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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

तुलसी के स्वास्थ्यवर्धक गुण


तुलसी के स्वास्थ्यवर्धक गुण


तुलसी एक उपयोगी वनस्पति है । भारत सहित विश्व के कई  देशों में तुलसी को पूजनीय तथा शुभ माना जाता है ।  यदि तुलसी के साथ प्राकृतिक चिकित्सा की कुछ पद्यतियां जोड़ दी जायें तो प्राण घातक और असाध्य रोगों  को भी नियंत्रित किया जा सकता है । तुलसी शारीरिक व्याधियों को दूर करने के साथ-साथ मनुष्यों के आंतरिक शोधन में भी उपयोगी है । प्रदूषित वायु के शुद्धिकरण में तुलसी का विलक्षण योगदान है । तुलसी की पत्ती, फूल, फल , तना, जड़ आदि सभी भाग उपयोगी होते हैं ।

तुलसी पौधे का परिचय-

तुलसी का वनस्पतिक नाम ऑसीमम सैक्टम है । यह एक द्विबीजपत्री तथा शाकीय, औषधीय झाड़ी है। इसकी ऊँचाई 1 से 3 फिट तक होती है। इसकी पत्तियाँ बैंगनी रंग की होती जो हल्के रोएं से ढकी रहती है । पुष्प कोमल और बहुरंगी छटाओं वाली होती है, जिस पर बैंगनी और गुलाबी आभा वाले बहुत छोटे हृदयाकार पुष्प चक्रों में लगते हैं। बीज चपटे पीतवर्ण के छोटे काले चिह्नों से युक्त अंडाकार होते हैं। नए पौधे मुख्य रूप से वर्षा ऋतु में उगते है और शीतकाल में फूलते हैं। पौधा सामान्य रूप से दो-तीन वर्षों तक हरा बना रहता है।

तुलसी की प्रजातियां-

ऐसे तो तुलसी की कई प्रजातियां हैं किन्तु मुख्य रूप से 4 प्रजातियां पाई जाती है-

1. रामा तुलसी (OCIMUM SANCTUM)

-रामा तुलसी भारत के लगभग हर घर में पूजी जाने वाली  एक पवित्र पौधा है । इस पौधे के पत्तियां हरी होती हैं । इसे प्रतिदिन पानी की आवश्यकता होती है ।

2. श्यामा तुलसी (OCIMUM TENUIFLORUM)--

इस पौधे की पत्तियां बैंगनी रंग की होती है ।  जिसमें छोटे-छोटे रोएं पाये जाते हैं । अन्य प्रजातियों की तुलना में इसमें औषधीय गुण अधिक होते हैं ।

3- अमुता तुलसी (OCIMUM TENUIFLORUM)-

यह आम तौर पर कम उगने वाली, सुगंधित और पवित्र प्रजाति का पौधा है ।

4. वन तुलसी (OCIMUM GRATISSUM)-

यह भारत में पाये जाने वाली सुगंधित और पवित्र प्रजाति है । अपेक्षाकुत इनकी ऊँचाई अधिक होती है । तना भाग अधिक होता है, इसलिये इसे वन तुलसी कहते हैं 


धार्मिक महत्व-

1. भगवान विष्णु की पूजा  तुलसी के बिना पूर्ण नहीं होता ।  भगवान को नैवैद्य समर्पित करते समय तुलसी भेट किया जाता है ।
2. तुलसी के तनों को दानों के रूप में गूँथ कर माला बनाया जाता है, इस माले का उपयोग मंत्र  जाप में करते हैं ।
3. मरणासन्न व्यक्ति को तुलसी पत्ती जल में मिला कर पिलाया जाता है ।
4. दाह संस्कार में तुलसी के तनों का प्रयोग किया जाता है ।
5. भारतीय संस्कृति में तुलसी विहन घर को पवित्र नहीं माना जाता ।

 रासायनिक संगठन-

तुलसी में अनेक जैव सक्रिय रसायन पाए गए हैं, जिनमें ट्रैनिन, सैवोनिन, ग्लाइकोसाइड और एल्केलाइड्स प्रमुख हैं। तुलसी में उड़नशिल तेल पाया जाता है । जिसका औषधिय उपयोग होता है ।  कुछ समय रखे रहने पर यह स्फिटिक की तरह जम जाता है । इसे तुलसी कपूर भी कहते हैं ।  इसमें कीनोल तथा एल्केलाइड भी पाये जाते हैं ।  एस्कार्बिक एसिड़ और केरोटिन भी पाया जाता है ।


व्यवसायिक खेती-

तुलसी अत्यधिक औषधीय उपयोग का पौधा है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसका उपयोग तो होता ही रहा है वर्तमान में इससे अनेकों खाँसी की दवाएँ साबुन, हेयर शैम्पू आदि बनाए जाने लगे हैं। जिससे तुलसी के उत्पाद की मांग काफी बढ़ गई है। अतः मांग की पूर्ति बिना खेती के संभव नहीं हैं।
इसकी खेती, कम उपजाऊ जमीन में भी की जा सकती है । इसके लिये बलूई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती हैं। इसके लिए उष्ण कटिबंध एवं कटिबंधीय दोनों तरह जलवायु उपयुक्त होती है।
इसकी खेती रोपाई विधि से करना चाहिये । बादल या हल्की वर्षा वाले दिन इसकी रोपाई के लिए बहुत उपयुक्त होते हैं। रोपाई के बाद खेत को सिंचाई तुरंत कर देनी चाहिए।
रोपाई के 10-12 सप्ताह के बाद यह कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके फसल की औसत पैदावार 20 - 25 टन प्रति हेक्टेयर तथा तेल का पैदावार 80-100 किग्रा. हेक्टेयर तक होता है।

तुलसी के महत्वपूर्ण औषधीय उपयोग-

1. वजन कम करने में- तुलसी की पत्तियों को दही या छाछ के साथ सेवन करने से वजन कम होता होता है ।  शरीर की चर्बी कम होती है । शरीर सुड़ौल बनता है ।

2. रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में - प्रतिदिन तुलसी के 4-5 ताजे पत्ते के सेवन से रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होता है ।

3. तनाव दूर करने में -तुलसी के नियमित उपयोग से इसमें एंटीआक्तिडेंट गुण पाये जाने के कारण यह कार्टिसोल हार्मोन को संतुलित करती है, जिससे तनाव दूर होता है ।

4. ज्वर में- तुलसी की पत्ती और काली मिर्च का काढ़ा पीने से ज्वर का शमन होता है ।

5. मुँहासे में- तुलसी एवं नीबू के रस बराबर मात्रा में लेकर मुँहासे में लगाने पर लाभ होता है ।

6. खाज-खुजली में- तुलसी की पत्ति एवं नीम की पत्ति बराबर मात्रा में लेप बनाकर लगाने पर लाभ होता है ।  साथ ही बराबर मात्रा में तुलसी पत्ति एवं नीम पत्ति चबाने पर षीघ्रता से लाभ होता है ।

7. पौरूष शक्ति बढ़ाने में- तुलसी के बीज अथवा जड़ के 3 मि.ग्रा. चूर्ण को पुराने गुड़ के साथ प्रतिदिन गाय के दूध के साथ लेने पर पौरूष शक्ति में वृद्धि होता है ।

8. स्वप्न दोष में-तुलसी बीज का चूर्ण पानी के साथ खाने पर स्वप्न दोष ठीक होता है ।

9. मूत्र रोग में- 250 मिली पानी, 250 मिली दूध में 20 मिली तुलसी पत्ति का रस मिलाकर पीने से मूत्र दाह में लाभ होता है ।

10. अनियमित पीरियड्स की समस्या में-तुलसी के बीज अथवा पत्ति के नियमित सेवन से महिलाओं को पीरियड्स में अनियमितता से छूटकारा मिलता है ।

11. रक्त प्रदर में-तुलसी बीज के चूर्ण को अषोक पत्ति के रस के साथ सेवन करने से रक्त प्रदर में लाभ होता है ।

12. अपच में- तुलसी मंजरी और काला नमक मिलाकर खाने पर अजीर्ण रोग में लाभ होता है ।

13. केश रोग में-तुलसी पत्ति, भृंगराज पत्र एवं आवला को समान रूप  में लेकर लेपबना कर बालों में लगाने पर बालों का झड़ना बंद हो जाता है । बाल काले हो जाते हैं ।

14. दस्त होने पर- तुलसी के पत्तों को जीरे के साथ मिलाकर पीस कर दिन में 3-4 बार सेवन करने दस्त में लाभ होता है ।

15. चोट लग जाने पर- तुलसी के पत्ते को फिटकरी के साथ मिलाकर लगाने से घाव जल्दी ठीक हो जाता है ।

16. शुगर नियंत्रण में- तुलसी पत्ती के नियमित सेवन से शुगर नियंत्रित होता है । तुलसी में फ्लेवोनोइड्स, ट्राइटरपेन व सैपोनिन जैसे कई फाइटोकेमिकल्स होते हैं, जो हाइपोग्लाइसेमिक के तौर पर काम करते हैं। इससे शुगर को नियंत्रित करने में मदद मिलती है ।

17. हृदय रोग में- तुलसी की पत्तियां खराब कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करके अच्छे कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाती हैं इसमें विटामिन-सी व एंटीऑक्सीडेंट गुण होते हैं, जो ह्रदय को फ्री रेडिकल्स से बचाकर रखते हैं।

18. किडनी रोग में- तुलसी यूरिक एसिड को कम करती है, और इसमें मूत्रवर्धक गुण पाये जातें हैं जिससे किडनी की कार्यक्षमता में भी वृद्धि होती है ।

19. सिर दर्द में- सिर दर्द होने पर तुलसी पत्ति के चाय पीने से लाभ होता है ।

20. डैंड्रफ में- तुलसी तेल की कुछ बूँदे अपने हेयर आयल मिला कर लगाने से डैंड्रफ से मुक्ति मिलती है ।


तुलसी प्रयोग की सीमाएं-

आयुर्वेद कहता है कि हर चीज का सेवन सेहत व परिस्थितियों के अनुसार और सीमित मात्रा में ही करना चाहिए, तभी उसका फायदा होता है। इस लिहाज से तुलसी की भी कुछ सीमाएं हैं । गर्भवती महिला, स्तनपान कराने वाली महिला, निम्न रक्तचाप वाले व्यक्तियों को तुलसी के सेवन से परहेज करना चाहिये ।

इसप्रकार तुलसी का महत्व स्पष्ट हो जाता है । इसकी महत्ता न सिर्फ धार्मिक आधार पर है, बल्कि वैज्ञानिक मापदंडों पर भी इसके चिकित्सीय लाभों को प्रमाणित किया जा रहा है। इसलिये अपने घर-आँगन में में कम से कम एक तुलसी का पौधा जरूर लगा कर रखें और उसका नियमित सेवन करें ।

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मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

भोजन विज्ञान

आरोग्य और आहार विज्ञान


नीरोग उन्हीं मनुष्यों को कहा जा सकता जिनके शुद्ध शरीर में शुद्ध मन का वास होता है । मनुष्य केवल शरीर ही तो नहीं है ।  शरीर तो उसके रहने की जगह है । शरीर, मन और इंद्रियों का ऐसा घना संबंध है कि इनमें किसी एक के बिगड़ने पर बाकी के बिगड़ने  में जरा भी देर नहीं लगती ।

जीव मात्र देहधारी है और सबके शरीर की आकृति प्रकृति लगभग एक सी होती है । सुनने, देखने, सूँघने और भोग भोगने के लिये सभी साधन संपन्न है ।  अंतर है तो केवल मन का मनुष्य ही एक मात्रा ऐसा प्राणी है जिसमें चिंतन होता है । इसलिये आरोग्यता का संबंध तन एवं मन दोनों से है ।

रोगों की उपचार की अपेक्षा रोगों से बचना अधिक श्रेयस्कर है । आयुर्वेदीय साहित्य में शरीर एवं व्याधि दोनों को आहारसम्भव माना गया है-‘‘अहारसम्भवं वस्तु रोगाश्चाहारसम्भवः’’ अर्थात शरीर के उचित पोषण एवं रोगानिवारणार्थ सम्यक आहार-विहार (डाइट प्लान) का होना आवश्यक है ।  भोजन निवारणात्मक और उपचारात्मक स्वास्थ्य देखरेख प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण और अविभाज्य भाग है। यदि हम प्रयत्न करें और स्वास्थ्य संबंधी आहार विज्ञान की अवधारणा को समझे ंतो अनेक रोगों से बचकर प्रायः जीवनपर्यन्त स्वस्थ रह सकते हैं । 

आहार विज्ञान क्या है ?

आहार विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत भोजन मानव स्वास्थय को कैसे प्रभावित किया जाता है, का अध्ययन किया जाता है । आहार विज्ञान के अंतर्गत सार्वजनिक स्वास्थ्य और  उचित आहार के साथ-साथ पथ्य-अपथ्य पर भी ध्यान दिया जाता है ।

आहार विज्ञान में मात्र आहार के भौतिक घटकों का ही महत्व नहीं अपितु आहार की संयोजना, विविध प्रकार के आहार-द्रव्यों का सम्मिलिन, आहारपाक या संस्कार, आहार की मात्रा एवं आहार ग्रहण विधि तथा मानसिकता सभी का महत्व होता है ।


उचित आहार -

अच्छे स्वास्थ्य के लिए  वैज्ञानिक रूप से सोच-विचार करके आहार करना अतिआवश्यक है । शरीर को उम्र, लिंग, वजन एवं शारीरिक कार्यक्षमता के अनुसार सभी पौष्टिक तत्वों की जरूरत होती है।

संतुलित आहार वह होता है, जिसमें प्रचुर और उचित मात्रा में विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ शामिल होते है, जिससे संपूर्ण स्वास्थ्य, जीवन शक्ति और तंदुरूस्ती  बनाए रखने के लिए सभी आवश्यक पोषक तत्व पर्याप्त रूप से मिलते हैं तथा संपूरक पोषक तत्व कम अवधि की कमजोरी दूर करने की एक न्यून व्यवस्था है। आहार के भौतिक घटकों के साथ-साथ उसकी शुद्धता भी संतुलित आहार का आवष्यक गुणधर्म होना चाहिये जो दे हके साथ-साथ मन को भी स्वस्थ रख सके ।
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं कि-


अहं वैश्वनरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम ।।


इसका अर्थ यह है कि भगवान कृष्ण कहते हैं कि मैं स्वयं जठराग्नि रूप  में प्रत्येक जीव में बैठकर प्राण और अपान वायु की सहकारिता से चव्र्य, चोश्य लेह्य तथा पेय इन चार प्रकार के भोज्य अन्नों का भक्षण करता हूँ । इस आधार पर भोजन चार प्रकार के होते हैं । पहला चव्र्य ऐसा भोज्य पदार्थ जिसे चबा कर खाया जाता है । जैसे रोटी चावल आदि । दूसरा चोश्य- वह भोज्य पदार्थ जिसे चूशा जाता है जैसे आम, गन्ना आदि । तीसरा लेह्य - वह पदार्थ जिसे जीभ से चाटा जाता है, जैसे चटनी, षहद आदि । पेय-वह पदार्थ जिसे निगला जाता है जैसे रस, खिचड़ी आदि ।
इसका अभिप्राय यह हुआ कि भोजन केवल उदरपूर्ति का साधन नहीं अपितु ईश्वर की पूजा भी है । पूजा को पवित्र होना चाहिये । इसलिये भोजन को भी पवित्र होना चाहिये । भोजन की पवित्रता के लिये निम्न चार बातों का ध्यान रखना चाहिये-
1. स्थान की शुद्धता- जिस स्थान पर भोजन किया जाना है वह स्थान स्वच्छ हो ।
2. भोजन करने वाले की शुद्धता-जो व्यक्ति भोजन करने वाला है वह तन एवं मन से स्वच्छ हो ।
3. भोज्य पदार्थ की शुद्धता- जिस भोजन को ग्रहण किया जाना है वह भोजन षुद्ध एवं स्वच्छ हो ।
4. पात्र की शुद्धता- जिस पात्र पर भोजन किया जाना है, वह पात्र स्वच्छ हो ।

यह  शुद्धता डाक्टरी विज्ञान सम्मत भी है । इस संबंध में मिस हेलन ने यंत्र के द्वारा स्पष्ट प्रमाणित कर दिखाया है कि हाथ के साथ हाथ का स्पर्श होने पर भी रोग का बीज एक दूसरे में चले जाते हैं । केवल रोग ही नहीं स्पर्ष से शारीरिक और मानसिक वृत्तियों में भी हेर-फेर हो जाता है । 
प्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्लामेरियन कहते हैं-‘वह कौन शक्ति है जो हाथों की नसों के द्वारा अँगुलियों के अन्त तक चली जाती है ? इसी को वैज्ञानिकगण ‘आकाशी शक्ति’ कहते हैं । वह मस्तिष्क से प्रारंभ होती है, मनोवृत्तियों के साथ जा मिलती है और स्नायुपथ से प्रवाहित होकर हाथ, आँख और पाँव की एड़ीतक पहुँचती है ।  इन तीनों के ही द्वारा दूसरों पर यह अपना प्रभाव दिखाती है, किन्तु इसका सबसे अधिक प्रभाव हाथ की अँगुलियों द्वारा ही प्रकट होता है ।

पथ्य एवं अपथ्य-

किसी प्रकार का आहर ग्रहण करना चाहिये और किस प्रकार का आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये इसका निर्धारण ही पथ्य-अपथ्य कहलाता है । आचार्य चरक के अनुसार-


‘पथ्यं पथोऽनपेतं यद्यच्चोक्तं मनसः प्रियम ।यच्चाप्रियमपथ्यं च नियतं तन्न लक्षयेत् ।।



अर्थात ‘पथ के लिये जो अनपेत हो वही पथ्य है । इसके अतिरिक्त जो मन को प्रिय लगे वह पथ्य है और इसके विपरित को अपथ्य कहते हैं ।’ अनपेत का अर्थ उपकार करने वाला होता है इसलिये इसका अभिप्राय यह हुआ को जो स्वास्थ्य के लिये उपकारी हो पथ्य है एवं जो स्वास्थ्य के हानिकारक हो वह अपथ्य है ।

आहार के संदर्भ में यह विशेष विचारणीय तथ्य है कि सर्वविधसम्पन्न आहार का पूर्ण लाभ तबतक नहीं लिया जा सकता, जबतक मानस क्रिया का उचित व्यवहार न हो, क्योंकि कुछ ऐसे मानसिक भाव यथा दुख, भय, क्रोध, चिन्ता आदि हैं जिनका आहार पर प्रभाव पड़ता है ।


पथ्य या अपथ्य का नियमन करने वाले घटक -

किसी भी वस्तु को हम निश्चित रूप से पथ्य अथवा अपथ्य नहीं कह सकते । मात्रा एवं समय के अनुसार कुछ पथ्य अपथ्य हो सकते हैं तो कुछ अपथ्य पथ्य हो सकते हैं । पथ्य एवं अपथ्य को निर्धारित करने वाले प्रमुख घटक इस प्रकार हैं-


1. मात्रा- 

भोजन न तो अधिक मात्रा में होना चाहिये न ही कम मात्रा में । पहले खाया हुआ पहले पच जाये तभी दुबारा भोजन करना चाहिये । भोजन की मात्रा अल्प अथवा अधिक होने पर वह अपथ्य है। केवल संतुलित मात्रा में भोजन ग्रहण करना ही पथ्य है ।

2. काल- 

भोजन में समय का बहुत अधिक महत्व होता है । सुबह, दोपहर एवं रात्रि में भोजन की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है । सुबह और रात्रि को दोपहर की तुलना में कम भोजन करना चाहिये । इसीप्रकार भोजन का संबंध ऋतुओं से भी होता है । ग्रीष्म ऋतु अथवा वर्षा ऋतु में हल्का भोजन और शीतऋतु में गरिष्ठ भोजन श्रेयस्कर होता है । समय एवं ऋतु के अनुरूप भोजन ही पथ्य है ।

3. क्रिया-

भोजन सुपाच्य हो इसके भोजन ग्रहण करने की विधि पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है । भोजन अच्छे से चबा-चबा कर करना, भोजन करते समय पानी न पीना, खड़े-खड़े भोजन ग्रहण करने के बजाय बैठकर भोजन करना श्रेयस्कर माना जाता है । उचित क्रिया से जो भोजन न किया जाये वह अपथ्य है ।

4. भूमि या स्थान-

देश के अनुसार ठंड़े या गर्म देशों में भोजन में परिवर्तन होना स्वभाविक है । इसलिये भोजन को प्रदेश के मौसम के अनुकूल होना चाहिये । भूमि अथवा प्रदेश के अनुरूप भोजन करना पथ्य है ।

5. देह-

प्रत्येक शरीर की पाचन शक्ति भिन्न-भिन्न होती है । अवस्था के अनुसार भोजन की आवश्यकता भी भिन्न-भिन्न होती है ।  इसी प्रकार महिलाओं एवं पुरूषों के लिये भी भिन्न-भिन्न भोजन की आवश्यकता होती है । अपने शरीर के अनुरूप ही भोजन करना ही पथ्य है ।

6. दोष-

भोजन ग्रहण करते समय की मनोदशा भी यह निर्धारित करता है की  ग्रहण किये जाने वाला भोजन पथ्य है अथवा नहीं । जब अच्छा महसूस नहीं हो रहा होता तो भोजन अरूचिकर लगने लगता है । बीमार होने की स्थिति में पथ्य की परिभाषा परिवर्तित हो जाती है । इस स्थिति में वही भोजन पथ्य है जो उस बीमारी को ठीक करने में उपयोगी हो ।

प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं निर्धारित करना चाहिये कि उसके लिये उपयुक्त आहार क्या है, क्योंकि आहार का पथ्य अथवा अपथ्य होना एक तो व्यक्ति की प्रकृति पर निर्भर होता है दूसरा देश, काल, मात्रा आदि पर निर्भर करता है ।  आहार यदि जीवनीय तत्वों से भरपूर तथा उचित मात्रा में किया जाये तो शरीर में व्याधिक्षमत्व बढ़ता है ।  आचार्य चरक ने आहार ग्रहण करने के दस नियमों का नियमन किया है-
1. ताजा भोजन ग्रहण करना चाहिये ।
2. स्निग्ध आहार ग्रहण करना चाहिये ।
3. नियत मात्रा में आहार लेना चाहिये ।
4. भोजन के पूर्ण रूप से पच जाने के पश्चात ही भोजन करना चाहिये ।
5. शक्तिवर्धक आहार लेना चाहिये ।
6. स्थान विशेष के अनुरूप आहार लेना चाहिये ।
7. द्रुतगति से भोजन नहीं करना चाहिये ।
8. अधिक विलम्ब तक भोजन नहीं करना चाहिये ।
9. शान्तिपूर्वक शांत चित्त से भोजन करना चाहिये ।

10. अपने आत्मा का सम्यक विचार कर तथा आहार द्रव्य में मन लगाकर और स्वयं की समीक्षा करते हुये भोजन करना चाहिये ।

इस प्रकार कह सकते हैं कि- विवेकपूर्ण-आहार से ही शांत, सुखी, स्वस्थ तथा आध्यात्मिक जीवन पूर्णरूप से व्यतित किया जा सकता है ।




सोमवार, 2 मार्च 2020

‘‘छत्तीसगढ़ी ल अपन पढ़ईया चाही’’


छत्तीसगढ़ी के व्याकरण के किताब जब हिन्दी ले पहिली के आये ह त ये हा ये बात ला प्रमाणित करे बर अपन आप मा पर्याप्त हे के छत्त्तीसगढ़ी अपन आप मा कतका सक्षम हे । कोनो भी भाखा ला एक भाशा के रूप मा तभे जाने जाही  जब ओ भाशा के बोलईया, लिखईया अउ पढईया मन के संख्या एक बरोबर होवय ।
छत्तीसगढी़ बोलईया मन के तइहा ले के आज तक के कोनो कमी नई होय हे । आज के छत्तीसगढ़ अउ तीर-तखार के राज्य मन के लकठा के रहईया मन छत्तीसगढ़ी बोलत आवंत हें ।  छत्तीसगढ़िया मन जीये-खाय बर पूरा भारत मा फइल गे हे जेखर ले छत्तीसगढ़ी बोलईया मन घला फइल गे हे । इहां तक के कोनो-कोनो देष मा घला छत्तीसगढ़ी बोलईया होंगे हें। छत्तीसगढ़ी बोलईया मन संख्या के हिसाब ले कोनो कम नई हे । कई राज्य अउ कई देष के भाशा बोलईया मन के संख्या ले जादा छत्तीसगढ़ी बोलइयामन के हे ।
छत्तीसगढ़ बने के बाद ले छत्तीसगढ़ी भाशा के आंदोलन तेज होय हे जेखर परिणाम छत्तीसगढ़ी के राजभाशा घोशित होना होइस । छत्तीसगढ़ी के राजभाशा घोशित होय के बाद ले छत्तीसगढ़ी भले आज तक राज-काज के भाशा होय बर संघर्श करत हे  फेर अब छत्तीसगढ़ी धीरे-धीरे व्यापार-व्यवहार के भाशा बनत जात हे । पहिली रायपुर जाके छत्तीसगढ़ी बोलन त दुकानदार मन देहाती  कहँय अब आघू ले छत्तीसगढ़ी बोलथें । बड़े-बड़े आफिस मा घला अब बिना संकोच के छत्तीसगढ़ी बोलत हें । नेता-मंत्री मन घला विधानसभा मा छत्तीसगढ़ी बोलंय के मत बोलयं जनसभा मा जरूर छत्तीसगढ़ी बोलत हें । जेन छत्तीसगढ़ी पहिली गाँव-देहात के भाखा रहिस आज षहर-पहर के घलो भाखा होत जात हे । ये प्रकार ले छत्तीसगढ़ी बोलईया मन के संख्या दिन दोगुनी रात चौगुनी होवत हे ।
छत्तीसगढ़ी कथा कहानी मन वाचिक परंपरा ले आघू रेंगत रहिन ये बात ये बताथे के छत्तीसगढ़ी ला लिखे के कमी रहिस होही । फेर छत्तीसगढ़ी व्याकरण के लिखित होना येहूँ बात ला सि़द्ध करथे के छत्तीसगढ़ी ल घला लिखे जा सकथे ।  छत्तीसगढ़ी के पहिली कहानी ला हिन्दी के पहिली कहानी मानना अउ छत्तीसगढ़ी व्याकरण ला हिन्दी के व्याकरण ले पहिली के  मानना छत्तीसगढ़ी के लिखित रूप ला घला सबल करत हे ।  हाँ ये बात ला स्वीकार करे जा सकत हे के छत्तीसगढ़ी मा लिखईया मन के पहिली कमी रहिस होही फेर लिखईया नई रहिस हे अइसे कभू नई होय हे । छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना के षांतिपूर्ण आंदोलन जब ले चलिस तब ले छत्तीसगढ़ी लिखईया मन घला बाढ़त गेइन ।  छत्तीसगढ़ राज्य बने के बाद तो येमा बनेच इजाफा आइस ।  छत्तीसगढ़ी राजभाशा बने के बाद ले छत्तीसगढ़ी मा लिखईया मन के संख्या मा एकदम से बढ़ोत्तरी होय हे ।  जेन मनखे ला बरोबर छत्तीसगढ़ी बोले ला नई आवय, जेखर घर मा छत्तीसगढ़ी नई चलय तेनोमन अब छत्तीसगढ़ी के साहित्यकार बाजे लगिन । राज्य के लगभग सबो समाचार पत्र  हा छत्तीसगढ़ी बर अलग से जगह दे लग गे हें मड़ई, चौपाल, पहट, अपन डेरा जइसे पृश्ठ मा छत्तीसगढ़ी सरलग छपत हवय । दृष्य मिडिया मा घला छत्तीसगढ़ी छपत हवय । सोषल मिडिया मा दिन-रात छत्तीसगढ़ी चलत हवय ।  नंगत ले छत्तीसगढ़ी मा लिखे किताब आवत हे । गुरतुर गोठ, ‘सुरता, साहित्य के धरोहर’ जइसे वेबसाइट घला छत्तीसगढ़ी ला लगातार छापत हवय । कोरी-खइखा छत्तीसगढ़ी ब्लॉग घला छत्तीसगढ़ी मा हवय । आज के स्थिति मा छत्तीसगढ़ी मा लिखइया मन के संख्या आन भाशा मा लिखइया मन के संख्या ले कोनो कम नई हे ।  नवा-नवा लइका मन घला अब दिन-ब-दिन छत्तीसगढ़ी लिखत हें, लिखइया जादा होय के कारण ही अब छत्तीसगढ़ी के मानकीकरण के मांग चलत हे । छत्तीसगढ़ बने के बीसे साल के अंदर छत्तीसगढ़ी मा लिखे किताब के खरही गंजागे हे ।
जब छत्तीसगढ़ बोलत हें, छत्तीसगढ़ी लिखत हें त छत्तीसगढ़ी पढ़त घला होहीं अइसे कोनो भी कहि सकत हें । फेर निखालिस छत्तीसगढ़ी बोलईयामन ला कहूँ छत्तीसगढ़ी पढ़े ला कहिके तो देख ओखर माथा चकरा जथे, अइसे नई हे के ओला पढ़े ला नई आवाय ओला पढ़े ला आथे फेर ओला छत्तीसगढ़ी बोलना अउ सुनना बने लगथे, ये पढ़ई बने नई लगय । रोज के पेपर पढ़इया मन घला पेपर के छत्तीसगढ़ी पत्ता के षीर्शक ला लेह-देह के पढ़ के आघू पलट लेथें ये प्रकार ले छत्तीसगढ़ी अपन एक बड़े वर्ग ले पाठक बर तरसत हे । येही कारण के अतकाजड़ छत्तीसगढ़ मा छत्तीसगढ़ी किताब बेचाये के एक ठन दुकान नई हे । लोगन ‘छत्तीसगढ़ ला तो पढ़ना चाहथें फेर छत्तीसगढ़ी ला पढ़ना नई चाहंय ।’  छत्तीसगढ़ी पढ़त कोन हे जेन छत्तीसगढ़ी मा लिखत हे, जेन अपन आप ला छत्तीसगढ़ी साहित्यकार मानत हे या जेन साहित्यकार होना चाहत हे । येहूँ अतका आंगा-भारू हे के अपने लिखथें, अपने छपवाथें अउ अपने पढ़थें । दूसर के छपे ला या तो पढ़बे नई करंय या सरसरी निगाह ले देख के पढ़ ढरेन कहिके डकार भर लेथें ।  साहित्यकार के सोला आना मा के चउदा आना निखालिस कवि हें, किताब छपवाथें अउ एक-दूसर ला फोकट मा बांट देथे, फेर ओहूँ फोकट के किताब ला पढ़े बर कोखरो मेरा चिटुक भर बेरा नई हे ।  ये किताब मन घर के पठेरा मा धुर्रा-खात दियार ला बलावत रहि जाथें । सोषल मिडिया मा जतका वाह-वाह के ढेर लगथे ओखर आधा मनखे मन घला ओ छत्तीसगढ़ी रचना के आधा भाग ला घला पढ लेइन त बहुत हे ।
आम छत्तीसगढ़ी भाखा के मनखे मन ला केवल ओही छत्तीसगढ़ी गीत-कविता के सुरता हे जेन ला ओमन कान ले सुने हें ।  येही कारण हे ओमन केवल ओही भर मन ला कवि मान बइठे हे जेखर मेरा बोले के सुग्घर कला हे जेखर ला ओमन मंच मा सुनत हे । ओमन ये बात ले अनजान कस लगथें के जेन मंच मा नई आवय तेनो मन कवि हे, कतको मंची कवि ले श्रेश्ठ कवि हे जेखर मूल्यांकन तभे होही जब ओला पढ़े जाही ।
छत्तीसगढ़ी भाशा ला समृद्ध बनाये बर येखर बोलईया, सुनईया, लिखईया अउ पढ़ईया सबो के बराबर विकास होवय ।  कोनो भी साहित्य के मूल्यांकन तभे न होही जब होखर कोनो पाठक होही । पाठक सीमित होही त मूल्यांकन घला आंषिक होही । छत्तीसगढ़ी भाशा राज-काज, व्यवहार के भाशा तभे हो सकत हे जब ओखर पाठक होही ।
छत्तीसगढ़ी मान-सम्मान बर, येखर विकास बर, छत्तीसगढ़ी पढ़ईया मन के ओतके जरूरत हे जतका कोनो धंधा-पानी के बाढ़ बर गा्रहक । जेन छत्तीसगढ़ी प्रेमी मन छत्तीसगढ़ी आंदोलन के झंड़ा बरदर हे, जेखर अंतस मा अपन भाशा बर मया हे, जेन छत्तीसगढ़ी वाचिक परंपरा ला लिखित रूप मा लाये के अदम साहस करें हें ओही मन ला अब येखर पढईया बनाये के घला उदिम करना चाही ।  छत्तीसगढ़ी लिखईया भर नही पहिली पाठक घला होना चाही । येखर सुरवात अपने आप ले करना चाही जइसे खुद ला एक छत्तीसगढ़ी लिखईया बनायें हें ओइसने पहिली अपन ला एक छत्तीसगढ़ी पढ़ईया घला बनावँय । अपन तीर-तखार के संगी मन ला छत्तीसगढ़ी पढ़े बर प्रोत्साहित करँय । जतका जोर-षोर से येखर स्कूली पाठ्यक्रम मा षामील करे के मांग करत हन ओतके येला पढ़े बर घला लोगन मा जन-जागृति लाये के जरूरत हे । जहां जनसमर्थन ऊहां सरकार ला पाछू आवब मा चिटको देरी नई लगय । आज छत्तीसगढ़ी के गोहर ला सुने के जरूरत हे के ‘मोला बोलईया-सुनईया, लिखईया के संगे-संग पढ़ईया घला चाही ।’



surtacg.com से

रविवार, 1 मार्च 2020

डायबिटिज के लिये डाइट प्लान

डायबिटिज के लिये डाइट प्लान

डायबिटीज का रोग वर्तमान में बहुत तीव्रगति से बढ़ रहा है । षारीरिक श्रम का अभाव तथा खान-पान में असंतुलन इस रोग का सामान्य कारण है मधुमेहरोगियों को एक तो गोलियों पर या इन्षुलिन पर निर्भर रहना पड़ता है ।  गोलियों का असर सिर्फ कुछ दिनों तक दिखायी देता है ।  जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, ऐलोपैथीकी गोलियोँ काम नहीं करतीं परिणामतः रक्त षर्करा बढ़ने लगता है, आँखें कमजोर होना, हृदय-विकार होना, किडनी का कमजोर होना प्रारंभ हो जाता है ।
आयुर्वेदीय साहित्य में षरीर एवं व्याधि दोनों को आहारसम्भव माना गया है-‘‘अहारसम्भवं वस्तु रोगाष्चाहारसम्भवः’’ ।  षरीर के उचित पोशण एवं रोगानिवारणार्थ सम्यक आहार-विहार (डाइट प्लान) का होना आवष्यक है । विषेश कर मधुमेह से पीड़ित व्यक्तियों के लिये इसका विषेश महत्व है, डाइट प्लान की सहायता से मधुमेह को नियंत्रित किया जा सकता है ।
डायबिटिज डाइट प्लान क्या है ?
डायबिटिज के लिये डाइट प्लान एक स्वस्थ-भोजन योजना है, जो प्राकृतिक रूप से पोषक तत्वों से भरपूर होता है , जिसमें इस बात का ध्यान रखा जाता है कि भोजन का चयन इस प्रकार हो कि उसमें वसा और कैलोरी की मात्रा कम हो। डायबिटिज डाइट प्लान में ऐसे आहार स्वीकार्य होते हैं जो षर्करा की मात्रा को नियंत्रित करता हो । 
डायबिटिज डाइट प्लान की आवश्यकता क्यों है?
जब हम अतिरिक्त कैलोरी और वसा खाते हैं, तो हमारे शरीर में रक्त शर्करा में अवांछनीय वृद्धि हो जाता है। यदि रक्त शर्करा को नियंत्रित नहीं रखा जाता है, तो यह गंभीर समस्याओं को जन्म दे सकती है, जैसे कि उच्च रक्त शर्करा का स्तर (हाइपरग्लाइसेमिया) जो लगातार रहने पर तंत्रिका, गुर्दे और हृदय की क्षति जैसे दीर्घकालिक जटिलताओं का कारण बन सकता है।
मधुमेह वाले अधिकांश लोगों के लिए, वजन घटाने से रक्त शर्करा को नियंत्रित करना आसान हो जाता है और अन्य स्वास्थ्य लाभ मिलते है। यदि हमको अपना वजन कम करने की आवश्यकता है, तो डाइट प्लान की आवष्यकता होती है । जिस प्रकार किसी भी कार्य को प्रिप्लान करने पर सफलता की संभावना अधिक होती है, उसी प्रकार डाइट प्लान भी रोग नियंत्रण में सफल होता है ।
डायबिटिज डाइट प्लान कैसे करें ?
इस संबंध में मैं कल्याण के आरोग्य विषेशांक में विद्वानों, डाक्टरों द्वारा दिये सुझावों का सरांष देना चाहूँगा जिसके अनुसार-डायबिटिज के रोगी को प्रातः भ्रमणोपरांत घर में जमा हुआ दही स्वेच्छानुसार थोड़ा सा जल, जीरा तथा नमक मिलाकर पीये । दही के अलावा चाय-दूध कुछ न ले ।  इसके साथे मेथी दाने का पानी, जाम्बुलिन, मूँग-मोठ आदि का प्रयोग रकें, इसके 3-4 घंटे बाद ही भोजन करें ।
भोजन में जौ-चने के आटे की रोटी, हरी षाक-सब्जी, सलाद और छाछ-मट्ठा  का सेवन करें ।  भोजन करते हुए छाछ को घूँट-घूँट  करके पीना चाहिये ।  भोजन के प्ष्चात फल लेना चाहिये । 
भोजन फुरसत के अनुसार नहीं निष्चित समय में ही लेना चाहिये । जितना महत्व भोजन चयन का उसके समतुल्य सही समय पर भोजन करना भी है ।  सही समय में सही भोजन रक्त षर्करा की मात्रा को सामान्य अवस्था में बनाये रखने में सहायक होता है ।
आहार में वसा, प्रोटीन कार्बोहाइर्डेट पदार्थ जैसे दूध, घी, तेल, सूखे मेवे, फल, अनाज, दाल आदि का प्रयोग नियंत्रित रूप से संतुलित मात्रा ग्रहण करें, अर्थात अधिक मात्रा में सेवन न करें । रेषोदार खाद्य पदार्थ जैसे हरी षाक, सलाद, आटे का चोकर, मौसमी फल, अंकुरित अन्न, समूची दाल का सेवन अधिक मात्रा में करना चाहिये ।
डायबिटिज के रोगियों को उचित डाइट के साथ-साथ दिनचर्या में सुधार करना चाहिये नित्य वायुसेवन (मार्निंग वाक), व्यायाम (वर्क आउट) भी करना चाहिये ।
डायबिटिज के लक्षण पाये जाने पर रोगियों चिंतित होन के बजाय अपने आहार-विहार एवं दिनचर्या  पर ध्यान देना चाहिये इसी से इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है ।
-रमेशकुमार चौहान

शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

परिवार का अस्तित्व

       परिवार का अस्तित्व


हम बाल्यकाल से पढ़ते आ रहे हैं की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं और समाज का न्यूनतम इकाई परिवार है । जब हम यह कहते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं तो इसका अर्थ क्या होता है ?  किसी मनुष्य का जीवन समाज में  उत्पन्न होता है और समाज में ही विलीन हो जाता है । सामाज का नींव परिवार है ।

परिवार क्या है  ?

कहने के लिये हम कह सकते हैं-"वह सम्मिलित वासवाले रक्त संबंधियों का समूह, जिसमें विवाह और दत्तक प्रथा स्वीकृत व्यक्ति  सम्मिलित होता है परिवार कहलाता है ।" इस परिभाषा के अनुसार परिवार में रक्त संबंधों के सारे संबंधी साथ रहते हैं जिसे  आजकल संयुक्त परिवार कह दिया गया । और व्यवहारिक रूप से पति पत्नी और बच्चों के समूह को ही परिवार में माना जा रहा है ।

 परिवार का निर्माण 

  परिवार का निर्माण  तभी संभव है  जब अलग अलग-अलग रक्त से उत्पन्न  महिला-पुरुष  एक साथ रहें । भारत में पितृवंशीय परिवार अधिक प्रचलित है । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि परिवार में नारी का स्थान कमतर है वस्तुतः परिवार का अस्तित्व ही नारी पर निर्भर है । नारी अपना जन्म स्थान छोड़कर पुरुष के परिवार का निर्माण करती है । व्यक्ति की सामाजिक मर्यादा परिवार से  निर्धारित होती है। नर-नारी के यौन संबंध परिवार के दायरे में निबद्ध होते हैं। यदि नारी पुरुष के साथ रहने से इंकार कर दे तो परिवार का निर्माण संभव ही नहीं है,  इसी बात को ध्यान में रखकर लड़की की माता-पिता अपनी बेटी को बाल्यावस्था से इसके लिये मानसिक रूप तैयार करती है । परिवार में पुरुष का दायित्व परिवार का भरण-पोषण करना और परिवार को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने का दायित्व दिया  गया है । पुरूष इस दायित्व का निर्वहन तभी न करेंगे जब परिवार का निर्माण होगा । परिवार का निर्माण नारी पर ही निर्भर है ।

विवाह का महत्व

        परिवार विवाह से उत्पन्न होता है और इसी संबंध पर टिका रहता है । भारतीय समाज में विवाह को केवल महिला पुरुष के मेल से नहीं देखा जाता । अपितु  दो परिवारों, दो कुटुंबों के मेल से देखा जाता है । परिवार का अस्तित्व तभी तक बना रहता है जब तक नारी  यहां नर के साथ रहना स्वीकार करती है जिस दिन वह नारी पृथक होकर अलग रहना चाहती है उसी दिन परिवार टूट जाता है यद्यपि परिवार नर नारी के संयुक्त उद्यम से बना रहता है तथापि पुरुष की तुलना में परिवार को बनाने और बिगाड़ने में नारी का महत्व अधिक है । यही कारण है कि विवाह के समय बेटी को विदाई देते हुए बेटी के मां बाप द्वारा उसे यह शिक्षा दी जाती है के ससुराल के सारे संबंधियों को अपना मानते हुए परिवार का देखभाल करना ।

 बुजुर्ग लोग यहां तक कहा करते थे कि बेटी मायका जन्म स्थल होता है और ससुराल जीवन स्थल ससुराल में हर सुख दुख सहना और अपनी आर्थी ससुराल से ही निकलना । किसी भी स्थिति में मायका में जीवन निर्वहन की नहीं सोचना । इसी शिक्षा को नारीत्व की शिक्षा कही गयी ।

परिवारवाद पर ग्रहण

        नारीत्व की शिक्षा ही परिवार के लिये ग्रहण बनता चला गया । ससुराल वाले कुछ लोग इसका दुरूपयोग कर नारियों पर अत्याचार करने लगे । यह भी एक बिड़बना है कि परिवार में एक नारी के सम्मान को पुरूष से अधिक एक नारी ही चोट पहुँचाती है । सास-बहूँ के संबंध को कुछ लोग बिगाड़ कर रखे हैं । अत्याचार का परिणाम यह हुआ कि अब परिवार पर ही प्रश्नवाचक चिन्ह लगने लग गया है । नारी इस नारीत्व की शिक्षा के विरूद्ध होने लगे ।  परिणाम यह हुआ कि आजकल कुछ उच्च शिक्षित महिलाएं आत्मनिर्भर होने के नाम पर परिवार का दायित्व उठाने से इंकार करने लगी हैं । 

परिवार का अपघटन

       परिवार का अर्थ पति-पत्नि और बच्चे ही कदापि नहीं हो सकता । परिवार में जितना महत्व पति-पत्नि का है उससे अधिक महत्व सास-ससुर और बेटा-बहू का है । आजकल के लोग संयुक्त परिवार से भिन्न अपना परिवार बसाना चाहते हैं । यह चाहत ही परिवार को अपघटित कर रहा है ।

पति-पत्नि के इस परिवार को देखा जाये तो बहुतायत यह दिखाई दे रहा है कि महिला पक्ष के संबंधीयों से इनका संबंध तो है किन्तु पुरूष के संबंधियों से इनका संबंध लगातार बिगड़ते जा रहे हैं ।

कोई बेटी अपने माँ-बाप की सेवा करे इसमें किसी को कोई आपत्ती नहीं, आपत्ति तो इस बात से है कि वही बेटी अपने सास-ससुर की सेवा करने से कतराती हैं ।

 हर बहन अपने भाई से यह आपेक्षा तो रखती हैं कि उसका भाई उसके माँ-बाप का ठीक से देख-रेख करे किन्तु वह यह नहीं चाहती कि उसका पति अपने माँ-बाप का अधिक ध्यान रखे ।

यही सोच आज परिवार के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा कर रहा है ।   शतप्रतिशत महिलायें ऐसी ही हैं  यह कहना नारीवर्ग का अपमान होगा, ऐसा है भी नहीं किन्तु यह कटु सत्य इस प्रकार की सोच रखनेवाली महिलाओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ रहीं हैं ।

कुछ पुरूष नशाखोरी, कामचोरी के जाल में फँस कर अपने परिवारिक दायित्व का निर्वहन करने से कतरा रहे हैं, यह भी परिवार के विघटन का एक बड़ा कारण है ।

परिवार का संरक्षण

संयुक्त परिवार से भिन्न अपना परिवार बसाने की चाहत पर यदि  अंकुश नहीं लगाया गया तो वह दिन दूर नहीं जब भारतीय परिवार की अभिधारणा केवल इतिहास की बात होगी ।  हमें इस बात पर गहन चिंतन करने की आवश्यकता है कि-महिलाओं पर अत्याचार क्यों ? महिलाओं का अपमान क्यों ? जब परिवार की नींव ही महिलाएं हैं तो  महिलाओं का सम्मान क्यों नही ? इसके साथ-साथ इस बात पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि महिला अपने ससुराल वालों का सम्मान क्यों नहीं कर सकती ? क्या एक आत्मनिर्भर महिला परिवार का दायित्व नहीं उठा सकती ?  चाहे वह महिला सास हो, बहू हो, ननद हो, भाभी हो या देरानी-जेठानी । पत्नि और बेटी के रूप एफ सफल महिला अन्य नातों में असफल क्यों हो रही हैं ? इन सारे प्रश्नों का सकारात्मक उत्तर ही परिवार को संरक्षित रख सकता है ।

सोमवार, 1 जुलाई 2019

शुगर से बचाव

डायबिटिज क्या है ?

        डायबिटीज या शुगर या मधुमेह एक ऐसी बीमारी है जो तब होती है जब हमारा रक्त शर्करा बहुत अधिक होती है ।  रक्त ग्लूकोज हमारे ऊर्जा का मुख्य स्रोत है और हमारे द्वारा खाए गए भोजन से आता है। इंसुलिन, एक हार्मोन है जो अग्न्याशय द्वारा बनाया जाता है,  भोजन से ग्लूकोज को हमारी कोशिकाओं में ऊर्जा के लिए उपयोग करने में मदद करता है। कभी-कभी  हमारा शरीर पर्याप्त इंसुलिन नहीं बनाता है या अच्छी तरह से इंसुलिन का उपयोग नहीं करता ।  तब ग्लूकोज हमारे  रक्त में रहता है और हमारी कोशिकाओं तक नहीं पहुंचता है।  समय के साथ, हमारे रक्त में बहुत अधिक ग्लूकोज इकत्रित होने लगता है, इसे ही मधुमेह कहा जाता है ।  

         डायबिटीज या शुगर एक गंभीर समस्या है। पिछले कुछ दशकों में डायबिटीज के मरीजों की संख्या काफी बढ़ गई है। डायबिटीज के बारे में लोगों को जागरूक करने और इससे बचाव के लिए हर साल 14 नवंबर को विश्व डायबिटीज दिवस मनाया जाता है। डायबिटीज की स्थिति में मरीज के खून में शुगर घुलने लगता है, जिसके कारण कई तरह की परेशानियां शुरू हो जाती है। ब्लड में शुगर की मात्रा बढ़ जाने पर हार्ट अटैक, किडनी फेल्योर, फेफड़ों और लिवर की कई बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। डायबिटीज शरीर के साथ-साथ मस्तिष्क को भी प्रभावित करता है इसलिए इससे बचाव बहुत जरूरी है।  हालाँकि मधुमेह का कोई इलाज नहीं है, फिर भी  मधुमेह के प्रबंधन और स्वस्थ रहने के लिए कदम उठा सकते हैं।

डायबिटीज के  प्रकार-

मधुमेह सामान्यतः तीन प्रकार की होती है-

टाइप 1 डायबिटीज़-

यह एक असंक्राम‍क या स्वप्रतिरक्षित रोग है। स्वप्रतिरक्षित रोग का प्रभाव जब शरीर के लिए लड़ने वाले संक्रमण, प्रतिरक्षा प्रणाली के खिलाफ होता है तो यह स्‍थिति टाइप1 डायबिटीज़ की होती है। टाइप 1 डायबिटीज़ में प्रतिरक्षा प्रणाली पाचनग्रंथियां में इन्सुलिन पैदा कर बीटा कोशिकाओं पर हमला कर उन्‍हें नष्ट कर देती है। इस स्‍थिति में पाचन ग्रंथिया कम मात्रा में या ना के बराबर इन्सुलिन पैदा करती हैं। टाइप 1 डायबिटीज़ के मरीज़ को जीवन के निर्वाह के लिए प्रतिदिन इन्सुलिन की आवश्यकता होती है।

टाइप 2 डायबिटीज़-

टाइप 2 मधुमेह में शरीर इंसुलिन को अच्छी तरह से नहीं बनाता या उपयोग नहीं करता है। किसी भी उम्र में टाइप 2 मधुमेह विकसित हो सकता हैं, यहां तक कि बचपना में भी। हालांकि, इस प्रकार का मधुमेह ज्यादातर मध्यम आयु वर्ग और वृद्ध लोगों में होता है। टाइप 2 मधुमेह का सबसे आम प्रकार है



 45 वर्ष या अधिक आयु के लोगों में टाइप 2 मधुमेह विकसित होने की अधिक संभावना होती है ।यदि माता-पिता को मधुमेह होने पर टाइप 2 होनी की संभावाना रहती है । शरीर का अधिक वजन होने पर,  शारीरिक निष्क्रियता,  और कुछ स्वास्थ्य समस्याएं जैसे उच्च रक्तचाप होने पर टाइप 2 मधुमेह के विकास की संभावना को प्रभावित करते हैं। यदि महिला को गर्भवती होने पर  गर्भकालीन मधुमेह हो, तो टाइप 2 डायबिटीज होने की संभावना अधिक होती है। 

गर्भावधि मधुमेह-

गर्भवती होने पर गर्भकालीन मधुमेह कुछ महिलाओं में विकसित होता है। ज्यादातर बार, इस प्रकार का मधुमेह बच्चे के जन्म के बाद दूर हो जाता है। हालाँकि, यदि आपको गर्भकालीन मधुमेह होने पर जीवन में टाइप 2 मधुमेह विकसित होने की अधिक संभावना है। कभी-कभी गर्भावस्था के दौरान निदान किया गया मधुमेह वास्तव में टाइप 2 मधुमेह है।

अन्य प्रकार के मधुमेह-

कम सामान्य प्रकारों में मोनोजेनिक मधुमेह शामिल है, जो मधुमेह का एक विरासत में मिला हुआ रूप है, और सिस्टिक फाइब्रोसिस से संबंधित मधुमेह है।

मधुमेह अन्य बीमारियों का जनक- 
मधुमेह नियंत्रित नहीं होने पर अन्यों रोगों को पैदा कर सकता है, जिनमें प्रमुख रूप से दिल की बीमारी, आघात, गुर्दे की बीमारी, आँखों की समस्या, दंत रोग, नस की क्षति, पैरों की समस्या आदि ।

 हृदय रोग और स्ट्रोक
मधुमेह रक्त वाहिकाओं को नुकसान पहुंचा सकता है और हृदय रोग और स्ट्रोक का कारण बन सकता है। आप अपने रक्त शर्करा, रक्तचाप और कोलेस्ट्रॉल के स्तर को प्रबंधित करके हृदय रोग और स्ट्रोक को रोकने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं; और धूम्रपान नहीं करके।

निम्न रक्त शर्करा (हाइपोग्लाइसीमिया)-
हाइपोग्लाइसीमिया तब होता है जब आपका रक्त शर्करा बहुत कम हो जाता है। कुछ मधुमेह की दवाएं कम रक्त शर्करा को अधिक संभावना बनाती हैं। आप अपनी भोजन योजना का पालन करके और अपनी शारीरिक गतिविधि, भोजन और दवाओं को संतुलित करके हाइपोग्लाइसीमिया को रोक सकते हैं। नियमित रूप से आपके रक्त शर्करा का परीक्षण करने से भी हाइपोग्लाइसीमिया को रोकने में मदद मिल सकती है।

तंत्रिका क्षति (मधुमेह न्यूरोपैथी)-
मधुमेह न्यूरोपैथी तंत्रिका क्षति है जो मधुमेह से उत्पन्न हो सकती है। विभिन्न प्रकार के तंत्रिका क्षति आपके शरीर के विभिन्न हिस्सों को प्रभावित करते हैं। आपके मधुमेह का प्रबंधन तंत्रिका क्षति को रोकने में मदद कर सकता है जो आपके पैरों और अंगों और आपके दिल जैसे अंगों को प्रभावित करता है।

गुर्दे की बीमारी-
मधुमेह गुर्दे की बीमारी, जिसे मधुमेह अपवृक्कता भी कहा जाता है, मधुमेह के कारण गुर्दे की बीमारी है। आप अपने मधुमेह के प्रबंधन और अपने रक्तचाप के लक्ष्यों को पूरा करके अपने गुर्दे की रक्षा करने में मदद कर सकते हैं।

पैर की समस्या-
मधुमेह तंत्रिका क्षति और खराब रक्त प्रवाह का कारण बन सकता है, जिससे पैर की गंभीर समस्याएं हो सकती हैं। सामान्य पैर की समस्याएं, जैसे कि एक कॉलस, दर्द या एक संक्रमण हो सकता है जिससे चलना मुश्किल हो जाता है। 

नेत्र रोग-
मधुमेह आपकी आंखों को नुकसान पहुंचा सकता है और कम दृष्टि और अंधापन को जन्म दे सकता है। आंखों की बीमारी को रोकने का सबसे अच्छा तरीका आपके रक्त शर्करा, रक्तचाप और कोलेस्ट्रॉल का प्रबंधन करना है; और धूम्रपान नहीं करने के लिए। इसके अलावा, साल में कम से कम एक बार आंखों की जांच करवाएं।

दंत समस्याएं-
मधुमेह से आपके मुंह में समस्याएं हो सकती हैं, जैसे संक्रमण, मसूड़ों की बीमारी या शुष्क मुंह। अपने मुंह को स्वस्थ रखने में मदद करने के लिए, अपने रक्त शर्करा का प्रबंधन करें, अपने दांतों को दिन में दो बार ब्रश करें, अपने दंत चिकित्सक को वर्ष में कम से कम एक बार देखें, और धूम्रपान न करें।

यौन और मूत्राशय की समस्याएं-
मधुमेह वाले लोगों में यौन और मूत्राशय की समस्याएं अधिक होती हैं। इरेक्टाइल डिसफंक्शन, सेक्स में रुचि की कमी, मूत्राशय के रिसाव, और बनाए रखा मूत्र जैसी समस्याएं हो सकती हैं यदि मधुमेह आपके रक्त वाहिकाओं और नसों को नुकसान पहुंचाता है।

मधुमेह के लक्षण-
मधुमेह के सामान्य लक्ष्णों में भूख बढ़ना, प्यास बढ़ना, पेशाब अधिक बार जाना, आँखों से साफ न दिखना,, जल्दी थकान आना, घाव, चोट का जल्दी ठीक न होना होता है । पुरूषों में सामान्यतः सेक्स के प्रति अरूचि या शक्ति में कमी होना इसका लक्ष्ण हैं ।  महिलाओं में मूत्र में संक्रमण, सूखापन, खुजली आदि लक्ष्ण हैं ।

मधुमेह के सामान्य परीक्षण एवं सामान्य स्तर-
उपवास रक्त शर्करा परीक्षण- रात भर के उपवास के बाद रक्त का नमूना लिया जाएगा। 100 मिलीग्राम / डीएल (5.6 मिमीओल / एल) से कम उपवास रक्त शर्करा का स्तर सामान्य है। 100 से 125 मिलीग्राम / डीएल (5.6 से 6.9 मिमील / एल) से उपवास रक्त शर्करा के स्तर को प्रीबायोटिक माना जाता है। यदि यह 126 मिलीग्राम / डीएल (7 मिमील / एल) या दो अलग-अलग परीक्षणों पर अधिक है, तो आपको मधुमेह है।
मौखिक ग्लूकोज सहिष्णुता परीक्षण। इस परीक्षण के लिए, आप रात भर उपवास करते हैं, और उपवास रक्त शर्करा के स्तर को मापा जाता है। फिर आप एक शर्करा तरल पीते हैं, और अगले दो घंटों के लिए रक्त शर्करा के स्तर की समय-समय पर जांच की जाती है। सामान्य या गैर-मधुमेह वाले व्यक्तियों में खाली पेट 72 से 99 मिलीग्राम/डीएल की रेंज में ब्लड शुगर होना चाहिए और खाने के दो घंटे बाद 140 मिलीग्राम/डीएल से कम होना चाहिए। वहीं, मधुमेह के मरीज़ का ब्लड शुगर लेवल खाली पेट 126 मिलीग्राम/डीएल या अधिक होता है, जबकि खाने के दो घंटे बाद 180 मिलीग्राम / डीएल या उससे ज़्यादा होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रिडाइिअटिज पेंसेट का शुगर लेबल खाली पेट 126 मिलीग्राम/डीएल से कम और भोजन केदो घंटे बाद 180 मिलीग्राम / डीएल से कम  हो तो उसका शुगर नियंत्रण में है उसे घबराने की जरूरत  नहीं है ।

मधुमेह का उपचार-ऐसे तो चिकित्सा के सभी पद्धतियों में मधुमेह का उपचार होने के साथ-साथ लाखों घरेलू नूसखें हैं किन्तु कोई भी उपचार इसे जड़ से खत्म नहीं कर सकता  अतः मधुमेह से बचाव अथवा इसे नियंत्रित करने की उपाय ही इसका सर्वोत्तम उपचार है ।

शुगर से बचाव या नियत्रंण के उपाय- शुगर एक लाइलाज बीमारी है ।  इसे जड़ से खत्म नही किया जा सकता किन्तु इससे बचा जा सकता है ।   यदि हो वो भी जाये तो घबराने की बजाये इसे नियत्रिंत करने के उपाय कियो जाने चाहिये ।

वजन को नियंत्रण में रखें - हमेशा अपने वज़न का ध्यान रखें। मोटापा अपने साथ कई बीमारियों को लेकर आता है और डायबिटीज़ भी उन्हीं में से एक है। अगर आपका वज़न ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ा हुआ या कम है, तो उस पर तुरंत ध्यान दें और वक़्त रहते इसे नियंत्रित करें।

तनाव से दूर रहें - मधुमेह होने के पीछे तनाव भी ज़िम्मेदार होता है। इसलिए, यह ज़रूरी है कि अपने मन को शांत रखें और उसके लिए आप योगासन व ध्यान यानी मेडिटेशन का सहारा लें।
नींद पूरी करें - पर्याप्त मात्रा में नींद नहीं लेने से या नींद पूरी नहीं होने से भी कई बीमारियां होती हैं। डायबिटीज़ भी उन्हीं में से एक है। इसलिए समय पर सोएं और समय पर उठें।
धूम्रपान से दूर रहें - धूम्रपान से न सिर्फ लंग्स पर असर होता है, बल्कि अगर कोई मधुमेह रोगी धूम्रपान करता है, तो उसे ह््दय संबंधी रोग होने का ख़तरा बढ़ जाता है।

व्यायाम करें - शारीरिक क्रिया स्वास्थ्य के लिए बहुत ज़रूरी है, क्योंकि अगर कोई शारीरिक श्रम नहीं होगा, तो वज़न बढ़ने का ख़तरा बढ़ जाता है और फ़िर मधुमेह हो सकता है। इसलिए, जितना हो सके व्यायाम करें। अगर व्यायाम करने का मन न भी करें तो सुबह-शाम टहलने जरूर जाएं, योगासन करें या सीढ़ियां चढ़ें।

सही आहार - शुगर के मरीज़ों को अपने खान-पान का ख़ास ध्यान रखना चाहिए। शुगर में परहेज करने के लिए जितना हो सके बाहरी और तैलीय खाद्य पदार्थों से दूर रहें, क्योंकि इससे वज़न बढ़ने का ख़तरा रहता है और फिर मधुमेह। सही आहार अपनाएं, प्रोटीन व विटामिन युक्त खाद्य पदार्थों को अपने डाइट में शामिल करें।
सही मात्रा में पानी पिएं - आपने एक कहावत तो सुनीं ही होगी कि ‘जल ही जीवन है’। हमारे शरीर को पानी की सख्त ज़रूरत होती है, क्योंकि एक व्यस्क के शरीर में 60 प्रतिशत पानी होता है। सबसे ज़्यादा पानी एक शिशु और बच्चे में होता है।  पानी से कई बीमारियां ठीक होती हैं। मधुमेह के रोगियों के लिए भी पानी बहुत आवश्यक है। इसलिए, जितना हो सके पानी पिएं।


नियमित रूप से जांच - अपने ब्लड शुगर लेवल को जानने के लिए नियमित रूप से अपना डायबिटीज़ टेस्ट कराते रहें और उसका एक चार्ट बना लें, ताकि आपको अपने डायबिटीज़ के घटने-बढ़ने के बारे में पता रहे।

नियमित जांच से प्राप्त आंकड़ों पर कड़ी नजर रखें और हर स्थिंति में शुगर लेबल को  खाली पेट 126 मिलीग्राम/डीएल से कम और भोजन के दो घंटे बाद 180 मिलीग्राम / डीएल से कम  करने का प्रयास करें । यही सर्वोत्म उपचार होगा ।

शनिवार, 21 जुलाई 2018

‘‘गुरू की सर्वव्यापकता‘‘


‘‘गुरू की सर्वव्यापकता‘‘
- रमेशकुमार सिंह चौहान



भारतीय जीवनशैली गुरू रूपी सूर्य के तेज से आलोकित है । भारतीय साहित्य  संस्कृत से लेकर विभिन्न भारतीय भाषाओं तक गुरू महिमा से भरा पड़ा है । भारतीय जनमानस में गुरू पूर्णतः रचा बसा हुआ है । गुरू स्थूल से सूक्ष्म, सहज से क्लिष्ठ, गम्य से अगम्य, साधारण से विशेष, जन्म से मृत्यु, तक व्याप्त है । ‘‘गुरू शब्द ‘गु+रू‘ का मेल है जिसमें गुकार को अंधकार एवं रूकार को तेज अर्थात प्रकाश कहते हैं । जो अंधकार का निरोध करता है, उसे ही गुरू कहा जाता है-

‘‘गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते ।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ।।‘‘

‘‘वास्तव में जीवन में अज्ञानता का अंधकार और ज्ञान का प्रकाश होता है ।  जो शक्ति अज्ञानता के अंधकार को नष्ट कर ज्ञान रूपी प्रकाश हमारे अंदर प्रकाशित कर दे वही गुरू है ।‘‘ यही गुरू का सर्वमान्य व सहज परिभाषा है । गुकार अज्ञानता पर अवलंबित है ।  अज्ञान निशा को ज्ञान रवि ही नष्ट कर सकता है । दिवस-निशा के क्रम में जैसे सूर्य शाश्वत एवं सर्वव्यापी है उसी प्रकार गुरू सर्वव्याक हैं ।

स्थूल से सूक्ष्म, सहज से क्लिष्ठ, गम्य से अगम्य, साधारण से विशेष, जन्म से मृत्यु, तक गुरू के व्यापीकरण में गुरू के विभिन्न रूप हैं किन्तु उद्देश्य केवल एक ही है अज्ञानता, अबोधता को दूर करना -

‘‘प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा ।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ।।‘‘

प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, सच बतानेवाले, रास्ता दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले । ये सब गुरु ही हैं ।  वास्तव में गुरू प्रेरक, सूचनातदाता, सत्यवाचक, पथप्रदर्शक, शिक्षक और बोध कराने वालों का समुच्चय है । जैसे स्वर्ण धातु का एक रज भी स्वर्ण होता है उसी प्रकार इन छः गुणों में से एक भी गुण होने पर भी वह गुरू ही है ।  इन सभी रूपों में गुरू अपने शिष्य को अंधेरे से प्रकाश की ओर अभिप्रेरित करता है ।

प्रेरक के लिये आजकल मेंटर शब्द प्रयुक्त हो रहा है, जो व्यवसायिक अथवा अव्यवसायिक रूप से विभिन्न समस्याओं के निराकरण के लिये उपाय सुझाते हैं । मेंटर अपने अनुभव को चमत्कारिक रूप से लोगों के मन में इस प्रकार अभिप्रेरित करता है कि वह अपने उद्देश्य की ओर सहज भाव से अग्रसर हो सके । प्रेरक अपने सत्यापित तथ्यों के आधार पर लोगों के मनोभाव को परिवर्तित करने में सफल रहता है । किसी एक लक्ष्य को पाने के लिये ललक उत्पन्न कर सकता है ।  भारत में विवेकानंद को कौन नही जानता, भारतीय युवाओं के लिये तब से आज तक विवेकानंद जी प्रेरक बने हुये हैं । विवेकानंदजी भारतीय समाज के लिये गुरू हैं ।  जनजागृति करने वाले समाजसेवक, समाजसुधारक प्रेरणा के पुंज होते हैं- समाज के प्रेरक महात्मा गांधी, डॉ. भीवराव अम्बेडकर, गुरू घासीदास जैसे महापुरूष गुरू के रूप में स्थापित हैं ।

सदियों से प्रेरक के लिये साहित्य को सर्वोपरी माना गया है । यही कारण है कि हमारे देश में साहित्यकार कवि श्रेष्ठ कबीरदासजी गुरू श्रेष्ठ के रूप में स्थापित हैं ।  सूरदास, तुलसीदास, रैदास, रहिम जैसे प्रेरक कवि भारतीय समाज में गुरू के रूप स्थापित हैं ।  ‘‘सभी धर्मो के पावन धर्म ग्रन्थ सदैव से गुरू सदृश्य ही हैं ।‘‘  इस बात की पुष्टि ‘गुरू ग्रंथ साहिब‘ से होती है । जिसे गुरू गोंविद सिंह ने गुरू रूप में प्रतिस्थापित किया है ।
सूचक अर्थात सूचना देने वाले, लोगों को संभावित समस्याओं के प्रति आगाह करते हुये सूचना देते रहते है, अमुक काम करने से लाभ होगा इसे करना चाहिये या अमुक काम करने से नुकसान होगा इसे नहीं करना चाहिये । इनकी सूचनाओं में नीतिपरक तथ्य निहित होते हैं ।  किसी विषय-विशेष की सूचना देते हैं जिससे समाज का कल्याण हो । जैसे-

मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान को एक ।
पालइ पोषइ सकल अंग, तुलसी सहित बिबेक।।
-तुलसीदास

वाचक का समान्य अर्थ बोलने वालों से न होकर सत्य बोलने वालो से है । अपने वाणी की सहायता से जो सत्य का दिग्दर्शन कराता हो । सत्य भौतिक जगत का अथवा अध्यात्मिक जगत का हो सकता है । कथा वाचक, उपदेशक आदि इस रूप में समाज को जागृत कर रहे हैं । आज इस रूप में सर्वाधिक व्यक्ति गुरू पदवी धारण किये हुये हैं । विभिन्न गुरू प्रधान समूह, परिवार, संस्था अथवा पंथ के रूप में आज हमारे समाज में स्थापित हैं जो समाज के मानसिक उत्थान के लिये सतत् प्रयासरत हैं । इनमें प्रमुख रूप से पं. श्री राम शर्मा का गायत्री परिवार, दादा लेखराज जिसे बाद में ब्रह्माबाबा कहा गया का ‘प्रजापति ब्रह्म कुमारी विश्वविद्यालय‘, श्री नारायणमाली की संस्था,  पं. रविशंकरजी की संस्था, ‘राधास्वामी‘ जैसी संस्था हैं । कथा वाचक के रूप में अनगिनत गुरू हमारे सम्मुख हैं ।

दिग्दर्शक सत्यपथगामी होते हैं जो प्रत्यक्षीकरण से शिष्य को सत्य से भेंट कराते हैं । रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंदजी के पूछे जाने पर कि- क्या आप ने ईश्वर को देखा है? उत्तर में केवल हां ही नहीं कहते अपितु विवेकानंदजी को प्रत्यक्षतः ईश्वर का दिग्दर्शन कराते हैं । हमारे जीवन में कोई ना कोई ऐसा होता है जो हमारे लिये पथप्रदर्शक का कार्य करता है ।

शिक्षक ज्ञात ज्ञान को हस्तांतरित करता है ।  सांसारिक रूप से ज्ञात जानकारी को एक विषय के रूप  में हमें बांट कर उस विषय में हमें दक्ष करता है ।  ज्ञान के इस हस्तांतरण को ही शिक्षा कहते हैं ।  इसी शिक्षा के आधार पर हम सांसारिक दिनचर्या सफलता पूर्वक कर पाते हैं । विषय विशेष के आधार पर शिक्षक विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं यथा स्कूली शिक्षक, संगीत शिक्षक, खेल शिक्षक आदि आदि ।

    बोध कराने से अभिप्राय स्मृति में लाना है । रामचरित मानस के प्रसंग में जामवंतजी द्वारा हनुमान को बल बुद्धि का स्मरण कराना ‘बोध‘ कराना है ।  जो अपने अंदर तो है, किन्तु हम अज्ञानतावष उसे जान नही पाते उन्हे बोध कराने की शक्ति गुरू में ही है । अध्यात्मिक रूप से ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी‘ अर्थात ‘जीव ईश्वर का अंश है‘ का बोध कराने वाले हमारे अध्यात्मिक गुरू होते हैं । सांसारिक रूप से भी हमारी क्षमताओं का बोध हमारे गुरू ही करते हैं ।

इस प्रकार गुरू विभिन्न रूपों में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जीवन के सफल संपादन में महती भूमिका निभाते हैं ।  इन विभिन्न रूपों में गुरू का लक्षण कैसे होता है-
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते।।

गुरू धर्म को जानने वाला, धर्म को करने वाला, सदा धर्म परायण, सभी शास्त्रों अर्थात ज्ञान के तत्व को जानने वाला होता है । ‘धारयति इति धर्मः‘‘ अर्थात मनुष्य मात्र को धारण करने योग्य ज्ञान के समूह को ही धर्म कहते हैं । जिस ग्रंथ में धारण करने योग्य तथ्य सविस्तार लिखे हों, उसे ही शास्त्र समझें ।

निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते।।

गुरू जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निश्पाप रास्ते से चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं ।

 गुरू शक्ति उस अदृश्य ऊर्जा की भांति है अवलोकन नहीं अनुभव किया जा सकता है ।  गुरु और शिष्य का रिश्ता ऊर्जा पर आधारित होता है। वे आपको एक ऐसे आयाम में स्पर्श करते हैं, जहां आपको कोई और छू ही नहीं सकता। इसी भाव से हिन्दू धर्म ग्रन्थों में गुरु की अलौकिक महिमा गायी गयी है-

ध्यानमूलं गुर्रुमूर्तिम पूजा मूलं गुरुर्पदम्।
मन्त्र मूलं गुरुर्वाक्यम् मोक्ष मूलं गुरु कृपा ।।

     गुरू इतना व्यापक है कि ध्यान का मूल गुरू प्रतिमा, पूजा का मूल गुरू पद, मंत्र का मूल गुरू वाक्य और मोक्ष का मूल गुरू कृपा को कहा गया है । गुरू का व्यापीकरण इतना है कि  गुरू की तुलना सृष्टि संचालक त्रिदेव से कर दिया गया है-

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।

अर्थात गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम । क्योंकि-

किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च ।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ।।

     बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है ।

शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च ।
नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ।।

शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर, हाथ जोडकर गुरु को सन्मुख देखना चाहिए ।  अतः गुरू की परम शक्ति को शुद्ध अंतःकरण से बार-बार नमस्कार करता हूँ ।

-रमेशकुमार सिंह चौहान
मिश्रापारा, नवागढ्
जिला-बेमेतरा, छत्तीसगढ़








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