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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

भोजन विज्ञान

आरोग्य और आहार विज्ञान


नीरोग उन्हीं मनुष्यों को कहा जा सकता जिनके शुद्ध शरीर में शुद्ध मन का वास होता है । मनुष्य केवल शरीर ही तो नहीं है ।  शरीर तो उसके रहने की जगह है । शरीर, मन और इंद्रियों का ऐसा घना संबंध है कि इनमें किसी एक के बिगड़ने पर बाकी के बिगड़ने  में जरा भी देर नहीं लगती ।

जीव मात्र देहधारी है और सबके शरीर की आकृति प्रकृति लगभग एक सी होती है । सुनने, देखने, सूँघने और भोग भोगने के लिये सभी साधन संपन्न है ।  अंतर है तो केवल मन का मनुष्य ही एक मात्रा ऐसा प्राणी है जिसमें चिंतन होता है । इसलिये आरोग्यता का संबंध तन एवं मन दोनों से है ।

रोगों की उपचार की अपेक्षा रोगों से बचना अधिक श्रेयस्कर है । आयुर्वेदीय साहित्य में शरीर एवं व्याधि दोनों को आहारसम्भव माना गया है-‘‘अहारसम्भवं वस्तु रोगाश्चाहारसम्भवः’’ अर्थात शरीर के उचित पोषण एवं रोगानिवारणार्थ सम्यक आहार-विहार (डाइट प्लान) का होना आवश्यक है ।  भोजन निवारणात्मक और उपचारात्मक स्वास्थ्य देखरेख प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण और अविभाज्य भाग है। यदि हम प्रयत्न करें और स्वास्थ्य संबंधी आहार विज्ञान की अवधारणा को समझे ंतो अनेक रोगों से बचकर प्रायः जीवनपर्यन्त स्वस्थ रह सकते हैं । 

आहार विज्ञान क्या है ?

आहार विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत भोजन मानव स्वास्थय को कैसे प्रभावित किया जाता है, का अध्ययन किया जाता है । आहार विज्ञान के अंतर्गत सार्वजनिक स्वास्थ्य और  उचित आहार के साथ-साथ पथ्य-अपथ्य पर भी ध्यान दिया जाता है ।

आहार विज्ञान में मात्र आहार के भौतिक घटकों का ही महत्व नहीं अपितु आहार की संयोजना, विविध प्रकार के आहार-द्रव्यों का सम्मिलिन, आहारपाक या संस्कार, आहार की मात्रा एवं आहार ग्रहण विधि तथा मानसिकता सभी का महत्व होता है ।


उचित आहार -

अच्छे स्वास्थ्य के लिए  वैज्ञानिक रूप से सोच-विचार करके आहार करना अतिआवश्यक है । शरीर को उम्र, लिंग, वजन एवं शारीरिक कार्यक्षमता के अनुसार सभी पौष्टिक तत्वों की जरूरत होती है।

संतुलित आहार वह होता है, जिसमें प्रचुर और उचित मात्रा में विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ शामिल होते है, जिससे संपूर्ण स्वास्थ्य, जीवन शक्ति और तंदुरूस्ती  बनाए रखने के लिए सभी आवश्यक पोषक तत्व पर्याप्त रूप से मिलते हैं तथा संपूरक पोषक तत्व कम अवधि की कमजोरी दूर करने की एक न्यून व्यवस्था है। आहार के भौतिक घटकों के साथ-साथ उसकी शुद्धता भी संतुलित आहार का आवष्यक गुणधर्म होना चाहिये जो दे हके साथ-साथ मन को भी स्वस्थ रख सके ।
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं कि-


अहं वैश्वनरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम ।।


इसका अर्थ यह है कि भगवान कृष्ण कहते हैं कि मैं स्वयं जठराग्नि रूप  में प्रत्येक जीव में बैठकर प्राण और अपान वायु की सहकारिता से चव्र्य, चोश्य लेह्य तथा पेय इन चार प्रकार के भोज्य अन्नों का भक्षण करता हूँ । इस आधार पर भोजन चार प्रकार के होते हैं । पहला चव्र्य ऐसा भोज्य पदार्थ जिसे चबा कर खाया जाता है । जैसे रोटी चावल आदि । दूसरा चोश्य- वह भोज्य पदार्थ जिसे चूशा जाता है जैसे आम, गन्ना आदि । तीसरा लेह्य - वह पदार्थ जिसे जीभ से चाटा जाता है, जैसे चटनी, षहद आदि । पेय-वह पदार्थ जिसे निगला जाता है जैसे रस, खिचड़ी आदि ।
इसका अभिप्राय यह हुआ कि भोजन केवल उदरपूर्ति का साधन नहीं अपितु ईश्वर की पूजा भी है । पूजा को पवित्र होना चाहिये । इसलिये भोजन को भी पवित्र होना चाहिये । भोजन की पवित्रता के लिये निम्न चार बातों का ध्यान रखना चाहिये-
1. स्थान की शुद्धता- जिस स्थान पर भोजन किया जाना है वह स्थान स्वच्छ हो ।
2. भोजन करने वाले की शुद्धता-जो व्यक्ति भोजन करने वाला है वह तन एवं मन से स्वच्छ हो ।
3. भोज्य पदार्थ की शुद्धता- जिस भोजन को ग्रहण किया जाना है वह भोजन षुद्ध एवं स्वच्छ हो ।
4. पात्र की शुद्धता- जिस पात्र पर भोजन किया जाना है, वह पात्र स्वच्छ हो ।

यह  शुद्धता डाक्टरी विज्ञान सम्मत भी है । इस संबंध में मिस हेलन ने यंत्र के द्वारा स्पष्ट प्रमाणित कर दिखाया है कि हाथ के साथ हाथ का स्पर्श होने पर भी रोग का बीज एक दूसरे में चले जाते हैं । केवल रोग ही नहीं स्पर्ष से शारीरिक और मानसिक वृत्तियों में भी हेर-फेर हो जाता है । 
प्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्लामेरियन कहते हैं-‘वह कौन शक्ति है जो हाथों की नसों के द्वारा अँगुलियों के अन्त तक चली जाती है ? इसी को वैज्ञानिकगण ‘आकाशी शक्ति’ कहते हैं । वह मस्तिष्क से प्रारंभ होती है, मनोवृत्तियों के साथ जा मिलती है और स्नायुपथ से प्रवाहित होकर हाथ, आँख और पाँव की एड़ीतक पहुँचती है ।  इन तीनों के ही द्वारा दूसरों पर यह अपना प्रभाव दिखाती है, किन्तु इसका सबसे अधिक प्रभाव हाथ की अँगुलियों द्वारा ही प्रकट होता है ।

पथ्य एवं अपथ्य-

किसी प्रकार का आहर ग्रहण करना चाहिये और किस प्रकार का आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये इसका निर्धारण ही पथ्य-अपथ्य कहलाता है । आचार्य चरक के अनुसार-


‘पथ्यं पथोऽनपेतं यद्यच्चोक्तं मनसः प्रियम ।यच्चाप्रियमपथ्यं च नियतं तन्न लक्षयेत् ।।



अर्थात ‘पथ के लिये जो अनपेत हो वही पथ्य है । इसके अतिरिक्त जो मन को प्रिय लगे वह पथ्य है और इसके विपरित को अपथ्य कहते हैं ।’ अनपेत का अर्थ उपकार करने वाला होता है इसलिये इसका अभिप्राय यह हुआ को जो स्वास्थ्य के लिये उपकारी हो पथ्य है एवं जो स्वास्थ्य के हानिकारक हो वह अपथ्य है ।

आहार के संदर्भ में यह विशेष विचारणीय तथ्य है कि सर्वविधसम्पन्न आहार का पूर्ण लाभ तबतक नहीं लिया जा सकता, जबतक मानस क्रिया का उचित व्यवहार न हो, क्योंकि कुछ ऐसे मानसिक भाव यथा दुख, भय, क्रोध, चिन्ता आदि हैं जिनका आहार पर प्रभाव पड़ता है ।


पथ्य या अपथ्य का नियमन करने वाले घटक -

किसी भी वस्तु को हम निश्चित रूप से पथ्य अथवा अपथ्य नहीं कह सकते । मात्रा एवं समय के अनुसार कुछ पथ्य अपथ्य हो सकते हैं तो कुछ अपथ्य पथ्य हो सकते हैं । पथ्य एवं अपथ्य को निर्धारित करने वाले प्रमुख घटक इस प्रकार हैं-


1. मात्रा- 

भोजन न तो अधिक मात्रा में होना चाहिये न ही कम मात्रा में । पहले खाया हुआ पहले पच जाये तभी दुबारा भोजन करना चाहिये । भोजन की मात्रा अल्प अथवा अधिक होने पर वह अपथ्य है। केवल संतुलित मात्रा में भोजन ग्रहण करना ही पथ्य है ।

2. काल- 

भोजन में समय का बहुत अधिक महत्व होता है । सुबह, दोपहर एवं रात्रि में भोजन की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है । सुबह और रात्रि को दोपहर की तुलना में कम भोजन करना चाहिये । इसीप्रकार भोजन का संबंध ऋतुओं से भी होता है । ग्रीष्म ऋतु अथवा वर्षा ऋतु में हल्का भोजन और शीतऋतु में गरिष्ठ भोजन श्रेयस्कर होता है । समय एवं ऋतु के अनुरूप भोजन ही पथ्य है ।

3. क्रिया-

भोजन सुपाच्य हो इसके भोजन ग्रहण करने की विधि पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है । भोजन अच्छे से चबा-चबा कर करना, भोजन करते समय पानी न पीना, खड़े-खड़े भोजन ग्रहण करने के बजाय बैठकर भोजन करना श्रेयस्कर माना जाता है । उचित क्रिया से जो भोजन न किया जाये वह अपथ्य है ।

4. भूमि या स्थान-

देश के अनुसार ठंड़े या गर्म देशों में भोजन में परिवर्तन होना स्वभाविक है । इसलिये भोजन को प्रदेश के मौसम के अनुकूल होना चाहिये । भूमि अथवा प्रदेश के अनुरूप भोजन करना पथ्य है ।

5. देह-

प्रत्येक शरीर की पाचन शक्ति भिन्न-भिन्न होती है । अवस्था के अनुसार भोजन की आवश्यकता भी भिन्न-भिन्न होती है ।  इसी प्रकार महिलाओं एवं पुरूषों के लिये भी भिन्न-भिन्न भोजन की आवश्यकता होती है । अपने शरीर के अनुरूप ही भोजन करना ही पथ्य है ।

6. दोष-

भोजन ग्रहण करते समय की मनोदशा भी यह निर्धारित करता है की  ग्रहण किये जाने वाला भोजन पथ्य है अथवा नहीं । जब अच्छा महसूस नहीं हो रहा होता तो भोजन अरूचिकर लगने लगता है । बीमार होने की स्थिति में पथ्य की परिभाषा परिवर्तित हो जाती है । इस स्थिति में वही भोजन पथ्य है जो उस बीमारी को ठीक करने में उपयोगी हो ।

प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं निर्धारित करना चाहिये कि उसके लिये उपयुक्त आहार क्या है, क्योंकि आहार का पथ्य अथवा अपथ्य होना एक तो व्यक्ति की प्रकृति पर निर्भर होता है दूसरा देश, काल, मात्रा आदि पर निर्भर करता है ।  आहार यदि जीवनीय तत्वों से भरपूर तथा उचित मात्रा में किया जाये तो शरीर में व्याधिक्षमत्व बढ़ता है ।  आचार्य चरक ने आहार ग्रहण करने के दस नियमों का नियमन किया है-
1. ताजा भोजन ग्रहण करना चाहिये ।
2. स्निग्ध आहार ग्रहण करना चाहिये ।
3. नियत मात्रा में आहार लेना चाहिये ।
4. भोजन के पूर्ण रूप से पच जाने के पश्चात ही भोजन करना चाहिये ।
5. शक्तिवर्धक आहार लेना चाहिये ।
6. स्थान विशेष के अनुरूप आहार लेना चाहिये ।
7. द्रुतगति से भोजन नहीं करना चाहिये ।
8. अधिक विलम्ब तक भोजन नहीं करना चाहिये ।
9. शान्तिपूर्वक शांत चित्त से भोजन करना चाहिये ।

10. अपने आत्मा का सम्यक विचार कर तथा आहार द्रव्य में मन लगाकर और स्वयं की समीक्षा करते हुये भोजन करना चाहिये ।

इस प्रकार कह सकते हैं कि- विवेकपूर्ण-आहार से ही शांत, सुखी, स्वस्थ तथा आध्यात्मिक जीवन पूर्णरूप से व्यतित किया जा सकता है ।




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