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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

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शनिवार, 16 मई 2020

स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता


हमारे पौराणिक ग्रन्थों में आत्माभिमान की रक्षा करना प्राणों की रक्षा करने से भी श्रेष्ठ कहा गया है । कई ग्रन्थों में यहाँ तक भी कहाँ गया है कि यदि प्राणोत्सर्ग करने से स्वाभिमान की रक्षा हो सके तो सहजता से प्राणोत्सर्ग कर देना चाहिये । स्वाभिमान के पुष्पित पल्लवित वृक्ष पर ही आत्मनिर्भरता का फल लगता है ।

आत्मनिर्भर किसे कहते हैं ?

वह व्यक्ति जो अपने प्रत्येक आवश्यकता के पूर्ति किसी दूसरों पर निर्भर न होकर अपने आप पर निर्भर होता है, उसे ही आत्मनिर्भर कहते हैं । जो व्यक्ति अपने हर छोटे-बड़े काम स्वयं करने का प्रयास करते हों, यदि किसी दूसरों की सहायता लेने की आवश्यकता पड़े भी तो उसे वह अर्थ अथवा श्रम विनिमय से ही लेता है । कभी भी किसी से मुफ्त में लेने का प्रयास नहीं करते । न ही अपने धन बल, बाहु बल से दूसरों का शोषण करता है ।
आत्मनिर्भर होने का यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता वह किसी दूसरे का सहयोग ही न ले । सहयोग ले किन्तु स्वयं भी सहयोग करे । परस्पर सहयोग करने से स्वाभीमान पर चोट नहीं पहुँचेगा और कार्य भी आसानी से हो जायेगा । आत्मनिर्भर व्यक्ति कभी स्वार्थी, स्वकेन्द्रित नहीं हो सकता ।

आत्मनिर्भरता का महत्व-

स्वाभिमान व्यक्ति का वह नैतिक गुण है जो उसे नैसर्गिक रूप से स्वालंबी बनाता है, आत्मनिर्भर बनाता है । आत्मनिर्भर व्यक्ति ही सफल होकर उसी प्रकार प्रदीप्मान होता है जैसे करोड़ो तारों के मध्य चन्द्रमा शोभायमान होता है ।
महाकवि भीमराव के अनुसार-‘लघयन खलु तेजसा जगन्न महा निच्छती भूतिमन्यतः’’ अर्थात अपने तेज और प्रताप से दुनिया को अपने नीचे रखने वाले लोग कभी भी दूसरों का सहारा नहीं लेते अपितु स्वयं के बल पर सब कुछ प्राप्त करते हैं ।
प्रसिद्ध निबंधकार बालकृष्ण भट्ट आत्मनिर्भरता के संदर्भ में लिखते हैं-‘‘अपने भरोसे का बल है ये जहाँ होंगे जल में तुंबी के समान सबके ऊपर रहेंगे ।’’ अर्थात आत्माभिमानी स्वालंबी संसार में उसी प्रकार ऊपर होते हैं जैसे तुंबी जल में तैरता हुआ ऊपर होता है ।

आत्मनिर्भर बने कैसें?

आत्मनिर्भर बनने के लिये व्यक्ति को सबसे पहले शारीरिक एवं मानसिक रूप से सक्षम होना चाहिये । उसे अपने शारीरिक शक्ति एवं मानसिक शक्ति पर स्वयं विश्वास होना चाहिये । यहाँ शारीरिक सक्षमता का अर्थ सबसे बलिष्ठ हो ऐसा नहीं है अपितु अपने कार्य को करने के लिये अपने शरीर को अनुकूल बनाना मात्र है । उसी प्रकार मानसिक सक्षमता अर्थ भी अपने कार्य करने के लिय अपना बौद्धिक विकास करना है ।
आत्मनिर्भरता व्यक्ति का आंतरिक गुण है, जिसे अभ्यास द्वारा निखारा जा सकता है । छोटी-छोटी बातों पर दूसरों का सहयोग लेने की लालसा छोड़कर स्वयं उसे करने का अभ्यास करना चाहिये ।
अपने जीवकोपार्जन करने के लिये दूसरों की दया, भीख पर निर्भर न होकर परिश्रमी होना चाहिये । अपने परिश्रम के बल पर अपने अनुकूल कार्य करना चाहिये ।
कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता हर काम का अपना एक अलग महत्व होता है । जिस काम को हम कर सकते हैं उस काम से अर्थोपार्जन के सारे प्रयास करना चाहिये ।

आत्मनिर्भरता के पथ के बाधक-

बाल्यकाल में बच्चों पर माता-पिता का आवश्यकता से अधिक दुलार हर बात पर बच्चों का माता-पिता पर निर्भर होना उसे आत्मनिर्भर होने से रोकता है ।
आत्मनिर्भर बनने में एक बाधा हमारी शिक्षा का चयन भी है । हमे ऐसे शिक्षा का चयन करना चाहिये जिससे हमारे अंदर कोई न कोई स्कील उत्पन्न हो जिस स्कील की सहायता से हम आर्थोपार्जन कर आत्मनिर्भर हो सकें ।
अपने आप को श्रेष्ठ मानकर बलपूर्वक या दुराग्रह पूर्वक दूसरों से अपना काम कराने की प्रवृत्ति आत्मनिर्भर होने से रोकता है ।
वी.वी.आई.पी कल्चर के फेर में दूसरों को अपने अधीन समझने की मनोवृत्ति आत्मनिर्भर होने से उस व्यक्ति को रोकता है ।
स्वाभीमान ही जीवन है । आत्मनिर्भरता ही सच्ची स्वतंत्रता है । यदि आप स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं तो स्वाभीमानी एवं स्वालंबी आत्मनिर्भर बनें ।

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