बुधवार, 27 मई 2020
मंगलवार, 26 मई 2020
नदी नालों को ही बचाकर जल को बचाया जा सकता है
नदी नालों को ही बचाकर जल को बचाया जा सकता है
भूमि की सतह और भूमि के अंदर जल स्रोतों में अंतर संबंध होते हैं ।जब भूख सतह पर जल अधिक होगा तो स्वाभाविक रूप से भूगर्भ जल का स्तर भी अधिक होगा ।
भू सतह पर वर्षा के जल नदी नालों में संचित होता है यदि नदी नालों की सुरक्षा ना की जाए तो आने वाला समय अत्यंत विकट हो सकता है ।
नदी नालों पर तीन स्तर से आक्रमण हो रहा है-
1. नदी नालों के किनारों पर भूमि अतिक्रमण से नदी नालों की चौड़ाई दिनों दिन कम हो रही है, गहराई भी प्रभावित हो रही है जिससे इसमें जल संचय की क्षमता घट रही है। स्थिति यहां तक निर्मित है कि कई छोटे नदी नाले विलुप्त के कगार पर हैं ।
2. नदी नालों पर गांव, शहर, कारखानों की गंदे पानी गिराए जा रहे हैं । जिससे इनके जल विषैले हो रहे हैं जिससे इनके जल जनउपयोगी नहीं होने के कारण लोग इन पर ध्यान नहीं देते और इनका अस्तित्व खतरे में लगातार बना हुआ है ।
3. लोगों में नैतिकता का अभाव भी इसका एक बड़ा कारण है । भारतीय संस्कृति में नदी नालों की पूजा की जाती है जल देवता मानकर उनकी आराधना की जाती है किंतु इनकी सुरक्षा उनके बचाव कि कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं लेते।
पूरे देश में नदी नालों की स्थिति का आकलन मैं सिर्फ अपने गांव और आसपास को देखकर लगा सकता हूं जिस नदी नाले में हम बचपन में तैरा करते थे वहां आज पानी का एक बूंद भी नहीं है ।
नदी तट पर जहां हम खेला करते थे वहां आज कुछ झोपड़ी तो कुछ महल खड़े हो गए हैं ।
कुछ इसी प्रकार की स्थिति गांव और शहर के तालाबों का हो गया है तालाब केवल कूड़ा दान प्रतीत हो रहा है ।
जल स्रोत बचाएं पानी बचाएं ।
शुक्रवार, 22 मई 2020
दीर्घायु जीवन का रहस्य
दीर्घायु जीवन का रहस्य
इस जगत ऐसा कौन नहीं होगा जो लंबी आयु, सुखी जीवन न चाहता हो । प्रत्येक व्यक्ति की कामना होती है कि वह सुखी रहे, जीवन आनंद से व्यतित हो और वह पूर्ण आयु को निरोगी रहते हुये व्यतित करे । मृत्यु तो अटल सत्य है किंतु असमायिक मृत्यु को टालना चाहिये क्योंकि अथर्ववेद में कहा गया है-‘‘मा पुरा जरसो मृथा’ अर्थात बुढ़ापा के पहले मत मरो ।
बुढ़ापा कब आता है ?
- वैज्ञानिक शोधों द्वारा यह ज्ञात किया गया है कि जब तक शरीर में सेल (कोशिकाओं) का पुनर्निमाण ठीक-ठाक होता रहेगा तब तक शरीर युवावस्था युक्त, कांतियुक्त बना रहेगा । यदि इन सेलों का पुनर्निमाण किन्ही कारणों से अवरूध हो जाता है तो समय के पूर्व शरीर में वृद्धावस्था का लक्षण प्रकट होने लगता है ।
- वैज्ञानिक एवं चिकित्सकीय शोधों के अनुसार वर्तमान में मनुष्य की औसत जीवन प्रत्याशा 60 से 70 वर्ष के मध्य है । इस जीवन प्रत्यशा को बढ़ाने चिकित्सकीय प्रयोग निरंतर जारी है ।
- किन्तु श्रृति कहती है-‘शतायुवै पुरूषः’ अर्थात मनुष्यों की आयु सौ वर्ष निर्धारित है । यह सौ वर्ष बाल, युवा वृद्ध के क्रम में पूर्ण होता है ।
- महाभारत में विदुर जी कहते हैं- ‘अहो महीयसी जन्तोर्जीविताषा बलीयसी’ अर्थात हे राजन जीवन जीने की लालसा अधिक बलवती होती है ।
- आचार्य कौटिल्य कहते हैं- ‘देही देहं त्यकत्वा ऐन्द्रपदमपि न वांछति’ अर्थात इन्द्र पद की प्राप्ति होने पर भी मनुष्य देह का त्याग करना नहीं चाहता ।
- आज के समय में भी हम में से कोई मरना नहीं चाहता, जीने का हर जतन करना चाहता है। वैज्ञानिक अमरत्व प्राप्त करने अभीतक कई असफल प्रयास कर चुके हैं और जीवन को सतत् या दीर्घ बनाने के लिये अभी तक प्रयास कर रहे हैं ।
अकाल मृत्यु क्यों होती है ?
- यद्यपि मनुष्य का जीवन सौ वर्ष निर्धारित है तथापि सर्वसाधारण का शतायु होना दुर्लभ है । विरले व्यक्ति ही इस अवस्था तक जीवित रह पाते हैं 100 वर्ष के पूर्व अथवा जरा अवस्था के पूर्व मृत्यु को अकाल मृत्यु माना जाता है ।
- सप्तर्षि में से एक योगवसिष्ठ के अनुसार-
मृत्यों न किचिंच्छक्तस्त्वमेको मारयितु बलात् ।मारणीयस्य कर्माणि तत्कर्तृणीति नेतरत् ।।
- अर्थात ‘‘हे मृत्यु ! तू स्वयं अपनी शक्ति से किसी मनुष्य को नही मार सकती, मनुष्य किसी दूसरे कारण से नहीं, अपने ही कर्मो से मारा जाता है ।’’ इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि मनुष्य अपनी मृत्यु को अपने कर्मो से स्वयं बुलाता है । जिन साधनों, जिन कर्मो से मनुष्य शतायु हो सकता है उन कारणों के उल्लंघन करके अपने मृत्यु को आमंत्रित करता है ।
दीर्घायु होने का क्या उपाय है ?
- विज्ञान के अनुसार जब तक शरीर में कोशिकाओं का पुनर्निमाण की प्रक्रिया स्वस्थ रूप से होती रहेगी तब तक शरीर स्वस्थ एवं युवावस्था युक्त रहेगा ।
- कोशिकाओं की पुनर्निमाण की सतत प्रक्रिया से वृद्धावस्था असमय नहीं होगा । सेल के पुनर्निमाण में विटामिन ई, विटामिन सी, और कोलिन ये तीन तत्वों का योगदान होता है । इसकी पूर्ती करके दीर्घायु बना जा सकता है ।
- व्यवहारिक रूप से यदि देखा जाये तो एक साधन संपन्न धनवान यदि इसकी पूर्ती भी कर ले तो क्या वह शतायु बन जाता है ? उत्तर है नहीं तो शतायु कैसे हुआ जा सकता है ।
- श्री पी.डी.खंतवाल कहते हैं कि -‘‘श्रमादि से लोगों की शक्ति का उतना ह्रास नहीं होता, जितना आलस्य और शारीरिक सुखासक्ति से होता है ।’’ यह कथन अनुभवगम्य भी है क्योंकि अपने आसपास वृद्धों को देखें जो जीनका जीवन परिश्रम में व्यतित हुआ है वह अरामपरस्त व्यक्तियों से अधिक स्वस्थ हैं । इससे यह प्रमाणित होता है कि दीर्घायु जीवन जीने के लिये परिश्रम आवश्यक है ।
- देखने-सुनने में आता है कि वास्तविक साधु-संत जिनका जीवन संयमित है, शतायु होते हैं इससे यह अभिप्रमाणित होता है कि शतायु होने के संयमित जीवन जीना चाहिये ।
धर्मशास्त्र के अनुसार दीर्घायु जीवन-
- महाभारत के अनुसार- ‘‘आचारश्र्च सतां धर्मः ।’’ अर्थात आचरण ही सज्जनों का धर्म है । यहाँ यह रेखांकित करना आवश्यक है कि धर्म कोई पूजा पद्यति नहीं अपितु आचरण है, किये जाने वाला कर्म है ।
- ‘धर्मो धारयति अति धर्मः’’ अर्थात जो धारण करने योग्य है वही धर्म है । धारण करने योग्य सत्य, दया साहचर्य जैसे गुण हैं एवं धारण करने का अर्थ इन गुणों को अपने कर्मो में परणित करना है ।
- महाराज मनु के अनुसार- ‘‘आचाराल्लभते ह्यायुः ।’’ अर्थात आचार से दीर्घ आयु प्राप्त होती है ।
- आचार्य कौटिल्य के अनुसार- ‘‘मृत्युरपि धर्मष्ठिं रक्षति ।’’ अर्थात मृत्यु भी धर्मपरायण लोगों की रक्षा करती है ।
- ऋग्वेद के अनुसार- ‘न देवानामतिव्रतं शतात्मा च न जीवति ।’’ अर्थात देवताओं के नियमों को तोड़ कर कोई व्यक्ति शतायु नहीं हो सकता । यहाँ देवताओं के नियम को सृष्टि का, प्रकृति का नियम भी कह सकते हैं ।
- समान्य बोलचाल में पर्यावरणीय संतुलन का नियम ही देवाताओं का नियम है, यही किये जाना वाला कर्म है जो आचरण बन कर धर्म का रूप धारण कर लेता है । अर्थात प्रकृति के अनुकूल आचार-व्यवहार करके दीर्घायु जीवन प्राप्त किया जा सकता है ।
जीवन की सार्थकता-
- एक अंग्रेज विचारक के अनुसार- ‘‘उसी व्यक्ति को पूर्ण रूप से जीवित माना जा सकता है, जो सद्विचार, सद्भावना और सत्कर्म से युक्त हो ।’’
- चलते फिरते शव का कोई महत्व नहीं होता थोडे़ समय में अधिक कार्य करने वाला मनुष्य अपने जीवनकाल को बढ़ा लेता है । आदि शांकराचार्य, स्वामी विवेकानंद जैसे कई महापुरूष अल्प समय में ही बड़ा कार्य करके कम आयु में शरीर त्यागने के बाद भी अमर हैं ।
- मनुष्यों की वास्तविक आयु उनके कर्मो से मापी जाती है । धर्म-कर्म करने से मनुष्य की आयु निश्चित रूप से बढ़ती है ।
‘‘धर्मो रक्षति रक्षितः’’ यदि धर्म की रक्षा की जाये अर्थात धर्म का पालन किया जाये तो वही धर्म हमारी रक्षा करता है । यही जीवन का गुण रहस्य है । यही दीर्घायु का महामंत्र है ।
शनिवार, 16 मई 2020
स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता
मई 16, 2020
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हमारे पौराणिक ग्रन्थों में आत्माभिमान की रक्षा करना प्राणों की रक्षा करने से भी श्रेष्ठ कहा गया है । कई ग्रन्थों में यहाँ तक भी कहाँ गया है कि यदि प्राणोत्सर्ग करने से स्वाभिमान की रक्षा हो सके तो सहजता से प्राणोत्सर्ग कर देना चाहिये । स्वाभिमान के पुष्पित पल्लवित वृक्ष पर ही आत्मनिर्भरता का फल लगता है ।
आत्मनिर्भर किसे कहते हैं ?
वह व्यक्ति जो अपने प्रत्येक आवश्यकता के पूर्ति किसी दूसरों पर निर्भर न होकर अपने आप पर निर्भर होता है, उसे ही आत्मनिर्भर कहते हैं । जो व्यक्ति अपने हर छोटे-बड़े काम स्वयं करने का प्रयास करते हों, यदि किसी दूसरों की सहायता लेने की आवश्यकता पड़े भी तो उसे वह अर्थ अथवा श्रम विनिमय से ही लेता है । कभी भी किसी से मुफ्त में लेने का प्रयास नहीं करते । न ही अपने धन बल, बाहु बल से दूसरों का शोषण करता है ।
आत्मनिर्भर होने का यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता वह किसी दूसरे का सहयोग ही न ले । सहयोग ले किन्तु स्वयं भी सहयोग करे । परस्पर सहयोग करने से स्वाभीमान पर चोट नहीं पहुँचेगा और कार्य भी आसानी से हो जायेगा । आत्मनिर्भर व्यक्ति कभी स्वार्थी, स्वकेन्द्रित नहीं हो सकता ।
आत्मनिर्भरता का महत्व-
स्वाभिमान व्यक्ति का वह नैतिक गुण है जो उसे नैसर्गिक रूप से स्वालंबी बनाता है, आत्मनिर्भर बनाता है । आत्मनिर्भर व्यक्ति ही सफल होकर उसी प्रकार प्रदीप्मान होता है जैसे करोड़ो तारों के मध्य चन्द्रमा शोभायमान होता है ।
महाकवि भीमराव के अनुसार-‘लघयन खलु तेजसा जगन्न महा निच्छती भूतिमन्यतः’’ अर्थात अपने तेज और प्रताप से दुनिया को अपने नीचे रखने वाले लोग कभी भी दूसरों का सहारा नहीं लेते अपितु स्वयं के बल पर सब कुछ प्राप्त करते हैं ।
प्रसिद्ध निबंधकार बालकृष्ण भट्ट आत्मनिर्भरता के संदर्भ में लिखते हैं-‘‘अपने भरोसे का बल है ये जहाँ होंगे जल में तुंबी के समान सबके ऊपर रहेंगे ।’’ अर्थात आत्माभिमानी स्वालंबी संसार में उसी प्रकार ऊपर होते हैं जैसे तुंबी जल में तैरता हुआ ऊपर होता है ।
आत्मनिर्भर बने कैसें?
आत्मनिर्भर बनने के लिये व्यक्ति को सबसे पहले शारीरिक एवं मानसिक रूप से सक्षम होना चाहिये । उसे अपने शारीरिक शक्ति एवं मानसिक शक्ति पर स्वयं विश्वास होना चाहिये । यहाँ शारीरिक सक्षमता का अर्थ सबसे बलिष्ठ हो ऐसा नहीं है अपितु अपने कार्य को करने के लिये अपने शरीर को अनुकूल बनाना मात्र है । उसी प्रकार मानसिक सक्षमता अर्थ भी अपने कार्य करने के लिय अपना बौद्धिक विकास करना है ।
आत्मनिर्भरता व्यक्ति का आंतरिक गुण है, जिसे अभ्यास द्वारा निखारा जा सकता है । छोटी-छोटी बातों पर दूसरों का सहयोग लेने की लालसा छोड़कर स्वयं उसे करने का अभ्यास करना चाहिये ।
अपने जीवकोपार्जन करने के लिये दूसरों की दया, भीख पर निर्भर न होकर परिश्रमी होना चाहिये । अपने परिश्रम के बल पर अपने अनुकूल कार्य करना चाहिये ।
कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता हर काम का अपना एक अलग महत्व होता है । जिस काम को हम कर सकते हैं उस काम से अर्थोपार्जन के सारे प्रयास करना चाहिये ।
आत्मनिर्भरता के पथ के बाधक-
बाल्यकाल में बच्चों पर माता-पिता का आवश्यकता से अधिक दुलार हर बात पर बच्चों का माता-पिता पर निर्भर होना उसे आत्मनिर्भर होने से रोकता है ।
आत्मनिर्भर बनने में एक बाधा हमारी शिक्षा का चयन भी है । हमे ऐसे शिक्षा का चयन करना चाहिये जिससे हमारे अंदर कोई न कोई स्कील उत्पन्न हो जिस स्कील की सहायता से हम आर्थोपार्जन कर आत्मनिर्भर हो सकें ।
अपने आप को श्रेष्ठ मानकर बलपूर्वक या दुराग्रह पूर्वक दूसरों से अपना काम कराने की प्रवृत्ति आत्मनिर्भर होने से रोकता है ।
वी.वी.आई.पी कल्चर के फेर में दूसरों को अपने अधीन समझने की मनोवृत्ति आत्मनिर्भर होने से उस व्यक्ति को रोकता है ।
स्वाभीमान ही जीवन है । आत्मनिर्भरता ही सच्ची स्वतंत्रता है । यदि आप स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं तो स्वाभीमानी एवं स्वालंबी आत्मनिर्भर बनें ।
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