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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

‘मुक्तक‘

मुक्‍तक की परिभाषा-

‘अग्निपुराण’ में मुक्तक को परिभाषित करते हुए कहा गया किः

”मुक्तकं श्लोक एवैकश्चमत्कारक्षमः सताम्” 

अर्थात चमत्कार की क्षमता रखने वाले एक ही श्लोक को मुक्तक कहते हैं ।


महापात्र विश्वनाथ (13 वीं सदी) के अनुसार- 

’छन्दोंबद्धमयं पद्यं तें मुक्तेन मुक्तकं’  

अर्थात जब एक पद अन्य पदों से मुक्त हो तब उसे मुक्तक कहते हैं ।


 मुक्तक का शब्दार्थ ही है ’अन्यैः मुक्तमं इति मुक्तकं’ अर्थात जो अन्य श्लोकों या अंशों से मुक्त या स्वतंत्र हो उसे मुक्तक कहते हैं. अन्य छन्दों, पदों से प्रसंगों के परस्पर निरपेक्ष होने के साथ-साथ जिस काव्यांश को पढने से पाठक के अंतःकरण में रस-सलिला प्रवाहित हो वही मुक्तक है-

 ’मुक्त्मन्यें नालिंगितम.... पूर्वापरनिरपेक्षाणि हि येन रसचर्वणा क्रियते तदैव मुक्तकं

’मुक्तक’ वह स्वच्छंद रचना है जिसके रस का उद्रेक करने के लिए अनुबंध की आवश्यकता नहीं। वास्तव में मुक्तक काव्य का महत्त्वपूर्ण रूप है, जिसमें काव्यकार प्रत्येक छंद में ऐसे स्वतंत्र भावों की सृष्टि करता है, जो अपने आप में पूर्ण होते हैं। मुक्तक काव्य या कविता का वह प्रकार है जिसमें प्रबन्धकीयता न हो। इसमें एक छन्द में कथित बात का दूसरे छन्द में कही गयी बात से कोई सम्बन्ध या तारतम्य होना आवश्यक नहीं है। कबीर एवं रहीम के दोहे; मीराबाई के पद्य आदि सब मुक्तक रचनाएं हैं। हिन्दी के रीतिकाल में अधिकांश मुक्तक काव्यों की रचना हुई। इस परिभषा के अनुसार प्रबंध काव्यों से इतर प्रायः सभी रचनाएँ “मुक्तक“ के अंतर्गत आ जाती है !


आधुनिक युग में हिन्दी के आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसारः -‘मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है ।


लोक प्रचलित मुक्तक-

लोकप्रचलित मुक्तक का संबंध उर्दू साहित्य से है । गजल के मतला के साथ मतलासानी चिपका हुआ हो तो इसे मुक्तक कहते हैं । मुक्तक एक सामान मात्राभार और समान लय (या समान बहर) वाले चार पदों की रचना है जिसका पहला , दूसरा और चौथा पद तुकान्त तथा तीसरा पद अतुकान्त होता है और जिसकी अभिव्यक्ति का केंद्र अंतिम दो पंक्तियों में होता है !

मुक्तक के लक्षण

समग्रतः मुक्तक के लक्षण निम्न प्रकार हैं -

  1. इसमें चार पद होते हैं

  2. चारों पदों के मात्राभार और लय (या बहर) समान होते हैं

  3. पहला , दूसरा और चौथा पद में रदिफ काफिया अर्थात समतुकान्तता होता हैं जबकि तीसरा पद अनिवार्य रूप से अतुकान्त होता है ।

  4. कथ्य कुछ इस प्रकार होता है कि उसका केंद्र विन्दु अंतिम दो पंक्तियों में रहता है , जिनके पूर्ण होते ही पाठक/श्रोता ’वाह’ करने पर बाध्य हो जाता है !

  5. मुक्तक की कहन कुछ-कुछ  ग़ज़ल के शेर जैसी होती है , इसे वक्रोक्ति , व्यंग्य या अंदाज़-ए-बयाँ के रूप में देख सकते हैं !


जैसे-

(1)

आज अवसर है दृग मिला लेंगे. 

(212 222 1222)

प्यार को अपने आजमा लेंगे. 

(212 222 1222)

कोरा कुरता है आज अपना भी

(212 222 1222)

कोरी चूनर पे रंग डालेंगे.

(212 222 1222)

-श्री चन्द्रसेन ’विराट’


(2)

किसी पत्थर में मूरत है कोई पत्थर की मूरत है  

(1222 1222 1222 1222)

लो हमने देख ली दुनिया जो इतनी ख़ूबसूरत है  

(1222 1222 1222 1222) 

ज़माना अपनी समझे पर मुझे अपनी खबर ये है 

(1222 1222 1222 1222)  

तुम्हें मेरी जरूरत है मुझे तेरी जरूरत है

(1222 1222 1222 1222)


      -कुमार विश्वास      


(3)

कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है, 

(1222 1222 1222 1222)

मगर धरती की बेचैनी को, बस बादल समझता है  

(1222 1222 1222 1222)

मैं तुझसे दूर कैसा हूँ तू मुझसे दूर कैसी है   

(1222 1222 1222 1222)

ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है.

 (1222 1222 1222 1222)

-कुमार विश्वास


(4)

भाव थे जो शक्ति-साधन के लिए, 

(2122 2122 212)

लुट गये किस आंदोलन के लिए ?

(2122 2122 212)

यह सलामी दोस्तों को है, मगर

(2122 2122 212)

मुट्ठियाँ तनती हैं दुश्मन के लिए !

(2122 2122 212)

-शमशेर बहादुर सिंह

मुक्‍तक के लिए आवश्‍यक शब्‍दावली -

मुक्‍त्‍क लिखने से पहले मुक्‍तक में प्रयुक्‍त होने वाले कुछ शब्‍दों से परिचित होना आवश्‍यक जिसमें प्रमुख रूप रदीफ, काफिया और बहर है । इन शब्‍दों से भलीभांति परिचित हाने के बाद ही सही रूप में मुक्‍तक कही जा सकती है । इसलिए इन पदों को संक्षेप में समझााने का प्रयास किया जा रहा है ।

रदीफ

रदीफ़ अरबी शब्द है इसकी उत्पत्ति “रद्” धातु से मानी गयी है । रदीफ का शाब्दिक अर्थ है ’“पीछे चलाने वाला’” या ’“पीछे बैठा हुआ’” या ’दूल्हे के साथ घोड़े पर पीछे बैठा छोटा लड़का’ (बल्हा) होता है। 


ग़ज़ल के सन्दर्भ में रदीफ़ उस शब्द या शब्द समूह को कहते हैं जो मतला (पहला शेर) के मिसरा ए उला (पहली पंक्ति) और मिसरा ए सानी (दूसरी पंक्ति) दोनों के अंत में आता है और हू-ब-हू एक ही होता है यह अन्य शेर के मिसरा-ए-सानी (द्वितीय पंक्ति) के सबसे अंत में हू-ब-हू आता है ।


उदाहरण -

(1)

हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए

- (दुष्यंत कुमार)


(2)

आँसुओं का समंदर सुखाया गया ,

अन्त में बूँद भर ही बचाया गया ,

बूँद वह गुनगुनाने लगी ताल पर -

तो उसे गीत में ला छुपाया गया !

................. ओम नीरव.


उपरोक्‍त पहले उदाहरण के अंतिम में 'चाहिए' और दूसरे उदाहरण के अंत में 'गया' शब्‍द आया है यही रदीफ है ।

मुक्तक के प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ पंक्ति के अंत के शब्द या शब्दांश एक ही होना चाहिये । अर्थात इन तीनों पंक्ति में रदिफ एक समान हो किन्तु तीसरी पंक्ति रदिफ मुक्त हो ।



काफिया

'काफिया' अरबी शब्द है जिसकी उत्पत्ति “कफु” धातु से मानी जाती है । काफिया का शाब्दिक अर्थ है ’जाने के लिए तैयार’ ।  

ग़ज़ल के सन्दर्भ में काफिया वह शब्द है जो समतुकांतता के साथ हर शेर में बदलता रहता है यह ग़ज़ल के हर शेर में रदीफ के ठीक पहले स्थित होता है  जबकि मुक्तक पहले, दूसरे एवं चौथे पंक्ति में ।

उदाहरण -

        (1)

 हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए

         इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

         मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

         हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए 

(दुष्यंत कुमार)


(2)

आँसुओं का समंदर सुखाया गया ,

अन्त में बूँद भर ही बचाया गया ,

बूँद वह गुनगुनाने लगी ताल पर -

तो उसे गीत में ला छुपाया गया !

................. ओम नीरव.


उपरोक्‍त पहले उदाहरण में “पिघलनी”, “निकलनी”, “जलनी” शब्द रदीफ ‘चाहिए’ के ठीक पहले आये हैं और समतुकांत हैं, इसी प्रकार दूसरे उदाहरण में 'सुखाया', 'बचाया', 'छुपाया' शब्द रदीफ ‘गया’ के ठीक पहले आये हैं और समतुकांत हैं, यही काफिया है ।

बहर- 

मात्राओं के क्रम को ही बहर कहा जाता है ।  जिस प्रकार हिन्दी में गण होता है उसी प्रकार उर्दू में रूकन होता है ।

रुक्न

रुकन का अर्थ गण, घटक, पद, या निश्चित मात्राओं का पुंज होता है। जैसे हिंदी छंद शास्त्र में गण होते हैं, यगण (222), तगण (221) आदि उस तरह ही उर्दू छन्द शास्त्र ’अरूज़’ में कुछ घटक होते हैं जो ’रुक्न’ कहलाते हैं । रुकन का बहुवचन अरकान कहलाता है ।


रुक्न के दो भेद होते हैं -

  1. सालिम रुक्न (मूल रुक्न)

  2. मुज़ाहिफ रुक्न (उप रुक्न)


1. सालिम रुक्न (मूल रुक्न) - 

अरूज़शास्त्र में सालिम अरकान की संख्या सात कही गई है-


रुक्न 

रुक्न का नाम

मात्रा

फ़ईलुन  

मुतक़ारिब

122

फ़ाइलुन 

मुतदारिक 

212

मुफ़ाईलुन 

हजज़  

1222

फ़ाइलातुन

रमल  

2122

मुस्तफ़्यलुन

रजज़ 

2212

मुतफ़ाइलुन

कामिल 

11212

मफ़ाइलतुन

वाफ़िर 

12112


     

2. मुज़ाहिफ रुक्न (उप रुक्न)- 

सात मूल रुक्न के कुछ उप रुक्न भी हैं जो मूल रुक्न को तोड़ कर अथवा मात्रा जोड़ कर बनाए गये हैं

उदाहरण - 

2(फ़ा), 21( फ़ेल), 12(फ़अल), 121 (फ़ऊल), 112 (फ़इलुन), 212(फ़ाइलुन), 1122(फ़इलातुन), 1212(मुफ़ाइलुन), 21221(फाइलातान) आदि


(किसी रुक्न से उप रुक्न बनाने का नियम तथा संख्या निश्चित है जैसे - रमल(2122) मूल रुक्न के 11+17 प्रकार का वर्णन मिलाता है तथा सभी का एक निश्चित नाम है )

बहर के निर्माण में उप रुक्न की भूमिका

बहर के निर्माण में इन उप रुक्न की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है । सभी ग़ज़ल इन सात सालिम व मुजाहिफ अर्कान के अनुसार ही लिखी/कही जाती है ।

बहर नामकरण के नियम-

बहर का नाम लिखते समय हम इन बातों का ध्यान देते हैं -


  1. बहर के रुक्न का नाम + रुक्न की संख्या का नाम + रुक्न सालिम हैं तो ’सालिम’ लिखेगें अथवा अर्कान में मुजाहिफ रुक्न का इस्तेमाल भी हुआ है तो मुजाहिफ रुक्न के प्रकार का उल्लेख करेंगे ।

  2. रूकन की पुनरावृत्‍ती 4 बार हो तो  मुसम्मन नाम दिया जाता है ।

  3. रूकन की आवृत्‍ती 3 बार हो तो मुसद्दस  नाम दिया जाता है ।

  4. रूकन की आवृत्‍ती 2 बार हो तो मुरब्बा नाम दिया जाता है ।

  5. यदि रूकन मूल हो तो इसे सालिम नाम दिया जाता है ।

  6. यदि मूल रूकन में मात्रा घटाई गई या बढ़ाई गई हो तो मुफरद मुजाहिफ नाम दिया जाता है ।


जैसे-

मुतकारिब

122 122 122 122 - मुतकारिब मुसम्मन सालिम

122 122 122 - मुतकारिब मुसद्दस सालिम

122 122 - मुतकारिब मुरब्बा सालिम


 मुतदारिक

212 212 212 212 - मुतदारिक मुसम्मन सालिम

212 212 212 - मुतदारिक मुसद्दस सालिम

212 212 212 मुतदारिक मुरब्बा सालिम


 रमल

2122 2122 2122 2122- रमल मुसम्मन सालिम

2122 2122 2122 - रमल मुसद्दस सालिम

2122 2122 - रमल मुरब्बा सालिम


 हजज

1222 1222 1222 1222 - हजज मुसम्मन सालिम

1222 1222 1222 - हजज मुसद्दस सालिम

1222 1222 - हजज मुरब्बा सालिम


 रजज

2212 2212 2212 2212 - रजज मुसम्मन सालिम

2212 2212 2212 2212 - रजज मुसद्दस सालिम

2212 2212 - रजज मुरब्बा सालिम


 कामिल

11212 2212 2212 2212 - कामिल मुसम्मन सालिम

2212 2212 2212 - कामिल मुसद्दस सालिम

2212 2212- कामिल मुरब्बा सालिम


 वाफिर

12112 12112 12112 12112 - वाफिर मुसम्मन सालिम

12112 12112 12112 - वाफिर मुसद्दस सालिम

12112 12112 - वाफिर मुरब्बा सालिम


प्रत्येक मुफरद सालिम बहारों से कुछ उप-बहरों का निर्माण होता है । उप-बहर बनाने के लिए मूल बहर में एक या एक से अधिक सालिम रुक्न की मात्रा को घटा कर अथवा हटा कर उप-बहर का निर्माण करते हैं । इस प्रकार बनी बहर को ’मुफरद मुजाहिफ’ बहर कहते हैं ।


मात्रा गणना का सामान्य नियम


बहर में मुक्‍तक या  ग़ज़ल लिखने के लिए तक्तीअ (मात्रा गणना) ही एक मात्र अचूक उपाय है, यदि शेर की तक्तीअ (मात्रा गणना) करनी आ गई तो देर सबेर बहर में लिखना भी आ जाएगा क्योकि जब किसी शायर को पता हो कि मेरा लिखा शेर बेबहर  है तभी उसे सही करने का प्रयास करेगा और तब तक करेगा जब तक वह शेर बाबहर  न हो जाए ।


मात्राओं को गिनने का सही नियम न पता होने के कारण ग़ज़लकार अक्सर बहर निकालने में या तक्तीअ करने में दिक्कत महसूस करते हैं । इसलिए आईये सबसे पहले तक्तीअ प्रणाली को समझते हैं-


ग़ज़ल में सबसे छोटी इकाई ’मात्रा’ होती है और हम भी तक्तीअ प्रणाली को समझने के लिए सबसे पहले मात्रा से परिचित होंगे -

मात्रा के प्रकार-

मात्रा दो प्रकार की होती है

  1. ‘एक मात्रिक’ इसे हम एक अक्षरीय व एक हर्फी व लघु व लाम भी कहते हैं और 1 से अथवा हिन्दी कवि । से भी दर्शाते हैं

  2. दो मात्रिक’ इसे हम दो अक्षरीय व दो हरूफी व दीर्घ व गाफ भी कहते हैं और 2 से अथवा हिन्दी कवि S से भी दर्शाते हैं


  • एक मात्रिक स्वर अथवा व्यंजन के उच्चारण में जितना वक्त और बल लगता है दो मात्रिक के उच्चारण में उसका दोगुना वक्त और बल लगता है ।

  • ग़ज़ल में मात्रा गणना का एक स्पष्ट, सरल और सीधा नियम है कि इसमें शब्दों को जैसा बोला जाता है (शुद्ध उच्चारण)  मात्रा भी उस हिसाब से ही गिनाते हैं ।


जैसे - 

  • हिन्दी में कमल = क/म/ल = 111 होता है मगर ग़ज़ल विधा में इस तरह मात्रा गणना नहीं करते बल्कि उच्चारण के अनुसार गणना करते हैं द्य उच्चारण करते समय हम “क“ उच्चारण के बाद “मल“ बोलते हैं इसलिए ग़ज़ल में ‘कमल’ = 12 होता है यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि “कमल” का ‘“मल’” शाश्वत दीर्घ है अर्थात जरूरत के अनुसार गज़ल में ‘कमल’ शब्द की मात्रा को 111 नहीं माना जा सकता यह हमेशा 12 ही रहेगा ।


  • ‘उधर’- उच्च्चरण के अनुसार उधर बोलते समय पहले “उ“ बोलते हैं फिर “धर“ बोलने से पहले पल भर रुकते हैं और फिर ’धर’ कहते हैं इसलिए इसकी मात्रा गिनाते समय भी ऐसे ही गिनेंगे अर्थात 

उ + धर = उ 1+ धर 2 = 12

मात्रा गणना करते समय ध्‍यान रखने योग्‍य बातें-

मात्रा गणना करते समय ध्यान रखे कि -


  1. सभी व्यंजन (बिना स्वर के) एक मात्रिक होते हैं

जैसे दृ क, ख, ग, घ, च, छ, ज, झ, ट ... आदि 1 मात्रिक हैं


  1. - अ, इ, उ स्वर व अनुस्वर चन्द्रबिंदी तथा इनके साथ प्रयुक्त व्यंजन एक मात्रिक होते हैं

जैसे = अ, इ, उ, कि, सि, पु, सु हँ  आदि एक मात्रिक हैं

  1. - आ, ई, ऊ ए ऐ ओ औ अं स्वर तथा इनके साथ प्रयुक्त व्यंजन दो मात्रिक होते हैं

जैसे = आ, सो, पा, जू, सी, ने, पै, सौ, सं आदि 2 मात्रिक हैं


 

  1. यदि किसी शब्द में दो ’एक मात्रिक’ व्यंजन हैं तो उच्चारण अनुसार दोनों जुड कर शाश्वत दो मात्रिक अर्थात दीर्घ बन जाते हैं जैसे ह-1 म-1मात्रा गणना करते समय हम की मात्रा 11 न होकर 2 होगी ।  ऐसे दो मात्रिक शाश्वत दीर्घ होते हैं जिनको जरूरत के अनुसार 11 अथवा 1 नहीं किया जा सकता है

जैसे - सम, दम, चल, घर, पल, कल आदि शाश्वत दो मात्रिक हैं

  1. परन्तु जिस शब्द के उच्चारण में दोनो अक्षर अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ दोनों लघु हमेशा अलग अलग अर्थात ११ गिना जायेगा

जैसे द-  असमय = अ/स/मय =  अ1 स1 मय2 = 112   

  1. असमय का उच्चारण करते समय ’अ’ उच्चारण के बाद रुकते हैं और ’स’ अलग अलग बोलते हैं और ’मय’ का उच्चारण एक साथ करते हैं इसलिए ’अ’ और ’स’ को दीर्घ नहीं किया जा सकता है और मय मिल कर दीर्घ हो जा रहे हैं इसलिए असमय का वज्न अ१ स१ मय२ = ११२  होगा इसे २२ नहीं किया जा सकता है क्योकि यदि इसे 22 किया गया तो उच्चारण अस्मय हो जायेगा और शब्द उच्चारण दोषपूर्ण हो जायेगा ।  



  1. जब क्रमांक 2 अनुसार किसी लघु मात्रिक के पहले या बाद में कोई शुद्ध व्यंजन(1 मात्रिक क्रमांक 1के अनुसार) हो तो उच्चारण अनुसार दोनों लघु मिल कर शाश्वत दो मात्रिक हो जाता है

  2. उदाहरण द- “तुम” शब्द में “’त’” ’“उ’” के साथ जुड कर ’“तु’” होता है(क्रमांक 2 अनुसार), “तु” एक मात्रिक है और “तुम” शब्द में “म” भी एक मात्रिक है (क्रमांक1 के अनुसार)  और बोलते समय “तु+म” को एक साथ बोलते हैं तो ये दोनों जुड कर शाश्वत दीर्घ बन जाते हैं इसे 11 नहीं गिना जा सकता

  3. इसके और उदाहरण देखें = यदि, कपि, कुछ, रुक आदि शाश्वत दो मात्रिक हैं

  4. परन्तु जहाँ किसी शब्द के उच्चारण में दोनो हर्फ़ अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ अलग अलग ही अर्थात ११ गिना जायेगा

  5. जैसे -  सुमधुर = सु/ म /धुर = स1 +म 1+धुर 2 = 112 


    1.  यदि किसी शब्द में अगल बगल के दोनो व्यंजन किन्हीं स्वर के साथ जुड कर लघु ही रहते हैं (क्रमांक 2 अनुसार) तो उच्चारण अनुसार दोनों जुड कर शाश्वत दो मात्रिक हो जाता है इसे 11 नहीं गिना जा सकता

    2. जैसे = पुरु = प+उ / र+उ = पुरु = 2,  

      1. इसके और उदाहरण देखें = गिरि

    3.  परन्तु जहाँ किसी शब्द के उच्चारण में दो हर्फ़ अलग अलग उच्चरित होंगे वहाँ ऐसा मात्रा योग नहीं बनेगा और वहाँ अलग अलग ही गिना जायेगा

    4. जैसे - सुविचार = सु/ वि / चा / र = स+उ 1 व+इ 1 चा 2 र 1 = 1121


  1. ग़ज़ल के मात्रा गणना में अर्ध व्यंजन को 1 मात्रा माना गया है तथा यदि शब्द में उच्चारण अनुसार पहले अथवा बाद के व्यंजन के साथ जुड जाता है और जिससे जुड़ता है वो व्यंजन यदि 1 मात्रिक है तो वह 2 मात्रिक हो जाता है और यदि दो मात्रिक है तो जुडने के बाद भी 2 मात्रिक ही रहता है ऐसे 2 मात्रिक को 11 नहीं गिना जा सकता है

उदाहरण -

  1. सच्चा = स1+च्1 / च1+आ1  = सच् 2 चा 1 = 22

  2. (अतः सच्चा को 112 नहीं गिना जा सकता है)

  3. आनन्द = आ / न+न् / द = आ2 नन्2 द1 = 221

  4. कार्य = का+र् / य = र्का 2 य 1 = 21  (कार्य में का पहले से दो मात्रिक है तथा आधा र के जुडने पर भी दो मात्रिक ही रहता है)

  5. तुम्हारा = तु/ म्हा/ रा = तु 1 +म्हा 2+ रा 2 = 122

  6. तुम्हें = तु / म्हें = तु1+ म्हें 2 = 12

  7. उन्हें = उ / न्हें = उ1+ न्हें2 = 12

  1. अपवाद स्वरूप अर्ध व्यंजन के इस नियम में अर्ध स व्यंजन के साथ एक अपवाद यह है कि यदि अर्ध स के पहले या बाद में कोई एक मात्रिक अक्षर होता है तब तो यह उच्चारण के अनुसार बगल के शब्द के साथ जुड जाता है परन्तु यदि अर्ध स के दोनों ओर पहले से दीर्घ मात्रिक अक्षर होते हैं तो कुछ शब्दों में अर्ध स को स्वतंत्र एक मात्रिक भी माना लिया जाता है

जैसे = 

  1. रस्ता = र+स् / ता 22 होता है मगर रास्ता = रा/स्/ता = 212 होता है

  2. दोस्त = दो+स् /त= 21 होता है मगर दोस्ती = दो/स्/ती = 212 होता है

  3. इस प्रकार और शब्द देखें बस्ती, सस्ती, मस्ती, बस्ता, सस्ता = 22

  4. दोस्तों = 212

  5. मस्ताना =222

  6. मुस्कान = 221     

  7. संस्कार= 2121 


  1. संयुक्ताक्षर जैसे = क्ष, त्र, ज्ञ द्ध द्व आदि दो व्यंजन के योग से बने होने के कारण दीर्घ मात्रिक हैं परन्तु मात्र गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं  

उदाहरण = 

पत्र= 21, वक्र = 21, यक्ष = 21, कक्ष - 21, यज्ञ = 21, शुद्ध =21 क्रुद्ध =21

गोत्र = 21, मूत्र = 21,

  1. यदि संयुक्ताक्षर से शब्द प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं

उदाहरण = 

त्रिशूल = 121, क्रमांक = 121, क्षितिज = 12

  1. संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं

उदाहरण =

प्रज्ञा = 22  राजाज्ञा = 222,

  1. उच्चारण अनुसार मात्रा गणना के कारण कुछ शब्द इस नियम के अपवाद भी है -

उदाहरण = 

अनुक्रमांक = अनु/क्र/मां/क = 2121 (’नु’ अक्षर लघु होते हुए भी ’क्र’ के योग से दीर्घ नहीं हुआ और उच्चारण अनुसार अ के साथ जुड कर दीर्घ हो गया और क्र लघु हो गया)    

  1. विसर्ग युक्त व्यंजन दीर्घ मात्रिक होते हैं ऐसे व्यंजन को 1 मात्रिक नहीं गिना जा सकता

उदाहरण = 

दुःख = 21 होता है इसे दीर्घ (2) नहीं गिन सकते यदि हमें 2 मात्रा में इसका प्रयोग करना है तो इसके तद्भव रूप में ’दुख’ लिखना चाहिए इस प्रकार यह दीर्घ मात्रिक हो जायेगा


  • मात्रा गणना के लिए अन्य शब्द देखें -

  • तिरंगा = ति + रं + गा =  ति 1 रं 2 गा 2 = 12  

  • उधर = उ/धर उ 1 धर 2 = 12

  • ऊपर = ऊ/पर = ऊ 2 पर 2 = 22    

  • इस तरह अन्य शब्द की मात्राओं पर ध्यान दें =

  • मारा = मा / रा  = मा 2 रा 2 = 22

  • मरा  = म / रा  = म 1 रा 2 =12

  • मर = मर 2 = 2

  • सत्य = सत् / य = सत् 2 य 1 = 21


मात्रा गिराने का नियम-

वस्तुतः “मात्रा गिराने का नियम“ कहना गलत है क्योकि मात्रा को गिराना अरूज़ शास्त्र में “नियम“ के अंतर्गत नहीं बल्कि छूट के अंतर्गत आता है द्य अरूज़ पर उर्दू लिपि में लिखी किताबों में यह ’नियम’ के अंतर्गत नहीं बल्कि छूट के अंतर्गत ही बताया जाता रहा है, परन्तु अब यह छूट इतनी अधिक ली जाती है कि नियम का स्वरूप धारण करती जा रही है इसलिए अब इसे मात्रा गिराने का नियम कहना भी गलत न होगा इसलिए आगे इसे नियम कह कर भी संबोधित किया जायेगा द्य मात्रा गिराने के नियमानुसार, उच्चारण अनुसार  तो हम एक मिसरे में अधिकाधिक मात्रा गिरा सकते हैं परन्तु उस्ताद शाइर हमेशा यह सलाह देते हैं कि ग़ज़ल में मात्रा कम से कम गिरानी चाहिए

यदि हम मात्रा गिराने के नियम की परिभाषा लिखें तो कुछ यूँ होगी -


  • “ जब किसी बहर के अर्कान में जिस स्थान पर लघु मात्रिक अक्षर होना चाहिए उस स्थान पर दीर्घ मात्रिक अक्षर आ जाता है तो नियमतः कुछ विशेष अक्षरों को हम दीर्घ मात्रिक होते हुए भी दीर्घ स्वर में न पढ़ कर लघु स्वर की तरह कम जोर दे कर पढते हैं और दीर्घ मात्रिक होते हुए भी लघु मात्रिक मान लेते है इसे मात्रा का गिरना कहते हैं “

  • अब इस परिभाषा का उदाहारण भी देख लें - 2122 (फ़ाइलातुन) में, पहले एक दीर्घ है फिर एक लघु फिर दो दीर्घ होता है, इसके अनुसार शब्द देखें - “कौन आया“  कौ2 न1 आ2 या2

  • और यदि हम लिखते हैं - “कोई आया“ तो इसकी मात्रा होती है 2222(फैलुन फैलुन) को2 ई2 आ2 या 2 परन्तु यदि हम चाहें तो “कोई आया“ को  2122 (फाइलातुन) अनुसार भी गिनने की छूट है-

  • देखें -

  • को2 ई1 आ2 या2

  • यहाँ ई की मात्रा 2 को गिरा कर 1 कर दिया गया है और पढते समय भी ई को दीर्घ स्वर अनुसार न पढ़ कर ऐसे पढेंगे कि लघु स्वर का बोध हो अर्थात “कोई आया“(22 22) को यदि  2122 मात्रिक मानना है तो इसे “कोइ आया“ अनुसार उच्चारण अनुसार पढेंगे 

मुक्‍तक/ग़ज़ल कही जाती है-

ग़ज़ल को लिपि बद्ध करते समय हमेशा शुद्ध रूप में लिखते हैं “कोई आया“ को 2122 मात्रिक मानने पर भी केवल उच्चारण को बदेंलेंगे अर्थात पढते समय “कोइ आया“ पढेंगे परन्तु मात्रा गिराने के बाद भी “कोई आया“ ही लिखेंगे । इसलिए ऐसा कहते हैं कि, ’ग़ज़ल कही जाती है ।’ कहने से तात्पर्य यह है कि उच्चारण के अनुसार ही हम यह जान सकते हैं कि ग़ज़ल को किस बहर में कहा गया है यदि लिपि अनुसार मात्रा गणना करें तो कोई आया हमेशा 2222 होता है, परन्तु यदि कोई व्यक्ति “कोई आया“ को उच्चरित करता है तो तुरंत पता चल जाता है कि पढ़ने वाले ने किस मात्रा अनुसार पढ़ा है 2222 अनुसार अथवा 2122 अनुसार यही हम कोई आया को 2122 गिनने पर “कोइ आया“  लिखना शुरू कर दें तो धीरे धीरे लिपि का स्वरूप विकृत हो जायेगा और मानकता खत्म हो जायेगी इसलिए ऐसा भी नहीं किया जा सकता है ।

मुक्‍तक ग़ज़ल “लिखी“ जाती है-

ग़ज़ल “लिखी“ जाती है ऐसा भी कह सकते हैं परन्तु ऐसा वो लोग ही कह सकते हैं जो मात्रा गिराने की छूट कदापि न लें, तभी यह हो पायेगा कि उच्चारण और लिपि में समानता होगी और जो लिखा जायेगा वही पढ़ा जायेगा  ।

मात्रा कहां और कैसे गिराई जा सकती है-

किसका मात्रा गिराया जा सकता है इसको जानने से पहले याद रखिये लघु मात्रिक को उठा कर दीर्घ मात्रिक कभी नहीं कर सकते, यदि किसी उच्चारण के अनुसार लघु मात्रिक, दीर्घ मात्रिक हो रहा है जैसे - पत्र 21 में “प“ दीर्घ हो रहा है तो इसे मात्रा उठाना नहीं कह सकते क्योकि यहाँ उच्चारण अनुसार अनिवार्य रूप से मात्रा दीर्घ हो रही है, जबकि मात्रा गिराने में यह छूट है कि जब जरूरत हो गिरा लें और जब जरूरत हो न गिराएँ । जिसका मात्रा गिराया जा सकता है ऐ इस प्रकार है-


  • आ ई ऊ ए ओ स्वर को गिरा कर 1 मात्रिक कर सकते है तथा ऐसे दीर्घ मात्रिक अक्षर को गिरा कर 1 मात्रिक कर सकते हैं जो “आ, ई, ऊ, ए, ओ“ स्वर के योग से दीर्घ हुआ हो अन्य स्वर को लघु नहीं गिन सकते न ही ऐसे अक्षर को लघु गिन सकते हैं जो ऐ, औ, अं के योग से दीर्घ हुए हों

उदाहरण =

मुझको 22 को मुझकु 21 कर सकते हैं

  • आ, ई, ऊ, ए, ओ, सा, की, हू, पे, दो आदि को दीर्घ से गिरा कर लघु कर सकते हैं परन्तु ऐ, औ, अं, पै, कौ, रं आदि को दीर्घ से लघु नहीं कर सकते हैं स्पष्ट है कि आ, ई, ऊ, ए, ओ स्वर तथा आ, ई, ऊ, ए, ओ तथा व्यंजन के योग से बने दीर्घ अक्षर को गिरा कर लघु कर सकते हैं ।

  • यह दीर्घ अक्षर शब्‍द में आवे तभी दसकी मात्रा गिराई जा सकती है ।

  • कोई, मेरा, तेरा शब्द में अपवाद स्वरूप पहले अक्षर को भी गिरा सकते हैं  ।

  • हम किसी व्यक्ति अथवा स्थान के नाम की मात्रा कदापि नहीं गिरा सकते ।

  • हिन्दी के तत्सम शब्द की मात्रा भी नहीं गिरानी चाहिए


आशा और विश्‍वास है कि आप मुक्‍तक के आवश्‍यक नियम से परिचित हो गये होंगे इसी आशा के साथ अंत में उदाहरण स्‍वरूप में अपना स्‍वयं का कुछ मुक्‍तक प्रस्‍तुत कर रहा हूँ-


मेरे मुक्तक


1. 

पीसो जो मेंहदी तो, हाथ में रंग आयेगा ।

बोये जो धान खतपतवार तो संग आयेगा ।

है दस्तुर इस जहां में सिक्के के होते दो पहलू

दुख सहने से तुम्हे तो जीने का ढंग आयेगा ।।


2. 

अंधियारा को चीर, एक नूतन सबेरा आयेगा ।

राह बुनता चल तो सही तू, तेरा बसेरा आयेगा ।।

हौसला के ले पर, उडान जो तू भरेगा नीले नभ ।

देख लेना कदमो तले वही नभ जठेरा आयेगा ।


3.

 क्रोध में जो कापता, कोई उसे भाते नही ।

हो नदी ऊफान पर, कोई निकट जाते नही ।

कौन अच्छा औ बुरा को जांच पाये होष खो

हो घनेरी रात तो साये नजर आते नहीं।


. 4.

कहो ना कहो ना मुझे कौन हो तुम ,

सता कर  सता कर  मुझे मौन हो तुम ।

कभी भी कहीं का किसी का न छोड़े,

करे लोग काना फुसी पौन हो तुम ।।

पौन-प्राण


5.. 

काया कपड़े विहीन नंगे होते हैं ।

झगड़ा कारण रहीत दंगे होते हैं।।

जिनके हो सोच विचार ओछे दैत्यों सा

ऐसे इंसा ही तो लफंगे होते हैं ।।


6. 

तुम समझते हो तुम मुझ से दूर हो ।

जाकर वहां अपने में ही चूर हो ।।

तुम ये लिखे हो कैसे पाती मुझे,

समझा रहे क्यों तुम अब मजबूर हो ।।


7. 

बड़े बड़े महल अटारी और मोटर गाड़ी उसके पास

यहां वहां दुकान दारी  और खेती बाड़ी उसके पास ।

बिछा सके कही बिछौना इतना पैसा गिनते अपने हाथ,

नही कही सुकुन हथेली, चिंता कुल्हाड़ी उसके पास ।।


8. 

तुझे जाना कहां है जानता भी है ।

चरण रख तू डगर को मापता भी है ।।

वहां बैठे हुये क्यों बुन रहे सपना,

निकल कर ख्वाब से तू जागता भी है ।


शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

शमि गणेश मंदिर नवागढ.

शमि गणेश मंदिर नवागढ




 

गांव नवागढ़ मोर हे, छत्तीसगढ़ म एक ।

नरवरगढ़ के नाव ले, मिले इतिहास देख ।।

मिले इतिहास देख, गोड़वाना के चिन्हा ।

राजा नरवरसाय के, रहिस गढ़ सुघ्घर जुन्हा ।।

जिहांव हवे हर पाँव, देव देवालय के गढ़ ।

गढ़ छत्तीस म एक, हवय गा एक नवागढ़ ।।

 छत्तीसगढ़ हा अपन नाम के संग ‘छत्तीस‘ गढ़ ला समेटे हे । राजतंत्र के समय छत्तीसगढ़ के जीवन दायनी षिवनदी के उत्तर दिषा मा 18 अउ दक्षिण दिषा में 18 गढ़ होत रहिस । उत्तर दिषा के गढ़ मन के राजधानी रतनपुर अउ दक्षिणा दिषा के राजधानी रायपुर रहिस।  षिवनादी के उत्तर दिषा म रतनपुर राजधानी के अंतर्गत एक गढ़ रहिस ‘नरवरगढ़‘ ।  अइसे मान्यता हे के ये नाम ओ समय के तत्कालिक राजा नरवर साय के नाम म पड़े हे । बाद म येही ‘नरवरगढ़‘ हा ‘नवागढ़‘ के नाम ले जाने जाने लगिस । वर्तमान म ये नवागढ़ छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिला मुख्यालय ले उत्तर दिषा में ‘बेमेतरा-मुंगेली‘ राजमार्ग म 25 किमी के दूरी म स्थित हे । नवागढ़ म पहली ‘छै आगर छै कोरी‘ यने कि 126 तालाब होत रहिस फेर अभी अतका कन नई हे तभो ले आज घला गली-गली म तरिया देखे ल मिल जथे । कहे जाथे-

‘‘हमर नवागढ़ के नौ ठन पारा,

जेती देखव जल देवती के धारा ।‘‘

नरवर साय के दो पत्नी रहिस ।  मानाबाई अउ भगना बाई ।  राजा ह अपन पत्नी मन के नाम म तालाब बनवाये हें जउन आज मानाबंद अउ भगना बंद के नाम ले प्रसिद्ध हे । नवागढ़ म बहुत अकन मंदिर हे, जेमा बहुत अकन ह प्राचीन हें । नवागढ़ के उत्ती दिषा म चांदाबन स्थित माँ षक्ति के मंदिर, षंकरनगर म स्वयंभू महादेव के मंदिर, बुड़ती म मां महामाया, माँ षारदा के मंदिर, उत्तर दिषा में भैरव बाबा के मंदिर, जुड़ावनबंद के तीर म लक्ष्मीनारायण के मंदिर, दक्षिण दिषा षंकरजी के मंदिर, मध्यभाग में राममंदिर, लखनी मंदिर, दक्षिण मुखी हनुमान मंदिर,, ठाकुर देव के मंदिर स्थित हे येही मंदिर मन मा सबले जुन्ना मंदिर ‘गणेष मंदिर‘ हे -

जुन्ना मंदिर मा हवे, गणेशजी के मान ।

संग शमी के पेड़ हे, जेखर अपने शान ।।

जेखर अपने शान, हवन पूजा म जरूरी ।

गणेष देवा संग, शमी मा चढ़े खुरहुरी ।

दुलभ हे संयोग, शमी गणेष के मिलना ।

अइसन ठउरे तीन, कले ‘कल्याणे‘ जुन्ना ।।

नवागढ़ बस्ती के बीचो-बीच, देह के करेजा कस नवागढ़ म गणेष मंदिर विराजित हे, जउन जनआस्था के केन्द्र होय के साथ-साथ ऐतिहासिक अउ पुरातात्विक महत्व के घला हे ।  जनश्रुति के अनुसार नवागढ़ म नरवरसाय के पहिली भोसले राजा मन के राज रहिस । भोसले राज परिवार के ईष्ट देवता गणेषजी ल माने गे हे, येही बात ह अपन आप म प्रमाण कस लगथे के ये मंदिर के निर्माण भोसले राज परिवार द्वारा कराये गे हे । मान्यता हे के ये मंदिर के निर्माण विक्रम संवत 646 म होय हे । 646 के गणेष चतुर्थी के दिन ये मंदिर के तांत्रिक विधि ले प्राण प्रतिश्ठा कराय गे हे । 

ये मंदिर के गर्भगृह ह लगभग 6 फुट व्यास के अउ लगभग 25 फुट ऊंचा हवय । गर्भ गृह म  6 फूट के एके ठन पथरा मा भगवान गणेश के पदमासन मुद्रा उकेरे गे हे । लगभग ढाई फुट आसन म साढे तीन फुट भगवान गणेष के प्रतिमा भव्य दिखत हे । ये प्रतिमा हा नागपुर, केलझर म स्थित सिद्ध विनायक के प्रतिमामन ले भिन्न हे ऊंहा के प्रतिमा मा केवल मुँह के आकृति विषाल रूप म उकेरे गे हे जबकी इहां के प्रतिमा म पूरा देहाकृति उकेरे गे हे । 

ये मंदिर के जीर्णोधर तीन बार होय हे पहिली ईसवी सन 1880 म मंदिर म लगे षिलालेख येही जीर्णोधार ह उल्लेखित हे । दूसर जीर्णोधर सन् 1936 म तीसर जीर्णाधार अभी-अभी 2009-10 म होय हे । ये तीनो जीर्णोधार म केवल परसार म परिवर्तन करे गे जबकि गर्भगृह ह ज्यों के त्यों हे । वर्तमान म ये मंदिर के परसार (प्रसाद) के नवनिर्माण कराये गे हे । ये परसार लगभग 40 गुणा 30 वर्ग फुटके  हे ये परसार के चारो कोनो म चारठन छोटे-छोटे मंदिर बनाय गे हे जउन जुन्ना मंदिर म पहिली ले रहिस फेर ओ प्रतिमा मन के जीर्ण-षिर्ण होय के कारण प्रतिमा घला नवा रख के फेर से प्राणप्रतिष्ठा कराये गे हे । ईषान म बजरंग बली, आग्नेय म राम दरबार एक दूसर के सम्मुख व्यवस्थित हे ।  नैऋत्य म राधकृष्ण अउ वाव्वय म षिवलिंग षिवदरबार के नव निर्माण कराये गे हे । मुख्य मंदिर गणेषजी गर्भगृह अउ प्रतिमा अपन निर्माण काल ले अब तक ज्यों के त्यों हे । गणेषजी पूर्वाभीमुख हें । नवा कलेवर म सजे मंदिर परिसर अउ मुख्य द्वार ह घातेच के सुग्घर लगत हे ।

मंदिर के आघू मा उत्ती मा तब ले अब तक एक ठन शमी के पेड़ हवय, जेखर सेती ऐला ‘श्री शमी गणेश’ के नाम ले जाने जाथे । गांव के बुर्जुग मन बताथें के पहिली दू ठन शमी के पेड़ रहिस । मंदिर  गणेश के मंदिर अउ ओखर तीर शमी के पेड़ के दुर्लभ संयोग हे ।  परसिद धार्मिक पत्रिका ‘कल्याण’ के ‘गणेश विशेषांक’ मा ये बात के उल्लेख हे के अइसन संयोग भारत मा कुछ एक जगह हे जेमा एक नवागढ़ ह आय । मंदिर के उत्तर दिषा म एक ठन  कुआं हे जेखर जगत अष्टकोणीय हे ।  ये अष्टकोणीय कुंआ ह तांत्रिक विधान के कुआं आय ।  मंदिर के दक्षिण भाग म एक ठन मठ हे, मंदिर के उत्ती म मंदिर ले लगभग 50 मीटर के दूरी म चरण-पादुका हे । बुड़ती म एकअउ कुंआ हे ।

श्री शमी गणेशजी आज नवागढ़ के रहईया के संगे संग दूरिहा दूरिहा ले श्रद्धा ले के अवईया जम्मो भगत मन के मन के मुराद ला पूरा करत हे ।

अतका प्राचीन मंदिर होय के बाद भी नवागढ़ के ओ प्रसिद्धी नई हो पाये हे जेखर ये अधिकारी हे । शासन अउ स्थानीय प्रषासन के उपेक्षा के षिकार म ये मंदिर अपन स्वरूप म प्रगट नई हो पावत हे । मंदिर के आघू म पहिली दू ठन शमि पेड़ रहिस जेमा एक पेड़ ल कोनो काट डारे हे । मंदिर के बाचे एक ठन शमि वृक्ष, मठ, चरण पादुका कोन मेर हे खोजे ल लगथे काबर ये मन म मंदिर के तीर-तीर म बसइया मन के कब्जा म हे । मंदिर के धरोहर ल मुक्त कराये बर कोखरो ध्यान नई जावय । मंदिर के देख रेख करईया श्री रामधुन रजक के अनुसार ये मंदिर परिसर के क्षेत्रफल सरकारी रिकार्ड के अनुसार 1840 वर्गफुट हे फेर वर्तमान म अतका कन नई हे । ओइसने ये मंदिर के नाम म 25 एकड़ कृषि भूमि दर्ज हे फेर मंदिर के अधिकार म एको एकड़ जमीन नई हे ।

यदि ये मंदिर ला शासन के संरक्षण प्राप्त हो जय येखर धरोहर मन ल मुक्त कराके मंदिर ल सउप दे जाये त ये पुरातात्विक महत्व के मंदिर ह पूरा विष्व म अपन नाम करे म समर्थ हे ।

-रमेशकुमार सिंह चौहान

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

//मंदिरों का गढ़-‘नवागढ़‘//




 छत्तीसगढ़ अपने नाम के ही साथ ‘छत्तीस‘ गढ़ को समेटा हुआ है । राजतंत्र के समय छत्तीसगढ़ के जीवन दायनी शिवनाथ नदी के उत्तर दिशा में 18 एवं दक्षिण दिशा में 18 गढ़ हुआ करता था । उत्तर दिशा के गढ़ों की राजधानी रतनपुर एवं दक्षिणा दिशा के गढ़ों की राजधानी रायपुर था ।  शिवनाथ नदी के उत्तर दिशा में रतनपुर राजधानी के अंतर्गत एक गढ़ था जिसका नाम ‘नरवरगढ़‘ था ।  ऐसी मान्यता है कि यह नाम उस समय के तात्कालिक राजा नरवर साय के नाम पर पड़ा होगा । कलान्तर में इसी ‘नरवरगढ़‘ को ‘नवगढ़‘ फिर ‘नवागढ़‘ के नाम से जाने जाना लगा । वर्तमान में यह नवागढ़ छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिला मुख्यालय से उत्तर दिशा में ‘बेमेतरा-मुंगेली‘ मार्ग पर 25 किमी की दूरी पर स्थित है । नवागढ़ में पहले ‘छै आगर छै कोरी‘ अर्थात 126 तालाब बताया जाता है किन्तु वर्तमान में नही है किन्तु आज भी हर मोहल्लें में तालाब दृश्टिगोचर है, इसिलिये कहा जाता है-
 ‘‘हमर नवागढ़ के नौ ठन पारा,
 जेती देखव जल देवती के धारा ।‘‘
नरवर साय की दो पत्नियां मानाबाई एवं भगना बाई थी ।  राजा ने अपनी पत्नियों के नाम पर मानाबंद एवं भगना बंद तालाब बनवाये जो आज भी प्रसिद्ध है । नवागढ़ में अनेक मंदिर हैं, जिनमें अधिकाश प्राचीन हैं । नवागढ़ के पूर्व दिशा में चांदाबन स्थित माँ शक्ति का मंदिर, शंकरनगर में मांगनबंद तालाब तट पर स्वयंभू महादेव का मंदिर, पश्चिम में मां महामाया एवं माँ शारदे का मंदिर, उत्तर दिशा में भैरव बाबा का मंदिर, जुड़ावनबंद के समीप लक्ष्मीनारायण का मंदिर, दक्षिण दिशा में नवातालाब के तट पर बाउली के पास शंकरजी का मंदिर,, मध्यभाग में राम-कृष्ण मंदिर, मां लखनी मंदिर, नगर पंचायत प्रांगण में दक्षिण मुखी हनुमान मंदिर, श्रीशमिगणेश मंदिर,, ठाकुर देव का मंदिर इन प्रमुख मंदिरो के अतिरिक्त और कई मंदिर हैं । छोइहा नाला के किनारे गुरूसिंग सभा गुरूद्वारा,, देवांगनपारा-सुकुलपारा मार्ग पर मोहरेंगिया नाला के तट पर मस्जिद भ्, तिलकापारा में संत गुरू घासीदास के जैतखाम एवं गुरूद्वारा, जुड़ावनबंद के सपीप महान संत रविदास का रैदास मंदिर स्थित है ।   586 ईसवी के आस-पास नरवर साय द्वारा माँ महामाया, गणेश मंदिर, भैरव बाबा, हनुमान मंदिर एवं बुढ़ामहादेव मंदिर का निर्माण कराया गया है ।  इन मंदिरों के संबंध में कई-कई जनश्रुतियां प्रचलित रही हैं । जिनमें प्रमुख मंदिर इस प्रकार हैं-

माँ महामाया मंदिर-
माँ महामाया को नरवरगढ़ राजा के कुल देवी के रूप माना जाता है । यह मंदिर मानाबंद के पश्चिमी तट पर स्थित है । माँ की प्रतिमा लगभग 6 फिट की है ।  गाँ का मुख भव्य प्रदिप्तमान है । बुजुर्ग बतलातें हैं कि पूर्व में  व्यक्ति माँ से आँख मिलाने से भय खाते थे क्योंकि माँ का रूप् तेजवान है । आज छत्तीसगढ़ी परिवेष में माँ का श्रृंगार माँ के भक्तों को अनायाष ही अपनी ओर आकर्शित करते है ।  चूंकि प्राचीन मंदिर आज विद्यमान नही है इसलिये मंदिर शिल्प के आधार पर निर्माण काल का ठीक-ठीक निर्धारण नहीं किया जा सकता । मान्यता है कि माँ की प्रतिमा वही है यद्यपी मंदिर के कई-कई  जीर्णोद्धार में मंदिर का कलेवर परिवर्तित हो चुका है । गांव के बुजुर्ग बतलाते हैं कि 1964 में इस मंदिर का जीणोद्धार कराने मूर्ति को हटाने की आवश्यकता हुई कई लोग एक साथ मूर्ति को हटाने प्रयास किये किन्तु मूर्ति टस से मस नही हुई ।  फिर 11 विप्र दुर्गासप्तशती का एक साथ पाठ किये तब जाकर मूर्ति हल्का हुआ और उसे वहां से हटाया जा सका । एक मान्यता के अनुसार नवागढ़ की महामाया एवं रतनपुर की महामाया एक ही समय के हैं । रतनपुर एवं नवागढ़ महामाया में एक साम्य है । महामाया रतनपुर के समीप भी तालाब है एवं महामाया नवागढ़ के पास भी तालाब है । एक जन श्रुति के अनुसार नवागढ़ के तालाब से रतनपुर के इस तालाब तक एक सुरंग है ।  जिस प्रकार रतनपुर महामाया के संबंध में जनश्रुति है कि तीन बहनों में एक बहन काली के रूप में कलकत्ता में निवास करती उसी प्रकार मान्यता है कि नवागढ़ के महामाया के तीन बहनों में एक ‘गोबर्रा दहरा‘ (दामापुर, जिला कबीरधाम) में एवं एक समीपस्थ ग्राम बुचीपुर में विराजित है । बुचीपुर माँ महामाया संस्थान इस बात को स्वीकार करती है बुचीपुर माँ महामाया को नवागढ़ से लाया गया है । नवागढ़ महामाई अपने भक्तों के बीच मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी के रूप में विख्यात है ।  भक्त प्रेम से माँ को ‘बुढ़ीदाई‘, ‘नवगढ़िन दाई‘ भी पुकारते हैं ।

श्रीशमिगणेश मंदिर-
नवागढ़ के हृदय स्थल पर भगवान गणेश का एक मंदिर व्यवस्थित है । इस मंदिर के निर्माण के संबंध में मान्यता है कि संवत 646 में इस मंदिर का निर्माण तांत्रिक विधि से कराई गई थी । इस मंदिर के निर्माण के संबंध दो प्रकार की विचार धारा प्रचलित है, एक विचार के अनुसार इस मंदिर का निर्माण नरवरगढ़ के राजा नरवरसाय द्वारा कराया जाना मानते हैं तो दूसरी मान्यता के अनुसार इस मंदिर का निर्माण गोड़वाना राज के पूर्व के राजा जो भोसले (मराठी) परिवार द्वारा कराया गया मानते हैं ।  इस संबंध में श्री सुरेन्द्र कुमार चौबे तर्क देते हुये कहते हैं कि चूंकि गणेश मराठों का ईष्ट देव है एवं गोड़ राजा मराठी राजा को पराजित कर यहां अपना अधिपत्य स्थापित किये थे इसलिये इस मंदिर का निर्माण का श्रेय मराठा परिवार को देना न्याय संगत लगता है । 6 फीट के एक पत्थर पर भगवान गणेशजी को पद्मासन मुद्रा में उकेरा गया है । इस मंदिर के दक्षिण भाग में एक अश्टकोणीय कुँआ विद्यमान है । इस मंदिर के सम्मुख पहले दो शमि का वृक्ष था, जिसमें एक आज भी स्थित है ।  इसी कारण इस मंदिर को ‘श्रीशमि गणेश मंदिर‘ कहा जाता है । गणेश मंदिर एवं शमिवृक्ष का यह दुर्लभ संयोग पूरे विश्व में केवल तीन स्थानों पर बतलाया जाता है ।  प्रसिद्ध धार्मिक पत्रिका ‘कल्याण‘ के ‘गणेश‘ अंक में इस मंदिर का उल्लेख मिलता है । मान्यता के अनुसार इस स्थान पर दो गणेश भक्त संत जीवित समाधी लिये थे । एक समाधी स्थल मंदिर से सटा हुआ े उत्तर दिशा में एवं एक पूर्व दिशा में 100 मीटर की दूरी पर स्थित है ।  मंदिर के शिलालेख उल्लेखित जानकारी के अनुसार 1880 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण परिवार द्वारा कराया गया ।  गर्भगृह को छोड़ कर शेष मंदिर का पुनः जीर्णोद्धार ‘सिद्ध विनायक श्रीशमि गणेश मंदिर सेवा संस्थान‘ द्वारा 2013 में कराया गया है ।  जिससे मंदिर एक नये आकर्शक कलेवर में पर्यटकों को लुभाने में सफल रहा है ।

राममंदिर-
नवागढ़ के पूर्व दिशा में सुरकी तालाब के तट पर राममंदिर मठ है । इस परिकोटा में एक साथ रामजानकी मंदिर एवं राधाकृश्ण मंदिर व्यवस्थित है । मंदिर के महंत श्रीमधुबन दास वैश्णव के अनुसार वह इस मंदिर के आठवीं पीढ़ी के महंत हैं ।  लगभग 300 वर्श पूर्व इस मंदिर का निर्माण हुआ है ।  इस संबंध में एक जनश्रुति प्रचलित है कि इसी स्थान पर केवल कृष्ण मंदिर बनाने की योजना थी ।  कृष्ण मंदिर का निर्माण लगभग पूरा होने को था उसी समय राजस्थान जयपुर के कुछ मूर्तिकार मूर्ति बेचते एक दिन रात्रि होने पर विश्राम के उद्देश्य से यहां तालाब किनारे ठहरे दूसरे दिन जब ओ लोग यहां से जाने के लिये तैयार हुये तो राम-जानकी की प्रतिमा अपने स्थान पर अडिग हो गया ।  लगातार तीन दिन तक मूर्ति ले जाने का प्रयास हुआ किन्तु मूर्ति अचल हो गया थक-हार कर मूर्ति को इसी स्थान पर छोड़ना पड़ा इस चमत्कार से चमकृत होकर, कृष्ण मंदिर बनाने वाले लोग उसी मंदिर पर रामजानकी को स्थापित किये । उस मंदिर के लिये लाये गये कृष्ण-राधा का प्रतिमा आज भी रामजानकी प्रतिमा के बगल में स्थापित है । कुछ वर्षो बाद इस राममंदिर के बगल में दूसरा मंदिर बनाकर कृश्ण-राधा की नई मूर्ति स्थापित की गई । इस मंदिर में 700 एकड़ कृशि भूमि दान से प्राप्त हुआ था । जिसमें का एक बड़ा भाग शिलिंग में निकल गया ।  वर्तमान में इस मंदिर के पास 10 एकड़ कृषि भूमि शेष है । इस मंदिर में विभिन्न मठों के संतो का आगमन होता रहा है । 20 सदी के पूर्वाद्ध में यहां विद्यापीठ संचालित था जिसमें बच्चों को संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी ।  बाद में गरीब बच्चे इस मंदिर में रह कर शासकीय विद्यालय में अध्ययन करते थे । यह मंदिर एक सामाजिक केन्द्र के रूप में उभरा जहां गांव के लोग बैठ कर अध्यात्मिक एवं सामाजिक चिंतन किया करते थे । ये परम्परा कमोबेस आज भी बरकरार है ।

मां लखनी मंदिर-
लक्ष्मीजी को ‘लखनी देवी‘ के रूप में गांव के सुरकी तालाब के पास स्थापित किया गया है । यह मंदिर माँ महामाया मंदिर के समकालीन है । लखनी देवी की प्रतिमा लगभग 3 फीट ऊँची है ।  प्रतिमा अत्यंत मनोहारी है । इस मंदिर की मान्यता रही है कि इस देवी के पूजन करने वाले निःसंतान दम्पत्ती को निश्चित ही संतान सुख की प्राप्ति होती है ।  ऐसा माना जाता है कि लक्ष्मीजी को लखनी नाम से नवागढ़ में एवं रतनपुर में ही स्थापित किया गया है । लखनी मंदिर के समीप एक कुँआ है जो पहले पूरे गाँव के लिये पे जल का स्रोत रहा । जिसका जल अभिमंत्रित किया  हुआ है, जिसके लिए श्रद्धालू बड़े दूर-दूर से जल लेने के लिए आते थे तथा कुँए का जल निकालकर पहले खेतों में रोग ना आवे कह कर डालते थे ।  एक मान्यता के अनुसार इस मंदिर की मूर्ति इसी कुऐं के उत्खनन के समय प्राप्त हुआ था ।।

हनुमान मंदिर
-नवागढ़ के मध्य भाग में दक्षिणमुखी हुनमानजी स्थापित है ।  इसका निर्माण  मां महामाया के निर्माण के समय का ही बताया जाता है । पहले इस मंदिर के चारों ओर एक परिकोटा था, जिसमें गांव के युवा मल्लयुद्व का अभ्यास किया करते थे, इस कारण इस इस परिकोटो को ‘हनुमान अखड़ा‘ कहा जाता था ।  बाद में इस मंदिर के पास ग्राम पंचायत का निर्माण हुआ जहां आज नगर पंचायत संचालित है । हनुमान भक्त इस मंदिर को अत्यंत सिद्ध मंदिर निरूपित करते हैं । इस मंदिर के पास साधु समाधी का होना बतलाया जाता है । मान्यता के अनुसार इस स्थान पर कोई हनुमान भक्त संत जीवित समाधी लिये थे ।

भैरव बाबा का मंदिर-
 माँ महामाया मंदिर से उत्तर दिशा की ओर लगभग 1 किमी की दूरी पर भैरव बाबा का मंदिर स्थित है । वर्तमान में इस स्थान पर न वह प्राचिन मूर्ति है न ही प्राचिन मंदिर ।  किन्तु मान्यता है कि माँ महामाया निर्माण के आस-पास के वर्षो में भैरव बाबा का मंदिर यहां था ।  प्रमाण के रूप में गांव में भैरव भाठा नाम से से एक निरजन स्थान है जहां पर ऊँचे पीपल वृक्ष के नीचे भैरव बाबा के खण्ड़ित प्रतिमा रखा हुआ है ।  इसी के समीप एक नवीन भैरव बाबा का मंदिर बनवाया गया है जिसमें नई मूर्ति स्थापित है । इस प्रतिमा का प्राण प्रतिष्इा 1979 में कराया गया था ।  इस मंदिर का वर्तमान जीर्णोधार 2008 में हुआ है ।  गांव में महामाया एवं भैरव बाबा का संयोग इसे पुनः रतनपुर से ही जोड़ता है ।

स्वयंभू बुढ़ा महादेव-
गांव के पूर्व दिशा में मांगनबंद तालाब के तट पर स्वयंभू महादेव का मंदिर है । मान्यता है यह शिवलिंग स्वयं प्रगट है इसे अन्यत्र ला कर स्थापित नही कराया गया है ।  इस मंदिर में बाबा भोलेनाथ का शिवलिंग जलहरी के साथ उसी प्रकार शोभायमान है जैसे बनारस का विश्वनाथ । ऐसी मान्यता है कि नरवर साय के काल में ही इस मंदिर का निर्माण कराया गया था । पहले इस मंदिर में केवल शिवलिंग ही स्थापित था बाद में शिवपरिवार के रूप में  माता पार्वती एवं गणेशजी की प्रतिमा स्थापित कराई गई । मान्यता के अनुसार पहले यहां एक नाग-नागिन का जोडा रहा करता थ इसी कारण इस मंदिर के गर्भगृह के बाहर नाग-नागीन का प्रतिमा भी स्थापित है ।  इस मंदिर का जीणोद्धार दो से अधिक बार हो चुका है । सावनमास में यहां भक्तों का ताता लगा रहता है । महाशिवरात्रि के दिन इस मंदिर परिसर पर मेला  लगता है ।

शक्ति मंदिर-
गांव के पूर्व दिशा में ‘टेंगना‘ नाला के पास ‘चांदाबंद तालाब‘ के तट पर यह मंदिर विराजित है ।  इस मंदिर के संबंध में मंदिर के संचालक श्री चैन साहू  से प्राप्त जानकारी एवं जनश्रुति के अनुसार मुरता ग्राम के जयंत आचार्य के 7-8 पीढ़ी पूर्व कोई महिला अपने पति के चिता के साथ जीवित समाधी ली थी । जिसके स्मरण में इमली पेड़ के नीचे एक सती चबूतरा बनाया गया था ।  इसी चबूतरे पर सती नारी के प्रतिक के रूप में एक मूर्ति स्थापित किया गया था जिसे सती चौरा कहा गया । इस सती चौरा के पास इमली पेड़ के पास कई प्रकार के जहरीले सर्प निकला करते थे किन्तु आज तक कभी भी जन हानि नही हुई है । सन 1970 के आसपास इस चौरा को एक मंदिर रूप में परिणित कर मां शक्ति की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा कराई गई । सन् 2000 से इस मंदिर को विस्तारित किया गया ।  आज भी मंदिर में एक साथ दो प्रतिमा स्थापित है, जिसमें से एक सती का एवं दूसरा मां शक्ति का है ।  इस मंदिर पर लोगों की अगाध आस्था है । आज भी इस स्थान पर सर्प निकलते रहते हैं किन्तु किसी प्रकार की हानी नही हुई है । जनमान्यता के अनुसार सर्पविष के व्याधी ग्रसित भगत के मां के श्रीचरणों में समर्पित होने पर जीवन प्राप्त होता है ।

मैहरवासनी मां शारदे का मंदिर-
महामाया मंदिर के पश्चिम दिश में जहां पर पहले राजा नरवर साय का कीला हुआ करता था, जहां पर लगभग 200 फीट ऊंचा टीला था । जिससे कीले की रक्षा के सैनिक दिनरात पहरा दिया करते थे कहा जाता है इस टीले से 4 कोस (लगभग 15 किमी) तक देखा जा सकता था । जिसके अव’शेष  के रूप 20 फीट का टीला था इसी टीले पर आज मैहर वासनी माँ शारदे का मनोहारी प्रतिमा स्थापित है ।  इसे मैहर वासनी माँ षारदे इसलिये कहा जाता है कि यह  प्रतिमा मैहर के माँ शारदे की अनुकृति है ।  यह एक नवीन मंदिर है जिसके संबंध में आज के हर अधेड़ उम्र के लोग जानते हैं । यह एक सत्य घटना है 1974 क शारदीय नवरात्र पर गांव के ग्राम पंचायत के पास सार्वसजनिक दुर्गोत्सव मनाया जा रहा था अंतिम दिन दुर्गा विर्सजन के लिये जस गीत गाया जा रहा था उसी समय अचानक श्री बिष्णु प्रसाद मिश्रा को अचानक कुछ अनुभूति हुई, उनका शरीर कँपने लगा, उन्हें देवी सवार हुआ । श्री मिश्राजी अपने आप को माँ शारदा होना बतलाया ।  ध्यान देने योग्य बात है कि श्री मिश्राजी को इनसे पूर्व किसी प्रकार देवी सवार नही हुआ था । वह इस टीले पर माँ मैहर वासनी षारदे का मंदिर बनाने की बात कही ।  जिसे गांव वाले स्वीकार कर लिये ।  इसके बाद ही वह शांत हुये ।  इस घटना के बाद से श्री मिश्राजी कई वर्षो तक दोनों नवरात में उसी स्थान पर माँ शारदे के तैल चित्र लेकर बैठा करते थे । श्री मुरेन्द्रधर दीवान, श्री विश्णु मिश्राजी के साथ सहयोगी के रूप में सेवा करते रहे । इस मंदिर के निर्माण हेतु नवागढ़ और आस-पास के गांव वालों से सहयोग लिया गया ।  इस मंदिर निर्माण के उद्देश्य से यहां ‘चंदैनी गोंदा‘ का कार्यक्रम कराया गया था ।  मंदिर निर्माण में पूरे क्षेत्र के लोगों का आर्थिक सहयोग रहा ।  अंत में श्रमदान से इस मंदिर का निर्माण कार्य कराया गया ।  श्री छन्नू गुप्ता द्वारा मां की प्रतिमा दान दी गई । 1996 में इस मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा कराया गया ।  इस मंदिर का निर्माण कार्य अभी भी शेष है ।

इन मंदिरों के अतिरिक्त और कई छोटे-बड़े मंदिर है जिनका अपना महत्व है । यहां एक बावली भी जीर्ण-षिर्ण स्थिति में अव्यस्थित है ।  इस बावली के संबंध में कहा जाता है कि इसमें अथाह जल है ।  इसके जल द्वार बंद करके रखा गया है । इस प्रकार नवागढ़ न केवल धार्मिक दृश्टिकोण से अपितु पुरातात्विक, ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है ।

-रमेशकुमार सिंह चौहान


समकालीन कविताओं में व्यवस्था के विरूद्ध अनुगुंज


साहित्य समाज की दिषा एवं दषा का प्रतिबिम्ब होता है, जिसमें जहां एक ओर सभ्यता एवं संस्कृति के दर्षन होते हैं तो वहीं समाज के अंतरविरोधों के भी दर्षन होते हैं । आदिकाल, भक्ति काल, रीतिकाल से लेकर आधुनिक काल तक साहित्य मनिशियों ने तात्कालिक समाज के अंतर्द्वंद को ही उकेरा है । आधुनिक काल के छायावादी, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी और नई कविताओं में उत्तरोत्तर नूतन दृश्टि, नूतन भाव-बोध, नूतन षिल्प विधान से नये सामर्थ्य से कविता सामने आई है, जो जन सामान्य की अनुभूतियों को सषक्त करने की अभिव्यक्ति देती है ।  इसमें अनुभूति की सच्चाई एवं यथार्थवादी दृश्टिकोण का समन्वित रूप है । समकालीन कवितायें इनसे एक कदम आगे जनमानस के उमंग, पीर को जीता ही जीता है, इसके साथ ही वर्तमान व्यवस्थाओं से विद्रोह करने से भी नही चुकता ।
आधुनिक काव्य साहित्य भारत के आजादी के पूर्व जहां राश्ट्रवाद का प्रतीक था वहीं आजादी के पश्चात समाज में व्याप्त अंध विष्वासों, कुरीतियों, और जातिवाद के  उन्मूलन का हथियार बनकर उभरा ।  आजाद भारत के विकास के लिये षिक्षा का प्रचार-प्रसार, नवीन सोच, दलित उत्थान, नारी उत्थन जैसे अनेक विशयों पर जनमानस में अलख जगाने कवितायें दीपक की भांति प्रकाषवान रहीं ।
आधुनिक हिन्दी कविता के इतिहास में 1970 के बाद की कविता को समकालिन कविता के नाम से जाना जाता है । डॉ. अमित षुक्ला के अनुसार - ‘‘जिस प्रकार आधुनिकवाद की अवधारणा किसी एक व्यक्ति या पुस्तक की देन नहीं थी उसे विकसित होने में कोई तीन सौ वर्श का समय लगा था, उसी प्रकार उत्तर आधुनिकवाद बीसवीं षताव्ब्दी में साठ के दषक  के उन मुक्ति आन्दोलनों से निकला है, जिन्होंने व्यक्ति तथा व्यवस्था, अल्प समूह तथा वृहत समाज, विचारों तथा विसंगतियों, नीतियों, राजनीति पर प्रष्न चिन्ह लगा दिया ।‘‘1 यही समकालीन साहित्य का नींव है जिसमें विरोधी विचार हाषिए पर स्थित लोग, नारी वर्ग, दलित जनजातियां, समलैंगिक स्त्री-पुरूश आदि जिन्हें समाज में सक्रियता एवं सांस्कृतिक संवाद के दायरे से बाहर रखा जाता था अब अस्मिता के संघर्श समूह बनकर उभरे । ऋशभ देव षर्मा इस संबंध में कहते हैं कि -‘‘समकालिन कविता ऐसी कविता है जो अपने समय के चलती है, होती है, जीती है । इसे आधुनिकता का अगला चरण भी कहा जा सकता है।  अंतर केवल इतना है कि आधुनिकता बोध के केन्द्र में आधुनिक मनुश्य है और समकालीनता बोध के केन्द्र में समकाल ।‘‘2
समकालिन कविता की आधार भूमि मुख्य रूप से युग परिवेष और उसके जीवन के साथ जुड़े हुये विवषतापूर्ण सवाल है । 20 वी सदी के अंतिम तीन दषकों का भारतीय परिवेष समकालीन कविता की आधारभूमि और प्रेरणा स्रोत है । आज भारतीयों के सामने एक बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है आजादी के इतने वर्शो के बाद भी भारतीय आम आदमी भ्रश्टाचार और असमामानता को झेलने के लिये अभिसप्त क्यो है ? आज गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी भ्रश्टाचार से सामान्य जनता और बुद्धिजीवी वर्ग आहत क्यों हैं ? ‘‘प्रत्येक जागरूक नागरिक की चेतना को झिझोड़ने वाले ऐसे ही सवाल समकालीन कविता के मूलभूत सरोकारों का निर्धारण करते हैं ।‘‘3
समकालिन कविताओं में जीवन के दुर्भरताओं से जुझने का माद्दा है । जीवन पगडंडियों में बिखरे पड़े गरीबी, बेरोजगारी, भ्रश्टाचार, असमानता जैसे कांटों को चुन-चुन कर बुहारा जा रहा है ।

हिन्दी साहित्य में गजानन मुक्तिबोध तथा उनके समकालीन कवि नागार्जुन, षमषेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल को संघर्शषील आधुनिकता का पक्षधर माना गया है ।  संघर्शषील आधुनिकता ही आज के समकालीन कविता है । इस प्रकार मुक्तिबोध को समकालीन कविता का आधार कवि कह सकते हैं । डॉ सूरज प्रसाद मिश्र ने ‘समकालीन हिन्दी कविताओं के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर‘ में मुक्तिबोध, नामार्जुन,  रामदरष मिश्र, केदार नाथ सिंह, विजेन्द्र, सुदामा प्रसाद धूमिल, विनोद कुमार षुक्ल, चंद्रकांत देवताले, षोभनाथ यादव, रमेष चन्द्र षाह, भगवत रावत, विष्वनाथ प्रसाद तिवारी, अषोक वजपेयी, आदि नामो को स्थान दिया है ।  ऐसे तो 1970 के पश्चात के सभी कवियों को समकालीन कविता  के कवि कहे जा सकते हैं ।  किन्तु प्रतिनिधियों कवियों क पहचान के दृश्टिकोण से दिविक रमेष द्वारा सम्पादित कविता संग्रह ‘‘निशेध के बाद‘‘ (1981) में दिविक रमेष, अवधेश कुमार, तेजी ग्रोवर, राजेश जोशी, राजकुमार कुम्भज, चन्द्रकांत देवताले, सोमदत्त, श्याम विमल और अब्दुल बिस्मिल्लाह को सम्मिलित कर इन्हें समकालीन कविता के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया । किन्तु बाद में दिविक रमेष स्वयं लिखते हैं -‘‘मानबहादुर सिंह, गोरख पाण्डेय और ज्योत्सना मिलन जैसे कवियों की भी कविताओं को सम्मिलित किए बिना समकालीन कविता का परिदृश्य अधूरा ही रहेगा । देश की भूमि पर, विशेष रूप से हिन्दी अंचल में ही देखें तो एक साथ कई पीढ़ियां काव्य रचना में तल्लीन दिखाई देती हैं। कुंवर नारायण, रामदरश मिश्र, कैलाश वाजपेयी, माणिक बच्छावत, गंगा प्रसाद विमल, सुनीता जैन आदि सक्रिय हैं तो अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे, भगवत रावत, नन्दकिशोर आचार्य, चन्द्रकांत देवताले, अरुण कमल, विश्वरंजन, मंगलेश डबराल आदि के साथ अन्य दो कनिष्ठ और नई पीढ़ियों के भी कितने ही कवि हिन्दी कविता को भरपूर योगदान दे रहे हैं।‘‘4

‘समकालीनता‘ एक व्यापक एवं बहुआयामी षब्द है जो आधुनिकता का आधार तत्व है ।  वास्तव में ‘समकालीनता‘ आधुनिकता में आधुनिक है, जिसके संबंध में रामधारी सिंह दिनकरजी कहते हैं- ‘जिसे हम आधुनिकता कहते हैं वह एक प्रक्रिया का नाम है । यह अंध विष्वास से बाहर निकलने की प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया नैतिकता में उदारता बरतने की प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया बुद्धिवादी बनने की प्रक्रिया है ।‘‘5 इस प्रक्रिया में आदर्शवाद से हटकर नए मनुष्य की नई मानववादी वैचारिक भूमि की प्रतिष्ठा समकालिन कविताओं में समाज के विभिन्न व्यवस्थाओं के प्रति विरोध के स्वर रूप में अनुगुंजित हैं-
1. राजनीतिक व्यवस्था के विरूद्ध स्वर -
भारतीय समाज में राजनीति का बहु-आयामी महत्व है । समाज और साहित्य का विकास भी समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों से होता रहा है ।  तात्कालिक राजनैतिक परिस्थितियाँ साहित्य को काफी प्रभावित करती हैं ।  समकालीन कवियों के प्रतिनिधि रघुवीर सहाय जीवनासक्त अभिव्यक्तियों की जगह व्यवस्था के प्रति व्यंग्य और यथार्थ का गंभीर विष्लेशण किये हैं उनकी कविताओं में यह मूर्त रूप में देखने को मिलता है ।  रघुवीर सहाय राजनीतिक विद्रूपताओं, पाखण्ड़ों  और झूठ को अपनी कविताओं का विशय बनाये हुये है - ‘नेता क्षमा करें‘ ‘सार और मूल्यांकन‘ उनकी इन्हीं अभिव्यक्ति के  प्रतिबिम्ब हैं । जन-प्रतिनिधियों  के स्तरहीन चरित्र और उनके खोखलेपन, जनता को क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्मवाद आदि में फँसाकर खुद की कुर्सी का साधना करने की प्रवृत्ति,  कुर्सी की सेवा करने की आकंठ लालसा । वृद्ध होकर षिषुओं की तरह कुर्सी के लिये लड़ते रहने के बचपने को देखकर सहायजी इनके चरित्रों को बेनकाब करते हुये कहतें हैं-

‘‘सिंहासन ऊँचा है, सभाध्यक्ष छोटा है
अगणित पिताओं के
एक परिवार के
मुँह बाए बैठे हैं लड़के सरकार के
लूले, काने, बहरे विविध प्रकार के
हल्की-सी दुर्गन्ध से भर गया है सभाकक्ष
सुनो वहाँ कहता है
मेरी हत्या की करूण गाथा
हँसती है सभा, तोंद मटका
उठाकर
अकेले पराजित सदस्य की व्यथा पर‘‘
(‘मेरा प्रतिनिधि‘)

राजनीति ही वह कारक है जो समाज की व्यवस्था को अंदर तक प्रभावित करती है । लोकतंत्र में सरकार का चयन आम जनता के हाथ में है इसी कारण जनता को आगाह कराते हुये नेताओं के चरित्र को अरूण निगम इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं -

‘‘झूठे निर्लज लालची, भ्रश्ट और मक्कार ।
क्या दे सकते हैं कभी, एक भली सरकार ।।
एक भली सरकार, चाहिए-उत्तम चुनिए ।
हो कितना भी षोर, बात मन की ही सुनिए ।
मन के निर्णय अरूण, हमेषा रहें अनूठे ।
देते मन को ठेस, लालची निर्लज झूठे ।।‘‘
(अरूण निगम-‘षब्द गठरिया बांध‘)6

राजनीतिक उठा-पटक और अपनों में ही चल रहे षह-मात पर व्यंग्य करते हुये आज के हास्य-व्यंग्यकार मनोज श्रीवास्तव रूपायीत किया है-

‘‘एक कुत्ते ने दूसरे कुत्ते को,
देखकर जोर से भौंका,
सामने से आ रहा नेता
यह दृष्य देखकर चौंका,
उसने कुत्तों से कहा- ‘‘भाई,
क्यों लड़ते हो ?
कुत्तों ने कहा- नेताजी
लड़ना तो आपका काम है,
हमने तो षर्त लगाई थी,
किसकी आवाज में,
अपने मालिक का नाम है ।‘‘
(‘प्रयास जारी है‘)7

राजनीति पर हर छोटे-बड़े समकालीन कवियों ने कटाक्ष किया है । लोकतंत्र में नेता और मतदाता सिक्के के दो पहलू की तरह हैं, जहां नेताओं का चारित्रिक पतन समकालिकता िंचंतन का विशय है वहीं मतदाताओं के लालची प्रवृत्ति भी सांगोपांग चिंतनीय है, जिसका प्रतिबिम्ब समकालीन कविता में सहज सुलभ है ।

2. अमानवीयता के विरूद्ध स्वर -
समाज का अस्तित्व मानव और मानवता से है । नव-पूंजीवादी दौर में मानवतावादी मूल्य समाज से लगभग गायब होते जा रहे हैं । मनुश्य आत्मकेंद्रित होते जा रहा है । अपने समाजिक सरोकार को आज का मनुश्य विस्मृत कर बैठा है । इस पीड़ा को रघुवीर सहायजी ‘दुनिया‘ षीर्शक कविता में व्यक्त करते हैं-

‘‘न कोई हँसता है न कोई रोता है
न कोई प्यार करता है न कोई नफरत
लोग या तो दया करते हैं या घमंड
दुनिया एक फफंदियाई हुई से चीज है ।‘‘

समाज का कुछ वर्ग इतना निरंकुष हो गया है कि लोग भीड़ में भी एकाकी पन को जीने के लिये विवष हैं । भौतिकवाद इतना पसरा है कि हर कोई इसके आगोष में खोये-खोये से लगते हैं ।  इसे मुकंद कौषलजी के इन पंक्तियों में महसूस किया जा सकता है-



‘‘ऊँचे ऊँचे पेड़ बहुत हैं
लेकिन छाँव नही
दूर तलक केवल पगडंड़ी, कोई गाँव नही

ओढ़ चले आँचल धरती का
बाहों में अम्बर
मुठ्ठी में हैं आहत खुषियां
किरणें कांवर भर
चूर-चूर अभिलाशाओं को, मिलती ठाँव नहीं ।‘‘
(‘सिर पर धूप आँख में सपने‘)8

सामाजिक सरोकार का ताना-बाना इस कदर उलझ गया है कि आपसी रिष्ते भी स्वार्थ केन्द्रित प्रतित हो रहे हैं । माँ-बाप के असहायपन का चित्रण करते हुये राजेष जैन ‘राही‘ कहते हैं -

‘लाठी जिसको जग कहे, पुत्र कहाँ वो हाय ।
वृद्ध हुए माँ बाप तो, बेटा लठ्ठ बजाय ।।

बिखरे-बिखरे से सपन, बिखरी सी हर बात ।
बेटा कुछ सुनता नही, कह कर हारे तात ।।‘‘
(‘पिता छाँव वटवृक्ष की‘)9

मानवता समाज की रीढ़ की हड्डी है । समाज सामाजिक सरोकार के बल पर ही संचालित है । समाज को तोड़ने वाली व्यवस्था के विरूद्ध समकालीन कविता उठ खड़ी हुई है ।

3. भूखमरी और दीनता पर व्यवस्था के विरूद्ध स्वर-

‘इक्कीसवीं सदी भारत का होगा‘ यह दिव्या स्वप्न देखने वालों को देष के उस अधनंगे भूखे लोगों की ओर ताकने का अवसर ही नहीं मिल पाता जो दो जून के रोटी के लिये मारे-मारे फिर रहें हैं । भारत के समग्र विकास के लिये आवष्यक है कि इस तबके को झांका जाये । समकालीन कविता मानवतावादी है, पर इसका मानवतावाद मिथ्या आदर्श की परिकल्पनाओं पर आधारित नहीं है। उसकी यथार्थ दृष्टि मनुष्य को उसके पूरे परिवेश में समझने का बौद्धिक प्रयास करती है। समकालीन कविता मनुष्य को किसी कल्पित सुंदरता और मूल्यों के आधार पर नहीं,बल्कि उसके तड़पते दर्दों और संवेदनाओं के आधार पर बड़ा सिद्ध करती है, यही उसकी लोक थाती है। केदारनाथ सिंहजी अपनी प्रसिद्ध कविता ‘रोटी‘ में इसकी महत्ता प्रतिपादित करते हुये कहते हैं-

‘‘उसके बारे में कविता करना
हिमाकत की बात होगी
और वह मैं नहीं करूंगा

मैं सिर्फ आपको आमंत्रित करूँगा
कि आप आयें और मेरे साथ सीधे
उस आग तक चलें
उस चूल्हें तक जहां पक रही है
एक अद्भूत ताप और गरिमा के साथ
समूची आग को गंध बदलती हुई
दुनिया की सबसे आष्चर्यजनक चीज
वह पक रही है ।

भूखमरी समाज के असन्तुलित व्यवस्था की परिणीति है, समकालीन कविता अपने जन्म से ही इस व्यवस्था के विरूद्ध मुखर है, सर्वेष्वर दयाल सक्सेना की ये पंक्तियां इसे अभिप्रमाणित करती हैं-

‘‘गोली खाकर
एक के मुँह से निकला -
’राम’।

दूसरे के मुँह से निकला-
’माओ’।

लेकिन तीसरे के मुंह से निकला-
’आलू’।

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे।‘‘
-सर्वेष्वर दयाल सक्सेना, (पोस्टमार्टम की रिपोर्ट)10

भूखमरी और कुरीति पर एक साथ प्रहार करते हुये व्यंगकार कवि पुश्कर सिंह राज व्यंग्य करते हुये कहते हैं -

अधनंगा रह जो पूरी जिन्दगी खपाता है
उसकी लाष पे तू कफन चढ़ाता है ।

अभावों में रह जो भूख से मर जाता है
मौत पे उसके तू मृत्यु-भोज कराता है ।।
(‘ये मेरा हिन्दुस्तान है‘)11


4. भ्रश्टाचार के विरूद्ध स्वर -
समकालीन कविता वास्तव में व्यक्ति की पीड़ा की कविता है। अपने पूर्ववर्ती कविता की भांति यह व्यक्ति के केवल आंतरिक तनाव और द्वंद्वों को नही उकेरता अपितु यह व्यापक सामाजिक यथार्थ से जुड़ाव महसूस कराता है। जिंदगी की मारक स्थितियों को, उसकी ठोस सच्चाइयों को और राजनीतिक सरोकारों को भावुक हुये बिना सत्य का साक्षात्कार कराती है । प्रषासनिक तंत्र में भ्रश्टाचार का विश जन सामन्य को जीने नही दे रही है । स्थिति इतनी विकट है कि सुरजीत नवदीप माँ दुर्गे से कामना करते हुये कहते हैं-

‘माँ दुर्गे
सादर पधारो,
बुराइयों के
राक्षसों को संहारो ।
मँहगाई
पेट पर
पैर धर रही है,
भ्रश्टाचार की बहिन
टेढ़ी नजर कर रही हैं ।‘‘
-सुरजीत नवदीप (रावण कब मरेगा)12

भ्रश्टाचार समाज की वह कुरीति है जो समाज को अंदर से खोखला कर रही है । भ्रश्टाचार का जन्म कुलशित राजनीति के कोख से हुआ है-

‘झूठ ढला है-सिक्कों सी राजनीति-टकसाल है
पूरी संसद-चोरों और लुटेरों की-चउपाल है ।।‘‘
पं. षंकर त्रिपाढ़ी ‘ध्वंसावषेश‘ (‘नवगीत से आगे....‘)13

आज की व्यवस्था इस प्रकार है कि- भ्रश्टाचार कहां नही है ? कौन इससे प्रभावित नही है ? आखिर यह व्यवस्था इतनी पल्लवीत क्यों है ? इन प्रष्नों का उत्तर समकालीन कवि का धर्म इस प्रकार व्यक्त करता है -

‘‘कहाँ नहीं है भ्रष्टाचार, मगर चुप रहते आये
आवश्यकता की खातिर हम, सब कुछ सहते आये
बढ़ा हौसला जिसका, उसने हर शै लाभ उठाया
क्या छोटे, क्या बड़े सभी, इक रौ में बहते आये
-गोपाल कृष्ण भट्ट ’आकुल’14





5. बेरोजगारी के विरूद्ध स्वर -

‘‘21वीं सदी की षिक्षा उपभोक्ता वाद को बढ़ावा देने वाली होती जा रही है ।  बाजारवाद षिक्षा परिसरों में भी पसरता जा रहा है । हम ऐसी षिक्षा के दल-दल में धंस रहे हैं, जो हमें हृदयहीन, लाचार और आत्महीन बना रही है ।  हमारे आदर्ष हमसे छूटते जा रहे हैं । हम लगातार आत्मनिर्भर बनने की कोषिष में परजीविता की ओर बढ़ते जा रहे हैं ।  भारतीय आम जनता परम्परागत षिक्षा को ही रोजगार का साधन बनाती है, लेकिन इस दौर में स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है । इस तरह की आषा रखने वाले युवाओं को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है ।‘‘15  जीवन निर्वाह के लिये हाथों में काम चाहिये । कहा भी गया है- ‘खाली दिमाग षैतान का‘ काम के अभाव में ही हुआ राश्ट्र के मुख्य धारा से पृथ्क अपना भिन्न पथ तैयार करने विवष हो जाते हैं-

‘डिगरियां लिए घूमता है आम आदमी
समस्याओं से जूझता है आम आदमी
इसलिये आत्मघाती बन रहा है आम आदमी ।‘‘
डॉ. प्रेम कुमार वर्मा (‘उद्गार‘)16

बेरोजगारी युवा मन को कुण्ठित कर देता है, वह व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करने लगता है । एक युवा के दर्द को युवा कवि इस प्रकार व्यक्त करता है-

‘‘डिग्रियों के बोझ से लदा हुआ हूँ मैं
याने कि प्रजातंत्र का गधा हुआ हूँ मैं

पकर  ज्ञान  मूर्ख  कालिदास  हो  गए
पढ लिखकर कालिदास से बेरोजगार हूँ मैं

नोचते खसोटते चारों तरफ से लोग
जैसे किसी बाढ़ का चन्दा हुआ हूँ मैं
-उदय मुदलियार17

6. अस्मिता का स्वर-
जब से मानव की सभ्यता-संस्कृति विकसित हुई है तब से अस्मिता का स्वर ध्वनित है किन्तु जैसे-जैसे समाज का विकास क्रम आगे बढ़ता गया यह स्वर अधिक घनीभूत होती गई । वैष्वीकरण के इस दौर में किसी भी वर्ग, समुदाय की उपेक्षा संभव नही है । अस्मिता का स्वर अधिकार, वजूद, पहचान, अस्तित्व, गरिमा, न्याय आदि विभिन्न रूपों में, विविध आयामों में सामाजिक-सांस्कृतिक, भौगोलिक, नैसर्गिक, जैविक, धर्म, जाति-प्रजाति, के रूप में प्रस्फूटित होते आया है । समकालीन अस्मितावादी आंदोलन, सिर्फ  अपने वजूद की पहचान या एहसास कराने का आंदोलन नहीं है, बल्कि यह भागीदारी, अधिकार, न्याय, स्वतंत्रता और मैत्री का आंदोलन है।
समकालीन कविता में असाधारण संतुलन के कवि मंगलेष डबराल दलित, षोशित की दषा पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुये कहते हैं-


दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर
एक तेज आंख की तरह
टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई
देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत
बिलखती स्त्रियों के उतारे गये गहने
देखो भूख से बाढ़ से महामारी से मरे हुए
सारे लोग उभर आये हैं चट्टानों से
दोनों हाथों से बेशुमार बर्फ़ झाड़कर
अपनी भूख को देखो
जो एक मुस्तैद पंजे में बदल रही है
जंगल से लगातार एक दहाड़ आ रही है
और इच्छाएं दांत पैने कर रही हैं
पत्थरों पर।
(पहाड़ पर लालटेन)18

औद्योगिक पूँजीवाद की जरूरत का एक प्रतिफल यह निकला कि -ं आदिवासी आदिकाल से जंगल को अपना घर समझते आ रहे थे, वे अब जंगल बदर होने लगे, मातृभूमि से काट दिये जाने लगे। समकालीन कवि डॉ. संजय अलंग, जिलाधिकारी के पद पर कार्यरत  रहते हुये जीवन के  इस गहरी पीड़ा को इन षब्दों में व्यक्त करते हैं -
बस्तर में वन रक्षा के लिए हुआ था-कुई विद्रोह
मिले संज्ञा इसे विद्रोह की ही,
कथित सम्यता के लिए बना मील का पत्थर
प्रेरणा पाई ऊँचे सभ्य लोगो ने इससे
अब बदले तरीके, विधि बदली और अंदर तक घुसे
अब नही करते हरिदास-भगवानदास जैसी क्रूर ठेकेदारी
सभ्य रहो, मजदूरी दो, विकास दिखाओ
पैसा फेंको, तमाषा देखो, अभी तो पूरा वन, पूरा खनिज
पूरे आदिवासी श्रमिक पड़े है-खोदने को दोहन को ।
-कुई विद्रोह-बस्तर 1859 (सुमन)19

अस्मिता के स्वर को प्रोत्साहित करते हुये दार्षनिक दृश्टिकोण से षंकर लाल नायक अपनी बात इस प्रकार कहते हैं-

‘हर बादल बरसे नही, बरस गया बरसात ।
जो दुख में रोते रहे, उसकी कहां औकात ।।
(‘सुख दुख‘‘ दोहा संग्रह)20

समकालीन कविता सक्षम, एवं सकारात्मक दृष्टि से संपन्न कविता है जिसने एक ओर नकारात्मकता या निषेध से मुक्ति दिलाई है तो दूसरी ओर गहरी मानवीय संवेदना से कविता को जागृत रहकर समृद्ध किया है । अपनी भूमि को सांस्कृतिक मूल्यों, स्थानीयता, देसीपन और लोकधर्मिता, स्थितियों की गहरी पहचान, अधिक यथार्थ, ठोस और प्रामाणिक चरित्र, मानवीय सत्ता और आत्मीय संबधों-रिश्तों की गरमाहट से लहलहा दिया है ।

संदर्भ ग्रंथ-
1. साहित्य परम्परा और सामाजिक सरोकार-डॉ अमित षुक्ला- पृश्ठ 81
2. सृजनगाथा-समकालीन कविताः सरोकार और हस्ताक्षर-ऋशभ देव षर्मा
3. वही
4. समकालिन कविता-दिविक रमेष
5. आधुनिकता की भाशा और मुक्तिबोध-राखी राय हल्दर- पृश्ठ 17
6. ‘षब्द गठरिया बांध‘ छंद संग्रह-अरूण निगम, अंजुमन प्रकाषान-पृश्ठ 79
7. ‘प्रयास जारी है‘ कविता संग्रह-मनोज श्रीवास्तव वैभव प्रकाषन-पृश्ठ 50
8. ‘सिर पर धूप आँख पर सपने‘ गीत संग्रह-मुकुद कौषल, वैभव प्रकाष-पृश्ठ 19
9. ‘पिता छाँव वटवृक्ष की‘ दोहा संग्रह- राजेष जैन ‘राही‘, प्रकाषक नवरंग काव्य मंच-पृश्ठ 25 एवं 37
10. ‘‘कविता कोष-सर्वेष्वर दयाल सक्सेना‘‘ से साभार
11. ये मेरा हिन्दुस्तान है‘ कविता संग्रह-पुश्कर सिंह राज
12. ‘रावण कब मरेगा‘ कविता संगह-सुरजीत नवदीव
13. ‘‘नवगीत से आगे‘ पं षंकर त्रिपाठी ‘ध्वंसावषेश‘ पृश्ठ-44
14. ‘‘कविता कोष-गोपाल कृष्ण भट्ट ’आकुल’‘ से साभार
15. साहित्य परम्परा और सामाजिक सरोकार-डॉ अमित षुक्ला- पृश्ठ 109
16. ‘उद्गार‘ कविता संग्रह- डॉ प्रेम कुमार वर्मा पृश्ठ-74
17. न्यू ऋतंभरा कुम्हारी साहित्य संग्रह का 13 वां अंक
18. ‘‘कविता कोष-मंगलेष डबराल‘‘ से साभार
19. ‘सुमन‘ सम्पादक डॉ सत्यनारायण तिवारी ‘हिमांषु‘ पृश्ठ-22
20. ‘सुख-दुख‘ षंकर के दोहे-षंकर लाल नायक

दैनिक जीवन में विज्ञान


प्रकृति को जानने समझने की जिज्ञासा प्रकति निर्माण के समान्तर चल रही है । अर्थात जब से प्रकृति का अस्तित्व तब से ही उसे जानने का मानव मन में जिज्ञासा है । यह जिज्ञासा आज उतनी ही बलवती है, जितना कल तक था । जिज्ञास सदैव असंतृप्त होता है । क्यों कैसे जैसे प्रष्न सदैव मानव मस्तिक में चलता रहता है । इस प्रष्न का उत्तर कोई दूसरे से सुन कर षांत हो जाते हैं तो कोई उस उत्तर को धरातल में उतारना चाहता है ।  अर्थात करके देखना चाहता, इसी जिज्ञासा से जो जानकारी प्राप्त होती है, वही विज्ञान है । विज्ञान कुछ नही केवल जानकारियों का क्रमबद्ध सुव्यवस्थित होना है, केवल ज्ञान का भण्ड़ार होना नही । गढ़े हुये धन के समान संचित ज्ञान भी व्यर्थ है, इसकी सार्थकता इसके चलायमान होने में है ।
विज्ञान-प्रकृति के सार्वभौमिक नियमों को क्यों? और कैसे? जैसे प्रश्नों में विभक्त करके विश्लेषण करने की प्रक्रिया से प्राप्त होने वाले तत्थों या आकड़ों के समूह को विशिष्ट ज्ञान या संक्षिप्त में विज्ञान कहते हैं।
आईये प्राकृति के किसी सार्वभौमिक नियम का विश्लेषण करके जाने-
प्रकृति का सार्वभौमिक नियम- धूप में टंगे हुये गीले कपड़े सूख जाते हैं। क्यों? और कैसे?
विश्लेषण- सूरज की किरणों में कई तरह के अवरक्त विकिरण होते हैं। जो तरंग के रूप में हम तक पहुंचते हैं। इन अवरक्त विकिरणों में बहुत अधिक ऊर्जा होती है। ये ऊर्जा कपड़े में मौजूद पानी के अणुओं द्वारा सोख ली जाती है। जिसकी वजह से वो कपड़े की सतह को छोड़कर वायुमण्डल में चले जाते हैं। पानी के सारे कण जब कपड़े की सतह को छोड़ देते हैं तो कपड़ा सूख जाता है।
विशिष्ट ज्ञान या विज्ञान- अणु अपनी ऊर्जा स्तर के आधार पर अपनी स्थिती में बदलाव कर लेते हैं तथा एक नई संरचना धारण कर लेते हैं।
जैसे-
1.लोहे के अणुओं को बहुत अधिक ऊर्जा दे दी जाय तो वो पिघल कर द्रव में बदल जाते हैं।
2.मिट्टी की ईटों को बहुत अधिक ऊर्जा देने पर वो पहले से ज्यादा ठोस हो जाती हैं।
3.पानी के अणुओं की ऊर्जा सोख लेने पर वो जमकर बर्फ में बदल जाते हैं।
सिद्धांत क्या है ?
एक सिद्धांत एक वैज्ञानिक आधार मजबूत सबूत और तार्किक तर्क पर सुझाव के रूप में परिभाषित किया गया है। एक सिद्धांत सिद्ध नहीं किया गया है, लेकिन एक वैज्ञानिक मुद्दे को एक सत्य प्रतीत होने वाला स्पष्टीकरण होने का विश्वास है।

वैज्ञानिक विधि-
1.क्रमबद्धप्रेक्षण 2. परिकल्पना निर्माण 3. परिकल्पना का परीक्षण 4.सिद्धांत कथन
दैनिक जीवन में विज्ञान- जीवन के हर क्षेत्र उपयोगी ।
प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा तकनीक को जानने के लिये पुरातत्व और प्राचीन साहित्य का सहारा लेना पडता है। प्राचीन भारत का साहित्य अत्यन्त विपुल एवं विविधतासम्पन्न है। इसमें धर्म, दर्शन, भाषा, व्याकरण आदि के अतिरिक्त गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, रसायन, धातुकर्म, सैन्य विज्ञान आदि भी वर्ण्यविषय रहे हैं।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में प्राचीन भारत के कुछ योगदान निम्नलिखित हैं-
जब किसी व्यक्ति को यह बात बताई जाती है कि हमारे देश में प्राचीन काल में बौधायन, चरक, कौमरभृत्य, सुश्रुत, आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, वाग्भट, नागार्जुन एवं भास्कराचार्य जैसे विश्वविख्यात वैज्ञानिक हुए हैं तो वह सहसा विश्वास ही नहीं कर पाता। इसका एक कारण यह भी है कि लम्बे समय की हमारी गुलामी ने हमारी इस अविछिन्न समृद्ध वैज्ञानिक परम्परा को छिन्न भिन्न कर डाला....अंग्रेजों के औपनिवेशिक विस्तार ने लुप्त प्राय ज्ञान को एक बार फिर अन्वेषित तो किया मगर उनका उद्येश्य हमें गुलाम बनाये रखना और अपनी प्रभुता स्थापित करने का ही था। तथापि अंग्रेजी भाषा के माध्यम से जब पश्चिमी वैज्ञानिक चिंतन ने इस देश की धरती पर पुनः कदम रखा, तो हमारे देश की सोई हुई मेधा जाग उठी और देश को जगदीश चंद्र बसु, श्रीनिवास रामानुजन, चंद्रशेखर वेंकट रामन, सत्येन्द्र नाथ बसु आदि महान वैज्ञानिक प्राप्त हुए, जिन्होंने असुविधाओं से लड़कर अपनी खोजीवृत्ति का विकास किया और एक बार फिर सारी दुनिया में भारत का झण्डा लहराया।

गणित - वैदिक साहित्य शून्य के कांसेप्ट, बीजगणित की तकनीकों तथा कलन-पद्धति, वर्गमूल, घनमूल के कांसेप्ट से भरा हुआ है।
खगोलविज्ञान - ऋग्वेद (2000 ईसापूर्व) में खगोलविज्ञान का उल्लेख है।
भौतिकी - ६०० ईसापूर्व के भारतीय दार्शनिक ने परमाणु एवं आपेक्षिकता के सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख किया है।
रसायन विज्ञान - इत्र का आसवन, गन्दहयुक्त द्रव, वर्ण एवं रंजकों (वर्णक एवं रंजक) का निर्माण, शर्करा का निर्माण
आयुर्विज्ञान एवं शल्यकर्म - लगभग ८०० ईसापूर्व भारत में चिकित्सा एवं शल्यकर्म पर पहला ग्रन्थ का निर्माण हुआ था।
ललित कला - वेदों का पाठ किया जाता था जो सस्वर एवं शुद्ध होना आवश्यक था। इसके फलस्वरूप वैदिक काल में ही ध्वनि एवं ध्वनिकी का सूक्ष्म अध्ययन आरम्भ हुआ।
यांत्रिक एवं उत्पादन प्रौद्योगिकी - ग्रीक इतिहासकारों ने लिखा है कि चौथी शताब्दी ईसापूर्व में भारत में कुछ धातुओं का प्रगलन (स्मेल्टिंग) की जाती थी।
सिविल इंजीनियरी एवं वास्तुशास्त्र - मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त नगरीय सभयता उस समय में उन्नत सिविल इंजीनियरी एवं आर्किटेक्चर के अस्तित्व को प्रमाणित करती है।

होमा जहाँगीर भाभा - भाभा को भारतीय परमाणु का जनक माना जाता है इन्होने ही मुम्बई में भाभा परमाणु शोध संस्थान की स्थापना की थी
विक्रम साराभाई - भाभा के बाद वे परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष बने वे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान  राष्ट्रीय समिति के प्रथम अघ्यक्ष थे थुम्बा में स्थित इक्वेटोरियल रॉकेट प्रक्षेपण केन्द्र के वे मुख्य सूत्रधार थे
एस . एस . भटनागर - इन्हें विज्ञानं प्रशासक के रूप में अपने शानदार कार्य के लिये जाना जाता है इन्होंने देश में वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की स्थापना की थी
सतीश धवन  - सतीश धवन को विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा, सन 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया थाध्वनि के तेज रफ्तार (सुपरसोनिक) विंड टनेल के विकास में इनका प्रयास निर्देशक रहा है
जगदीश चंद्र बसु- ये भारत के पहले वैज्ञानिक शोधकर्त्ता थे 1917 में जगदीश चंद्र बोस को ष्नाइटष् की उपाधि प्रदान की गई तथा शीघ्र ही भौतिक तथा जीव विज्ञान के लिए श्रॉयल सोसायटी लंदनश् के फैलो चुन लिए गए इन्होंने ही बताया कि पौंधों में जीवन होता है
चंद्रशेखर वेंकट रमन - इन्होने स्पेक्ट्रम से संबंधित रमन प्रभाव का आविष्कार किया था जिसके कारण इन्हें 1930 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था
बीरबल साहनी -बीरबल साहनी अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पुरावनस्पति वैज्ञानिक थे इन्हें भारत का सर्व श्रेष्ठ पेलियो-जियोबॉटनिस्ट माना जाता है
सुब्रमण्यम चंद्रशेखर  - 1983 में तारों पर की गयी अपनी खोज के लिये इन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था
हरगोविंद खुराना - इन्होने जीन की संश्लेषण किया जिसके लिए इन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था
ए.पी.जे. अब्दुल कलाम -जिन्हें मिसाइल मैन और जनता के राष्ट्रपति के नाम से जाना जाता है इन्होंने अग्नि एवं पृथ्वी जैसे प्रक्षेपास्त्रों को स्वदेशी तकनीक से बनाया था भारत सरकार द्वारा उन्हें 1981 में पद्म भूषण और 1990 में पद्म विभूषण का सम्मान प्रदान किया गया
क्या धर्म विज्ञान है -
‘मेरे लिए धर्म परम विज्ञान है, सुप्रीम साइंस है। इसलिए मैं नहीं कहूंगा कि धर्म का कोई भी आधार फेथ पर है। कोई आधार धर्म का फेथ पर नहीं है। धर्म का सब आधार नॉलेज पर है।

साइंस, सुप्रीम साइंस! लेकिन साधारणतः धर्म के संबंध में समझा जाता है कि वह विश्वास है, फेथ है। वह गलत है समझना, मेरी दृष्टि में। मेरी दृष्टि में, धर्म भी एक और तरह का ज्ञान है। और धर्म के जितने भी सिद्धांत हैं, वे किसी के ज्ञान से निःसृत हुए हैं, किसी के विश्वास से नहीं। इसलिए मेरा निरंतर जोर है कि मानें मत, जानने की कोशिश करेंय और जिस दिन जान लें उसी दिन मानें। जान कर जो मानना आता है, उसका नाम तो श्रद्धा हैय और बिना जाने जो मानना आता है, उसका नाम विश्वास है। श्रद्धा तो ज्ञान की अंतिम स्थिति है और विश्वास अज्ञान की स्थिति है। और धर्म अज्ञान नहीं सिखाता।

इसलिए मैंने जो कहा है कि आवागमन को मत मानें, पुनर्जन्म को मत मानें, इसका यह मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि आवागमन नहीं है। इसका यह मतलब भी नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि पुनर्जन्म नहीं है। मैं यही कह रहा हूं कि मान लिया अगर तो खोज बंद हो जाती है। जानने की कोशिश करें। और जानना तो तभी होता है जब सम्यक संदेह, राइट डाउट मौजूद हो। उलटा भी मान लें तो भी संदेह नहीं रह जाता। अगर मैं यह भी मान लूं कि पुनर्जन्म नहीं है, तो भी खोज बंद हो जाती है। अगर मैं यह भी मान लूं कि पुनर्जन्म है, तो भी खोज बंद हो जाती है। खोज तो सस्पेंशन में है। मुझे न तो पता है कि है, न मुझे पता है कि नहीं है। तो मैं खोजने निकलता हूं कि क्या है, उसे मैं जान लूं।‘
-ओषो
सिद्धांत क्या है ?
एक सिद्धांत एक वैज्ञानिक आधार मजबूत सबूत और तार्किक तर्क पर सुझाव के रूप में परिभाषित किया गया है। एक सिद्धांत सिद्ध नहीं किया गया है, लेकिन एक वैज्ञानिक मुद्दे को एक सत्य प्रतीत होने वाला स्पष्टीकरण होने का विश्वास है।
आविष्कार
आविष्कार नितांत नवीन और अभूतपूर्व होता है । यूँ मेटाफिजिक्स की दृष्टि से देखें तो अभूतपूर्व भी कुछ नहीं होता । सब कुछ रिपीट होता है, बस केवल हमारे सामने जो पहली बार प्रकट होता है हम उसे आविष्कार मान लेते हैं ।
प्राकृतिक संसाधन
 वो प्राकृतिक पदार्थ हैं जो अपने अपक्षक्रित (?) मूल प्राकृतिक रूप में मूल्यवान माने जाते हैं। एक प्राकृतिक संसाधन का मूल्य इस बात पर निर्भर करता है की कितना पदार्थ उपलब्ध है और उसकी माँग (कमउंदक) कितनी है। प्राकृतिक संसाधन दो तरह के होते हैं-

नवीकरणीय संसाधन और
अनवीकरणीय संसाधन
प्राकृतिक संसाधन वह प्राकृतिक पूँजी है जो निवेश की वस्तु में बदल कर बुनियादी पूंजी (पदतिंजतनबजनतंस बंचपजंस) प्रक्रियाओं में लगाई जाती है।ख्1,ख्2, इनमें शामिल हैं मिट्टी, लकड़ी, तेल, खनिज और अन्य पदार्थ जो कम या ज्यादा धरती से ही लिए जाते हैं। बुनियादी संसाधन के दोनों निष्कर्षण शोधन (तमपिदपदह) करके ज्यादा शुद्ध रूप में बदले जाते हैं जिन्हें सीधे तौर पर इस्तेमाल किया जा सके, (जैसे धातुएँ, रिफाईंड तेल) इन्हें आम तौर पर प्राकृतिक संसाधन गतिविधियाँ माना जाता है, हालांकि जरूरी नही की बाद में हासिल पदार्थ, पहले वाले जैसा ही लगे।
आज भी ऊर्जा के परम्परागत स्रोत महत्वपूर्ण हैं, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता, तथापि ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोतों अथवा वैकल्पिक स्रोतों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। इससे एक ओर जहां ऊर्जा की मांग एवं आपूर्ति के बीच का अन्तर कम हो जाएगा, वहीं दूसरी ओर पारम्परिक ऊर्जा स्रोतों का संरक्षण होगा, पर्यावरण पर दबाव कम होगा, प्रदूषण नियंत्रित होगा, ऊर्जा लागत कम होगी और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक जीवन स्तर में भी सुधार हो पाएगा।

वर्तमान में भारत उन गिने-चुने देशों में शामिल हो गया है, जिन्होंने 1973 से ही नए तथा पुनरोपयोगी ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करने के लिए अनुसंधान और विकास कार्य आरंभ कर दिए थे। परन्तु, एक स्थायी ऊर्जा आधार के निर्माण में पुनरोपयोगी ऊर्जा या गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग के उत्तरोत्तर बढ़ते महत्व को तेल संकट के तत्काल बाद 1970 के दशक के आरंभ में पहचाना जा सका।

आज पुनरोपयोगी और गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के दायरे में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल विद्युत्, बायो गैस, हाइड्रोजन, इंधन कोशिकाएं, विद्युत् वहां, समुद्री उर्जा, भू-तापीय उर्जा, आदि जैसी नवीन प्रौद्योगिकियां आती हैं

जेवारा (जंवारा)



हमर छत्तीसगढ़ मा शक्ति के अराधना के एक विशेषा महत्व हे । छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल से ले के मैदानी क्षेत्र तक आदि शक्ति के पूरा साल भर पूजा पाठ चलत रहिथे । आदि शक्ति अराधना के विशेषा पर्व होथे, जेला नवरात के नाम से जाने जाथे । नवारात पर्व एक साल मा चार बार होथे । दू नवारात ला गुप्त नवरात अउ दून ठन ला प्रगट नवरात कहे जाथे । प्रगट नवरात ला हम सब झन जानथन । पहिली नवरात नवासाल के शुरूच दिन ले शुरू होथे चइत नवरात जेला वासंतीय नवरात के नाम ले जाने जाथे । दूसर नवरात होथे कुंवार महिना के अंजोरी पाख के एकम ले नौमी तक । दूनों नवरात मा देवी के अराधना करे जाथे । मंदिर देवालय मा अखण्ड़ जोत जलाये जाथे । दूनों नवरात मा पूजा पाठ अराधना के एके जइसे महत्व हे फेर लोकाचार लोकाव्यवहार मा दूनों मा कुछ आधारभूत अंतर हे । कुवार नवरात मा मां दुर्गा के प्रतिमा बना के गांव-गांव उत्सव मनाये जाथे । ये काम चइत नवरात मा नई होवय । चइत नवरात कुछ भक्त मन अपन घर मा मां के अराधना करे बर अखण्ड़ जोत जलाथे जेखर साथ गेहू बोये जाथे ऐही ला जंवारा कहिथे ।
वास्तव मा गेहूं के पौधा ला ही जंवारा कहे जाथे, फेर पर्व मा श्रद्धा से आदिषक्ति के वास येमा माने जाथे । येही जेवारा बोना कहे जाथे । येही हा दू प्रकार के होथे- ंपहिली सेत जंवारा, दूसर मारन वाले जेवारा । दूनो जंवारा के बोये के, पूजा पाठके, सेवा करे के विधि सब एक होथे ।  अंतर केवल ऐखर विसर्जन के दिन के रीत मा होथे । सेत जंवारा मा केवल नारियल के भेट करत जंवारा विर्सजन करे जाथे जबकि मारन जंवारा मा बलि प्रथा के निर्वाहन करे जाथे ।
जंवारा चइत महिना के एकम ले लेके पुन्नी तक मनाये जाथे । सेत जंवारा के पर्व मंदिर के पर्व के साथ षुरू होथे अउ होही तिथि मा विसर्जित घला होथे यने कि एकम ले षुरू होके नवमी तक । जबकि मारन जंवारा एकम से लेके अश्टमी तक कोनो दिन षुरू होथे अउ षुरू होय के आठ दिन बाद विसर्जित होथे ।
जंवारा पर्व के चार प्रमुख चरण होथे -
1.बिरही    2. घट स्थापना या जोत जलाना 3.अष्टमी या अठवाही  4. विर्सजन
    सबले पहिली बिरही होथे बिरही यने के गहूं मा जरई जमाना (अंकुरण) आय लेकन येहू ला पूजा पाठ अउ श्रद्धा ले करे जाथे, षुरू दिन सूर्यास्त के बाद पूजा पाठ के बाद साफ गहू ला भींगो के रात भर छोड़ दे जाथे । वैज्ञानिक रूप ले रात भर भींगे गहू अंकुरत हो जाथे । दूसर दिन बा्रम्हण पुरोहित के षोधे गे समय मा पूजा पाठ करके अखण्ड़ दीपक जलाये जाथे जउन हा विसर्जन तक पूरा नव दिन-रात जलथे । येही ला जोत कहे जाथे ।  ये जोत के साथ-साथ नवा-नवा चुरकी मा साफ बोये के लइक माटी डाल के बिरही (जरई आय गहूं) ला सींच दे जाथे । जब गहू जाम जथे ता येला बिरवा कहे जाथे, जउन हा रोज रोज बाढ़त जाथे । ये बिरवा मा दाई वास माने जाथे । बिरवा जल्दी जल्दी बाढ़य बढ़िया रहय ये सोच ले के रोज मां सेवा करे जाथे । मां के सेवा करे के येमारा अर्थ बिरवा अउ जोती के देख-रेख करना अउ मां ला खुष रखें मां बढ़ई करना, गुणगान करना, होथे । मां के गुणगाण करत जउन गीत गाये जाथे होही ला जस गीत कहे जाथे । ये गीत के गवईया मन ला सेऊक कहे जाथे । सेऊक मन ढ़ोलक, मांदर, झांझ, मंजिरा के संग मा के गीत गाथें, ये गीत अपन अलगे लय होथे । जउन एतका मधुर होथे कुछ भगत मन गीत के लय मा झूमें लगथें जेला, देवता चढ़ना कहे जाथे । ये गाना बजना लगातार नव दिन तक चलत रहिथे । आठवां दिन ला अठवाही कहे जाथे, ये दिन मां के पूजा पाठ के षांति अउ होय भूलचूक के माफी बर हूम-हवन करे जाथे । येही दिन हिती-प्रीतू मन ओखर घर जांके जंवारा (फूलवारी) मा नारियल के भेंट चढ़ाथे । आखिर नवां दिन जोत अउ जंवारा के विर्सजन करे जाथे । विर्सजन गांव भर के लइका सियान आये सगा-पहूना मन भाग लेथे । सेउक मन जसगीत गात चलते । सेत मा सब झन नरियर के भेंट करत रहिथे । मारन मा जोत विर्सजन मा घर ले नदिया ले जाये के बेरा घर मा ही भेड़वा बोकरा के बली दे जाथे । बाकी विधि एके रहिथे ।
    जसगीत मा आदिषक्ति के गुणगान ही रहिथे कोनो पौराणिक कथा के आधार मा मां के स्तुति करना हे । चूंकि मां के रूप ला जंवारा मा, जोत मा निहीत मान लेथन ता ये जोत अउ जंवारा के स्तुति करना जस आय । जस मने दाई के यषगान करना आय । छत्तीसगढ़ मा गाये गे गीत के विधा ददरिया, करमा, भडौनी, सोहर, लोरिक चंदा, जस अइसे कहू गिनती करे जाये ता सबले जाथा जस गीत ही पाये जाही ।          

संबंध पहले जन्म लिया या प्यार

लाख टके का प्रश्न है कि संबंध पहले जन्म लिया या प्यार । नवजात शिशु को कोई प्यार करता है इसलिये उसे पुत्र-पुत्री के रूप में स्वीकार करता है अथवा पुत्र-पुत्री मान कर उससे प्यार करता है । यदि पहले तर्क को सही माना जाये तो कोई भी व्यक्ति  किसी भी बच्चे को प्यार कर अपने संतान के रूप में स्वीकार कर सकता है अथवा स्वयं के संतान उत्पन्न होने पर कुछ दिन सोचेंगे कि इससे प्यार करे या ना करे कुछ दिनों पश्चात उस नवजात से प्रेम नही हो पाया तो उसे अपना संतान मानने से इंकार कर देंगे । दूसरे तर्क को सही माना जाये तो संतान उत्पन्न होने पर मेरा संतान है यह संबंध स्थापित कर उससे प्रेम स्वमेव हो जाता है इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति से संबंध स्थापित करने के पष्चात उससे प्रेम कर सकते हैं ।

‘प्यार किया नही जाता प्यार हो जाता है‘ इस पंक्ति का यदा कदा हर  युवक कभी न कभी उपयोग किया ही होगा किन्तु इस पर गंभीर चिंतन शायद ही कोई किया हो । पहले भाग ‘प्यार किया नही जाता‘ का अभिप्राय अनायास ही बिना उद्यम के प्यार हो जाता है । अब यदि ‘प्यार‘ के उद्गम पर चिंतन किया जाये तो स्वभाविक प्रष्न उठता है सर्वप्रथम आपको प्यार का एहसास कब और क्यों हुआ ?  जवाब आप कुछ भी सोच सकते है किन्तु सत्य यह है कि आपको सबसे पहले प्यार अपने मां से हुआ जब आपकी क्षुधा शांत हुई । क्षुधा प्रदर्षित करने के लिये आपको रोने का उद्यम करना पड़ा । दूसरे भाग ‘प्यार हो जाता है‘ का अभिप्राय मन में अपना पन मान लेने से उनके प्रति एक मोह जागृत होता है, इसे कहते है ‘प्यार हो जाता है‘ । जैसे माता-पिता अपने षिषु को जब अपना संतान मान लेते हैं तो उनके प्रति अगाध प्रेम उत्पन्न हो जाता है । किन्तु यदि किसी कारण वश यदि किसी पिता को यह ज्ञात ना हो कि वह शिशु उसी का संतान है तो उसे कदाचित वह प्यार उस शिशु से ना हो । जब कोई्र व्यक्ति किसी वस्तु अथवा किसी व्यक्ति को अपना मान लेता है तो वह उसके प्रति आषक्त हो जाता है यही आषक्ति वह प्यार है । आषक्ति, मोह व प्यार में कुछ अंतर होते हुये भी ये तीनो अंतर्निहित हैं ।
प्यार अपनेपन के भाव में अवलंबित है, अपनापन कब होता है ?  जब हम किसी सजीव-निर्जिव, वस्तु-व्यक्ति के सतत संपर्क में रहते है तो धीरे-धीरे उसके प्रति आकर्षण उसी प्रकार उत्पन्न होता है, जैसे चुंबक के संपर्क में रहने पर लौह पदार्थ में चुम्कत्व उत्पन्न हो जाता है। इसी का परिणाम है कि हम अपने परिवार, अपने घर अपनी वस्तु अपने पालतू जानवर, अपने पड़ोसी, अपने गांव, अपने देष से प्यार करने लगते हैं । प्यार का पैरामीटर अपनापन है । प्यार उसी से होता है जिसके प्रति अपनापन होता है । अपनापन का विकास जिस क्रम होता है उसी क्रम में प्रेम उत्पन्न हो जाता है । अपनेपन में ‘प्यार किया नही जाता प्यार हो जाता है ।

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