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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

मंगलवार, 26 मई 2015

‘कला परम्परा‘ के सरजक -माननीय डी.पी. देशमुख


             हमर छत्तीसगढ़ के माटी मा तइहा ले आज तक नाना परकार के परम्परा अउ संस्कृति रचे बसे हवय जेमा के बहुत अकन परम्परा काल के गाल मा समावत हे, ये परम्परा मन नंदावत जात हे, फेर ऐला बहुत हद तक हमर कलाकार अउ कलमकार मन साधे रखें हे ।  हमर छत्तीसगढ मा कला अउ साहित्य के नाना विधा के साधक मन भरे परे हे, चाहे वो संगीत के लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत या सुगम संगीत होय, नाच मा लोक नाचा, शास्त्रीय नृत्य, होय आनी-बानी साज के वादक होय, मझे सुर साधक होय।  साहित्य के लोक साहित्य ला आगे बढ़इहा, छत्तीसगढ़ी भासा ला समरथ बनइया, हिन्दी, उर्दू के गजलकार, गीतकार होय ।   हर क्षेत्र मा हमर राज्य के कलाकार कलमकार संघर्ष करत अपन दायित्व के निर्वहन करत आत हे, ये कलाकार कलमकार म के जादा ले जादा मन हा गुमनामी ले डुबे हे, ओला कोनो नई जानय, ओ मन अपन परिचय के मोहताज हे । ओखर काम हा ओखरे तक सीमट के रहिगे हे ।  ये दुनिया मा जिहां एक कोति हर आदमी अपन सुवारथ ले सब काम करथें, दू पइसा जिहां ले मिलही उहीं मेरा काम करथे, अइसन समय मा ये संघर्ष करत सरसती के लइका मन बर संगी बन के आदरणीय डी.पी. देशमुख जी आघू आइन, रिफ्रेक्टरीज प्लांट के जन सम्पर्क अधिकारी डी.पी.देशमुख अपन कर्मठता अउ जिवंतता के परिचय देत एक दुर्लभ अउ दुस्कर काम ला अपन हाथम लेइन । वो मन बिना कोई सुवारथ के बिना कोई लाग लपेट के हर परकार के कलाकार कलमकार मन ला समेटत ऊंखर पहिचान बर ‘कला परम्परा‘ पत्रिका के श्रृंखला चलावत हे । आदरणीयदेशमुख जी अपन माटी के करजा चुकावत सरलग ‘कला-परम्परा‘ परकासित करत हे जेमा छत्तीसगढ के परम्परा-संसकृति अउ ऐखर संरक्षक लोककलाकार कलमकार मन ला पहिचान दे के अथक परयास करके सफल होत दिखत हे ।
श्री देशमुखजी हा ‘कला परम्परा‘ के शुरूवात ले छत्तीसगढ के कला अउ परम्परा, हमर संस्कृति, हमर पहिचान ला देश दुनिया मा बगराय के बिड़ा उठायें हें । ऐखर दूसर अंक ला लोककला, साहित्य अउ संस्कृति ला समरपित करत 175 रचनाकार मन के साहित्यक योगदान ला डाडी खिंच के बतायें हे । ‘कला परम्परा‘ के तीसर अंक ला लोककलाकार मन ला समरपित करत लगभग 800 लोककलाकार मन के छायात्रित जीवन परिचय लोककला के क्षेत्र मा ऊंखर योगदान ला दुनिया मा बगराये हें । ‘कला परम्परा‘ के चउथा अंक ला छत्तीसगढ के पर्यटन तीरथ धाम ला समरपित करत अपन जिवटता के परिचय दिईन । ये अंक मा एक गाइड के रूप मा काम करत हमर राज्य के घूमे के लइक ठउर के रोचक फोटु सहित जानकारी उपलब्ध कराये हें । ये अंक मा प्राकृतिक सौंदर्य के ठउर, सबो धरम के धार्मिक ठउर, उहां जाइके के रद्दा रूके के ठउर के संबंध मा सुंदर जानकारी परोसे गे हे जेखर ले सैलानी मन ला कोनो तकलीफ झन होवय, हमर राज्य के गौरव ला देष परदेश मा बगराय जा सकय । ‘जेन काम ला छत्तीसगढ के पर्यटन विभाग ला करना रहिस ओ काम ला श्री देशमुख हा अपन सीमित संसाधन ले कर देखाइन‘- अइसन उद्गार ये अंक के विमोचन बखत हमर राज्य के माननीय मुख्यमंत्री रमन सिंह हा कहे रहिस ।
‘कला परम्परा‘ के पांचवा अंक साहित्य बिरादरी ला समर्पित हे जेमा, 1001 साहित्कारमन के नाम, पता संपर्क, साहित्यीक उपलब्धि जम्मो परकार जानकारी ऐमा दे गे हे । एखर संगे-संग 175 मूर्धन्य साहित्यकारमन के जीवनवृत्त ला ऐमा समेटे गे हे । ये अंक साहित्य बिरादरी मन के परिचय ग्रन्थ आय । ये परिचय ग्रन्थ ले साहित्यकार मन जिहां एक दूसर के परिचय प्राप्त करत हे ऊंहे दूसर कोती साहित्य प्रेमी मन अपन रूचि के साहित्यकार ला जान सकत हे ।  साहित्य बिरादरी के अंक मा सबो झन के संपर्क नम्बर हे जेखर ले एक-दूसर साहित्यीक बंधु मन साहित्यीक अभिरूची के चरचा कर सकत हे, या एक-दूसर ले व्यक्ति गत सुख-दुख बांट सकते हे । ये एक ठन किताब हा गुमनामी मा खोय साहित्यकार मन के नाम ला दुनिया मा बगराय के काम करत हे । ये बुता हा कोनो छोटे बुता नो हय, बहुते बड़े काम आय ।   अतका झन साहित्कार ला एक किताब मा समेटना ।
‘कला परम्परा‘ के अवइया छठवा अंक ला छत्तीसगढ के तीज तिहार ला समरपित करे गे हे, जेमा हमर बिसरत परम्परा ला सकेले के काम होही ।
ये परकार हम देखी ता ‘कला परम्परा‘ के संपादक श्री डी.पी. देशमुख अउ ऊंखर पूरा टीम बधाई के पात्र हे, सुवागत के पात्र हे, वंदन के पात्र हे । ‘कला परम्परा‘ के पहिली ले लेके पाचवां अंक तक सबो हा पूरा छत्तीसगढ़, पूरा देश अउ दुनिया बर उपयोगी हे ।  ये उपयोगी हे आम जनता बर जेन अपन संस्कृति ला जानना चाहते हे, ये उपयोगी हे ऊंखर बर जेन छत्तीसगढ़ ला जानना चाहते हे, ये उपयोगी उन लइका मन बर जउन मन नाना परकार प्रतियोगी परीक्षा देवावत हें, ये उपयोगी हे उन कलाकार बर जेन मन गुमनामी मा जिये बर मजबूर हें, ये उपयोगी उन साहित्कार मन बर जेला कोनो नइ जानत हे । ‘कला परम्परा‘ हर परकार ले हर परकार के आदमी मन बर उपयोगी हे ।
आदरणीय डी.पी. देशमुख अउ ओखर सहयोगी ‘कला परम्परा‘ के संरक्षक श्री कैलाष धर दीवान, प्रधान संपादक श्री मनोज अग्रवाल, सहित श्री सहदेव देश्‍ामुख, श्री अशोक सेमसन, श्रीमती पूनम अग्रवाल, डॉ. आरती दीवान, श्रीमती नीता देशमुख, डॉ. राजेन्द्र हरमुख, चेमन हरमुख आदि मन के ये मेहनत हा आदर के योग्य हे । हम जम्मो झन आपमन के ये परयास के दिल ले प्रसंसा करत हन अउ ईश्वर ले प्रार्थना करत हन के आप के पांव मा कांटा झन गड़य, आपके रद्दा के हर बाधा दूर होवय अउ आप मन अपन लक्ष्य ला पाके क्षितिज मा चमकव ।
-रमेश कुमार चैहान,
       मिश्रापारा, नवागढ़,
     
 जिला-बेमेतरा, मो. 09977069545

शनिवार, 23 मई 2015

हमर छत्तीसगढ़ी भासा ला आठवीं अनुसूची मा सामील करायके परयास

         छत्तीसगढ़ी भासा ला आठवीं अनुसूचची मा सामिल कराय के परयास के संबंध मा चरचा करे के पहिली हमला ये  जानेे ल परही के ये आठवी अनुसूची आय का अउ ऐखर ले का फायदा नुकसान हवय ।  आठवी अनुसूची  हमर भारतीय संविधान के अइसे अनुसूची आय जेमा भारत मा प्र्रचलित भासा ला संवैधानिक दर्जा दे जाथे ।  भारतीय अनुच्छेद 344(1) अउ 35 (भासा) मा कहे गे हे भारतीय संघ के जम्मो कार्यपालिका अउ न्यायपालिका के भासा अंग्रेजी, हिन्दी अउ आठवी अनुसूची मा मान्यतता प्राप्त  क्षेत्रीय भासा होही । भारतीय अनुच्छेद 344(1) अउ अनुच्छेद 351 के अनुसार आठवी अनुसूची मा सामिल भासा के विकास अउ ओखर परचार के जिम्मा केन्द्र सरकार के होही । ये संबंध मा केन्द्र सरकार द्वारा जारी दिसा निर्देस राज्य सरकार बर बंधनकारी होही । अभी तक ये अनुसूची मा 22 भासा ला सामिल करे गे हे ।
छत्तीसगढ़ी के आठवीं अनुसूची मा सामिल होय ले फायदे फायदा हे, सबले जादा फायदा हमर छत्तीसगढि़या नवजवान साथी मन ला हो ही संघ लोक सेवा आयोग अउ राज्य लोक सेवा आयोग के परीक्षा मा ऐ एक भासा के रूप मा मान्य होही । आठवी अनुसूूची मा सामिल होेय के बाद  हमर छत्तीसगढ़ी राजभासा आयाोग ला मानव संसाधन विभाग द्वारा योजना राषि दे जाहीं, संगे संग भासा विकास प्राधिकरण द्वारा आर्थिक सहयोग दे जाही । भारत सरकार के गजट के परकासन छत्तीसगढ़ी मा घला होही । राष्ट्रपति के अभिभासन ला छत्तीसगढ़ी मा अनुवाद करके आकाषवाणी अउ दूरदरसन ले परसारित कराय जाही । ये जम्मो फायदा कोनो भी छत्तीसगढ़ी भासी संगी ला होही चाहे वो छत्तीसगढ़ के मूल निवासी होय, चाहे आने राज्य या देस के ।
अब सवाल उठते आखीर कोनो भासा ला आठवीं अनुसूची मा सामिल कराय बर का करे ला परते ।  कोन हा कोन भासा ला ये सूची मा जोड़ सकते हे । भारतीय संविधान के आठवी अनुसूची में भासा ला जोड़े के अधिकार केंद्र सरकार ला हे कोन भासा ला जोड़े जाय ये संबंध मा कोनो इसपस्ट उल्लेख नइ हे।
आठवी अनुसूची मा पहिली 14 भासा -असमिया, बंग्ला, गुजराती, हिन्दी कन्नड, कशमीरी, मराठी मलयालम, उडिया, पंजाबी, संस्कृत, तमिल, तेलगू अउ उर्दू रहिस । 1967 मा 21वां संविधान संशोधन करके कोंकणी अउ मणीपुरी ला, 1992 मा 71वां संविधन संषोधन करके नेपाली ला अउ 2003 मा 91वं संशोधन करके बोडो, डोगरी, संथाली अउ मैथली ला सामिल करे गे हे । ऐखर ले इस्पस्ट हे छत्तीसगढी ला ऐमा सामिल करे बर फेर संविधान संशोधन करे ला परही ।
             अनुच्छेद 345 अउ 346 हा राज्य ला भासा के संबंध मा छूट दे रखे हे । जेखर अधिन छत्तीसगढ के राज भासा हिन्दी के गे संग छत्तीसगढी ला बनाय गे हे । अनुच्छेद 347 के अनुसार कोनो राज्य मा कहू कोनो भासा के बोलइया मन के संख्या जादा होय ता उंहा के राज्य सरकार हा, ये सबंध मा राष्ट्रपति ला अभिज्ञात दे सकत हे, जेखर आधार मा राष्ट्रपति अभिज्ञा देते अउ वो भासा ला आठवी सूची मा सामिल करे के रद्दा खुल जाथे ।
छत्तीसगढ़ी ला आठवीं अनुसूची मा सामिल करे के मांग ऐखर राज भासा बने के संगे संग षुरू होगे हे ।  छत्तीसगढी राजभासा आयोग ये दिशा मा अपन पहिली सम्मेलन ‘राजभासा कुंभ‘ 2013 ले कर दे हवय । ये सम्मेलन के समापन समारोह मा खुदे ये संबंध हमर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री रमन सिंह हा ये भासा ला आठवीं अनुसूची मा सामिल कराय के आस्वासन दे हवय । ‘छत्तीसगढी ला  जन भासा बनाय के जरूरत नइ हे ये खुदे एक जनभासा बने हवय । हमर राज्य के पढ़े-लिखे संगी मन आज तक ये भासा ला उपेक्षा ले देखत रहिन ।  जेन मनखे के परिवार नानपन ले घर मा छत्तीसगढ़ी बोलत रहिन ओ मन दू आखर पढ-लिख के ये भासा ला बोले ला बंद कर दिहीन । छत्तसगढ़ी मा बोलइया मन ला देहाती अउ गवार कहे लगीन । अइसन धारणा ला मिटाय बर ‘छत्तीसगढ़ी बर सकलाव‘ के नारा देत राजभासा आयोग हा अपन दूसर सम्मेलन 2014 मा छत्तीसगढ़ी ला पढ़े-लिखे मन के भासा बनाय के पुर जोर कोसिस करीन ।  राजभासा अपन तीसर प्रांतीय अधिवेष्न 2015 ला तो ‘आठवी अनुसूची मा छत्तीसगढ़ी‘ ला समर्पित करे रहिस ।
अइसनो बात नइ हे के एकेल्ला राजभासा ऐ दिसा मा कोसिस करत हे । बहुत अकन साहित्यिक संस्था मन घला ये दिसा मा परयासरत हे । छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति रायपुर 2009 मा कवरधा मा अपन प्रांतीय अधिवेसन कराइन जेमा छत्तीसगढ़ के पहिली अध्यक्ष पंडित ष्यामलाल चतुर्वेदी, वरिष्ठ साहित्यकार डाँ विनय पाठक मन सिरकत करीन । ये सम्मेलन के मुख्य विषय रहिस ”छत्तीसगढ़ी भाखा अउ आठवीं अनुसूची”।
ये विसय मा घात दिन ले गोष्ठी, सम्मेलन, चरचा-परिचरचा चलत हवय फेर येमा अभी तक सफलता नइ मिले हे । ऐखर कारण मा जाहू ता ऐकेठन कारन दिखही, इच्छा शक्ति के कमी । नेता के अउ आम जनता के ।  आठवी सूची के विसय सब्बो ढंग ले एक राजनीतिक इच्छा शक्ति मा निरभर हे ।  राजनीतिक इच्छाशक्ति के उदय जन दबाव मा निरभर करथे ।
छत्तीसगढी ला ‘जनभासा‘ ले राजभासा अउ ‘राजभासा‘ ले आठवी अनुसूची के भासा बनाय पर ‘छत्तीसगढ़ी राजभासा मंच‘ के गठन करे गे हे ।  जेखर संयोजक श्री नंदकिशोर शुक्ल हे, जेमा जागेश्वर प्रसाद, रामेश्वर शर्मा, सुधीर शर्मा, जयप्रकाश शर्मा, चेतन भारती, सुशील भोले, वैभव पाण्डेय, संजीव साहू अउ राकेश चैहान मन सदस्य हें ।  छत्तीसगढ़ी राजभासा मंच‘ हा छत्तीसगढी ला आठवी अनुसूची मा सामिल कराये बर जनजागरण करे बर एक ठन अलग समिति के गठन करे हे, जेन हा घर-घर जाके दस्तक देही । ये समिति हा हमर राज्य के संसद, विधायक अउ जनप्रतिनिधि मन के दस्खत ले के एक ज्ञापन बनाही जेला महामहिम राश्ट्रपति, माननीय प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष अउ संसदीय कार्यमंत्री ला दे जाही । ऐमा हमर राज के पंच विभूति पद्मश्री डाॅ सुरेन्द्र दुबे, डांॅ महादेव प्रसाद पाण्डे, डाॅ जे.एम. नेल्सन, श्री अनुज शर्मा अउ भारती बंधुमन घला सामिल होही ।
अब तक के परयास ला देखे मा हम पाथन के ये दिसा मा साहित्यकार मन पूरा जोर जगा दें हे, जगह-जगह ये विसय मा चरचा-गोष्ठी करावत हवे अउ आम जनता ला जगावत हवे ।  ऐखर सकारात्म परिणाम घला देखे मा आवत हे । छत्तीसगढ़ी ला हे के दृश्टि ले देखइया मन के संख्या मा दिनो दिन कमी आवत हे ।
मोर सोच हे हमार राज्य के गांव-देहात मा बसे जनता मन छत्तीसगढी ला अपन दिनचरया के भासा पहिली ले बना रखे हे ।  समस्या तो सहर अउ सहरीकरण के परभाव मा आये लोगन के हे जेन मन पति-पत्नि छत्तीसगढी मा गोढियाते अउ अपने लइका मेर हिन्दी झाड़थे ।  बहुत झन अइसे वक्ता, नेता हे जेन हा छत्तीसगढ़ी बर मंच मा छत्तीसगढ़ी मा तगड़ा भाशण देथें अउ मंच के घालहे मा हिन्दी अंग्रेजी मा सोर मचाथे । ऐखरो एक ठन कारण हे छत्तीसगढी पहिली ले जनभासा रहिस हे, पढे-लिखे मन अपन ला उंखर ले अलग दिखे बर उन्ला गंवार अउ छत्तीसगढी ला गंवार मन के भासा देखाय के प्रपंच कर डारिन फेर छत्तीसगढ अउ छत्तीसगढी के राज भासा बने  ले सोच मा फरक परे हे अउ ये सोच जेन दिन मर जाही अउ ये भासा बर अपन पन के भाव जेन दिन जाग जाग जाही, उही दिन हमर भासा आठवीं अनुसूची मा सामिल हो जाही ।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

गांव होवय के देश सबो के आय

मनखे जनम जात एक ठन सामाजिक प्राणी आवय । ऐखर गुजारा चार झन के बीचे मा हो सकथे । एक्केला मा दूये परकार के मनखे रहि सकथे एक तन मन ले सच्चा तपस्वी अउ दूसर मा बइहा भूतहा जेखर मानसिक संतुलन डोल गे हे । सामाजिक प्राणी के सबले छोटे इकाई घर परिवार होथे, जिहां जम्मोझन जुर मिल के एक दूसर के तन मन ले संग देथें अपने स्वार्थ भर ला नई देखंय कहू कोनो एको झन अपन स्वार्थ ला अपन अहम ला जादा महत्व दे लगिन ता ओ परिवार के पाया ह डोले लगथें अउ ओ धसक जाथे । परिवार ला बचाय रखे मा छोटे ले लेके बड़े तक के सहयोग होथे । ओही रकम गांव अउ देष सबो आय एक झन के बलबूता मा ना गांव बनय ना देष । लोकतंत्र मा देष के राजा आम जनता हा होथे अउ नेता मन हमर चुने प्रतिनिधि । जइसे पहिली गौटिया मन मुकतियार राखय अउ अपन बगरे काम के जिम्मेदारी ला देवंय ओइसने नेता मन जनता के मुकतियार होथे अउ अधिकारी करमचारी मन जनता के नौकर । फेर एक बात देखे मा आथे के हमन सोचथन गांव अउ देष तो सरकार अउ ओखर मातहत करमचारी मन के ये हमला का करे ला हे । सोच के देखव भला गांव, देष आखिर आय काखर तोरे रे भई ये देष के मालिक तही हस । ये देष हा तोर ऐ, मोर ऐ, ऐखर ऐ, ओखर ऐ अरे भई सबो के ऐ ।
ऐमा का अड़चन हे के देष हा सबो के ऐ ता । जइसे अपन परिवार मा 8-10 मनखे रहिथन ता घर के खेत-खार, धन-दौलत सबो झन के आय के नही । जम्मा झन ऐखर देख-रेख करथन के नही । अपन-अपन ताकत के पूर्ति लइका अउ सियान अपन पिरवार के देख-रेख करथन । ओइसने भइया अपन देष के अपन गांव के देख-रेख करना हे । वास्तव म मनखे परानी कोनो चीज ला अपन मान लेथे तभे ओखरे बर मया करथे अउ ओखर देख-रेख करथे जइसे कोनो किसनहा अपन खेत मा धसे गाय-गरूवा ला खेदथे दूसर के खेत के ला नई खेदय । कोनो मनखे दूसर मनखे के रिष्तेदार के मरे मा नइ रोवय अपनेच बर रोथे ।
अपन मान ले तैं कहूं, तोरे ओ हर आय ।
पर के माने तै कहूं, सबो उजड़ तो जाय ।।
ये मोहल्ला हा, ये पारा हा, ये गांव हा, ये देश हा तोरे तो आय । दिल ले मान ऐला अपन घर परिवार कस जान अउ ओइसने ऐखरो देख भाल कर । अपन मुह के कौरा ला लइका ल देथस नही ओइसने छेके परिया ला गाय गरूवा बर छोड़, गली ला सकेले चैरा बनाय हस तेला, सबके रेंगे बर फोर । गांव के गली मा कचरा छन कर, छन कर तरिया नदिया के घठौंदा ला तैं गंदा, तरिया नरवा पार मा झन बना अपन बसेरा । गांव ला साफ सुथरा चातर रख, अपन अंगना कस । अइसन कहू हमर सबके सोच होय ता हमर गांव सुधरही, हमर देष सुधरही । ऐ एक झन के बुता नो हय सबो छन के जुरमिल के परयास करे मा ये काम सवरही काबर के गांव होवय के देश सबो के आय ।
-रमेशकुमार सिंह चौहान
मिश्रापारा नवागढ,
जिला-बेमेतरा
मो 9977069545

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

‘‘साहित्य में क्षेत्रीय बोलियों का योगदान‘‘

‘‘साहित्य में क्षेत्रीय बोलियों का योगदान‘‘
                            -रमेशकुमार सिंह चैहान
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार -‘साहित्य जनता की चित्त-वृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब अर्थात समाज का दर्पण है।‘  जब साहित्य समाज का दर्पण है, तो समाज के सभी आयामों का प्रतिबिम्ब दर्पण में अंकित होंगी ही । जब हम भारतीय समाज के संदर्भ में अध्ययन करते हैं, तो भारतीय विविधता स्वाभाविक रूप से परिलक्षित होने लगते हैं । इन्ही विविधता में भाषायिक विविधता सम्मिलित है । भाषायी विविधता के संदर्भ में कहा गया है -‘‘‘चार कोस पर पानी बदले आठ कोस पर बानी‘‘ एवं इसी संदर्भ में कबीरदास की प्रसिद्ध पंक्ति है - ‘‘संस्किरित है कूप जल, भाखा बहता नीर।‘‘ इससे अनुमान लगाया जा सकता है हमारे देष में कितनी बोलियां बोली जाती हैं।  जिनका दर्पण रूपी साहित्य में प्रतिबिम्ब अंकित होना अवष्यसंभावी है । किन्तु आचार्य संजीव ‘सलील‘ मानते है -‘‘साहित्य जड़वत दर्पण नही है अपितु यह सजीव प्रतिक्रियात्मक है जो समाज को सचेत भी करता है।‘  साहित्य के प्रतिक्रियात्मक चेतना के बल पर बोली सवंर्धित-प्रवर्धित होकर साहित्य में स्थान बनाती है। साहित्य किसी भाशा के लैखिक एवं मौखिक स्वरूप का सम्मिश्रण होता है । मौखिक रूप से बोली जाने वाली भाशा लोगो के मौलिक मातृबोली से प्रभावित होती है। अतः स्पश्ट है कि-साहित्य को संपन्न बनाने में इन बोलियों की विषेश भूमिका होती है ।
जब  हम हिन्दी साहित्य में क्षेत्रीय बोलियों के योगदान पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो हमें भाषा के विकास क्रम पर चिंतन करना चाहिये । हिन्दी का विकास क्रम-संस्कृत→ पालि→ प्राकृत→ अपभ्रंश→ अवहट्ट→ प्राचीनध्प्रारम्भिक हिन्दी मानी जाती है ।  अपभ्रंष से हिन्दी उदगम पथ पर क्षेत्र विषेष के प्रभाव से विभिन्न शैलियों का जन्म हुआ विस्तृत क्षेत्र में जिस शैली का विकास हुआ उसे हिन्दी एवं सीमित क्षेत्र में विकसित शैलियों को बोलियां कहा गया । अपने रहन-सहन, प्राकतिक वातावरण के अनुरूप विभिन्न भाशा-बोली का विकास हुआ है।
हिन्दी साहित्य का विकास आठवीं शताब्दी से माना जाता है । हांलाकि इसकी जड़े प्राचाीन भारत के प्राचीन ‘संस्कृत‘ भाशा में तलाषी जा सकती है ।  किंतु हिन्दी साहित्य की जड़े मध्ययुगीन भारत के छोटे-छोटे क्षेत्रों में बोली जाने वाली बोलियों में पाई जाती हैं । मध्यकाल में ही हिन्दी का स्वरूप स्पष्ट हुआ तथा उसकी प्रमुख बोलियाँ विकसित हुई ।   हिन्दी के मुख्य दो भेद पूर्वी हिन्दी एवं पश्चिमी हिन्दी स्वीकार किये गये हैं । पूर्वी हिन्दी के अंतर्गत अर्धमागधी प्राकृत स्वभाव के अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी को रखा गया है। पष्चिमी हिन्दी के अंतर्गत पांच बोलियां -खड़ी बोली, बांगरू, ब्रज, कन्नौजी, और बुंदेली स्वीकार किये गये हैं । इनके अतिरिक्त बिहारी, राजस्थानी एवं पहाड़ी हिन्द प्रदेश की उपभाषएं (बोलियां) स्वीकार की गई हैं । गैर हिन्दी भाषीय क्षेत्र में बोली जानी वाली हिन्दी बोली में - बम्बईया हिन्दी, कलकतिया हिन्दी एवं दक्खिनी हिन्दी भी सम्मिलित है । श्री मधूधवन ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास‘ में भूमिका देते हुये स्वीकार करते हैं कि -‘ इन सभी भाषाओं के साहित्य को हिन्दी का साहित्य माना जाता है क्योंकि ये भाषाएँ हिन्दी साहित्य के इतिहास में ‘अपभ्रंश’ काल से उन समस्त रचनाओं का अध्ययन किया जाता है उपर्युक्त उपभाषाओं में से भी लिखी हो।‘‘ वास्तव में ‘हिन्दी‘ शब्द भाषा विशेष का वाचक नहीं है, बल्कि यह भाषा समूह का नाम है। हिन्दी जिस भाषा समूह का नाम है, उसमें आज के हिंदी प्रदेशध्क्षेत्र की 5 उपभाषाएँ तथा 17 बोलियाँ शामिल हैं। वस्तुतः इन बोलियों या उपभाशाओं को हिन्दी भाशा की बोली या उपभाशा मानने के पीछे इन सबकी परस्पर सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनितिक एकता के साथ-साथ परस्पर बोधगम्यता, षब्द-वर्ग की समानता तथा संरचनात्मक साम्य है ।
हिन्दी की विविधता उसकी शक्ति है ।  हिन्दी की बोलियां अपने साथ एक बड़ी परंपरा एवं सभ्यता को समेटे हुये हैं।   इनमें से कुछ में अत्यंत उच्च श्रेणी के साहित्य की रचना हुई है ।  हिन्दी साहित्य के जिस कालखण्ड़ को ‘स्वर्ण युग‘ की संज्ञा दी गई, उस काल पर दृश्टिपात करने से हम पाते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा ‘अवधी‘ में रचित ‘रामचरित मानस‘, सूरदासजी द्वारा ‘ब्रजभाषा‘ में रचित ‘सूरसागर‘ मीरा बाई का राजस्थानी एवं ब्रजभाषा में साहित्यिक उपादान ‘बरसी का मायरा‘ एवं ‘गीत गोंविंद टीका‘, विद्यापति के मैथली की रचनाएं आदि आज हमारी साहित्यिक धरोहर हैं।
विभिन्न बोलियों एवं उपभाषाओं का हिन्दी साहित्य में आदिकाल से आज पर्यंत सतत प्रभाव बना हुआ है -

अवधी-  अवधी अपने आदिकाल से ही हिन्दी की प्रमुख उप भाषा के रूप  में रही है ।  हिन्दी साहित्य अवधी साहित्य पर निर्भर रहा है । अवधी की पहली कृति मुल्ला दाउद की ‘चंद्रायन‘ या ‘लोरकहा‘ (1370 ई.) मानी जाती है। इसके उपरान्त अवधी भाषा के साहित्य का उत्तरोत्तर विकास होता गया। अवधी को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सूफीध्प्रेममार्गी कवियों को है। कुतबन (मृगावती), जायसी (पद्मावत), मंझन (मधुमालती), आलम (माधवानल कामकंदला), उसमान (चित्रावली), नूर मुहम्मद (इन्द्रावती), कासिमशाह (हंस जवाहिर), शेख निसार (यूसुफ जुलेखा), अलीशाह (प्रेम चिंगारी) आदि सूफी कवियों ने अवधी को साहित्यिक गरिमा प्रदान की। बैसवाड़ी अवधी में गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित ‘रामचरित मानस‘ ने हिन्दी साहित्य को नई ऊंचाई पर पहुॅचाया । ‘रामचरित मानस‘ के रूप में आज भी हिन्दी साहित्य के रूप में घर-घर स्थापित है ।

ब्रजभाषा- हिंदी साहित्य के मध्ययुग में ब्रजभाषा में उच्च कोटि का काव्य निर्मित हुआ। इसलिए इसे बोली न कहकर आदरपूर्वक भाषा कहा गया। मध्यकाल में यह बोली संपूर्ण हिन्दी प्रदेश की साहित्यिक भाषा के रूप में मान्य हो गई थी। पर साहित्यिक ब्रजभाषा में ब्रज के ठेठ शब्दों के साथ अन्य प्रांतों के शब्दों और प्रयोगों को भी ग्रहण किया है। ब्रजभाषा साहित्य का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल का ‘प्रद्युम्न चरित‘(1354 ई.) है। भक्तिकाल में कृष्णभक्त कवियों ने अपने साहित्य में ब्रजभाषा का चरम विकास किया। पुष्टि मार्ग-शुद्धाद्वैत सम्प्रदाय के सूरदास (सूरसागर), नंददास, निम्बार्क संप्रदाय के श्री भट्ट, चैतन्य सम्प्रदाय के गदाधर भट्ट, राधावल्लभ सम्प्रदाय के हित हरिवंश एवं सम्प्रदाय निरपेक्ष कवियों में रसखान, मीराबाई आदि प्रमुख कृष्णभक्त कवियों ने ब्रजभाषा के साहित्यिक विकास में अमूल्य योगदान  दिया । इन भक्तों के पद आज भी पूरे हिन्दी भाशाी प्रदेषों में प्रचलित हैं ।

खड़ी बोली-  इसी बोली के आधार पर हिन्दी का आधुनिक रूप  खड़ा हुआ है । प्राचीन हिन्दी काल में रचित खड़ी बोली साहित्य में खड़ी बोली के आरम्भिक प्रयोगों से उसके आदि रूप या बीज रूप का आभास मिलता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, गोरखनाथ आदि नाथों, अमीर खुसरो जैसे सूफियों, जयदेव, नामदेव, रामानंद आदि संतों की रचनाओं में उपलब्ध है। इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंश-अवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्टतः दिखाई देती है। श्रीधर पाठक की प्रसिद्व रचनाएं एकांत योगी और कश्मीर सुषमा खड़ी बोली की सुप्रसिद्ध रचनाएं हैं। रामनरेश द्विवेदी ने अपने पथिक मिलन और स्वप्न महाकाव्यों में इस बोली का विकास किया। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध‘ के ‘प्रिय प्रवास‘ को खड़ी बोली का पहला महाकाव्य माना गया है।

दक्खिनी- हिन्दी में गद्य रचना परम्परा की शुरुआत करने का श्रेय दक्कनी हिन्दी के रचनाकारों को ही है। दक्कनी हिन्दी को उत्तर भारत में लाने का श्रेय प्रसिद्ध शायर वली दक्कनी (1688-1741) को है। वह मुगल शासक मुहम्मद शाह ‘रंगीला‘ के शासन काल में दिल्ली पहुँचा और उत्तरी भारत में दक्कनी हिन्दी को लोकप्रिय बनाया। डाॅं कुंज मेत्तर के अनुसार आधुनिक खड़ीबोली हिन्दी का विकास दक्षिण के हिन्दीतर क्षेत्रों में हुआ वे लिखते हैं -‘‘हिन्दी का जो रूप हमारे सामने है उसका पूववर्ती रूप दक्षिण में विकसित हुआ । खड़ी बोली के दक्षिण में व्यवहृत पुराने स्वरूप  को देखकर हम यह विष्वास करने को बाध्य हो जाते है कि भाशा की दृश्टि से आधुनिकता के तत्व आरंभकालिन दक्खिनी में अभिव्यक्त हुये थे ।‘‘
छत्तीसगढी- छत्तीसगढी के प्रांरभिक लिखित रूप के बारे में कहा जाता है कि वह 1703 ईस्वी के दंतेवाडा के दंतेश्वरी मंदिर के मैथिल पंडित भगवान मिश्र द्वारा शिलालेख में है ।  कबीर दास के शिष्य और उनके समकालीन (संवत 1520) धनी धर्मदास को छत्तीसगढ़ी के आदि कवि का दर्जा प्राप्त है, जिनके पदों को आज भी कबीर अनुनायियों द्वारा गाया एवं पढ़ा जाता है । हिन्दी साहित्य में माधवराव सप्रे के जिस कहानी ‘टोकरी भर मिट्टी‘ को प्रथम सुगठित कहानी होने को श्रेय प्राप्त है, उसकी पृश्ठ भूमि छत्तीसगढ़ी लोकगाथा में अवलंबित है । पं. सुन्दरलाल शर्मा, लोचन प्रसाद पांडेय, मुकुटधर पांडेय, नरसिंह दास वैष्णव, बंशीधर पांडेय, शुकलाल पांडेय, कुंजबिहारी चैबे, गिरिवरदास वैष्णव ने राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में अपनी रचनाओं द्वारा छत्तीसगढ़ी के उत्कर्ष को नया आयाम दिया ।
बुंदेली -हिंदी साहित्य के विकास और समृद्धि में लोक भाषा बुंदेली का महत्वपूर्ण योगदान है। इसे किसी भी दृष्टिकोण से कम नहीं आंका जा सकता है। इसका विकास रासो काव्य धारा के माध्यम से हुआ। जगनिक आल्हाखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचनाएं हैं। बुंदेली के आदि कवि के रुप में प्राप्त सामग्री के आधार पर जगनिक एवं विष्णुदास सर्वमान्य हैं, जो बुंदेली की समस्त विशेषताओं से मंडित हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय सभी प्रदेश अंचल राष्ट्रीयता से ओतप्रोत हुये, जिससे सभी बोलियों में राश्ट्रीयता का नाद गुंजा जिससे हिन्दी साहित्य आज भी गुजिंत है ।  स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व मौखिक रूप से हिन्दी-उर्दू-क्षेत्रीय बोलियों से मिश्रित हिन्दी का उपयोग किया गया जिसे हिन्दूस्तानी के नाम से गांधी आदि नेताओं द्वारा अभिहित किया जाता था । हिन्दी, हिन्दुस्तानी भाषा के नाम से आजादी के लड़ाई का मुख्य हथियार रहा । डाॅ. श्रीलाल शुक्ल ‘‘आजादी के बाद हिन्दी‘‘ में लिखते हैं -‘‘हिन्दी स्वतंत्रता आंदोलन की भाषा थी । बीसवी षताब्दी के प्रारंभ में अनेक लोगो ने बचपना में हिन्दी केवल इसीलिये सीखे ताकि वह स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले सके ।‘‘  मैथिलीशरण गुप्त ने खड़ी बोली में अनेक काव्या की रचना की। उनकी ‘भारत भारती‘ में स्वाधीनता आंदोलन की ललकार है। राष्ट्रीय प्रेम उनकी कविताओं का प्रमुख स्वर है। सभी बोलियों में आजादी का उदघोश है । ‘कोदूराम दलित‘ छत्तीसगढ़ी में कहते हैं -
अपन देश आजाद करे बर, चलो जेल संगवारी,
कतको झिन मन चल देइन, आइस अब हमरो बारी ।

हरिश्चंद्र पांडेय ‘सरल‘ अवधी में कहते हैं-

मनई बन मनई का प्यार दे,
भेद जाति धर्म कै बिसार दे,
गंगा कै नीर गुन गाये
देसवा कै पीर गुन गाये।

    आदिकाल से आज पर्यंत साहित्य पर बोलियों का प्रभाव बना हुआ है भक्तिकाल भक्तिपरक तो स्वतंत्रता आंदोलन में आजादी के गीत तदुपरांत समाज के विभिन्न कुरीतियों पर कटाक्ष लोकजागरण के स्वर लोकभाशा से साहित्य तक संचरित हुये हैं ।  आजादी के पष्चात प्रचार-तंत्र टी.वी. मीडि़या, रेडि़यो, समचार-पत्र, पत्र-पत्रिकाओं के विकास के साथ-साथ अवधी, ब्रज, भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी हरियाणवी बोलियों में उच्चकोटि के रचनाएं गीत लोकगीत सामने आये । हबीब भारती की हरियाणवी रचना दृश्टव है-

हे दुनिया जिसनै हीणा समझै उसकी गैल पडै़ सै।
हे बान बैठणा ब्याह करवाणा हे बस मैं मेरै कडै़ सै।।

हे ना बूज्झैं करैं सगाई, टोह कै ठोड़-ठिकाणा
हे घाल जेवड़ा गेल्यां कर दें, पडै़ लाजिमी जाणा
हे जिस दिन दे दें धक्का बेबे, आगै हुकम बजाणा
हे यो तो बेबे घर अपणा सै, आगै देश बिराणा
हे को दिन रहल्यूं मां धोरै या जितणै पार पडै़ सै


बोली और उपभाशा की अनेक ऐसी रचनाएं हैं, जिनके बल पर हिन्दी को आज अन्तर्राश्ट्रीय पहचान प्राप्त हुआ । निश्कर्श रूप से कहा जा सकता है कि निष्चित रूप से हिन्दी को उनके सहगामी बोलियां समृद्ध बनाने में सदा से महत्वपूर्ण योगदान देते आ रही हैं ।





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