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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

मंगलवार, 28 जुलाई 2020

वैदिक ज्‍योतिष-एक मूल्‍यांकन

वैदिक संस्‍कृति-

चित्र गुगल से साभार

  • भारतीय संस्‍कृति को वैदिक संस्‍कृति भी कहते हैं क्‍योंकि प्राय: हर बातों का संबंध किसी न किसी रूप में वेदों से जुड़ा होता है । यही कारण है कि कुछ विद्वान यह मानते हैं कि विश्‍व में जो भी ज्ञान है या भविष्‍य में जो भी ज्ञान होने वाला वह सभी ज्ञान वेदों पर ही अवलंबित है अवलंबित रहेंगे । ज्‍योतिष को भी वेदों का ही अंग माना गया है ।


  • वेदों के अँग- वेदों के 6 प्रमुख अंग माने गये हैं । ये हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त,ज्योतिष और छन्द । ज्‍योतिष को वेद का नेत्र कहा गया है । नेत्र का कार्य देखना होता है इस लिये ज्‍योतिष का कार्य भविष्‍य को देखना है  ।


ज्‍योतिष क्‍या है ?

  • ज्‍योतिष का शाब्दिक अर्थ ज्‍योति या प्रकाश करने वाला होता है । वेदो के अनुसार- ''ज्‍योतिषां सूर्यादि ग्रहाणं बोधकं शास्‍त्रम्'' अर्थात ज्‍योतिष सूर्य आदि ग्रहों का बोध कराने वाला शास्‍त्र है । वर्तमान भारतीय ज्‍योतिषाचार्यो के अनुसार -'ज्‍योतिष  ग्रह आदि (राशि, नक्षत्र) और समय का ज्ञान कराने वाला वह विज्ञान है, जो जीवन-मरण के रहस्‍यों और सुख-दुख के संबंध को एक ज्‍योति अर्थात ज्ञान के रूप में प्रस्‍तुत करता है । वास्‍तव ज्‍योतिष गणित विज्ञान का अँग है जो समय और अक्षांश-देशांश के जटिल काल गणानों से प्राप्‍त हाने वाली एक सारणी है जिस सारणी का अर्थ करना फलादेश कहलाता है ।


क्‍या ज्‍योतिष पर विश्‍वास करना चाहिये ?

  • 'देर के ढोल सुहाने' और घर की मुर्गी दाल बराबर'  ये दो कथन हमारे भारतीय समाज में सहज में ही सुनने को मिल जाते हैं । यह अनुभवगम्‍य भी लगता है नई पीढ़ी को  वैचारिक स्‍वतंत्रता के नाम पर विदेशी संस्‍कृती 'दूर के ढोल सुहाने' जैसे रूचिकर लगते हैं और भारतीय संस्‍कृति 'घर की मुर्गी दाल बराबर' लगती है । इस संदर्भ में ऐसे वैचारिक लोगों को अपने आप से एक प्रश्‍न पूछना चाहिये कि Western astrology प्रचलन में क्‍यो है ? Western astrology भी ग्रहों की गणना पर आधरित है जो गणना से अधिक फलादेश कहने पर विश्‍वास करती है । आप पर कोई दबाव नहीं है कि आप ज्‍योतिष पर विश्‍वास करें । हॉं इतना आग्रह जरूर है कि जो ज्‍योतिष पर विश्‍वास करते हैं उनकी आप अवहेलना भी न करें ।


पाश्‍चात्‍य ज्‍योतिष एवं वैदिक ज्‍योतिष में अंतर-

  1. दोनों में पहला अंतर तो समय का ही है । जहॉं वैदिक ज्‍योतिष वैदिक कालिन है वहीं पाश्‍चात्‍य ज्‍योतिष को ग्रीस के बौद्धिक विकास से जोड़ कर देखा जाता है । 

  2. दूसरा प्रमुख अंतर इनके दृष्टिकोण का है जहॉं पाश्‍चात्‍य ज्‍योतिष व्‍यक्ति के व्‍यक्तित्‍व एवं मनोविज्ञान पर जोर देता है वहीं वैदिक ज्‍योतिष जीवन-मृत्‍यु दोनों का सर्वांग चित्रण करता है ।

  3. पाश्‍चात्‍य ज्‍योतिष सायन सिद्धांत पर आधारित सूर्य प्रधान है जबकि वैदिक  ज्‍योतिष निरयन सिद्धांत पर आधारित नवग्रह, 12 राशि और 27 नक्षत्रों पर विचार करती है । 


वैदिक ज्‍योतिष का महत्‍व-

  • पाश्‍चात्‍य ज्‍योतिष केवल संभावित घटनाओं का प्रत्‍यक्ष चित्रण करने में विश्‍वास करती हैं वही वैदिक ज्‍योतिष  जीवन और जीवन के बाद मृत्‍यु के बारे में सटिक व्‍याख्‍या करने पर जोर देती है । वैदिक ज्‍योतिष में दशा प्रणाली अंतरदशा, महादशा आदि को अपने आप सम्मिलित करती है जो सटिक भविष्‍यवाणी करने में मदद करती है । वेदिक ज्‍योतिष भविष्‍य के उजले पक्ष के साथ-साथ स्‍याह पक्ष को भी उजागर करती है । सबसे बड़ी विशेषता वैदिक ज्‍योतिष समस्‍या को  बतलाने के साथ-साथ उस समस्‍या से निपटने का उपाय भी सुझाती है । 


ज्‍योतिष पर प्रश्‍नवाचक चिन्‍ह क्‍यों ?

  • किसी भी बात पर प्रश्‍न तभी उठााया जाता है जब वह उसके अनुकूल न हो ।  लेकिन ज्‍योतिष के संदर्भ अधिकांश प्रश्‍न ज्‍योतिष के मूल्‍यांकन किये बिना ही उठा दिया जाता है कि यह अंधविश्‍वास है । अंधविश्‍वास वही न होगा जिसका बिना परीक्षण के उस पर विश्‍वास कर लिया जाये । इसी संदर्भ में यह भी तो कहा जाता है जो इसे ज्‍योतिष को अंधविश्‍वास कह रहे हैं वह स्‍वयं तो अंधविश्‍वासी नहीं है किसी न कहा ज्‍योतिष अंधविश्‍वास है और वह बिना परिक्षण किये उसके राग में अपना राग मिला दिये । पहले परीक्षण किया जाना चाहिये फिर परिणाम कहा जाना चाहिये । ज्‍योतिष विज्ञान है या अंध विश्‍वास आपके परीक्षण पर निर्भर करता है ।


  • दूसरी बात जैसे किसी व्‍यक्ति से कहा जाये इस विज्ञान के युग में आप आक्‍सीजन और हाइड्रोजन से पानी बनाकर दिखाओं तो हर कोई पानी बनाकर नहीं दिखा सकता । यदि कोई इससे पानी नहीं बनापाया तो क्‍या विज्ञान झूठा हो गया । जिसप्रकार एक कुशल विज्ञानी ही प्रयोगशाला में आक्‍सीजन और हाइड्रोजन के योग से पानी बना सकता है ठीक उसी प्रकार केवल और केवल एक कुशल ज्‍योतिषाचार्य ही ज्‍योतिष ज्ञान के फलादेश ठीक-ठाक कह सकता है ।


शनिवार, 11 जुलाई 2020

वार्णिक एवं मात्रिक छंद कविताओं के लिये वर्ण एवं मात्रा के गिनती के नियम

कविताओं के लिये वर्ण एवं मात्रा के गिनती के नियम



वर्ण

‘‘मुख से उच्चारित ध्वनि के संकेतों, उनके लिपि में लिखित प्रतिक को ही वर्ण कहते हैं ।’’

हिन्दी वर्णमाला में 53 वर्णो को तीन भागों में भाटा गया हैः

1. स्वर-

अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ए,ऐ,ओ,औ. अनुस्वार-अं. अनुनासिक-अँ. विसर्ग-अः
2. व्यंजनः
क,ख,ग,घ,ङ, च,छ,ज,झ,ञ. ट,ठ,ड,ढ,ण,ड़,ढ़, त,थ,द,ध,न, प,फ,ब,भ,म, य,र,ल,व,श,ष,स,ह,
3. संयुक्त वर्ण-
क्ष, त्र, ज्ञ,श्र

वर्ण गिनने नियम-

1. हिंदी वर्णमाला के सभी वर्ण चाहे वह स्वर हो, व्यंजन हो, संयुक्त वर्ण हो, लघु मात्रिक हो या दीर्घ मात्रिक सबके सब एक वर्ण के होते हैं ।
2. अर्ध वर्ण की कोई गिनती नहीं होती ।


उदाहरण- 
कमल=क+ म+ल=3 वर्ण
पाठषला= पा +ठ+ षा+ ला =4 वर्ण
रमेश=र+मे+श=3 वर्ण
सत्य=सत्+ य=2 वर्ण (यहां आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है)
कंप्यूटर=कंम्प्+ यू़+ ट+ र=4वर्ण (यहां भी आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है)


मात्रा-

वर्णो के ध्वनि संकेतो को उच्चारित करने में जो समय लगता है उस समय को मात्रा कहते हैं ।

यह दो प्रकार का होता हैः
1. लघु- जिस वर्ण के उच्चारण में एक चुटकी बजाने में लगे समय के बराबर समय लगे उसे लघु मात्रा कहते हैं। इसका मात्रा भार 1 होता है ।
2. गुरू-जिस वर्ण के उच्चारण में लघु वर्ण के उच्चारण से अधिक समय लगता है उसे गुरू या दीर्घ कहते हैं ! इसका मात्रा भार 2 होता है ।

लघु गुरु निर्धारण के नियम-

  1. हिंदी वर्णमाला के तीन स्वर अ, इ, उ, ऋ एवं अनुनासिक-अँ लघु होते हैं और इस मात्रा से बनने वाले व्यंजन भी लघु होते हैं । लघु स्वरः-अ,इ,उ,ऋ,अँ लघु व्यंजनः- क, कि, कु, कृ, कँ, ख, खि, खु, खृ, खँ ..इसी प्रका
  2. इन लघु स्वरों को छोड़कर शेष स्वर आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ और अनुस्वार अं गुरू स्वर होते हैं तथा इन से बनने वाले व्यंजन भी गुरु होता है ।गुरू स्वरः- आ, ई,ऊ, ए, ऐ, ओ, औ,अं गुरू व्यंजन:- का की, कू, के, कै, को, कौ, कं,........इसी प्रकार
  3. अर्ध वर्ण का स्वयं में कोई मात्रा भार नहीं होता,किन्तु यह दूसरे वर्ण को गुरू कर सकता है । 
  4. अर्ध वर्ण से प्रारंभ होने वाले शब्द में मात्रा के दृष्टिकोण से भी अर्ध वर्ण को छोड़ दिया जाता है । 
  5. किंतु यदि अर्ध वर्ण शब्द के मध्य या अंत में आवे तो यह उस वर्ण को गुरु कर देता है जिस पर इसका      उच्चारण भार पड़ता है । यह प्रायः अपनी बाँई ओर के वर्ण को गुरु करता है । 
  6. यदि जिस वर्ण पर अर्ध वर्ण का भार पड़ रहा हो वह पहले से गुरु है तो वह गुरु ही रहेगा ।
  7. संयुक्त वर्ण में एक अर्ध वर्ण एवं एक पूर्ण होता है, इसके अर्ध वर्ण में उपरोक्त अर्ध वर्ण नियम लागू होता है ।

उदाहरण-
रमेश=र + मे+ श=लघु़+गुरू +लघु=1+2+1=4 मात्रा
सत्य=सत्य+=गुरु+लघु =2+1=3 मात्रा
तुम्हारा=तु़+म्हा+रा=लघु +गुरू+गुरू =1+2+2=5 मात्रा
कंप्यूटर=कंम्प्यू+ट+र=गुरु़+गुरु़+लघु़+लघु=2+2+1+1=6 मात्रा
यज्ञ=यग्य+=गुरू+लघु=2+1=3
क्षमा=क्ष+मा=लघु+गुरू =1+2=3


वर्णिक एवं मात्रिक में अंतर-

जब उच्चारित ध्वनि संकेतो को गिनती की जाती है तो वार्णिक एवं ध्वनि संकेतों के उच्चारण में लगे समय की गणना लघु, गुरू के रूप में की जाती है इसे मात्रिक कहते हैं ! मात्रिक मात्रा महत्वपूर्ण होता है वार्णिक में वर्ण महत्वपूर्ण होता है ।

उदाहरण
रमेश=र + मे+ श=लघु़+गुरू +लघु=1+2+1=4 मात्रा
रमेश=र+मे+श=3 वर्ण

सत्य=सत्य+=गुरु+लघु =2+1=3 मात्रा
सत्य=सत्+ य=2 वर्ण (यहां आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है)

कंप्यूटर=कंम्प्यू+ट+र=गुरु़+गुरु़+लघु़+लघु=2+2+1+1=6 मात्रा
कंप्यूटर=कंम्प्+ यू़+ ट+ र=4वर्ण (यहां भी आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है)

आशा ही नहीं विश्‍वास है आप वर्ण मात्रा गणना अच्‍छे से सीख गये होंगे ।
-रमेश चौहान

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

घनाक्षरी छंद के मूलभूत नियम एवं प्रकार

घनाक्षरी एक सनातन छंद की विधा होने के बाद भी आज काव्य मंचों में सर्वाधिक पढ़े जाने वाली विधा है । शायद ऐसा कोई काव्य मंच नहीं होगा जिसमें कोई न कोई कवि घनाक्षरी ना पढ़े । 
हिंदी साहित्य के स्वर्णिम युग जिसे एक प्रकार से छंद का युग भी कह सकते हैं, में घनाक्षरी विशेष रूप से प्रचलित रहा है । इस घनाक्षरी छंद की परिभाषा इसके मूलभूत नियम एवं इनके प्रकार पर आज पर चर्चा करेंगे। साथ ही वर्णों की गिनती किस प्रकार की जाती है ? और लघु गुरु का निर्धारण कैसे होता है ? इस पर भी चर्चा करेंगे ।

घनाक्षरी छंद की परिभाषा-
"घनाक्षरी छंद, चार चरणों की एक वर्णिक छंद होता है जिसमें वर्णों की संख्या निश्चित होती है ।" इसे कवित्त भी कहा जाता है और कहीं कहीं पर इसे मुक्तक की भी संज्ञा दी गई है ।

घनाक्षरी छंद के मूलभूत नियम-

1. घनाक्षरी में चार चरण या चार पद होता है।
2. प्रत्येक पद स्वयं चार भागों में बंटे होते हैं इसे यति कहा जाता है ।
3. प्रत्येक चरण के पहले 3 यति पर 8,8,8 वर्ण निश्चित रूप से होते हैं ।
4. चौथे चरण पर 7, 8, या 9 वर्ण हो सकते हैं । इन्हीं वर्णों के अंतर से घनाक्षरी का भेद बनता है ।
5. इस प्रकार घनाक्षरी के प्रत्येक पद में कूल 31,32, या 33 वर्ण होते हैं जो 8,8,8,7 या 8,8,8,8 या 8,8,8,9 वर्ण क्रम में होते हैं ।
6. प्रत्येक पद के चौथे चरण में वर्णों की संख्या और अंत में लघु गुरु के भेद से इसके प्रकार का निर्माण होता है ।
7.इसलिए घनाक्षरी लिखने से पहले घनाक्षरी के भेद और उनकी लघु गुरु के नियम को समझना होगा ।

घनाक्षरी छंद के प्रकार-
घनाक्षरी छंद मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं जिसके चौथे चरण में वर्णों की संख्या भिन्न-भिन्न होती है ।

  1.  जिसके चौथे चरण में 7 वर्ण हो-

जैसे कि ऊपर देख चुके हैं कि घनाक्षरी छंद में चार चरण होते हैं जिसके पहले तीन चरण में 8,8,8 वर्ण  निश्चित रूप से होते हैैं । किंतु चौथे चरण में वर्णों की संख्या भिन्न-भिन्न होती है । जब चौथे चरण में 7 वर्ण आवे तो निम्न प्रकार से घनाक्षरी छंद का निर्माण होता है-
  • मनहरण घनाक्षरी-
  • मनहरण घनाक्षरी सर्वाधिक प्रयोग में आई जाने वाली घनाक्षरी है । इसके पहले तीन चरण में 8,8,8 वर्ण निश्चित रूप से होते हैं और सातवें चरण में 7 वर्ण होता है । प्रत्येक चौथे चरण का अंत एक गुरु से होना अनिवार्य होता है । इसके साथ ही चारों चरण में सम तुकांत शब्द आनी चाहिए । यदि प्रत्येक चरण का अंत लघु गुरु से हो तो गेयता की  दृष्टिकोण से अच्छी मानी जाती है।
  • जनहरण घनाक्षरी-
  • जनहरण घनाक्षरी बिल्कुल मनहरण घनाक्षरी जैसा ही है इसके भी पहले तीन चरण में 8,8,8 और चौथे चरण में 7 वर्ण होते हैं और इसका भी अंत एक गुरु से होता है । अंतर केवल इतना ही है के चरण के अंत के गुरु को छोड़ बाकी सभी वर्ण निश्चित रूप से लघु होते हैं । इस प्रकार घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 30 लघु के बाद एक गुरु हो तो जनहरण घनाक्षरी का निर्माण होता है।
  • कलाधर घनाक्षरी-
  • कलाधर घनाक्षरी भी मनहरण एवं जनहरण घनाक्षरी के समान ही होता है जिसके पहले तीन चरण में 8,8,8 वर्ण एवं अंतिम चौथे चरण में 7 वर्ण होते हैं तथा जिसका अंत भी गुरु से ही होता है । अंतर केवल इसमें इतना ही है की यह गुरु से शुरू होकर एकांतर क्रम पर गुरु लघु गुरु लघु गुरु लघु क्रमवार आता है । अर्थात इसमें गुरु लघु की 15 बार आवृत्ति होती है और अंत में गुरु आता है ।

        2.जिस के चौथे चरण में 8 वर्ण होते हैं-

सभी घनाक्षरी के पहले तीन चरण में 8,8,8 वर्ण  ही होते हैं यदि चौथे चरण में भी 8 वर्ण हो तो निम्न प्रकार के घनाक्षरी छंद बनते हैं-
  • रूप घनाक्षरी-रूप घनाक्षरी के चारों चरण में 8,8,8,8 व निश्चित रूप से होते हैं तथा जिसका प्रत्येक चरण का अंत निश्चित रूप से लघु से होता है साथ ही चारों चरण के अंत में समतुकांत शब्द होते हैं ।
  • जलहरण घनाक्षरी-जल हरण घनाक्षरी बिल्कुल रूप घनाक्षरी जैसे ही होता है इसके भी चारों चरण में 8,8,8,8 वर्ण होते हैं और अंतिम भी लघु से होता है ।अंतर केवल इतना होता है कि प्रत्येक चरण के अंतिम लघु से पहले एक और लघु होता है अर्थात प्रत्येक चरण का अंत दो लघु (लघु लघु) से हो तब जलहरण घनाक्षरी बनता है ।
  • डमरु घनाक्षरी-डमरु घनाक्षरी भी जलहरण घनाक्षरी और रूप घनाक्षरी के समान ही होता है जिसके चारों चरण में 8,8,8,8 वर्ण  र्होते हैं तथा अंत भी लघु से होता है । अंतर केवल इतना ही होता है की डमरु घनाक्षरी के सभी  वर्ण लघु होते हैं । इस प्रकार जब 8,8,8,8 क्रम के सभी वर्ण लघु लघु में हो तो डमरू छंद बनता है ।
  • किरपान घनाक्षरी छंद-इसके चारों चरण में 8,8,8,8 वर्ण होने के बाद भी यह पूर्ण रूप से रूपघनाक्षरी, जलहरण घनाक्षरी से भिन्न होता है । इसके प्रत्येक 8 वर्ण में सानुप्रास आना चाहिए अर्थात प्रत्येक यति में 2 शब्द समतुकांत शब्द होनी चाहिए । प्रत्येक चरण का अंत गुरु लघु से होता है 
  • इसे इस उदाहरण से समझ लेते हैं-"बसु वरण वरण, धरी चरण चरण, कर समर बरण, गल धरि किरपान ।यहां  वरण वरण, चरण चरण  और समर बरन में सानुप्रास है ।
  • विजया घनाक्षरी छंद-विजया घनाक्षरी छंद के प्रत्येक चरण में 8, 8,8,8 वर्ण होते हैं । प्रत्येक यति में अर्थात सभी 8 8 वर्ण का अंत नगण (लघु लघु लघु) या लघु गुरु से होना चाहिए ।

    3. जिसके चौथे चरण में 9 वर्ण हो-

    इस प्रकार के घनाक्षरी छंद के पहले तीन चरण में 8,8,8 वर्ण एवं चौथे चरण में 9 वर्ण होते हैं  ।
  • देव घनाक्षरी छंद-छंद में 8,8,8,9 वर्णक्रम होते हैं और प्रत्येक चरण का अंत नगण (लघु लघु लघु) अर्थात तीन बार लघु से होता है ।

  • वर्ण गिनने नियम-

  1. हिंदी वर्णमाला के सभी वर्ण चाहे वह स्वर हो, व्यंजन हो, संयुक्त वर्ण हो, लघु मात्रिक हो या दीर्घ मात्रिक सबके सब एक वर्ण के होते हैं ।
  2. अर्ध वर्ण की कोई गिनती नहीं होती ।
उदाहरण- 
रमेश=र+मे+श=3 वर्ण
सत्य=सत्+य=2 वर्ण (यहां आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है)
कंप्यूटर=कंम्प्+यू+ट+र=4वर्ण (यहां भी आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है)

लघु गुरु निर्धारण के नियम-

  1. हिंदी वर्णमाला के तीन स्वर अ, इ, उ, लघु होते हैं और इस मात्रा से बनने वाले व्यंजन भी लघू होते हैं 
  2. इन लघु स्वरों को छोड़कर शेष स्वर आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ और इन से बनने वाले व्यंजन सभी गुरु होती हैं ।
  3.  चंद्रबिंदु और ऋ की मात्रा जिस पर आवे वह लघु होता है ।
  4. अर्ध वर्ण का स्वयं में कोई भार नहीं होता । इसलिए अर्ध वर्ण से प्रारंभ होने वाले शब्द में मात्रा के दृष्टिकोण से भी अर्ध वर्ण को छोड़ दिया जाता है । 
  5. किंतु यदिअर्ध वर्ण, शब्द के मध्य या अंत में आवे तो यह उस वर्ण को गुरु कर देता है जिस पर इसका उच्चारण भार आवे । या पराया अपनी पाई और के वर्ण को गुरु करता है ।केवल "ह"वर्ण के पहले कोई अर्ध वर्ण आवे तो 'ह' गुरु हो जाता है ।
  6. यदि जिस वर्ण पर अर्ध वर्ण का भार पड़ रहा हो वह पहले से गुरु है तो वह गुरु ही रहेगा ।
उदाहरण-
रमेश=र+म+श=लघु+गुरु+लघु
सत्य=सत्+य=गुरु+लघु
तुम्हारा=तु+म्हा+रा=लघु+गुरु+गुरू
कंप्यूटर=कंम्प्+यू+ट+र=गुरु+गुरु+लघु+लघु
लघु का मात्रा भार एक एवं गुरु का मात्रा भार-2 होता है ।

वर्णिक एवं मात्रिक में अंतर-

जब लघु गुरु में भेद किए बिना ही वर्णों की गिनती की जाती है तो इसे वार्णिक कहते हैं । किंतु जब इसमें लघु एवं गुरु के मात्र का भार क्रम से एक और दो के आधार पर गिनती की जाती है तो इसे मात्रिक कहते हैं ।
उदाहरण
रमेश=र+म+श=लघु+गुरु+लघु=1+2+1=3 3 मात्रा किंतु इसमें तीन वर्ण है ।
सत्य=सत्+य=गुरु+लघु=2+1=3 मात्रा किंतु दो वर्ण
तुम्हारा=तु+म्हा+रा=लघु+गुरु+लघु=1+2+1=4 मात्रा किंग 3 वर्ण
कंप्यूटर=कंम्प्+यू+ट+र=गुरु+गुरु+लघु+लघु=2+2+1+1=6 मात्रा किंतु चार वर्ण ।

घनाक्षरी छंद के उदाहरण-
रखिये चरण चार, चार बार यति धर
तीन आठ हर बार, चौथे सात आठ नौ ।
आठ-आठ आठ-सात, आठ-आठ आठ-आठ
आठ-आठ आठ-नव, वर्ण वर्ण गिन लौ ।।
आठ-सात अंत गुरु, ‘मन’ ‘जन’ ‘कलाधर’,
अंत छोड़ सभी लघु, जलहरण कहि दौ ।
गुरु लघु क्रमवार, नाम रखे कलाधर
नेम कुछु न विशेष, मनहरण गढ़ भौ ।।

आठ-आठ आठ-आठ, ‘रूप‘ रखे अंत लघु
अंत दुई लघु रख, कहिये जलहरण ।
सभी वर्ण लघु भर, नाम ‘डमरू’ तौ धर
आठ-आठ सानुप्रास, ‘कृपाण’ नाम करण ।।
यदि प्रति यति अंत, रखे नगण-नगण
हो ‘विजया’ घनाक्षरी, सुजश मन भरण ।
आठ-आठ आठ-नव, अंत तीन लघु रख
नाम देवघनाक्षरी, गहिये वर्ण शरण ।।
वर्ण-छंद घनाक्षरी, गढ़न हरणमन
नियम-धियम आप, धैर्य धर  जानिए ।।
आठ-आठ आठ-सात, चार बार वर्ण रख
चार बार यति कर,  चार पद तानिए ।।
गति यति लय भर, चरणांत गुरु धर
साधि-साधि शब्द-वर्ण, नेम यही मानिए ।
सम-सम सम-वर्ण, विषम-विषम सम, 
चरण-चरण सब, क्रम यही पालिए ।।

-रमेश चौहान


आशा ही नहीं विश्वास है आप घनाक्षरी छंद को अच्छे से समझ पाए होंगे ।

मंगलवार, 26 मई 2020

नदी नालों को ही बचाकर जल को बचाया जा सकता है

नदी नालों को ही बचाकर जल को बचाया जा सकता है




भूमि की सतह और भूमि के अंदर जल स्रोतों में अंतर संबंध होते हैं ।जब भूख सतह पर जल अधिक होगा तो स्वाभाविक रूप से भूगर्भ जल का स्तर भी अधिक होगा ।
भू सतह पर वर्षा के जल नदी नालों में संचित होता है यदि नदी नालों की सुरक्षा ना की जाए तो आने वाला समय अत्यंत विकट हो सकता है ।
नदी नालों पर तीन स्तर से आक्रमण हो रहा है-
1. नदी नालों के किनारों पर भूमि अतिक्रमण से नदी नालों की चौड़ाई दिनों दिन कम हो रही है, गहराई भी प्रभावित हो रही है जिससे इसमें जल संचय की क्षमता घट रही है। स्थिति यहां तक निर्मित है कि कई छोटे नदी नाले विलुप्त के कगार पर हैं ।
2. नदी नालों पर गांव, शहर, कारखानों की गंदे पानी गिराए जा रहे हैं ।  जिससे इनके जल विषैले हो रहे हैं जिससे इनके जल जनउपयोगी नहीं होने के कारण लोग इन पर ध्यान नहीं देते और इनका अस्तित्व खतरे में लगातार बना हुआ है ।
3. लोगों में नैतिकता का अभाव भी इसका एक बड़ा कारण है । भारतीय संस्कृति में नदी नालों की पूजा की जाती है जल देवता मानकर उनकी आराधना की जाती है किंतु इनकी सुरक्षा उनके बचाव कि कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं लेते।

पूरे देश में नदी नालों की स्थिति का आकलन मैं सिर्फ अपने गांव और आसपास को देखकर लगा सकता हूं जिस नदी नाले  में हम बचपन  में तैरा करते थे वहां आज पानी का एक बूंद भी नहीं है ।
नदी तट पर जहां हम खेला करते थे वहां आज कुछ झोपड़ी तो कुछ महल खड़े हो गए हैं ।

कुछ इसी प्रकार की स्थिति गांव और शहर के तालाबों का हो गया है तालाब केवल कूड़ा दान प्रतीत हो रहा है ।
जल स्रोत बचाएं पानी बचाएं ।

शुक्रवार, 22 मई 2020

दीर्घायु जीवन का रहस्य

दीर्घायु जीवन का रहस्य



इस जगत ऐसा कौन नहीं होगा जो लंबी आयु, सुखी जीवन न चाहता हो । प्रत्येक व्यक्ति की कामना होती है कि वह सुखी रहे, जीवन आनंद से व्यतित हो और वह पूर्ण आयु को निरोगी रहते हुये व्यतित करे । मृत्यु तो अटल सत्य है किंतु असमायिक मृत्यु को टालना चाहिये क्योंकि अथर्ववेद में कहा गया है-‘‘मा पुरा जरसो मृथा’ अर्थात बुढ़ापा के पहले मत मरो ।

बुढ़ापा कब आता है ?
  • वैज्ञानिक शोधों द्वारा यह ज्ञात किया गया है कि जब तक शरीर में सेल (कोशिकाओं) का पुनर्निमाण ठीक-ठाक होता रहेगा तब तक शरीर युवावस्था युक्त, कांतियुक्त बना रहेगा । यदि इन सेलों का पुनर्निमाण किन्ही कारणों से अवरूध हो जाता है तो समय के पूर्व शरीर में वृद्धावस्था का लक्षण प्रकट होने लगता है ।
मनुष्य की आयु कितनी है? 
  • वैज्ञानिक एवं चिकित्सकीय शोधों के अनुसार वर्तमान में मनुष्य की औसत जीवन प्रत्याशा 60 से 70 वर्ष के मध्य है । इस जीवन प्रत्यशा को बढ़ाने चिकित्सकीय प्रयोग निरंतर जारी है ।
  • किन्तु श्रृति कहती है-‘शतायुवै पुरूषः’ अर्थात मनुष्यों की आयु सौ वर्ष निर्धारित है । यह सौ वर्ष बाल, युवा वृद्ध के क्रम में पूर्ण होता है । 
क्या कोई मरना चाहता है ?
  • महाभारत में विदुर जी कहते हैं- ‘अहो महीयसी जन्तोर्जीविताषा बलीयसी’ अर्थात हे राजन जीवन जीने की लालसा अधिक बलवती होती है । 
  • आचार्य कौटिल्य कहते हैं- ‘देही देहं त्यकत्वा ऐन्द्रपदमपि न वांछति’ अर्थात इन्द्र पद की प्राप्ति होने पर भी मनुष्य देह का त्याग करना नहीं चाहता ।
  • आज के समय में भी हम में से कोई मरना नहीं चाहता, जीने का हर जतन करना चाहता है। वैज्ञानिक अमरत्व प्राप्त करने अभीतक कई असफल प्रयास कर चुके हैं और जीवन को सतत् या दीर्घ बनाने के लिये अभी तक प्रयास कर रहे हैं ।
    अकाल मृत्यु क्यों होती है ?
    • यद्यपि मनुष्य का जीवन सौ वर्ष निर्धारित है तथापि सर्वसाधारण का शतायु होना दुर्लभ है । विरले व्यक्ति ही इस अवस्था तक जीवित रह पाते हैं 100 वर्ष के पूर्व अथवा जरा अवस्था के पूर्व मृत्यु को अकाल मृत्यु माना जाता है ।
    • सप्तर्षि में से एक योगवसिष्ठ के अनुसार-
    मृत्यों न किचिंच्छक्तस्त्वमेको मारयितु बलात् ।
    मारणीयस्य कर्माणि तत्कर्तृणीति नेतरत् ।।
    • अर्थात ‘‘हे मृत्यु ! तू स्वयं अपनी शक्ति से किसी मनुष्य को नही मार सकती, मनुष्य किसी दूसरे कारण से नहीं, अपने ही कर्मो से मारा जाता है ।’’ इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि मनुष्य अपनी मृत्यु को अपने कर्मो से स्वयं बुलाता है । जिन साधनों, जिन कर्मो से मनुष्य शतायु हो सकता है उन कारणों के उल्लंघन करके अपने मृत्यु को आमंत्रित करता है ।
    दीर्घायु होने का क्या उपाय है ?
    • विज्ञान के अनुसार जब तक शरीर में कोशिकाओं का पुनर्निमाण की प्रक्रिया स्वस्थ रूप से होती रहेगी तब तक शरीर स्वस्थ एवं युवावस्था युक्त रहेगा । 
    • कोशिकाओं की पुनर्निमाण की सतत प्रक्रिया से वृद्धावस्था असमय नहीं होगा । सेल के पुनर्निमाण में विटामिन ई, विटामिन सी, और कोलिन ये तीन तत्वों का योगदान होता है । इसकी पूर्ती करके दीर्घायु बना जा सकता है ।
    • व्यवहारिक रूप से यदि देखा जाये तो एक साधन संपन्न धनवान यदि इसकी पूर्ती भी कर ले तो क्या वह शतायु बन जाता है ? उत्तर है नहीं तो शतायु कैसे हुआ जा सकता है ।
    • श्री पी.डी.खंतवाल कहते हैं कि -‘‘श्रमादि से लोगों की शक्ति का उतना ह्रास नहीं होता, जितना आलस्य और शारीरिक सुखासक्ति से होता है ।’’ यह कथन अनुभवगम्य भी है क्योंकि अपने आसपास वृद्धों को देखें जो जीनका जीवन परिश्रम में व्यतित हुआ है वह अरामपरस्त व्यक्तियों से अधिक स्वस्थ हैं । इससे यह प्रमाणित होता है कि दीर्घायु जीवन जीने के लिये परिश्रम आवश्यक है ।
    • देखने-सुनने में आता है कि वास्तविक साधु-संत जिनका जीवन संयमित है, शतायु होते हैं इससे यह अभिप्रमाणित होता है कि शतायु होने के संयमित जीवन जीना चाहिये ।
    धर्मशास्त्र के अनुसार दीर्घायु जीवन-
    • महाभारत के अनुसार- ‘‘आचारश्र्च सतां धर्मः ।’’ अर्थात आचरण ही सज्जनों का धर्म है । यहाँ यह रेखांकित करना आवश्यक है कि धर्म कोई पूजा पद्यति नहीं अपितु आचरण है, किये जाने वाला कर्म है । 
    • ‘धर्मो धारयति अति धर्मः’’ अर्थात जो धारण करने योग्य है वही धर्म है । धारण करने योग्य सत्य, दया साहचर्य जैसे गुण हैं एवं धारण करने का अर्थ इन गुणों को अपने कर्मो में परणित करना है ।
    • महाराज मनु के अनुसार- ‘‘आचाराल्लभते ह्यायुः ।’’ अर्थात आचार से दीर्घ आयु प्राप्त होती है ।
    • आचार्य कौटिल्य के अनुसार- ‘‘मृत्युरपि धर्मष्ठिं रक्षति ।’’ अर्थात मृत्यु भी धर्मपरायण लोगों की रक्षा करती है ।
    • ऋग्वेद के अनुसार- ‘न देवानामतिव्रतं शतात्मा च न जीवति ।’’ अर्थात देवताओं के नियमों को तोड़ कर कोई व्यक्ति शतायु नहीं हो सकता । यहाँ देवताओं के नियम को सृष्टि का, प्रकृति का नियम भी कह सकते हैं । 
    • समान्य बोलचाल में पर्यावरणीय संतुलन का नियम ही देवाताओं का नियम है, यही किये जाना वाला कर्म है जो आचरण बन कर धर्म का रूप धारण कर लेता है । अर्थात प्रकृति के अनुकूल आचार-व्यवहार करके दीर्घायु जीवन प्राप्त किया जा सकता है ।
    जीवन की सार्थकता-
    • एक अंग्रेज विचारक के अनुसार- ‘‘उसी व्यक्ति को पूर्ण रूप से जीवित माना जा सकता है, जो सद्विचार, सद्भावना और सत्कर्म से युक्त हो ।’’
    • चलते फिरते शव का कोई महत्व नहीं होता थोडे़ समय में अधिक कार्य करने वाला मनुष्य अपने जीवनकाल को बढ़ा लेता है । आदि शांकराचार्य, स्वामी विवेकानंद जैसे कई महापुरूष अल्प समय में ही बड़ा कार्य करके कम आयु में शरीर त्यागने के बाद भी अमर हैं ।
    • मनुष्यों की वास्तविक आयु उनके कर्मो से मापी जाती है । धर्म-कर्म करने से मनुष्य की आयु निश्चित रूप से बढ़ती है ।
    ‘‘धर्मो रक्षति रक्षितः’’ यदि धर्म की रक्षा की जाये अर्थात धर्म का पालन किया जाये तो वही धर्म हमारी रक्षा करता है । यही जीवन का गुण रहस्य है । यही दीर्घायु का महामंत्र है ।

    शनिवार, 16 मई 2020

    स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता


    हमारे पौराणिक ग्रन्थों में आत्माभिमान की रक्षा करना प्राणों की रक्षा करने से भी श्रेष्ठ कहा गया है । कई ग्रन्थों में यहाँ तक भी कहाँ गया है कि यदि प्राणोत्सर्ग करने से स्वाभिमान की रक्षा हो सके तो सहजता से प्राणोत्सर्ग कर देना चाहिये । स्वाभिमान के पुष्पित पल्लवित वृक्ष पर ही आत्मनिर्भरता का फल लगता है ।

    आत्मनिर्भर किसे कहते हैं ?

    वह व्यक्ति जो अपने प्रत्येक आवश्यकता के पूर्ति किसी दूसरों पर निर्भर न होकर अपने आप पर निर्भर होता है, उसे ही आत्मनिर्भर कहते हैं । जो व्यक्ति अपने हर छोटे-बड़े काम स्वयं करने का प्रयास करते हों, यदि किसी दूसरों की सहायता लेने की आवश्यकता पड़े भी तो उसे वह अर्थ अथवा श्रम विनिमय से ही लेता है । कभी भी किसी से मुफ्त में लेने का प्रयास नहीं करते । न ही अपने धन बल, बाहु बल से दूसरों का शोषण करता है ।
    आत्मनिर्भर होने का यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता वह किसी दूसरे का सहयोग ही न ले । सहयोग ले किन्तु स्वयं भी सहयोग करे । परस्पर सहयोग करने से स्वाभीमान पर चोट नहीं पहुँचेगा और कार्य भी आसानी से हो जायेगा । आत्मनिर्भर व्यक्ति कभी स्वार्थी, स्वकेन्द्रित नहीं हो सकता ।

    आत्मनिर्भरता का महत्व-

    स्वाभिमान व्यक्ति का वह नैतिक गुण है जो उसे नैसर्गिक रूप से स्वालंबी बनाता है, आत्मनिर्भर बनाता है । आत्मनिर्भर व्यक्ति ही सफल होकर उसी प्रकार प्रदीप्मान होता है जैसे करोड़ो तारों के मध्य चन्द्रमा शोभायमान होता है ।
    महाकवि भीमराव के अनुसार-‘लघयन खलु तेजसा जगन्न महा निच्छती भूतिमन्यतः’’ अर्थात अपने तेज और प्रताप से दुनिया को अपने नीचे रखने वाले लोग कभी भी दूसरों का सहारा नहीं लेते अपितु स्वयं के बल पर सब कुछ प्राप्त करते हैं ।
    प्रसिद्ध निबंधकार बालकृष्ण भट्ट आत्मनिर्भरता के संदर्भ में लिखते हैं-‘‘अपने भरोसे का बल है ये जहाँ होंगे जल में तुंबी के समान सबके ऊपर रहेंगे ।’’ अर्थात आत्माभिमानी स्वालंबी संसार में उसी प्रकार ऊपर होते हैं जैसे तुंबी जल में तैरता हुआ ऊपर होता है ।

    आत्मनिर्भर बने कैसें?

    आत्मनिर्भर बनने के लिये व्यक्ति को सबसे पहले शारीरिक एवं मानसिक रूप से सक्षम होना चाहिये । उसे अपने शारीरिक शक्ति एवं मानसिक शक्ति पर स्वयं विश्वास होना चाहिये । यहाँ शारीरिक सक्षमता का अर्थ सबसे बलिष्ठ हो ऐसा नहीं है अपितु अपने कार्य को करने के लिये अपने शरीर को अनुकूल बनाना मात्र है । उसी प्रकार मानसिक सक्षमता अर्थ भी अपने कार्य करने के लिय अपना बौद्धिक विकास करना है ।
    आत्मनिर्भरता व्यक्ति का आंतरिक गुण है, जिसे अभ्यास द्वारा निखारा जा सकता है । छोटी-छोटी बातों पर दूसरों का सहयोग लेने की लालसा छोड़कर स्वयं उसे करने का अभ्यास करना चाहिये ।
    अपने जीवकोपार्जन करने के लिये दूसरों की दया, भीख पर निर्भर न होकर परिश्रमी होना चाहिये । अपने परिश्रम के बल पर अपने अनुकूल कार्य करना चाहिये ।
    कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता हर काम का अपना एक अलग महत्व होता है । जिस काम को हम कर सकते हैं उस काम से अर्थोपार्जन के सारे प्रयास करना चाहिये ।

    आत्मनिर्भरता के पथ के बाधक-

    बाल्यकाल में बच्चों पर माता-पिता का आवश्यकता से अधिक दुलार हर बात पर बच्चों का माता-पिता पर निर्भर होना उसे आत्मनिर्भर होने से रोकता है ।
    आत्मनिर्भर बनने में एक बाधा हमारी शिक्षा का चयन भी है । हमे ऐसे शिक्षा का चयन करना चाहिये जिससे हमारे अंदर कोई न कोई स्कील उत्पन्न हो जिस स्कील की सहायता से हम आर्थोपार्जन कर आत्मनिर्भर हो सकें ।
    अपने आप को श्रेष्ठ मानकर बलपूर्वक या दुराग्रह पूर्वक दूसरों से अपना काम कराने की प्रवृत्ति आत्मनिर्भर होने से रोकता है ।
    वी.वी.आई.पी कल्चर के फेर में दूसरों को अपने अधीन समझने की मनोवृत्ति आत्मनिर्भर होने से उस व्यक्ति को रोकता है ।
    स्वाभीमान ही जीवन है । आत्मनिर्भरता ही सच्ची स्वतंत्रता है । यदि आप स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं तो स्वाभीमानी एवं स्वालंबी आत्मनिर्भर बनें ।

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