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सत्‍य ही शाश्‍वत सत्‍य है

   मानव जीवन में सच्चाई क्या है? मानव जीवन में सच्चाई क्या है?  हमारा शरीर या हमारी आत्मा।  हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवा...

मंगलवार, 26 मई 2020

नदी नालों को ही बचाकर जल को बचाया जा सकता है

नदी नालों को ही बचाकर जल को बचाया जा सकता है




भूमि की सतह और भूमि के अंदर जल स्रोतों में अंतर संबंध होते हैं ।जब भूख सतह पर जल अधिक होगा तो स्वाभाविक रूप से भूगर्भ जल का स्तर भी अधिक होगा ।
भू सतह पर वर्षा के जल नदी नालों में संचित होता है यदि नदी नालों की सुरक्षा ना की जाए तो आने वाला समय अत्यंत विकट हो सकता है ।
नदी नालों पर तीन स्तर से आक्रमण हो रहा है-
1. नदी नालों के किनारों पर भूमि अतिक्रमण से नदी नालों की चौड़ाई दिनों दिन कम हो रही है, गहराई भी प्रभावित हो रही है जिससे इसमें जल संचय की क्षमता घट रही है। स्थिति यहां तक निर्मित है कि कई छोटे नदी नाले विलुप्त के कगार पर हैं ।
2. नदी नालों पर गांव, शहर, कारखानों की गंदे पानी गिराए जा रहे हैं ।  जिससे इनके जल विषैले हो रहे हैं जिससे इनके जल जनउपयोगी नहीं होने के कारण लोग इन पर ध्यान नहीं देते और इनका अस्तित्व खतरे में लगातार बना हुआ है ।
3. लोगों में नैतिकता का अभाव भी इसका एक बड़ा कारण है । भारतीय संस्कृति में नदी नालों की पूजा की जाती है जल देवता मानकर उनकी आराधना की जाती है किंतु इनकी सुरक्षा उनके बचाव कि कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं लेते।

पूरे देश में नदी नालों की स्थिति का आकलन मैं सिर्फ अपने गांव और आसपास को देखकर लगा सकता हूं जिस नदी नाले  में हम बचपन  में तैरा करते थे वहां आज पानी का एक बूंद भी नहीं है ।
नदी तट पर जहां हम खेला करते थे वहां आज कुछ झोपड़ी तो कुछ महल खड़े हो गए हैं ।

कुछ इसी प्रकार की स्थिति गांव और शहर के तालाबों का हो गया है तालाब केवल कूड़ा दान प्रतीत हो रहा है ।
जल स्रोत बचाएं पानी बचाएं ।

शुक्रवार, 22 मई 2020

दीर्घायु जीवन का रहस्य

दीर्घायु जीवन का रहस्य



इस जगत ऐसा कौन नहीं होगा जो लंबी आयु, सुखी जीवन न चाहता हो । प्रत्येक व्यक्ति की कामना होती है कि वह सुखी रहे, जीवन आनंद से व्यतित हो और वह पूर्ण आयु को निरोगी रहते हुये व्यतित करे । मृत्यु तो अटल सत्य है किंतु असमायिक मृत्यु को टालना चाहिये क्योंकि अथर्ववेद में कहा गया है-‘‘मा पुरा जरसो मृथा’ अर्थात बुढ़ापा के पहले मत मरो ।

बुढ़ापा कब आता है ?
  • वैज्ञानिक शोधों द्वारा यह ज्ञात किया गया है कि जब तक शरीर में सेल (कोशिकाओं) का पुनर्निमाण ठीक-ठाक होता रहेगा तब तक शरीर युवावस्था युक्त, कांतियुक्त बना रहेगा । यदि इन सेलों का पुनर्निमाण किन्ही कारणों से अवरूध हो जाता है तो समय के पूर्व शरीर में वृद्धावस्था का लक्षण प्रकट होने लगता है ।
मनुष्य की आयु कितनी है? 
  • वैज्ञानिक एवं चिकित्सकीय शोधों के अनुसार वर्तमान में मनुष्य की औसत जीवन प्रत्याशा 60 से 70 वर्ष के मध्य है । इस जीवन प्रत्यशा को बढ़ाने चिकित्सकीय प्रयोग निरंतर जारी है ।
  • किन्तु श्रृति कहती है-‘शतायुवै पुरूषः’ अर्थात मनुष्यों की आयु सौ वर्ष निर्धारित है । यह सौ वर्ष बाल, युवा वृद्ध के क्रम में पूर्ण होता है । 
क्या कोई मरना चाहता है ?
  • महाभारत में विदुर जी कहते हैं- ‘अहो महीयसी जन्तोर्जीविताषा बलीयसी’ अर्थात हे राजन जीवन जीने की लालसा अधिक बलवती होती है । 
  • आचार्य कौटिल्य कहते हैं- ‘देही देहं त्यकत्वा ऐन्द्रपदमपि न वांछति’ अर्थात इन्द्र पद की प्राप्ति होने पर भी मनुष्य देह का त्याग करना नहीं चाहता ।
  • आज के समय में भी हम में से कोई मरना नहीं चाहता, जीने का हर जतन करना चाहता है। वैज्ञानिक अमरत्व प्राप्त करने अभीतक कई असफल प्रयास कर चुके हैं और जीवन को सतत् या दीर्घ बनाने के लिये अभी तक प्रयास कर रहे हैं ।
    अकाल मृत्यु क्यों होती है ?
    • यद्यपि मनुष्य का जीवन सौ वर्ष निर्धारित है तथापि सर्वसाधारण का शतायु होना दुर्लभ है । विरले व्यक्ति ही इस अवस्था तक जीवित रह पाते हैं 100 वर्ष के पूर्व अथवा जरा अवस्था के पूर्व मृत्यु को अकाल मृत्यु माना जाता है ।
    • सप्तर्षि में से एक योगवसिष्ठ के अनुसार-
    मृत्यों न किचिंच्छक्तस्त्वमेको मारयितु बलात् ।
    मारणीयस्य कर्माणि तत्कर्तृणीति नेतरत् ।।
    • अर्थात ‘‘हे मृत्यु ! तू स्वयं अपनी शक्ति से किसी मनुष्य को नही मार सकती, मनुष्य किसी दूसरे कारण से नहीं, अपने ही कर्मो से मारा जाता है ।’’ इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि मनुष्य अपनी मृत्यु को अपने कर्मो से स्वयं बुलाता है । जिन साधनों, जिन कर्मो से मनुष्य शतायु हो सकता है उन कारणों के उल्लंघन करके अपने मृत्यु को आमंत्रित करता है ।
    दीर्घायु होने का क्या उपाय है ?
    • विज्ञान के अनुसार जब तक शरीर में कोशिकाओं का पुनर्निमाण की प्रक्रिया स्वस्थ रूप से होती रहेगी तब तक शरीर स्वस्थ एवं युवावस्था युक्त रहेगा । 
    • कोशिकाओं की पुनर्निमाण की सतत प्रक्रिया से वृद्धावस्था असमय नहीं होगा । सेल के पुनर्निमाण में विटामिन ई, विटामिन सी, और कोलिन ये तीन तत्वों का योगदान होता है । इसकी पूर्ती करके दीर्घायु बना जा सकता है ।
    • व्यवहारिक रूप से यदि देखा जाये तो एक साधन संपन्न धनवान यदि इसकी पूर्ती भी कर ले तो क्या वह शतायु बन जाता है ? उत्तर है नहीं तो शतायु कैसे हुआ जा सकता है ।
    • श्री पी.डी.खंतवाल कहते हैं कि -‘‘श्रमादि से लोगों की शक्ति का उतना ह्रास नहीं होता, जितना आलस्य और शारीरिक सुखासक्ति से होता है ।’’ यह कथन अनुभवगम्य भी है क्योंकि अपने आसपास वृद्धों को देखें जो जीनका जीवन परिश्रम में व्यतित हुआ है वह अरामपरस्त व्यक्तियों से अधिक स्वस्थ हैं । इससे यह प्रमाणित होता है कि दीर्घायु जीवन जीने के लिये परिश्रम आवश्यक है ।
    • देखने-सुनने में आता है कि वास्तविक साधु-संत जिनका जीवन संयमित है, शतायु होते हैं इससे यह अभिप्रमाणित होता है कि शतायु होने के संयमित जीवन जीना चाहिये ।
    धर्मशास्त्र के अनुसार दीर्घायु जीवन-
    • महाभारत के अनुसार- ‘‘आचारश्र्च सतां धर्मः ।’’ अर्थात आचरण ही सज्जनों का धर्म है । यहाँ यह रेखांकित करना आवश्यक है कि धर्म कोई पूजा पद्यति नहीं अपितु आचरण है, किये जाने वाला कर्म है । 
    • ‘धर्मो धारयति अति धर्मः’’ अर्थात जो धारण करने योग्य है वही धर्म है । धारण करने योग्य सत्य, दया साहचर्य जैसे गुण हैं एवं धारण करने का अर्थ इन गुणों को अपने कर्मो में परणित करना है ।
    • महाराज मनु के अनुसार- ‘‘आचाराल्लभते ह्यायुः ।’’ अर्थात आचार से दीर्घ आयु प्राप्त होती है ।
    • आचार्य कौटिल्य के अनुसार- ‘‘मृत्युरपि धर्मष्ठिं रक्षति ।’’ अर्थात मृत्यु भी धर्मपरायण लोगों की रक्षा करती है ।
    • ऋग्वेद के अनुसार- ‘न देवानामतिव्रतं शतात्मा च न जीवति ।’’ अर्थात देवताओं के नियमों को तोड़ कर कोई व्यक्ति शतायु नहीं हो सकता । यहाँ देवताओं के नियम को सृष्टि का, प्रकृति का नियम भी कह सकते हैं । 
    • समान्य बोलचाल में पर्यावरणीय संतुलन का नियम ही देवाताओं का नियम है, यही किये जाना वाला कर्म है जो आचरण बन कर धर्म का रूप धारण कर लेता है । अर्थात प्रकृति के अनुकूल आचार-व्यवहार करके दीर्घायु जीवन प्राप्त किया जा सकता है ।
    जीवन की सार्थकता-
    • एक अंग्रेज विचारक के अनुसार- ‘‘उसी व्यक्ति को पूर्ण रूप से जीवित माना जा सकता है, जो सद्विचार, सद्भावना और सत्कर्म से युक्त हो ।’’
    • चलते फिरते शव का कोई महत्व नहीं होता थोडे़ समय में अधिक कार्य करने वाला मनुष्य अपने जीवनकाल को बढ़ा लेता है । आदि शांकराचार्य, स्वामी विवेकानंद जैसे कई महापुरूष अल्प समय में ही बड़ा कार्य करके कम आयु में शरीर त्यागने के बाद भी अमर हैं ।
    • मनुष्यों की वास्तविक आयु उनके कर्मो से मापी जाती है । धर्म-कर्म करने से मनुष्य की आयु निश्चित रूप से बढ़ती है ।
    ‘‘धर्मो रक्षति रक्षितः’’ यदि धर्म की रक्षा की जाये अर्थात धर्म का पालन किया जाये तो वही धर्म हमारी रक्षा करता है । यही जीवन का गुण रहस्य है । यही दीर्घायु का महामंत्र है ।

    शनिवार, 16 मई 2020

    स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता


    हमारे पौराणिक ग्रन्थों में आत्माभिमान की रक्षा करना प्राणों की रक्षा करने से भी श्रेष्ठ कहा गया है । कई ग्रन्थों में यहाँ तक भी कहाँ गया है कि यदि प्राणोत्सर्ग करने से स्वाभिमान की रक्षा हो सके तो सहजता से प्राणोत्सर्ग कर देना चाहिये । स्वाभिमान के पुष्पित पल्लवित वृक्ष पर ही आत्मनिर्भरता का फल लगता है ।

    आत्मनिर्भर किसे कहते हैं ?

    वह व्यक्ति जो अपने प्रत्येक आवश्यकता के पूर्ति किसी दूसरों पर निर्भर न होकर अपने आप पर निर्भर होता है, उसे ही आत्मनिर्भर कहते हैं । जो व्यक्ति अपने हर छोटे-बड़े काम स्वयं करने का प्रयास करते हों, यदि किसी दूसरों की सहायता लेने की आवश्यकता पड़े भी तो उसे वह अर्थ अथवा श्रम विनिमय से ही लेता है । कभी भी किसी से मुफ्त में लेने का प्रयास नहीं करते । न ही अपने धन बल, बाहु बल से दूसरों का शोषण करता है ।
    आत्मनिर्भर होने का यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता वह किसी दूसरे का सहयोग ही न ले । सहयोग ले किन्तु स्वयं भी सहयोग करे । परस्पर सहयोग करने से स्वाभीमान पर चोट नहीं पहुँचेगा और कार्य भी आसानी से हो जायेगा । आत्मनिर्भर व्यक्ति कभी स्वार्थी, स्वकेन्द्रित नहीं हो सकता ।

    आत्मनिर्भरता का महत्व-

    स्वाभिमान व्यक्ति का वह नैतिक गुण है जो उसे नैसर्गिक रूप से स्वालंबी बनाता है, आत्मनिर्भर बनाता है । आत्मनिर्भर व्यक्ति ही सफल होकर उसी प्रकार प्रदीप्मान होता है जैसे करोड़ो तारों के मध्य चन्द्रमा शोभायमान होता है ।
    महाकवि भीमराव के अनुसार-‘लघयन खलु तेजसा जगन्न महा निच्छती भूतिमन्यतः’’ अर्थात अपने तेज और प्रताप से दुनिया को अपने नीचे रखने वाले लोग कभी भी दूसरों का सहारा नहीं लेते अपितु स्वयं के बल पर सब कुछ प्राप्त करते हैं ।
    प्रसिद्ध निबंधकार बालकृष्ण भट्ट आत्मनिर्भरता के संदर्भ में लिखते हैं-‘‘अपने भरोसे का बल है ये जहाँ होंगे जल में तुंबी के समान सबके ऊपर रहेंगे ।’’ अर्थात आत्माभिमानी स्वालंबी संसार में उसी प्रकार ऊपर होते हैं जैसे तुंबी जल में तैरता हुआ ऊपर होता है ।

    आत्मनिर्भर बने कैसें?

    आत्मनिर्भर बनने के लिये व्यक्ति को सबसे पहले शारीरिक एवं मानसिक रूप से सक्षम होना चाहिये । उसे अपने शारीरिक शक्ति एवं मानसिक शक्ति पर स्वयं विश्वास होना चाहिये । यहाँ शारीरिक सक्षमता का अर्थ सबसे बलिष्ठ हो ऐसा नहीं है अपितु अपने कार्य को करने के लिये अपने शरीर को अनुकूल बनाना मात्र है । उसी प्रकार मानसिक सक्षमता अर्थ भी अपने कार्य करने के लिय अपना बौद्धिक विकास करना है ।
    आत्मनिर्भरता व्यक्ति का आंतरिक गुण है, जिसे अभ्यास द्वारा निखारा जा सकता है । छोटी-छोटी बातों पर दूसरों का सहयोग लेने की लालसा छोड़कर स्वयं उसे करने का अभ्यास करना चाहिये ।
    अपने जीवकोपार्जन करने के लिये दूसरों की दया, भीख पर निर्भर न होकर परिश्रमी होना चाहिये । अपने परिश्रम के बल पर अपने अनुकूल कार्य करना चाहिये ।
    कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता हर काम का अपना एक अलग महत्व होता है । जिस काम को हम कर सकते हैं उस काम से अर्थोपार्जन के सारे प्रयास करना चाहिये ।

    आत्मनिर्भरता के पथ के बाधक-

    बाल्यकाल में बच्चों पर माता-पिता का आवश्यकता से अधिक दुलार हर बात पर बच्चों का माता-पिता पर निर्भर होना उसे आत्मनिर्भर होने से रोकता है ।
    आत्मनिर्भर बनने में एक बाधा हमारी शिक्षा का चयन भी है । हमे ऐसे शिक्षा का चयन करना चाहिये जिससे हमारे अंदर कोई न कोई स्कील उत्पन्न हो जिस स्कील की सहायता से हम आर्थोपार्जन कर आत्मनिर्भर हो सकें ।
    अपने आप को श्रेष्ठ मानकर बलपूर्वक या दुराग्रह पूर्वक दूसरों से अपना काम कराने की प्रवृत्ति आत्मनिर्भर होने से रोकता है ।
    वी.वी.आई.पी कल्चर के फेर में दूसरों को अपने अधीन समझने की मनोवृत्ति आत्मनिर्भर होने से उस व्यक्ति को रोकता है ।
    स्वाभीमान ही जीवन है । आत्मनिर्भरता ही सच्ची स्वतंत्रता है । यदि आप स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं तो स्वाभीमानी एवं स्वालंबी आत्मनिर्भर बनें ।

    सोमवार, 20 अप्रैल 2020

    गैस्ट्रिक का घरेलू उपचार

    गैस्ट्रिक का घरेलू उपचार



    आज के व्यवस्तम काम-काजी परिवेश में लोगों को कई छोटे-बड़े रोग हो रहे है । अब कुछ रोगों का होना जैसे सामान्य बात हो गई है । डाइबिटिज, ब्लड़ प्रेसर जैसे प्रचलित रोगों सा एक रोग गैस्ट्रिक भी है इस रोग में वायु आवश्यकता से अधिक बनता है । यह अनियमित खान-पान के कारण अपच की स्थिति बनने के कारण उत्पन्न होता है ।  कई लोग ऐसे अनुभव करते हैं कि काफी करकेे उपचार कराने पर भी गैस्ट्रिक से छूटकारा नहीं मिल रहा है ।
    यह अनुभव किया गया है कि घर में रात-दिन उपयोग में आनेवाली वस्तुओं से कुछ रोगों में निश्चित रूप से उपयोगी है ।
    गैस्ट्रिक के निदान के लिये आज आयुर्वेद अनुशंसित एक घरेलू उपचार पर चर्चा करेंगे । यह एक अनुभत प्रयोग है । इसे घर में प्रयुक्त अजवाइन और काले नमक से बनाया जा सकता है । इसे बनाने के लिये आवश्यक सामाग्री और बनाने की विधि निम्नानुसार है -

    औषधी निर्माण के लिये आवश्यक सामाग्री-

    1. 250 ग्राम अंजवाइन
    2. 50 ग्राम काला नमक

    औषधी बनाने की विधि-

    1. 250 ग्राम अंजवाइन लेकर इसे साफ कर ले ।
    2. इस अंजवाइन को दो बराबर भागों में बांट दें ।
    3. एक भाग को तेज धूप में अच्छे से सूखा दें ।
    4. इस सूखे हुये अंजवाइन को पीस कर चूर्ण बना लें ।
    5. शेष दूसरे भाग को मध्यम आंच पर तवे में भुन ले ।
    6. इस भुने हुये अंजवाइन को पीस कर चूर्ण बना लें ।
    7. काले नमक को साफ कर पीस कर चूर्ण बना लें ।
    8. आपके पास तीन प्रकार के चूर्ण हो गये हैं-धूप में सूखा अंजवाइन का चूर्ण, भुने हुये अंजवाइन का चूर्ण एवं काले नमक का चूर्ण ।
    9. इन तीनों चूर्णो को आपस में अच्छे से मिला दें ।
    10. इस मिश्रण को एक साफ एवं नमी रहित ढक्कन युक्त कांच के बोतल में रख लें । यह उपयोग हेतु औषधी तैयार हो गया ।

    सेवन विधी- 

    प्रतिदिन दोनों समय भोजन करने के पूर्व एक चाय चम्मच चूर्ण शुद्ध ताजे जल के साथ सेवन करें । भोजन कर लेने के तुरंत पश्चात फिर एक चम्मच इस चूर्ण का सेवन जल से ही करें ।
    इस प्रकार नियमित एक सप्ताह तक सेवन करने से आपको यथोचित लाभ दिखने लगे गा ।

    पथ्य-अपथ्य-

    कोई भी औषधी तभी कारगर होता है जब उसका नियम पूर्वक सेवन किया जाये । औषधि सेवन के दौरान क्या खाना चाहिये और क्या नही खाना चाहिये इसका ध्यान रखा जाये ।

    औषधी सेवन काल में गरिष्ठ भोजन जैसे अधिक तेल, मिर्च-मसाले वाले भोजन न करें साथ ही उड़द की दाल, केला, बैंगन, भैंस का दुगध उत्पाद का सेवन न करें ।  इस अवधी में चावल न लें अथवा कम लें चावल के स्थान पर रोटी का सेवन अधिक लाभकारी होगा ।

    घरेलू उपचार प्राथमिक उपचार के रूप में सुझाया गया है । इसका सेवन करना या न करना आपके विवेक  पर निर्भर करता है । हाँ, यह अवश्य है इस औषधी से निश्चित रूप लाभ होगा । इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं है । फिर भी आपके रोग की जानकारी आपको एवं आपके डाक्टर को ही अच्छे से है इसलिये अपने डाक्टर का सलाह अवश्य लें ।

    शनिवार, 18 अप्रैल 2020

    तुलसी के स्वास्थ्यवर्धक गुण


    तुलसी के स्वास्थ्यवर्धक गुण


    तुलसी एक उपयोगी वनस्पति है । भारत सहित विश्व के कई  देशों में तुलसी को पूजनीय तथा शुभ माना जाता है ।  यदि तुलसी के साथ प्राकृतिक चिकित्सा की कुछ पद्यतियां जोड़ दी जायें तो प्राण घातक और असाध्य रोगों  को भी नियंत्रित किया जा सकता है । तुलसी शारीरिक व्याधियों को दूर करने के साथ-साथ मनुष्यों के आंतरिक शोधन में भी उपयोगी है । प्रदूषित वायु के शुद्धिकरण में तुलसी का विलक्षण योगदान है । तुलसी की पत्ती, फूल, फल , तना, जड़ आदि सभी भाग उपयोगी होते हैं ।

    तुलसी पौधे का परिचय-

    तुलसी का वनस्पतिक नाम ऑसीमम सैक्टम है । यह एक द्विबीजपत्री तथा शाकीय, औषधीय झाड़ी है। इसकी ऊँचाई 1 से 3 फिट तक होती है। इसकी पत्तियाँ बैंगनी रंग की होती जो हल्के रोएं से ढकी रहती है । पुष्प कोमल और बहुरंगी छटाओं वाली होती है, जिस पर बैंगनी और गुलाबी आभा वाले बहुत छोटे हृदयाकार पुष्प चक्रों में लगते हैं। बीज चपटे पीतवर्ण के छोटे काले चिह्नों से युक्त अंडाकार होते हैं। नए पौधे मुख्य रूप से वर्षा ऋतु में उगते है और शीतकाल में फूलते हैं। पौधा सामान्य रूप से दो-तीन वर्षों तक हरा बना रहता है।

    तुलसी की प्रजातियां-

    ऐसे तो तुलसी की कई प्रजातियां हैं किन्तु मुख्य रूप से 4 प्रजातियां पाई जाती है-

    1. रामा तुलसी (OCIMUM SANCTUM)

    -रामा तुलसी भारत के लगभग हर घर में पूजी जाने वाली  एक पवित्र पौधा है । इस पौधे के पत्तियां हरी होती हैं । इसे प्रतिदिन पानी की आवश्यकता होती है ।

    2. श्यामा तुलसी (OCIMUM TENUIFLORUM)--

    इस पौधे की पत्तियां बैंगनी रंग की होती है ।  जिसमें छोटे-छोटे रोएं पाये जाते हैं । अन्य प्रजातियों की तुलना में इसमें औषधीय गुण अधिक होते हैं ।

    3- अमुता तुलसी (OCIMUM TENUIFLORUM)-

    यह आम तौर पर कम उगने वाली, सुगंधित और पवित्र प्रजाति का पौधा है ।

    4. वन तुलसी (OCIMUM GRATISSUM)-

    यह भारत में पाये जाने वाली सुगंधित और पवित्र प्रजाति है । अपेक्षाकुत इनकी ऊँचाई अधिक होती है । तना भाग अधिक होता है, इसलिये इसे वन तुलसी कहते हैं 


    धार्मिक महत्व-

    1. भगवान विष्णु की पूजा  तुलसी के बिना पूर्ण नहीं होता ।  भगवान को नैवैद्य समर्पित करते समय तुलसी भेट किया जाता है ।
    2. तुलसी के तनों को दानों के रूप में गूँथ कर माला बनाया जाता है, इस माले का उपयोग मंत्र  जाप में करते हैं ।
    3. मरणासन्न व्यक्ति को तुलसी पत्ती जल में मिला कर पिलाया जाता है ।
    4. दाह संस्कार में तुलसी के तनों का प्रयोग किया जाता है ।
    5. भारतीय संस्कृति में तुलसी विहन घर को पवित्र नहीं माना जाता ।

     रासायनिक संगठन-

    तुलसी में अनेक जैव सक्रिय रसायन पाए गए हैं, जिनमें ट्रैनिन, सैवोनिन, ग्लाइकोसाइड और एल्केलाइड्स प्रमुख हैं। तुलसी में उड़नशिल तेल पाया जाता है । जिसका औषधिय उपयोग होता है ।  कुछ समय रखे रहने पर यह स्फिटिक की तरह जम जाता है । इसे तुलसी कपूर भी कहते हैं ।  इसमें कीनोल तथा एल्केलाइड भी पाये जाते हैं ।  एस्कार्बिक एसिड़ और केरोटिन भी पाया जाता है ।


    व्यवसायिक खेती-

    तुलसी अत्यधिक औषधीय उपयोग का पौधा है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसका उपयोग तो होता ही रहा है वर्तमान में इससे अनेकों खाँसी की दवाएँ साबुन, हेयर शैम्पू आदि बनाए जाने लगे हैं। जिससे तुलसी के उत्पाद की मांग काफी बढ़ गई है। अतः मांग की पूर्ति बिना खेती के संभव नहीं हैं।
    इसकी खेती, कम उपजाऊ जमीन में भी की जा सकती है । इसके लिये बलूई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती हैं। इसके लिए उष्ण कटिबंध एवं कटिबंधीय दोनों तरह जलवायु उपयुक्त होती है।
    इसकी खेती रोपाई विधि से करना चाहिये । बादल या हल्की वर्षा वाले दिन इसकी रोपाई के लिए बहुत उपयुक्त होते हैं। रोपाई के बाद खेत को सिंचाई तुरंत कर देनी चाहिए।
    रोपाई के 10-12 सप्ताह के बाद यह कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके फसल की औसत पैदावार 20 - 25 टन प्रति हेक्टेयर तथा तेल का पैदावार 80-100 किग्रा. हेक्टेयर तक होता है।

    तुलसी के महत्वपूर्ण औषधीय उपयोग-

    1. वजन कम करने में- तुलसी की पत्तियों को दही या छाछ के साथ सेवन करने से वजन कम होता होता है ।  शरीर की चर्बी कम होती है । शरीर सुड़ौल बनता है ।

    2. रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में - प्रतिदिन तुलसी के 4-5 ताजे पत्ते के सेवन से रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होता है ।

    3. तनाव दूर करने में -तुलसी के नियमित उपयोग से इसमें एंटीआक्तिडेंट गुण पाये जाने के कारण यह कार्टिसोल हार्मोन को संतुलित करती है, जिससे तनाव दूर होता है ।

    4. ज्वर में- तुलसी की पत्ती और काली मिर्च का काढ़ा पीने से ज्वर का शमन होता है ।

    5. मुँहासे में- तुलसी एवं नीबू के रस बराबर मात्रा में लेकर मुँहासे में लगाने पर लाभ होता है ।

    6. खाज-खुजली में- तुलसी की पत्ति एवं नीम की पत्ति बराबर मात्रा में लेप बनाकर लगाने पर लाभ होता है ।  साथ ही बराबर मात्रा में तुलसी पत्ति एवं नीम पत्ति चबाने पर षीघ्रता से लाभ होता है ।

    7. पौरूष शक्ति बढ़ाने में- तुलसी के बीज अथवा जड़ के 3 मि.ग्रा. चूर्ण को पुराने गुड़ के साथ प्रतिदिन गाय के दूध के साथ लेने पर पौरूष शक्ति में वृद्धि होता है ।

    8. स्वप्न दोष में-तुलसी बीज का चूर्ण पानी के साथ खाने पर स्वप्न दोष ठीक होता है ।

    9. मूत्र रोग में- 250 मिली पानी, 250 मिली दूध में 20 मिली तुलसी पत्ति का रस मिलाकर पीने से मूत्र दाह में लाभ होता है ।

    10. अनियमित पीरियड्स की समस्या में-तुलसी के बीज अथवा पत्ति के नियमित सेवन से महिलाओं को पीरियड्स में अनियमितता से छूटकारा मिलता है ।

    11. रक्त प्रदर में-तुलसी बीज के चूर्ण को अषोक पत्ति के रस के साथ सेवन करने से रक्त प्रदर में लाभ होता है ।

    12. अपच में- तुलसी मंजरी और काला नमक मिलाकर खाने पर अजीर्ण रोग में लाभ होता है ।

    13. केश रोग में-तुलसी पत्ति, भृंगराज पत्र एवं आवला को समान रूप  में लेकर लेपबना कर बालों में लगाने पर बालों का झड़ना बंद हो जाता है । बाल काले हो जाते हैं ।

    14. दस्त होने पर- तुलसी के पत्तों को जीरे के साथ मिलाकर पीस कर दिन में 3-4 बार सेवन करने दस्त में लाभ होता है ।

    15. चोट लग जाने पर- तुलसी के पत्ते को फिटकरी के साथ मिलाकर लगाने से घाव जल्दी ठीक हो जाता है ।

    16. शुगर नियंत्रण में- तुलसी पत्ती के नियमित सेवन से शुगर नियंत्रित होता है । तुलसी में फ्लेवोनोइड्स, ट्राइटरपेन व सैपोनिन जैसे कई फाइटोकेमिकल्स होते हैं, जो हाइपोग्लाइसेमिक के तौर पर काम करते हैं। इससे शुगर को नियंत्रित करने में मदद मिलती है ।

    17. हृदय रोग में- तुलसी की पत्तियां खराब कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करके अच्छे कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाती हैं इसमें विटामिन-सी व एंटीऑक्सीडेंट गुण होते हैं, जो ह्रदय को फ्री रेडिकल्स से बचाकर रखते हैं।

    18. किडनी रोग में- तुलसी यूरिक एसिड को कम करती है, और इसमें मूत्रवर्धक गुण पाये जातें हैं जिससे किडनी की कार्यक्षमता में भी वृद्धि होती है ।

    19. सिर दर्द में- सिर दर्द होने पर तुलसी पत्ति के चाय पीने से लाभ होता है ।

    20. डैंड्रफ में- तुलसी तेल की कुछ बूँदे अपने हेयर आयल मिला कर लगाने से डैंड्रफ से मुक्ति मिलती है ।


    तुलसी प्रयोग की सीमाएं-

    आयुर्वेद कहता है कि हर चीज का सेवन सेहत व परिस्थितियों के अनुसार और सीमित मात्रा में ही करना चाहिए, तभी उसका फायदा होता है। इस लिहाज से तुलसी की भी कुछ सीमाएं हैं । गर्भवती महिला, स्तनपान कराने वाली महिला, निम्न रक्तचाप वाले व्यक्तियों को तुलसी के सेवन से परहेज करना चाहिये ।

    इसप्रकार तुलसी का महत्व स्पष्ट हो जाता है । इसकी महत्ता न सिर्फ धार्मिक आधार पर है, बल्कि वैज्ञानिक मापदंडों पर भी इसके चिकित्सीय लाभों को प्रमाणित किया जा रहा है। इसलिये अपने घर-आँगन में में कम से कम एक तुलसी का पौधा जरूर लगा कर रखें और उसका नियमित सेवन करें ।

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    मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

    भोजन विज्ञान

    आरोग्य और आहार विज्ञान


    नीरोग उन्हीं मनुष्यों को कहा जा सकता जिनके शुद्ध शरीर में शुद्ध मन का वास होता है । मनुष्य केवल शरीर ही तो नहीं है ।  शरीर तो उसके रहने की जगह है । शरीर, मन और इंद्रियों का ऐसा घना संबंध है कि इनमें किसी एक के बिगड़ने पर बाकी के बिगड़ने  में जरा भी देर नहीं लगती ।

    जीव मात्र देहधारी है और सबके शरीर की आकृति प्रकृति लगभग एक सी होती है । सुनने, देखने, सूँघने और भोग भोगने के लिये सभी साधन संपन्न है ।  अंतर है तो केवल मन का मनुष्य ही एक मात्रा ऐसा प्राणी है जिसमें चिंतन होता है । इसलिये आरोग्यता का संबंध तन एवं मन दोनों से है ।

    रोगों की उपचार की अपेक्षा रोगों से बचना अधिक श्रेयस्कर है । आयुर्वेदीय साहित्य में शरीर एवं व्याधि दोनों को आहारसम्भव माना गया है-‘‘अहारसम्भवं वस्तु रोगाश्चाहारसम्भवः’’ अर्थात शरीर के उचित पोषण एवं रोगानिवारणार्थ सम्यक आहार-विहार (डाइट प्लान) का होना आवश्यक है ।  भोजन निवारणात्मक और उपचारात्मक स्वास्थ्य देखरेख प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण और अविभाज्य भाग है। यदि हम प्रयत्न करें और स्वास्थ्य संबंधी आहार विज्ञान की अवधारणा को समझे ंतो अनेक रोगों से बचकर प्रायः जीवनपर्यन्त स्वस्थ रह सकते हैं । 

    आहार विज्ञान क्या है ?

    आहार विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत भोजन मानव स्वास्थय को कैसे प्रभावित किया जाता है, का अध्ययन किया जाता है । आहार विज्ञान के अंतर्गत सार्वजनिक स्वास्थ्य और  उचित आहार के साथ-साथ पथ्य-अपथ्य पर भी ध्यान दिया जाता है ।

    आहार विज्ञान में मात्र आहार के भौतिक घटकों का ही महत्व नहीं अपितु आहार की संयोजना, विविध प्रकार के आहार-द्रव्यों का सम्मिलिन, आहारपाक या संस्कार, आहार की मात्रा एवं आहार ग्रहण विधि तथा मानसिकता सभी का महत्व होता है ।


    उचित आहार -

    अच्छे स्वास्थ्य के लिए  वैज्ञानिक रूप से सोच-विचार करके आहार करना अतिआवश्यक है । शरीर को उम्र, लिंग, वजन एवं शारीरिक कार्यक्षमता के अनुसार सभी पौष्टिक तत्वों की जरूरत होती है।

    संतुलित आहार वह होता है, जिसमें प्रचुर और उचित मात्रा में विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ शामिल होते है, जिससे संपूर्ण स्वास्थ्य, जीवन शक्ति और तंदुरूस्ती  बनाए रखने के लिए सभी आवश्यक पोषक तत्व पर्याप्त रूप से मिलते हैं तथा संपूरक पोषक तत्व कम अवधि की कमजोरी दूर करने की एक न्यून व्यवस्था है। आहार के भौतिक घटकों के साथ-साथ उसकी शुद्धता भी संतुलित आहार का आवष्यक गुणधर्म होना चाहिये जो दे हके साथ-साथ मन को भी स्वस्थ रख सके ।
    श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं कि-


    अहं वैश्वनरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम ।।


    इसका अर्थ यह है कि भगवान कृष्ण कहते हैं कि मैं स्वयं जठराग्नि रूप  में प्रत्येक जीव में बैठकर प्राण और अपान वायु की सहकारिता से चव्र्य, चोश्य लेह्य तथा पेय इन चार प्रकार के भोज्य अन्नों का भक्षण करता हूँ । इस आधार पर भोजन चार प्रकार के होते हैं । पहला चव्र्य ऐसा भोज्य पदार्थ जिसे चबा कर खाया जाता है । जैसे रोटी चावल आदि । दूसरा चोश्य- वह भोज्य पदार्थ जिसे चूशा जाता है जैसे आम, गन्ना आदि । तीसरा लेह्य - वह पदार्थ जिसे जीभ से चाटा जाता है, जैसे चटनी, षहद आदि । पेय-वह पदार्थ जिसे निगला जाता है जैसे रस, खिचड़ी आदि ।
    इसका अभिप्राय यह हुआ कि भोजन केवल उदरपूर्ति का साधन नहीं अपितु ईश्वर की पूजा भी है । पूजा को पवित्र होना चाहिये । इसलिये भोजन को भी पवित्र होना चाहिये । भोजन की पवित्रता के लिये निम्न चार बातों का ध्यान रखना चाहिये-
    1. स्थान की शुद्धता- जिस स्थान पर भोजन किया जाना है वह स्थान स्वच्छ हो ।
    2. भोजन करने वाले की शुद्धता-जो व्यक्ति भोजन करने वाला है वह तन एवं मन से स्वच्छ हो ।
    3. भोज्य पदार्थ की शुद्धता- जिस भोजन को ग्रहण किया जाना है वह भोजन षुद्ध एवं स्वच्छ हो ।
    4. पात्र की शुद्धता- जिस पात्र पर भोजन किया जाना है, वह पात्र स्वच्छ हो ।

    यह  शुद्धता डाक्टरी विज्ञान सम्मत भी है । इस संबंध में मिस हेलन ने यंत्र के द्वारा स्पष्ट प्रमाणित कर दिखाया है कि हाथ के साथ हाथ का स्पर्श होने पर भी रोग का बीज एक दूसरे में चले जाते हैं । केवल रोग ही नहीं स्पर्ष से शारीरिक और मानसिक वृत्तियों में भी हेर-फेर हो जाता है । 
    प्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्लामेरियन कहते हैं-‘वह कौन शक्ति है जो हाथों की नसों के द्वारा अँगुलियों के अन्त तक चली जाती है ? इसी को वैज्ञानिकगण ‘आकाशी शक्ति’ कहते हैं । वह मस्तिष्क से प्रारंभ होती है, मनोवृत्तियों के साथ जा मिलती है और स्नायुपथ से प्रवाहित होकर हाथ, आँख और पाँव की एड़ीतक पहुँचती है ।  इन तीनों के ही द्वारा दूसरों पर यह अपना प्रभाव दिखाती है, किन्तु इसका सबसे अधिक प्रभाव हाथ की अँगुलियों द्वारा ही प्रकट होता है ।

    पथ्य एवं अपथ्य-

    किसी प्रकार का आहर ग्रहण करना चाहिये और किस प्रकार का आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये इसका निर्धारण ही पथ्य-अपथ्य कहलाता है । आचार्य चरक के अनुसार-


    ‘पथ्यं पथोऽनपेतं यद्यच्चोक्तं मनसः प्रियम ।यच्चाप्रियमपथ्यं च नियतं तन्न लक्षयेत् ।।



    अर्थात ‘पथ के लिये जो अनपेत हो वही पथ्य है । इसके अतिरिक्त जो मन को प्रिय लगे वह पथ्य है और इसके विपरित को अपथ्य कहते हैं ।’ अनपेत का अर्थ उपकार करने वाला होता है इसलिये इसका अभिप्राय यह हुआ को जो स्वास्थ्य के लिये उपकारी हो पथ्य है एवं जो स्वास्थ्य के हानिकारक हो वह अपथ्य है ।

    आहार के संदर्भ में यह विशेष विचारणीय तथ्य है कि सर्वविधसम्पन्न आहार का पूर्ण लाभ तबतक नहीं लिया जा सकता, जबतक मानस क्रिया का उचित व्यवहार न हो, क्योंकि कुछ ऐसे मानसिक भाव यथा दुख, भय, क्रोध, चिन्ता आदि हैं जिनका आहार पर प्रभाव पड़ता है ।


    पथ्य या अपथ्य का नियमन करने वाले घटक -

    किसी भी वस्तु को हम निश्चित रूप से पथ्य अथवा अपथ्य नहीं कह सकते । मात्रा एवं समय के अनुसार कुछ पथ्य अपथ्य हो सकते हैं तो कुछ अपथ्य पथ्य हो सकते हैं । पथ्य एवं अपथ्य को निर्धारित करने वाले प्रमुख घटक इस प्रकार हैं-


    1. मात्रा- 

    भोजन न तो अधिक मात्रा में होना चाहिये न ही कम मात्रा में । पहले खाया हुआ पहले पच जाये तभी दुबारा भोजन करना चाहिये । भोजन की मात्रा अल्प अथवा अधिक होने पर वह अपथ्य है। केवल संतुलित मात्रा में भोजन ग्रहण करना ही पथ्य है ।

    2. काल- 

    भोजन में समय का बहुत अधिक महत्व होता है । सुबह, दोपहर एवं रात्रि में भोजन की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है । सुबह और रात्रि को दोपहर की तुलना में कम भोजन करना चाहिये । इसीप्रकार भोजन का संबंध ऋतुओं से भी होता है । ग्रीष्म ऋतु अथवा वर्षा ऋतु में हल्का भोजन और शीतऋतु में गरिष्ठ भोजन श्रेयस्कर होता है । समय एवं ऋतु के अनुरूप भोजन ही पथ्य है ।

    3. क्रिया-

    भोजन सुपाच्य हो इसके भोजन ग्रहण करने की विधि पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है । भोजन अच्छे से चबा-चबा कर करना, भोजन करते समय पानी न पीना, खड़े-खड़े भोजन ग्रहण करने के बजाय बैठकर भोजन करना श्रेयस्कर माना जाता है । उचित क्रिया से जो भोजन न किया जाये वह अपथ्य है ।

    4. भूमि या स्थान-

    देश के अनुसार ठंड़े या गर्म देशों में भोजन में परिवर्तन होना स्वभाविक है । इसलिये भोजन को प्रदेश के मौसम के अनुकूल होना चाहिये । भूमि अथवा प्रदेश के अनुरूप भोजन करना पथ्य है ।

    5. देह-

    प्रत्येक शरीर की पाचन शक्ति भिन्न-भिन्न होती है । अवस्था के अनुसार भोजन की आवश्यकता भी भिन्न-भिन्न होती है ।  इसी प्रकार महिलाओं एवं पुरूषों के लिये भी भिन्न-भिन्न भोजन की आवश्यकता होती है । अपने शरीर के अनुरूप ही भोजन करना ही पथ्य है ।

    6. दोष-

    भोजन ग्रहण करते समय की मनोदशा भी यह निर्धारित करता है की  ग्रहण किये जाने वाला भोजन पथ्य है अथवा नहीं । जब अच्छा महसूस नहीं हो रहा होता तो भोजन अरूचिकर लगने लगता है । बीमार होने की स्थिति में पथ्य की परिभाषा परिवर्तित हो जाती है । इस स्थिति में वही भोजन पथ्य है जो उस बीमारी को ठीक करने में उपयोगी हो ।

    प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं निर्धारित करना चाहिये कि उसके लिये उपयुक्त आहार क्या है, क्योंकि आहार का पथ्य अथवा अपथ्य होना एक तो व्यक्ति की प्रकृति पर निर्भर होता है दूसरा देश, काल, मात्रा आदि पर निर्भर करता है ।  आहार यदि जीवनीय तत्वों से भरपूर तथा उचित मात्रा में किया जाये तो शरीर में व्याधिक्षमत्व बढ़ता है ।  आचार्य चरक ने आहार ग्रहण करने के दस नियमों का नियमन किया है-
    1. ताजा भोजन ग्रहण करना चाहिये ।
    2. स्निग्ध आहार ग्रहण करना चाहिये ।
    3. नियत मात्रा में आहार लेना चाहिये ।
    4. भोजन के पूर्ण रूप से पच जाने के पश्चात ही भोजन करना चाहिये ।
    5. शक्तिवर्धक आहार लेना चाहिये ।
    6. स्थान विशेष के अनुरूप आहार लेना चाहिये ।
    7. द्रुतगति से भोजन नहीं करना चाहिये ।
    8. अधिक विलम्ब तक भोजन नहीं करना चाहिये ।
    9. शान्तिपूर्वक शांत चित्त से भोजन करना चाहिये ।

    10. अपने आत्मा का सम्यक विचार कर तथा आहार द्रव्य में मन लगाकर और स्वयं की समीक्षा करते हुये भोजन करना चाहिये ।

    इस प्रकार कह सकते हैं कि- विवेकपूर्ण-आहार से ही शांत, सुखी, स्वस्थ तथा आध्यात्मिक जीवन पूर्णरूप से व्यतित किया जा सकता है ।




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