार औद्योग अउ कृषि हा 70 प्रतिशत भुईंया के भीतर के पानी के दोहन करे लग गे हे । मनखे मन घला आज कल पानी बर भूतलीय जल ले जादा भूगर्भी जल मा निर्भर हे, घर-घर बोर, पानी मोटर ले भुईंया के भीतर के पानी के दोहन करत हें । वैज्ञानिक मन बार-बार चेतावत हे भुईंया के भीतर के पानी के स्तर लगातार गिरत हे । जल स्तर गिरत काबर हे, येखर कारण मा जाबे ता पाबे भुईंया के ऊपर के पानी अउ भुईया के भीतर के पानी मा असंतुलन हे । भुईया के भीतर के पानी के स्तर हा भुईंया के ऊपर के पानी के स्तर मा निर्भर करथे, भुईंया के ऊपर के पानी के स्तर निर्भर करथे नदिया नरवा तरिया अउ बांध के पानी मा, वर्षा जल के संरक्षण मा । अपन चारो कोती देख लव ये जल स्रोत के का हाल-चाल हे । एक तो पहिली ले ये जल स्रोत हाल बेहाल रहिस ऊपर ले ये साल वर्षा घला कम होइस दुबर ला दू अषाढ़ पानी के त्राही त्राही मचे हे ।
ये प्रकार जल संकट के जर-मूल, भुईंया के ऊपर के पानी के स्रोत के संरक्षण नई होना हेे, अउ आवष्यकता ले जादा भुईंया के भीतर के पानी के दोहन करे ले भुईंया के भीतर के पानी स्तर मा गिरावट आवय । हमला कहूं जल संकट ला जर-मूल ले मिटाना हे त जल स्रोत ला संरक्षित करेच ला परही । भुईंया के भीतर के पानी के दोहन कम करे ला परही ।
ये समस्या के मूल कारण मनखे मन के बेपरवाह अउ लालची होना हे ।  मनखे मन नदिया, नरवा, तरिया बांध मा बेजा कब्जा करके कोनो खेती करत हे ता कोनो कोनो घर-कुरिया बनाये बइठे हे ।  सोचव अइसन करे ले कतका कन हमर भूतलीय जल स्तर खतम होगे । बाचे-खुचे नदिया, नरवा तरिया मा मनखे मन कचरा ला फेक-फेक के घुरूवा बना डारे हे । औद्योग के गंदा पानी ला नदिया, नरवा, तरिया मा रिको-रिको के सत्यानाष कर डरे हें । जब जम्मो झन प्रकृति के सत्यानाष करबो ता का ओ हर हमर सत्यानाष नई करही ।
‘पानी बचाओ‘ के नारा ला हमन गलत ढंग ले समझे हन कहूं हमला एक हउला पानी मिलय ता ओमा एक लोटा पानी बचा ली । अइसनहा करे मा का होही । पानी तभे बाचही जब येखर संरक्षण होही, ये तभे संभव हे जब प्रकृति के नदिया, नरवा भरे-भरे अउ साफ-सुथरा रहिही । हमर पुरखा मन ये बात ला जानत रहिन तभे तरिया, कुंआ खनवाना ला पुण्य मान के करत रहिन ।  आस्था मा गिरावट आय ले आज हम तरिया कुंआ ला पाटत हन । बिना बीजा बोय, धान लुये कस बोर ले पानी खीचत हन । ये समस्या के निदान वैज्ञानिक ढंग ले कम अउ नैतिक रूप ले जादा होही । मनखे-मनखे अपन नैतिक जिम्मेदारी ला मानही तभे प्रकृति हा ओला संग देही । आम तौर मा हम मान लेथन ये सब बुता सरकार के आय हमला का करे ला हे । ये सोच जबतक जींदा रहिही तब ये संकट हा बने रहिही । संकट के निदान करना हे ता हर आदमी ला गिलहरी कस अपन सहयोग दे ला परही ।

गुरुवार, 17 मार्च 2016

उमंग के तिहार होरी


हर समाज के अपन सांस्कृतिक विरासत होथे । ऐला जीये मा अपने अलग मजा होथे । इही विरासत मा हमर देश के प्रमुख तिहार हे होली । ये होली ला हमर छत्तीसगढ़ मा होरी कहे जाथे । अइसे तो छत्तीसगढ़ के हर परब  मा हमर लोकगीत हा परब मा चार चांद लगा देथे फेर होरी के फाग गीत के बाते अलग हे ।  होरी तिहार के फाग मा झुमरत नाचत संगी मन ला देख के अइसे लगते होरी हा गीत अउ उमंग के तिहार आय । छत्तीसगढ़ मा ये तिहार प्रमुख रूप ले दू ढंग ले मनाय जाथे पहिली मैदानी इलका म, अउ दूसर पहाडी इलाका (बस्तर अंचल) म । होरी तिहार सबले जादा दिन ले मनाय जाने वाला तिहार आय । माघ बदी पंचमी जेला बसंत पंचमी के नाम ले जाने जाथे हे, ले शुरू होथे अउ चइत महिना के बदी तेरस तक चलथे । ये बीच मा फागुन के पुन्नी के दिन होलिका दहन करके चइत बदी एकम के होरी तिहार मनाये जाथे । एखर बाद चइत बदी पंचमी के रंग पंचमी फेर चइत बदी तेरस के होरी तेरस मनाये के परम्परा हे ।
बसंत पंचमी के दिन बास मा झण्ड़ा लगा के विधिवत पूजा पाठ करके गड़ाय जाथे येला होली डांग कहे जाथे । होली डांग गड़ते गांव-गांव मा नगाड़ा अउ टिमकी झांझ के धुन मा फाग गीत बोहाय लगते अउ जवान अउ सीयान मन हाथ लमा लमा के गाय लगथें -
‘‘चलो हां सरस्वती, उड़ के बइठव जिभिया मा .....
उड़ के बइठव जिभिया मा, सरस्वती उड़ के बइठव जिभिया मा ‘‘

‘‘पहिली गणेश मनाबो, गणपति महराज, गणपति महराज....‘‘
छत्तीसगढ़ी भाषा हा अवधी अउ ब्रज भाषा संग केवल बोली भर के संबंध नई रखय बल्की लोक सांस्कृतिक संबंध घलोक रखथे । ब्रज मण्डल के होली के पूरा प्रभाव हमर छत्तीगढ़ मा देखे ला मिलथे येही कारण के हमर फाग गीत म कृष्ण राधा के रास लीला के चित्रण दिखथे -
‘दे दे बुलउवा राधे को,
अरे हां दे दे बुलउवा राधे को ।‘‘

‘‘मुख मुरली बजाय, मुख मुरली बजाय,
छोटे से श्याम कन्हैया ।‘‘

येही प्रकार रोज-रोज फाग गीत के बयार फागुन पुन्नी तक बोहाथे । फागुन पुन्नी के पूजा पाठ करके होली डांग ला जलाये जाथे येही ला होलिका दहन कहे जाथे । होलीका दहन के पहिली पूरा एक डेढ़ महिना तक गांव के लइका मन होली डांग मा लकड़ी-छेना सकेल सकेल के डालथें । अइसन टोली ला होलहार कहे जाथे । होलीका दहन के बाद गांव के मन हा जलत होली मा अपन घर ले लेगे छेना-लकड़ी डालथें अउ चाउर छिछत होली डांग के चारो कोती घूमथें ।
ये रीति-रिवाज के अपन धार्मिक मान्यता होथे । अइसे माने जाथे के भक्त प्रहलाद के बुआ होलिका, जेला आगी म नई जले के बरदान मिले रहिस, प्रहलाद ला जिंदा जलाये के उद्देष्य ले के जलत आगी मा प्रहलाद ला लेके बइठ गे, फेर प्रहलाद ला कुछु नई होइस अउ ओ होलिका जर के मरगे । येही ला कहे गिस बुराई मा अच्छाई के जीत, असत्य म सत्य के विजय । येही कारण होरी के दिन बुराई ला छोडे़ के सौगन्ध ले जाथे ।
अंधविष्वासी अउ कुरीति वाले मन होलिका दहन के बेरा गारी देवत बके तक लगथे । अउ कुछ मन गुरहा फाग (अष्लील फाग) गाय लगथें । इंखर मन के तर्क होथे आज भर तप लेथन तहां अइसन बुराई नई करन । सियान मन बताथे पहिली ये दिन फाग मा नचाय बर किसबीन (बेसिया) घला लावत रहिन । फेर अब शिक्षा के प्रचार होय ले जागृति आय हे अउ अइसन कुरीति मा तारा लग गे हे ।
होली दहन के दूसरईया दिन चइत एकम के पूरा देश के संगे संग होरी मनाये जाथे रंग-गुलाल, पिचकारी मा गांव के गांव समा जाथें । मनखे मनखे मा रंग अइसे चढथें के मनखे मनखे एके लगे लगथे ।  बड़े मन एक दूसर के चेहरा मा गुलाल लगाथें ता लइका मन पिचकारी मा रंग भर के दूसर ऊपर डाले लगथे । येहू मेरा कुरीति के करिया करतूत देखे ला मिलथे कुछ बदमाश सुभाव के मन हा लद्दी-चिखला, पेंट पालिस ला दूसर के ऊपर थोप देथे । अइसे माने जाथे ये दिन शरारत करे जाथे अउ शरारत सहे जाथे । येही शरारत मा मनखे मन डूबे फाग के धून मा झूमे लगथें । होली मा भांग ले बने शरबत, मिठाई, भजिया खाय-खवाय के कुरीति आज ले चलन मा हे । ‘जादा मीठ मा किरा परे‘ कहावत हा होरी मा सार्थक दिखते अतका मजा, अता उमंग, गीत-नाच, रंग-गुलाल, खाना-खजाना के झन पूछ । फेर दू-चार ठन कुरीति के दुर्गण किरा बरोबर चटके हवय । जइसे भाजी ला अलहोर के खाय मा मजा आथे ओइसने ये तिहार के कुरीति छोड़ दे जाये ता मजे मजा हे ।
होरी तिहार एही एक दिन मा खतम नई होय, चार दिन बाद फेर ‘रंग पंचमी‘ मा घला रंग-गुलाल अउ फाग के मजा ले जाथे अउ अंत मा तेरस के दिन एक घा फेर फाग ले गांव हा सरोबर हो जाथे -
‘फागुन महराज, फागुन महराज, अब के बरस गये कब अइहौ ‘‘

ये प्रकार ले हमर छत्तीसगढ़ के मैदानी अंचल मा होरी के उमंग छाये रहिथे । फेर छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाका मा पारम्परिक होली के अंदाज कुछ अलग होथे ।
बसंत पंचमी के दिन डंडारी नाच के संग बस्तरिया होरी षुरू हो जथे । अउ होली दहन तक ये नाचा नृत्य हा चलत रहिथे । बस्तर के दशहरा कस इहाँ के होरी के घला अपन अलगे परंपराओं होथे। इहां होली मा होलिका दहन के दूसर दिन पादुका पूजन अउ ‘रंग-भंग‘ नाम ले एक अलग प्रकार के रस्म होथे। येमा कोरी-खईका मनखे मन हिस्सा लेथे. अइसे माने जाथे के होलिका दहन के राख ले मंडई मा मां दंतेश्वरी आमंत्रित देवी-देवता, पुजारी अउ सेवकमन संग होली खेलथे. येही मौके मा फागुन मंडई के आखरी रस्म के रूप मा कई ठन गांव के मेला मा आये देवी-देवता मन के विधिवत विदाई करे जाथे । इहां के जनसमुदाय ये पारम्परिक आयोजन के भरपूर मजा लेथें ।
ये पारम्परिक आयोजन के बारे मा मां दंतेश्वरी मंदिर के सहायक पुजारी हरेंद्र नाथ जिया हा कहें के - इहां विराजमान सती सीता के प्राचीन मूर्ति लगभग सात सौ साल जुन्ना हे. एकेठन पथरा मा बने ये प्रतिमा ला राजा पुरुषोत्तम देव हा इहां स्थापित कराय रहिन । तब ले इहां फागुन मंडई के मौका मा होलिका दहन अउ देवी-देवता के संग होली खेले के परम्परा चले आये हे ।
फागुन मंडई के दौरान आंवरामार रस्म के बाद होलिका दहन करे जाथे । ये रस्म मा बाजा मोहरी की गूंज के बीच प्रधान पुजारी जिया बाबा द्वारा होलिका दहन के रस्म पूरा करे जाथे ।  इहां गंवरमार रस्म मा गंवर (वनभइसा) के पुतला बनाये जाथे ।  येखर बर बांस के ढांचा अउ ताड़-फलंगा धोनी के उपयोग ले ताड़ के पत्ती मन ले होली सजाये जाथे । मंदिर के प्रधान पुजारी पारम्परिक वाद्ययंत्र मोहरी की गूंज के बीच होलिका दहन के रस्म पूरा करथें. पूरा देश मा जिहां होली के मौका मा रंग-गुलाल खेल के अपन खुशी के इजहार करे जाथे, उहीं मेरा बस्तर मा होली के अवसर मा मेला के आयोजन करके सामूहिक रूप लेे हॅसी-मजाक करे के प्रथा आज ले जीयत हवय ।
इतिहासकार मन के मानना हे के बस्तर के काकतीय राजा हा ये परम्परा के शुरुआत माड़पाल गांव मा होलिका दहन करके करीन । तब ले ये परम्परा हा इहां चलत हे । बस्तर मा होलिका दहन अपन आप मा अलगे ढंग के  होथे । माड़पाल, नानगूर अउ ककनार मा होवईया होलिका दहन येखर जीयत-जागत उदाहरण हे । इहां के मनखे मन मानथे के काकतीय राजवंश के उत्तराधिकारी मन आज घला सबले पहिली गांव माढ़पाल मा होलिका दहन करथे । येखर बाद ही आने जगह मन मा होलिका दहन करे जाथे । माढ़पाल मा होलिका दहन के रात छोटे रथ मा सवार होके राजपरिवार के सदस्य मन होलिका दहन के परिक्रमा करथें । जेला देखे बर हजारों के संख्या मा वनवासी मन एकत्रित होथें । ये अनूठी परम्परा के मिसाल आज ले कायम हे ।
छत्तीसगढ़ के दूनों ठहर के परम्परा मा आस्था अउ श्रद्धा छुपे रहिथे परम षक्ति परमात्मा संग अपन संबंध स्थापित करे के लालसा । अंतस मा दबे रहिथे अउ तन मा उमंग दिखथे । तन के उमंग अउ मन के खुषी के हा जीये के नवा रद्दा ला गढ़थे । जीवन मा जिहां हर मनखे खुषी ला खोजत रहिथे ओही मेर ये तिहार हा मनखे बर खुषी के उपहार बांटथे ।
आधुनिक वैज्ञानिक सोच अउ चकाचैंध मा हमर देष के गांव के परम्परा हा ओइसन लुका गे जइसे घटा बादर मा सुरूज हा लुकाय रहिथे । फेर सुरूज ला तो प्रगट होने हे । ओइसने हमर संस्कृति परम्परा हा तिहार बार मा चमकत दिखथे ।

-रमेश कुमार चैहान
मिश्रापारा, नवागढ़
जिला-बेमेतरा,छ.ग.,पिन 491337
मो. 9977069545

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

आत्म सम्मान ला जींदा रहन दौव



पहिली के सियान मन कहंय जेखर स्वाभिमान मरगे ओ आदमी जीते-जीयत मरे के समान हे । ये स्वाभिमान आय का ?  स्वाभिमान हा अपन खुद के क्षमता ऊपर विश्वास आय ये कोनो अभिमान या घमंड नो हय । आत्म सम्मान के भावना ला, अपन प्रतिष्ठा ला बचाये रखे के भाव ला आत्म सम्मान कहे जाथे । फेर आज काल ऐखर परिभाशा हा बदले-बदले लगथे । केवल अपन ठसन देखाना ला ही आत्म सम्मान याके स्वाभिमान माने लगें हें । ठसन आय का ? अपन क्षमता के प्रदर्शन खास करके धन-दोगानी के प्रदर्शन ला ठसन कहे जाथे ।
पहिली के मनखे मरना पसंद करत रहिन फेर फोकट मा कोखरो मेर ले कांही लेना, भीख मांगना, छूट लेना पसंद नई करत रहिन । पहिली के जमाना मा जब वैज्ञानिक अउ औद्योगिक विकास न के बराबर रहिस ता औसतन मनखे मन गरीब रहिन भूखमरी के समस्या बने रहिस । गरीबी हा उंखर रहन-सहन मा घला दिखत रहय । अइसन मा घला स्वाभिमानी मन के संख्या मा कमी नई आय रहिस ।  दुख-तकलीफ ला घला सइ-सइ के अपन आत्म सम्मान ला जिंदा राखे रहिन ।  फेर आज काल विकास अतका होय हे हर मनखे मा विकास दिखत हे । ओ दूरदीन अब ओइसन नई हे । तभो स्वाभिमानी मन के संख्या ना के बराबर दिखत हे, यदि अइसना नई होतीस ता गांव-गांव गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीअइया मन के संख्या अतका नई रहितिस जतका दिखत हे । गरीबी रेखा मा अइसन-अइसन मनखे के नाव जुडे हे जेन मन ला गांव के गौटिया घला कहे जाथे, जेखर लइकामन सरकारी नौकरी मा हे, गांव के गरीबी रेखा सूची ला देखे मा लगथे के पूरा गांव के गांव ऐमा समा गे हे । ये बात हा कोखरो गला नई उतरव के पूरा गांव कंगला हे का । प्रषासनिक लपरवाही अपन जगह हे, फेर ये स्थिति बने के असल कारण केवल अउ केवल अपन आत्मसम्मान ला बेचना हे ।  पहिली गांव के गौटिया ला कोनो 2 रू फोकट मा देतीस ओ लेतीस का ? आज काबर लेवत हे ।
आत्म सम्मान तब तक जींदा रहिथे, जबतक लालच के जहर ला ओ नई पीये हे । लालच के घूना किरा कहू लगिस ता कइसनो आत्मसम्मानीय रहय ओखर फोकला ओदरबे करही । एक सच्चा आत्मस्वाभिमानी हा गली मा गिरे चवन्नी ला घला नई उठावा । फेर आज काल अइसन हवा चलत हे जेला देखव ओला लालच के भूत धरे हे। छूट-छूट के जनता मन नारा लगावत हे, येमा छूट-ओमा छूट, व्यपारी ला छूट चाही कर्मचारी ला छूट चाही, किसान ला छूट चाही, नेता मन के का छूट तो ऊंखर खोलइत मा धराय हे । फेर बाच कोन गे जेला सरकारी छूट नई चाही ।  सरकार ला देखव फोकट मा बांटे के नदिया बोहावत हे, चाउर फोकट मा, सायकिल फोकट मा लेपटांप फोकट मा, ये फोकट मा ओ फोकट मा । जइसे राजा तइसे परजा, झोकत हे मुॅह फारे फोकट मा । झोकत हे अउ देखावत हे ठसन, हम काखर ले कम हन रे।
आवश्यकता मा सरकार जनता ला मदद करय, अउ जनता हा अपन आवश्यकता होय ता मदद लेवय । सरकार फोकट मा, छूट मा बांटना अपन कर्तव्य झन समझय अउ जनता मन हा फोकट अउ छूट ला अपन अधिकार झन मानय । आत्मसम्मान ला झन मारय ।  सरकार के ये दायित्व कतई नई होय के अपन जनता के आत्मसम्मान ला खोखला कर दय । जनता मन ला केवल भीखमंगा बना दय । ये लोकतंत्र मा जनता सबले बडे हे, जनता मन ला चाही हर बात के दोश सरकार के माथा मा पटके के पहिली अपनो ला देख लंय, ये झन कहंय फोकट मा देवत हे ता हमला ले मा का ।
आत्मसम्मान अउ नैतिकता एक दूसर के पूरक होथे । नैतिकता हा मानवता के जनक आय ।  कहूं मनखे मा आत्म सम्मान होही ता ओ कोनो गरीब के बांटा ला फोकट मा खुदे नई खाही, आत्मसम्मान होही ता गांव के परिया-चरिया ला नई घेरही । दूसरे मनखे के पीरा के रद्दा नई गढही । आत्म सम्मान के हत्या झन करव । आत्म सम्मान ला जींदा रहन दौव ।

रविवार, 15 नवंबर 2015

-: राउत नाचा अउ ओखर दोहा मा पर्यावरण:-


राउत नाचा अउ ओखर दोहा मा पर्यावरण
-रमेशकुमार सिंह चौहान

राउत नाचा हमर छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक धरोवर आवय हालाकि राउत नाचा एक जाति विशेष के द्वारा प्रस्तुत करे जाथे फेर ऐमा जम्मो छत्तीसगढि़या मन के दया मया अउ संस्कृति हा भरे हवय काबर के छत्तीसगढ़ शुरू ले खेती खार मा आश्रित रहे हे, खेतीखार बर गउ वंश गाय बइला हा बासी मा नून अउ खीर मा शक्कर कस जरूरी रहिस  ऐही सेती जम्मो मनखे अपन-अपन सामर्थ्य के अनुसार गाय गुरूवा पालत पोसत आवत हे समाज के व्यवस्था के अनुरूप एक वर्ग ला ऐखर सेवा करे के जिम्मेदारी दे गिस जेनमन पहट, बरदी के रूप मा गउ वंश के सेवा करे लागिन, ऐही वर्ग ला छत्तीसगढ़ मा पहटिया, बरदिहा, ठेठवार, राउत यादव आदि आदि नाम ले जाने जाने लगिन  ऐखर मन द्वारा प्रस्तुत नाचा ला ही राउत नाचा के नाम से जाने जाथे  राउत नाचा हा दोहा प्रधान होथे  टिमकी, मोहरी, दफड़ा जइसे वाद्य जेला गड़वा बाजा के नाम ले जाने जाथे के संगे संग राउत भाई मन विशेष वेश-भूशा पहिर के हाथ मा डंडा ले के नाचथे नाच के शुरूवात मा कोनो एक सदस्य हा दोहा बोलथे, जेला  दोहा पारना कथे, ऐही दोहा के बाद गड़वा बाजा मा नाच होथे फेर थोर थोर बेरा मा दोहा पारे जाथे अउ ये क्रम हा अइसनेहे चलत रहिथे

राउत नाचा के दोहा हिन्दी साहित्य के दोहा छंद तो आय फेर ऐमा अपन सहुलियत अउ स्वर अलाप बर शुरू अउ अंत मा कुछ बदलाव घला कर लेथे दोहा के शुरू मा...रा..रा.रारारा......‘ या...........‘ कहि देथे अउ अंत मासंगी‘, ‘भैया‘ ‘रेयाहोआदि जोड़ लेथे जइसे-

सदा भवानी दाहिनी, संमुख रहे गणेश हो
पांच देव रक्षा करे, ब्रह्मा बिष्णु महेश हो ।।

राउत मन के द्वारा जउन  दोहा पारे जाथे जादातर कबीर, तुलसी, रहिम जइसे महापुरूष मन के शिक्षाप्रद दोहा होथे समय के अनुसार हिन्दी के संगे संग छत्तीसगढ़ी दोहा के भी एमा समावेश होय लागिस  जइसे-

पांव जान पनही मिलय, घोड़ा जान असवार रे।
सजन जान समधी मिलय, करम जान ससुरार रे।।

          दोहा मन मा पौराणिकता, प्राचिनता के संगे संग नवीनता घला होथे दोहा के लय मा डूब के बहुत झन मन खुद के दोहा घला रच डारथें ये दोहा मन ला गड़वा बाजा के धुन लाहो................रेया फेर  .........‘ कहिके रोके जाथे फेर अपन पसंद के दोहा पारे जाथे एक पूरा बानगी देखव-

हो-----------------रे-----------
गौरी के गणपति भये (हे य)
अरे्रे्रे अंजनी के हनुमान हो (हे… य)
कालिका के भैरव भये (हे… )
हो…….ये
कोशिल्या के राम हो  (हे… य)

आरा्रा्रा्रा्रा्रा्रा
दारू मंद के लत लगे रे (हे… य)
मनखे मर मर जाय रे (हे… य)

जइसे सुख्खा डार हा, लुकी पाय बर जाय रे (हे… य)


हो्येह….
बात बात मा झगड़ा बढ़य हो (हे… य)

अरे् पानी मा बाढ़े धान (हे… य)

तेल फूल मा लइका बाढ़े, खिनवा मा बाढ़े कान (हे… य)


हो…….ओ..ओ
नान नान तै देख के संगी (हे… य)

झन कह ओला छोट रे (हे… य)

मिरचा दिखथे नानकुन, देथे अब्बड़ चोट रे।।(अररारारा)

आरा्..रा्रा्रा्रा्रा्रा
लालच अइसन हे बला संगी (हे… य)

जेन परे पछताय रे (हे… य)

फसके मछरी हा गरी, जाने अपन गवाय रे (अररारारा)

          राउत मन के द्वारा ये जउन दोहा पारे जाथे समाज ले सीधा-सीधा जुड़े होथे ये दोहामन के सामाजिक होय के ये अर्थ हे कि एमा मानव जीवन के सीख, प्रेम मया श्रृंगार, खेती-खार, लोक-जीवन सबो चीज हा समाहित होथे
हमर चारो ओर के हर चीज जउन हमला प्रभावित करथे, जेन ला हम प्रभावित करथन, जेखर ऊपर हम आश्रित होथन वोला पर्यावरण कहे जाथे  अइसे पर्यावरण हा दू शब्द ले बने हे परि अउ आवरण जेखर अर्थ होथे प्राणी के जीवन ला बाहिर ले जेन ढाके होथे ओला पर्यावरण कहे जाथे ये खेती-खार, कोठार-बियारा, बारी-बखरी, पेड़-रूख, नदिया-नरवा, गाय-गरूवा, भुईंया-पठार, धुर्रा-चिखला, जंगल-झाडी सबो हा तो पर्यावरण के हिस्सा आय सबले मिलके बने हे पर्यावरण  इन्खर संतुलित रहिना मानव जीवन ला सुरक्षित रखथे ऐखर संदेश राउत नाचा अपन उपज के संगे संग बगरावत आवत हे अइसने एक ठन दोहा हे-

तुलसी चौरा अंगना, पीपर तरिया पार रे
लहर लहर खेती करय, अइसन गाँव हमार रे ।।

          ये दोहा मा अपन गाँव ला सुघ्घर बताये गे हे काबर के पर्यावरण के संरक्षण गाँव मा होत हे तुलसी के बिरवा अउ पीपर के रूखवा के धार्मिक महत्व होय के संगे संग स्वस्थ वातारवरण मा एखर अहम भूमिका होथे  खेती के अर्थ केवल धान-पान ले ना होके खार के सबो रूख राई ले घला होथे परकार ले वृक्ष संरक्षण के संदेश दोहा मा कहे जात हे

वास्तव मा राउत नाचा के संस्कृति हा भुईया ले, प्रकृति ले जुड़े संस्कृति आवय  गाय-गरूवा के गोबर लेगोवर्धनबना के, ऐखर पूजा पाठ ले नाच के शुरूवात करे जाथे   हमर धार्मिक मान्यता के संगे संग गउ-गरूवा अउ ओखर गोबर के सार्थकता ला सिद्ध करथे  गोबर के उपयोग आदिकाल ले खेत मा खातू-माटी के रूप मा करत आवत हन आज वैज्ञानिक मन घला मानत हे के रासायनिक खातू ले जादा गोबर खातू हा उपयोगी हे  ये दोहा ऐही बात ला बगरावत हे -

गाय हमर दाई बन, देवय हमला दूध
खातू माटी तो बनय, ओखर गोबर मूत ।।

          राउत मन के जीनगी हा प्रकृति मा शुरू होथे अउ प्रकृति मा खतम होथे  दिन भर गाय-गरूवा, छेरी-पठरू ला चरावत जंगल झाड़ी खार मा किंदरत रहिथे   पाय के ओमन प्रकृति ला जाथा जानथे अउ ओखर संरक्षण बर घला परयास करत रहिथे  जेखर जइसे जीनगी होही, जइसे रहन-सहन होही ।   तो ओखर भाखा मा, ओखर संस्कृति मा, ओखर संस्कार मा, ओखर नाच मा उतरबे करही -

गउचर परिया छोड़ दे, खड़े रहन दे पेड़
चारा चरही ससन भर, गाय पठरू अउ भेड़ ।।

          गाँव मा होत बेजा कब्जा ले गाय-गरूवा मन के चारा चरे के जगह अब छेकात जात हे, ऐंखर चिंता सबले जादा पहटिया मन ला हे आखिर कहां अपन जानवर मन के चारा के व्यवस्था करंय  जंगल झाड़ी के रूख राई घला दिनों दिन कम होत जात हे  ऊंखर ये चिंता मा पर्यावरण के चिंता स्वभाविक रूप ले जुड़े हवय

देश मा शिक्षा के प्रचार-प्रसार होय के बाद राउत नाचा के दोहा मा घला ऐखर प्रभाव होइस  सामाजिक समरसता के संदेश के संगे संग सामाजिक जागरूकता ला घला ऐमा स्थान मिले लगीस। घर-कुरिया, देह-पान, गली-खोर के साफ-सफाई बर घला लोगन ला अपन दोहा के माध्यम ले जागरूक करे लागिन-

गली खोर अउ अंगना, राखव लीप बहार
रहिही चंगा देह हा, होय नही बीमार  ।।

          समय बदलत गिस अब गांव के सड़क मा घला मोटर-गाड़ी दउडे लागिस  समय के संगे संग दोहा के चिंतन मा घला बदलाव होत गेइस जेन मेर पहिली केवल अध्यात्मिक दोहा के वाचन करय ऊंही मेरा अब अइसनो दोहा आइस-

मोटर गाड़ी के धुँवा, करय हाल बेहाल
रूख राई मन हे कहां, जंगल हे बदहाल ।।

          कुल मिला के राउत नाचा के दोहा हा शुरू ले आज तक भुईंया ले जुड़े हवय मानव जीवन के सबो पक्ष मा रंग तो भरते हे फेर पर्यावरण के चिंता, माटी के चिंता हा जादा भरे हे राउत नाचा के कोनो दोहा ला देख ले हा भुईंया ले जुड़े दिखथे -

 आरा्रा्रा्रा्रा्रा्रा
हरदी पिसेंव कसौंदी वो दाई (हे..य)
अउ घस घस पिसेंव आदा (हे..य)
गाय केहेव धावर वो तें सोहई पहिरले सादा हे (हे्..)

आरा्..रा्रा्रा्रा्रा्रा
पीपर पान ला लुही गा संगी (हे..य)
अउ बोइर पान बनिहार (हे..य)
मैं तो मानत हव देवारी ददा मोर भेड़न गे हे बनिहार (अररारारा)

          परकार हम कहि सकथन राउत नाचा के संस्कृति अउ दोहा हा पर्यावरण संरक्षण के झंड़ादार हे

-रमेशकुमार सिंह चौहान
नवागढ़, जिला-बेमेतरा
छत्तीसगढ़

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